Monday, December 13, 2010

समंदर के किनारे


समंदर के किनारे
एक आदमी को
चलते हुए रेत पर
मिल गयी एक सीपी
उठाया उसे
सहलाया उसे
अपने पास रखने को
साफ करने रेत कण
लहरों में डुबाया उसे
थाम न सका
लहरों के वेग में
छूट गयी हाथ से
गुम हो गयी
विस्तार में
अचकचा कर
देखा अपनी
खाली हथेलियों को
कुछ दूसरी सीपियाँ
उठाते हुए
अपनी को
पहचानने की कोशिश
न पा सका
और चल दिया
अपनी राह
छोड़ कर उसे वही

समंदर के किनारे
एक लड़की,
रेट पर पड़ा एक शंख
आकर्षित हो उस और
देखा संकोच से चहु और
हौले से उठाया उसे,
कानों से लगा
सुनी उसकी आवाज़
जो उतर गयी दिल तक
तभी एक लहर ने
खींच ली रेत
पैरों के नीचे से
छूट गया शंख
हाथ से
विलीन हो गया
अथाह समुन्द्र में
वह लड़की
अपनी खाली हथेलियाँ
देखती रही
मसलती रही
पर लहरों के बीच से
न उठा सकी
कोई और शंख

बरसों बाद
वह आदमी
चला जा रहा है
समुंदर की लहरों
और रेत को
रौंदता
बिना परवाह किये
इस बात की
कितनी ही सीपियों
पर छोड़ चूका है
वह अपने
क़दमों के निशान

बरसों बाद
वह लड़की
जो बन गयी है
औरत
समंदर के किनारे
लहरों के बीच
रेत पर
ढूंढ रही है
उसकी आँखे
वही शंख
और
मसलती जा रही है
अपनी खाली हथेलियाँ
आज भी।

Saturday, December 11, 2010

उसके जाने के बाद.....

सूरज की चमक हो गयी फीकी,
पंछियों ने चहकना छोड़ दिया,
अधखुली अँखियाँ जो देखती थी
हथेलियों पर उसका नाम,
सिर्फ लकीरें नज़र आती है अब
उसके जाने के बाद...

दिन भर की गहमागहमी में ,
हसरत थी एक आहट की,
एक सन्देश जो लाता था ,
उमंगें ,गुनगुनी सी शरारतें,मुस्कुराहटें,
अब मोबाइल ने चुप्पी साध ली ,
उसके जाने के बाद.....

शाम होते ही वो मिलने की ललक
सुबह से होने लगे इंतजार शाम का
कब शाम गहराकर हो गयी रात
और भीगता रहा तकिया,
अगली स्याह सुबह तक,
उसके जाने के बाद.....


उसने कहा खुश रहो,
मैंने माना उसका हर कहा,
मुस्कुराह्ते बदल गयीं है खिलखिलाहटों में
कुछ गम सिर्फ मुस्कुराने से नहीं छुपते

प्रतिध्वनि

पहाड़ों से टकराकर
हर आवाज़ लौट
आती है ,
कितनी ही आवाजें
हो गयी है
गुम ,
मेरी आवाज़ ही
पहुंची नहीं
पहाड़ों तक ,

या पहाड़ ही
अब पत्थर
हो गए है?

Tuesday, December 7, 2010

ये सन्निकटता बनी रहे.....

आज जो अनोखी घटना हुई मेरे साथ उसने न सिर्फ मन को हिला दिया लेकिन एक अनूठी संतुष्टि का भाव भी दे गया...
स्कूल से आ कर अखबार पढ़ रही थी की एक खबर पर नज़र पड़ी पाकिस्तान में आत्मघाती बम विस्फोट से ५० लोगो की जाने गयी...
ऊंह वहां तो ये होता ही रहता है,मन में उठे ये भाव हतप्रभ करने वाले थे एक क्षण को ठिठकी,ये क्या सोचा ?क्यों सोचा?मरने वाले किसी के भाई बंद थे ,पर न जाने किस रो में पन्ना पलट दिया।
थोड़ी ही देर बाद किचन में काम करते हुए वहां कोने में रखी एक बंद पड़ी ट्यूब लाइट ,अचानक फिसल कर गिर पड़ी और धमाके की आवाज़ के साथ फूटे कांच की किरचे चेहरे को छूते हुए पूरे किचन में फ़ैल गयी । चेहरे पर लगी किरचे .......हाथ चेहरे पर जाते हुए अनायास ही मन कुछ मिनिटों पहले की अपनी सोच तक पहुँच गया ... वहां के लोग भी किसी के भाई बंद होते है ,किसी का परिवार,मरने का दर्द सबका एक सा होता है........
उस एक क्षण ने सारे एहसास एक साथ करा दिए....
बम धमाके में मरने वालों का दुःख,उनके परिवार के लिए संवेदना ,और इस सबसे बड़ा एक अलौकिक एहसास की ईश्वर मेरे बहुत करीब है.....मेरे मन के हर विचारों को पढ़ते हुए,गलत सोच के लिए तुरंत अपने तरीके से आगाह करते हुए....
बस ये सन्निकटता बनी रहे ........

Monday, November 15, 2010

सिद्धार्थ से बुद्ध बनने की ओर....


मम्मी ,बाल दिवस पर हमें सेवाधाम आश्रम जाना है ,बेटी ने जब आ कर कहा तो मन में एक ख्याल आया,ये स्कूल वाले न पता नहीं क्या क्या फितूर करते रहते है। अब रविवार को सुबह जल्दी उठो टिफिन बनाओ।
जाना जरूरी है क्या?? अपनी सुहानी सुबह को बचाने की एक अंतिम कोशिश करते हुए मैंने पूछा?

हाँ ,हमारा एक टेस्ट इसी पर आधारित होगा,इसलिए जाना जरूरी है।

ठीक है और कोई चारा भी न था,अब तो मार्क्स का सवाल था।

मम्मी ,पता है लोगो के साथ कैसे कैसे होता है। वहा हमें एक १०५ साल की एक बुजुर्ग महिला मिली,जब वो वहा ई थी तब ऐसा लग रहा था की अब बचेगी नहीं,और एक एक औरत और उसका बच्चा तो सूअरों के बीच मिला था।
बेटी ने अपनी यात्रा वृतांत सुनते हुए कहा। वो हतप्रभ थी ,ये जान कर की लोगो के साथ क्या क्या होता है।

और में सोच रही थी अच्छा हुआ स्कूल से उन्हें ले जाया गया ,

ये सिद्धार्थ अब बुद्ध बनने की राह देख चुके है ।


Sunday, October 31, 2010

एक बार....

उठे जब जनाजा मेरा
बस एक बार आ जाना,
दूर से ही सही ,
एक झलक देख लेना
दिखला जाना।

न देना कन्धा मेरे
जनाजे को,
न करना रुसवा मुझे
ज़माने में,
न आने देना मेरा
नाम भी होंठों पर
चेहरे की हर शिकन
छुपा जाना ।

न दे सकोगे एक
मुठ्ठी माती भी,
जानती हूँ
पर सबके जाने के
बाद,
दो फूल कब्र पर
रख जाना ।

नहीं देखना चाहती
आंसूं तुम्हारी आँखों में ,
पर हो सके तो
दो बूँद मेरी कब्र
पर गिरा जाना।

हसरत ही रही मिलने
की तुमसे,
dar था समझ न
सकेगा जमाना,
इसलिए दूर से ही सही,
एक झलक देख लेना
दिखला jana ना।

Saturday, October 2, 2010

परिचय

बाबु कमल नाथ दफ्टर में सबके चहेते थे,दिन भर लोगो की चुटकिया लेना,हल्केफुल्के समस सुनाना,किसी का मुंह लटका देख कर उसे हँसाना,काम का कितना ही बोझ क्यों न हो हमेशा हँसते हुए करना,यही उनकी पहचान थी। उनके मोबाइल में ऑफिस के सभी साथियों के फ़ोन नम्बर थे ,जिन पर वो घर से भी मेसेज करते थे। उनके बॉस भी उन्हें जानते थे उनसे कभी कुछ कहते नहीं थे बल्कि वो भी उनके हंसी मजाक का हिस्सा बन जाया करते थे।

पुराने बॉस का तबादला हो गया और नए बॉस आये। उन्हें बाबु कमलनाथ का ये हंसी मजाक पसंद नहीं था,पर उनको कुछ कह नहीं पाए क्योंकि उनके काम में कोई कोताही नहीं थी।बाबू कमलनाथ इससे बेखबर थे। उन्होंने कही से बॉस का नम्बर भी कबाड़ लिया और उन्हें भी मेसेज भेजने लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उनके हर सन्देश के बाद उन्हें बॉस से धन्यवाद सन्देश मिलता ,कमलनाथजी उन्हें बहुत सज्जन व्यक्ति समझने लगे।

एक दिन सन्देश के बाद आये धन्यवाद के साथ एक प्रश्न भी आया "आप कौन है?? "

कमलनाथजी ने अपना परिचय मेसेज द्वारा भेज दिया।

उस दिन के बाद कमलनाथजी के संदेशों के बाद कोई धन्यवाद सन्देश नहीं आया।

Saturday, September 25, 2010

दौटेर्स डे के बहाने ..........

कल दौटेर्स डे है ,वैसे तो हमारे यहाँ ये दिन साल में दो बार ९-९ दिन के लिए मनाया जाता है ,पर वैश्वीकरण ने हमें अपने रीति- रिवाजों के अलावा भी कई दिन त्यौहार मानाने का मौका दिया है। अब में इस फेर में नहीं पड़ना चाहती की ये सही है या गलत। बस एक ही बात है दिमाग में की ये मेरी उन नन्ही परियों के लिए है जिनसे मेरे घर और जीवन में रौनक है।
२० साल पहले जब मेरे जीवन में किसी नन्हे सदस्य के आगमन की आहट हुई तो मन झूम उठा। उस समय तो सिर्फ ममता थी, फिर जब मन ने ये सोचना शुरू किया की क्या होना चाहिए जो निश्चित रूप से किसी के हाथ में न था पर मुझे ही क्या सबको अपनी उमीदों और दुआओं पर बहुत भरोसा रहता है सो मैंने भी सोचना शुरू किया ,कभी लड़का कभी लड़की। इसी बीच दिवाली आ गयी .दीपक लगाते हुए अनायास ही मन ने कहा इस घर में बिटिया आयी तो अगले साल सारे घी के दीपक लगाउंगी ,और सच में होंठो पर सुंदर सी हंसी गालों में गढ्ढे बड़ी बड़ी आँखों से निहारती बेटी जब गोद में आयी तो लगा पूरा घर दीपों से रोशन हो गया।
हॉस्पिटल में जब नर्स बेटी को नहलाने के लिए लेने आयी तो मन काँप गया कही इन्होने बदल दी तो ?ये तो इतनी छोटी है इसे पहचानूंगी कैसे?? बहुत ध्यान से देखा,उसके नन्हे हाथों को थामे फिर उसकी पतली पतली लम्बी लम्बी उंगलिया देखी,लगा यही सही पहचान है कितनी सुंदर उंगलियाँ है इससे सुंदर तो किसी की हो ही नहीं सकती और बिटिया नर्स को पकड़ा दी। जब वो नर्सरी से वापस आयी तो सबसे पहले उसकी उँगलियाँ देखी और इत्मिनान किया हाँ ये मेरी ही बिटिया है क्योंकि इससे सुंदर उँगलियाँ तो किसी की हो ही नहीं सकती।

सारा दिन उसके साथ कहाँ बीत जाता था पता ही नहीं चलता। हमारे जीवन की धुरी हो गयी वो। उसके हिसाब से उठाना बैठना ,खाना पीना ,कही आना जाना... थोड़ी बड़ी हुई जब मोटरसाइकल पर आगे बैठती थी ,उसके लिए कैप लाना ,छोटे चश्मे लेना.बीच-बीच में चप्पल -जूते चेक करना पता नहीं कितनी ही एक-एक चप्पल गिर जाती थी । मेरा तो सारा दिन "मेरे घर आयी एक नन्ही परी " गाते हुए निकल जाता था । उसके बोलना सीखते ही घर की रौनक को चार चाँद लग गए ,सारा दिन बातें और गाने ,मुझे याद है हाथ में कलम ले कर घर के फर्श पर चित्रकारी करते हुए जब उसने कहा मम्मी देखो "अ" तो मन विभोर हो गया मेरी बेटी पढना लिखना सीख रही है ।उसकी तोतली बोली में बोले गयी शब्द आज भी हमारे घर की डिक्शनरी के स्थाई शब्द है । दाल छालूम (दाल चावल ),किचड़ी (कीचड )और एक गीत "ओ हसीना गुण-गुण गाणी "ये आज भी हमारे यहाँ इसी तरह गया जाता है । ४ साल की थी जब सिंठेसैजर बजाना सीखने लगी ,म्यूजिक टीचर अपने घर पर एक कार्यक्रम करवाते थे वहां उसे बजाते हुए सुना तो में अपने आंसू न रोक पाई। दिवाली पर रंगोली बनाना,होली पर पापा को रंग लगा कर किलकारी भरना यादें यादें कितनी यादें सब तो लिख ही नहीं पाउंगी ...

फिर जब दूसरे नन्हे मेहमान के आगमन की आहट हुई तो मन आशंकित हुआ अगर इसके मन को कभी ठेस पहुंची तो ?उसे प्यार से बताया की कोई छोटी बहन या भाई आने वाला है तो उसने झट से कहा मुझे तो बहन चाहिए.और भगवन ने उसकी सुन ली। एक दिन बहुत दुखी थी और गुस्से में बोली मम्मी अब अपने घर किसी को मत बुलाना और न अपन किसी के घर जायेंगे । मैंने पूछा क्यों ? तो बोली सब मेरी छोटी बहिन को मुझसे मांगते है हम ले जाये - हम ले जाएँ मुझे अच्छा नहीं लगता में इसे किसी को नहीं दूँगी। आंसू छलक आये मेरे ,मन के किसी कोने में एक दुश्चिंता थी ,दो बेटियां हमारे बाद इनका कौन ?वो एक पल में दूर हो गयी और हजारों हज़ार धन्यवाद दिया भगवन को की दूसरी भी बेटी दी जब ये दोनों है एक दूसरे के साथ तो किसी और की क्या जरूरत??

यादे यादे यादें न जाने कितनी ,बस जिसने भी इन यादों को याद करने के लिए ये दिन इजाद किया उसको धन्यवाद,aur dhanyavad arun royji ko jinhone is din ke liye kuchh likhane ka agrah kiya.

Monday, August 23, 2010

जीजी तूने चिठ्ठी नहीं लिखी

रक्षाबंधन,ये शब्द ही मन में हलचल मचा देता है हर दिल में चाहे वो भाई हो या बहन अपनो की यादे उनके साथ बिताये बचपन के अनगिनत खट्टे -मीठे पल आँखों के आगे कौंध जाते हैं। बात बात पर वो भाइयों से लड़ना,दादी का उलाहना देना,भाई से लड़ेगी तो वो ससुराल लेने नहीं आएगा,पापा के पास भाइयों की शिकायत करना,और पापा से उन्हें डांट पड़वा कर युध्ध जीतने जैसी अनुभूति होना, साईकिल सिखाने के लिए भाई के नखरे,और बाज़ार जाने का कहने पर तू रहने दे मैं ला दूंगा कह कर लाड जताना ....और भी न जाने क्या क्या.....और बचपन में राखी के दिन सुबह से भाइयों का आस पास घूमना जीजी राखी कब बांधेगी?हर बीतते सावन के साथ राखी की एक अनोखी याद । और ये यांदे हर भाई बहन के मन में अपना स्थान बिना धूमिल किये बनाये रखती हैं सालों साल यहाँ तक की मरते दम तक। दादी को अपने भाइयों के यहाँ जाने की उत्सुकता और मम्मी को लेने आये मामा के लिए भोजन बनाते देखना ,मामा के यहाँ जाने की तय्यरियाँ करना न जाने क्या क्या.....
पर यादे हमेशा एक अनोखा सा अहसास ही कराती है। कभी कभी इन एहसासों में एक अजीब सी उदासी का अहसास भी होता है जब किसी सहेली के सामने राखी की तय्यारियों की बाते पूरे उत्साह से होती है और बाद में उसे चुप देख कर ध्यान आता है की उसका तो कोई भाई ही नहीं है।

बात बहुत पुराणी है शायद ३५ साल पुराणी,दादी के साथ राखी के दिन गोपाल मंदिर गयी ,दादी हर शुभ दिन गोपाल मंदिर जरूर जाती थीं और सबसे पहली राखी भी घर में बाल्मुकुंदजी को ही बंध्वाती थीं ,वहां मंदिर के द्वार पर भिखारी बैठे रहते थे जो हर आने जाने वाले से पैसे मांगते थे ,पर एक भिखारी हाथ में राखी ले कर कर हर महिला को रोक कर उसे राखी बाँधने की याचना कर रहा था,जो कातरता उसकी आवाज़ में थी वो आज भी शूल बन कर दिल में कही गहरे पैठी हुई है,जब किसी के भाई व्यस्तता के कारन बहनों को नहीं बुलाते या बहने नहीं जा पाती ,तब पता नहीं क्यों एक हाथ जेहन में उभरता है हाथ में राखी और स्वर में याचना लिए -ऐ बहन मुझे राखी बांध दे,ऐ जीजी रुक तो जा,मुझे राखी बांध दे में नेग भी दूंगा ऐ जीजी रुक जा राखी बांध दे ।

शादी के बाद ये सौभाग्य रहा हर साल भाइयों की कलाई राखी बाँधने के लिए मिलती रही ,दोनों में से एक न एक भाई हमेशा हाज़िर रहता था.जो नहीं आ पाटा था उसके लिए राखी के साथ खूब बड़ी सी चिठ्ठी लिखती थी,फिर टेलेफोन का समय आ गया । एक बार आलस कहूँ या कुछ और, छोटे को चिठ्ठी नहीं लिखी , बस राखी भेज दी , शायद ये सोच कर की बात तो हो ही जाती है,जितना उत्साह उसे राखी भेजने का था उससे कही ज्यादा की उसे पसंद आयी की नहीं ये जानने का रहता था,इसलिए फ़ोन पर उससे पूछा राखी पसंद आयी?पर जवाब आया "जीजी तूने चिठ्ठी तो लिखी ही नहीं "। उस दिन अपने आलस पर इतनी शर्म आयी की कह नहीं सकती ,कितने ही बहाने बनाने की कोशिश की पर उसका कहना "जो बात तेरी चिठ्ठी पढ़ने में है फ़ोन पर बात करने में थोड़ी है "ने जबान सिल दी ।

इस साल राखी ला कर राखी सच में समय नहीं मिल पाया इसलिए चिठ्ठी नहीं लिख पाई ,भाई के शब्द मन में गूंजते रहे ,जीजी तूने चिठ्ठी नहीं लिखी, इसलिए सोच लिया चाहे देर से स्पीड पोस्ट से भेजूंगी ,पर चिठ्ठी लिख कर साथ जरूर रखूंगी। इस बार मेरी राखी के साथ चिठ्ठी भी पहुंचेगी।

Saturday, August 14, 2010

मानसिकता को भ्रष्ट होने से बचाए ..........

पंद्रह अगस्त आते ही लोगो में देश भक्ति की लहर दौड़ने लगती है। देश के भ्रष्ट नेतायों को,सड गए तंत्र को,कोसने का सिलसिला शुरू हो जाता है.और ये सब इतने खुले आम होता है की वाकई लगता है हम एक स्वत्रंत देश के स्वतंत्र नागरिक है,जब जहाँ चाहे जो चाहे जब चाहे कह सकते हैं। प्रिंट मीडिया,इलेक्ट्रोनिक मीडिया सभी और देश के हालत को कोसने का ,और भ्रष्टाचार को नेताओ की देन बताने का सिलसिला।
आइये याद करे अपने बचपन को .जब हम छोटे थे क्या कभी हमने भ्रष्टाचार का नाम सुना था?क्या इसका इतना प्रचार किया जाता था?देश के नेता बेशक सही मायने में लीडर थे ,उनकी एक साफ सुथरी छवि थी ,उनकी इज्जत थी ,और हम उन पर यकीन करते थे,सिस्टम पर भरोसा करते थे। तो आज इतनी पुरानी बात करने का क्या औचित्य?
आइये बताती हूँ

छोटे बच्चे क्लास ५-६ के,अंतर विद्यालय गायन प्रतियोगिता में भाग लेने गए,नहीं जीत पाए,कोई और स्कूल जीत गया ,अब बच्चों की बातें सुनिए,मेम उस स्कूल के प्रिंसिपल और जजेस की बहुत अच्छी दोस्ती है ,जब भी फलाने स्कूल के प्रिंसिपल जज होते है ,वही स्कूल जीतता है ,मैंने कहा नहीं बेटा ऐसा नहीं है उन बच्चों ने वाकई बहुत अच्छा गाया था इसलिए वो जीते,पर बच्चों के मन से इस बात को निकलना और उनकी खुद की कमियों की और उनको देखने के लिए प्रेरित करना बहुत मुश्किल काम था ।
childran'स डे पर बच्चों को फिल्म दिखने का विचार हुआ,पर निर्णय लेते देर हो गयी ,हम दो तीन टीचर इस बारे में बात कर ही रहे थे की बुकिंग मिलेगी या नहीं ,तभी एक बच्चा बोला मेम उस थिएटर के मालिक मेरे पापा के दोस्त है उनसे कह कर बुकिंग करवा लेते है। (१०-११ साल के बच्चे जान पहचान का महत्त्व समझते है ,सोचते है जान पहचान है तो हर काम हो जायेगा ,चाहे कितना भी मामूली काम क्यों न हो खुद कोशिश करने के बजाय जान पहचान से काम क्यों न निकलवा लिया जाये)।
छुट्टियाँ लगने से पहले बच्चों से पूछा कौन कहा जा रहा है ?बच्चे उत्साहित थे सब अपने-अपने प्लान बता रहे थे,तभी एक बच्चा बोला में सिक्किम जाऊंगा,मैंने कहा मुझे भी जाना है पर अब रेसेर्वाशन नहीं मिलेगा,बच्चे चिल्लाये नहीं मेम आप किसी एजेंट के पास जाइये उनके पास रहते है ,थोड़े पैसे ज्यादा लेते है पर १००% मिल जाता है,हम तो दो घंटे में प्लान बना कर कही भी चले जाते है। (बच्चे के ज्ञान पर अचंभित में सोचने लगी क्या ये बच्चे कभी सीधे तरीके से जिंदगी में कोई काम करना चाहेंगे?)।
पैसे लेकर देकर कोई काम करवाना,किसी की जीत में किसी और का हाथ देखना ,किसी की हार में किसी का हाथ देखना,हर काम का शोर्टकट ढूँढना ,हर अधिकारी कर्मचारी को पैसे लेने देने में उस्ताद समझना ,हर सरकारी तंत्र को आँख मूँद कर बेकार नाकारा समझाना हर नेता को बिकाऊ समझना ,ये सभी बाते हमने अभिव्यक्ति की स्वत्रंतता की आड़ में नयी पीढ़ी के मन में कूट-कूट कर भर दी है ,इस पर हम चाहते है की युवा पीढ़ी इमानदार हो ,मूल्यों और संस्कारों का पालन करे,सिस्टम को इमानदार तरीके से चलने में अपना योगदान दे । क्या हमें नहीं लगता की हम हर समय गलत धुन्धने के कुछ सही ढूंढें और उसका प्रचार ज्यादा करे जिससे नयी पीढ़ी को ये विश्वास हो की हमारे देश में बहुत कुछ अच्छा भी है,क्या आज़ादी की सालगिरह पर हमें हमारी मानसिकता को भ्रष्ट होने से बचाने की जरूरत नहीं है ।

Saturday, July 24, 2010

भारतीय संस्कृति में शादी में लेन-देन का प्रचलन बहुत अधिक है,और ये कभी कभी लालच की हद तक जा पहुँचता है.जब भी इस बारे में घर में बाते होती है वो इस रूप में होती है जैसे लड़के वाले ज्यादा से ज्यादा हडप कर लेना चाहते है ,उनके रिश्तेदार ज्यादा सयानापन दिखा रहे है,इसी तरह शादी के रिसेप्शन के खर्चे,गहनों कपड़ो पर होने वाला खर्च आदि के बारे में बाते सहज रूप में न हो कर एक आक्षेप के रूप में होती है । जहा घर के लोग इन्हें सहज लेते है वहा रिश्तेदार बाल की खाल निकल कर सहज रिश्तों को तनाव का रूप देने से नहीं चूकते,लड़की जिस घर में पली-बड़ी है उस से उसका लगाव स्वाभाविक है ,जब वो इन बातों के लिए अपने परिवार को परेशान होते देखती है उसके मन में ससुरालवालों के लिए एक दुर्भावना आ जाती है ,शादी के बाद भी वो इन बातों से ही घर के व्यवहार को जोड़ कर देखती है जो पूर्वाग्रह के रूप में नज़र आती है ।

Tuesday, June 15, 2010

महेश्वर यात्रा













छुट्टियों में कही जाने का कार्यक्रम नहीं बन पाया तो सोचा चलो एक दो दिन के लिए महेश्वर ही हो आया जाये.वैसे मालवा की गर्मी छोड़ कर निमाड़ की गर्मी में जाना कोई बुध्धिमात्तापूर्ण फैसला तो नहीं कहा जायेगा,पर और कही जाने के लिए सफ़र के लिए ही कम-से-कम २४ घंटे चाहिए,फिर रुकने के लिए समय ही कहा बचा? हमारे पास कुल दो दिन का समय था जिसमे आना-जाना और घर ऑफिस की दिनचर्या से थोडा आराम हमारा लक्ष्य था.इसलिए महेश्वर को चुना.वैसे भी वहा ज्यादा घूमना नहीं था ले दे कर एक घाट ही तो है जहा जाया जा सकता है।
तो हम पहुँच गए महेश्वर। महेश्वर होलकर वंश की महारानी "अहिल्याबाई 'की कर्मस्थली रही है.उन्होंने इंदौर रियासत की बागडोर यही से संचालित की.नर्मदा नहीं के किनारे उनका बहुत साधारण सुविधायों वाला किला बना है.पर उन्होंने यहाँ नदी के किनारे भव्य घाट बनवाये।( हमारे जाने के दो दिन पहले ही किसी फिल्म की शूटिंग के लिए पूरा देओल परिवार यहाँ था)।
दिन तो होटल मे ऐ सी में गुजरा पर शाम को घूमने घाट पर चले गए।वहा शाम की आरती हो रही थी । पंडितजी के साथ कुछ श्रद्धालु आरती और भजन गा रहे थे.कुछ लोग नहा भी रहे थे.पर नहाने के बाद घाट पर दिया जला कर अपनी श्रध्दा समर्पित कर रहे थे। हम लोग भी आरती के ख़त्म होने तक वहा खड़े रहे ,फिर बैठने का स्थान तलाश करने लगे । पत्थर तो गर्म थे पर नदी में पाँव डाल कर बैठना बहुत सुकून दायक लग रहा था।हमारे सामने ही एक परिवार के बहुत सारे सदस्य खाना खा रहे थे,और हम बैठे हुए अनुमान लगाने लगे की गर्मियों की छुट्टियों में सब बहन-बेटियां अपने बच्चों के साथ मायके आयी है और आज यहाँ पिकनिक मनाई जा रही है । घर से लाया खाना ,पानी की बड़ी सी बोतल ,बिछाने के लिए चादर,बर्तन,और ढेर सारी बातें। खाना खा कर बच्चे खेलने लगे पानी में तैरती बड़ी बड़ी मछलियों को देखने लगे,बड़ी उम्र की महिलाये घाट पर घूमने निकल गयी,और बाकियों ने फटाफट सामान समेत लिया। अभी हम उस परिवार की चहल-पहल में ही खोये थे तभी आवाज़ आयी"जय श्री कृष्णा" और हमरी बगल में एक और परिवार आ कर अपनी चादर बिछाने लगा। थोड़ी ही देर में खाने का सामान सज गया । अपने आस-पास नज़र डाली तो पाया की यहाँ कई परिवार है जो अपना शाम का खाना यहाँ आ कर खा रहे है। मन विभोर हो गया इस सहज सरल जीवन शैली को देख कर। दिनभर की तीखी धुप में तो बाहर निकलना संभव नहीं है,शाम को इस छोटी सी जगह में जाये तो कहा जाए ? इसलिए शाम होते ही परिवार की महिलाये बच्चे खाना बना कर नदी किनारे आ कर गपशप करते हुए खाते है और अपनी दुकान या काम से फारिग हो कर घर के पुरुष सदस्य भी यही आ जाते है। एक दो घंटे का समय कट जाता है ,रूटीन से हट कर मन प्रसन्न हो जाता है।
दूसरे दिन शनि जयंती थी ,सोचा जब इतने पावन दिन इस पवित्र नगरी में जीवनदायनी नर्मदा के किनारे है तो क्यों न स्नान किया जाये। घाट पर कपडे बदलने की व्यवस्था संतोषप्रद थीं, सो दूसरे दिन सुबह पहुँच गए नदी किनारे.घाट खचाखच भरे थे,पर कोई चिकचिक नहीं थी ,सभी शांति से जगह मिलाने का इन्तेजार कर रहे थे।ऐसा लग रहा था आज तो सारा महेश्वर ही यहाँ उमड़ आया है। स्नान के साथ लोगो का मिलाना मिलाना ,हालचाल पूछना ,नहा कर साथ लाये लोटे से घाट पर बने शिवलिंग पर जल चढ़ाना ,दीपक लगाना ,सब इतना सुखद लग रहा था,की उसका वर्णन नहीं कर सकती । ऐसा लगा महानगरीय जीवन शैली में जाने कितनी छोटी-छोटी बातों को त्याग कर हम कितनी ही बड़ी-बड़ी खुशियों को अपने जीवन में आने से रोक रहे है । दिन के उजाले में इन भव्य घाटों को देख कर अचम्भित हो गए। उस ज़माने में जब मशीनी सुविधाए नहीं थी ,कैसे बने होंगे ये घाट,कैसे की गयी होगी इनकी परिकल्पना कितना समय लगा होगा इन्हें बनाने में,और कितना संयम रहा होगा उन लोगो में ,ये सोच में ही नहीं समां पाया।
स्नान के बाद घट पर स्थित सहस्त्रबाहु मंदिर दर्शन के लिए गए। यह एक अति प्राचीन मंदिर है जहा सालों से शुध्ध घी के ७ दीपक जल रहे है। यहाँ इन दीपक के लिए घी दान देने की परंपरा है,और यहाँ इतना घी चढ़ावे में आता है .की कई कमरे भरे हुए है।
महेश्वर यहाँ की हाथ की बनी महेश्वरी साड़ियों के लिए प्रसिध्ध है । इन सरियों को हाथ से बने लूम पर बनाया जाता है.जिनकी सुनहरी किनारी अपनी सुन्दरता में बेजोड़ अब घूमने आये और खरीदी न करे ये पत्नीव्रत धर्म के खिलाफ होता है। इसलिए दो साड़ियाँ खरीद कर पतिदेव को उनका धर्म निभाने का पुण्य प्राप्त करने का मौका भी दिया।
इस तरह महेश्वर यात्रा सानंद संपन्न हुई । साथ में कुछ फोटेस है आप अभी इन्ही का आनद लीजिये,और जब भी समय मिले घूम आइये।






Tuesday, June 8, 2010

न्याय........

२ दिसम्बर १९८४ शाम को ५ बजे मम्मी और पास में रहने वाली वैध आंटी के साथ घूमने निकली। सूरज पश्चिम में डूबने को था.आसमान में सुर्ख लाल रंग बिखेर कर आगाह कर रहा था की,पंछियों घर जाओ मुझे जाना है। पंछी भी जैसे सूरज की चेतावनी को समझ कर अपने साथिओं को आवाज़े दे कर तेज़ी से चले जा रहे थे।
मम्मी ने कहा ,कितनी सुंदर शाम है पूरा आसमान लाल हो गया ,"देखो कैसा दिन फूला है"।
आंटी बोली ,हमारी दादी कहती थी ऐसा दिन डूबना अशुभ होता है।
अरे, हम तो समझ रहे थे कितना सुन्दर लग रहा है, मम्मी ने कहा ।
बात आयी गयी हो गई,हम लोग घूम कर कुछ गप्प्पे मार कर वापस अपने -अपने घरो को चले गए।
दूसरे दिन सुबह सामान्य हुई.अपने काम निबटा कर मम्मी आराम कर रही थी, तभी पास वाली आंटी ने आवाज़ दे कर कहा ,:भाभी जल्दी आओ ,वैध भाभी के यहाँ कुछ हो गया।
देखा उनके घर के सामने भीड़ जमा थी.कुछ लोग अंदर थे ,बाहर लोगो से बात करने पर पता चला की कल भोपाल में कुछ हादसा हो गया ,वैध सर वही थे ,उनकी तबियत ख़राब हो गयी है। अभी भोपाल से फ़ोन आया है ,सर के कोलाज में ,वहा से उनके साथियों ने घर आ कर खबर दी । आंटी के कुछ करीबी रिश्तेदार आये है उन्हें भोपाल ले जाने के लिए।
यहाँ आंटी अपने बेटे के साथ रहती थी,अंकल का कुछ दिनों पहले ही भोपाल तबादला हुआ था.उनका बड़ा बेटा कही बाहर रह कर पढ़ रहा है। जब आंटी बाहर आयीं तो सभी ने उन्हें धधास बंधाया ।
सब ठीक हो जायेगा भाभीजी ,आप चिंता मत करो।
उस शाम सूरज भी जैसे आगाह करना भूल गया, बस उदास सा, लालिमा बिखेरे बिना चला गया । लोगो में चर्चा होती रही क्या हुआ होगा, सर तो बिलकुल ठीक थे,वगैरह वगैरह ।
उस समय २४ घंटों के न्यूज़ चैनल्स नहीं होते थे,न ही शाम के अखबार खंडवा जैसी छोटी सी जगह में छपते थे ।
रात ८ बजे के समाचार में पता चला की हादसे की भयावहता क्या है ?पर कौन सी गैस,कितनी नुकसानदेह ये अभी भी समझ नहीं आ रहा था ।
दूसरे दिन अखबारों में छपी ख़बरों ने तो जैसे सब को हिला कर रख दिया। अब सही मायने में सब को वैध सर की तबियत की चिंता हुई।
उस समय मोबाइल जैसे साधन भी नहीं ठ । २-३ दिन बाद किसी लड़के ने कोलेज से ला कर खबर दी ,कि "सर नहीं रहे "।
कोलोनी में सन्नाटा पसर गया ,आंटी की,उनके बच्चो की ,इतनी बड़ी जिम्मेदारियों की चिंता ने सब को व्यथित कर दिया।
१२-१५ दिन बाद जब आंटी वापस आयी ,तब पूरी बात पता चली। अंकल रसायन शास्त्र के प्रोफेसर थे। जब गैस फैली उन्हें उसकी सान्ध्रता का अंदाजा हो गया था। और उसकी मारक शक्ति का भी, पर उन्हें मालूम था की मुह-नाक पर गीला कपडा रखने से इससे बचा जा सकता है। इसलिए वे न सिर्फ उनके परिवार के लोगो को बल्कि हॉस्पिटल में भी और लोगो को मुह पर गीला कपडा रखने की सलाह देते रहे। और बोलने के लिए अपने मुह से गीला कपडा हटाते रहे,और गैस की चपेट में आने से उनकी मौत हो गयी।
इस आकस्मिक आघात से उबरने में आंटी को बहुत समय लगा ,गैस त्रासदी के मुआवजे के रूप में मिलाने वाली रकम उनके बेटों के भविष्य की राह बना सकती थी।
पर आंटी के मन में इस त्रासदी के जिम्मेदार लोगो के लिए जो गुस्सा था ,वह मुआवजे की रकम से ठंडा नहीं हो सकता था।
सालों -साल भोपाल गैस त्रासदी की खबरे पढ़ते रहे ,आन्दोलन होते रहे,दिलासे मिलते रहे ,
"कल मिलेगा न्याय"जब ये शीर्षक पढ़ा तो मन में एक आस बंधी अब आंटी चैन मिलेगा ,उनकी जिंदगी की खुशियाँ छीनने वाले को सजा मिलेगी.शायद और जिम्मेदार लोग इस सजा से सबक सीखेंगे ,और अपने काम के प्रति गंभीर होंगे।
२५ साल के इन्तेजार के बाद जो हाथ आया ,ऐसा लगा अगर ये फैसला आंटी के जाने के बाद आता तो शायद वो इंतजार में ही सही एक आस के सहारे जी तो लेती। इस फैसले के बाद उनके दिल पर क्या गुजारी होगी ......
अब मैं क्या बताऊ आपको........

Saturday, May 15, 2010

बोलिए....ये हमारे सरोकार हैं ..........

कितना पानी ढोलते है,मकान मालिक को तो पता ही नहीं,रोज़ रोज़ पाइप लगा कर नहाते है ,किससे कहे ,कैसे कहे? ये रोज़ ही महिला मंडली की चर्चा का विषय होता था.नयी बसी कालोनी में नित नए मकान बनते थे,जहा सामान की रखवाली के लिए चौकीदार होते थे,उन्हें टूबवेल चलने की आज़ादी होती थी और पानी बर्बाद करने की भी।
एक शाम जब ये चर्चा चल रही थी तभी मैं भी मंडली में शामिल हुई और पूछा माजरा क्या है,तब पता चला की सामने के मकान में रोज़ पानी की बर्बादी हो रही है। अपने अनुभव से ये तो जान ही लिया था कि पानी यदि बरसात के मौसम से ही सहेज कर नहीं रखा तो गर्मी में टूबवेल साथ नहीं देंगे।
दूसरे ही दिन शाम को २-३ लड़के पाइप चालू करके नहा रहे थे.पानी भरपूर बह रहा था। पानी बेकार बहता देख कर पारा चढ़ जाता है,और मुझे याद आ जाते है वो दिन जब मई-जून की गर्मी में सारा दिन बिना पानी पिए गुजारा करती थी .पैसे लेकर भी कोई पानी भरने को तैयार नहीं होता था..क्योंकि पानी का कोई स्त्रोत ही नहीं था।
बस पहुँच गयी वहा और उन लडको से कहा ,कितना पानी बहा रहे ?
बोले आंटीजी नहा रहे है।
ठीक है पर नहाने के लिए बाल्टी में भी तो पानी लिया जा सकता है ।
जी पर यहाँ पानी तो है न ।
हा पानी है पर इस तरह बहावोगे तो एक दिन ख़त्म हो जायेगा । तुम्हे मालूम है गाँवों में लोग कितनी मुश्किल से गुजारा करते है। तुम्हारे ही घर में औरते कितनी दूर से सर पर पानी ले कर आती है। किस गाँव के हो तुम लोग?
आंटीजी,निमाढ़ के।
तो तुम्हे नहीं मालूम वहा पानी की कितनी परेशानी है?
जी मालूम है।
फिर ?? फिर भी यहाँ मिल रहा है तो बेकार में बर्बाद कर रहे हो। अरे जीतनी जरूरत हो वापारो ,ज्यादा हो तो किसी जरूरतमंद को देदो,पर इस तरह बर्बाद तो मत करो।
जी आंटीजी,हम समझ गए ,हमने ये सोचा ही नहीं था,अबसे हम पानी बेकार नहीं धोलेंगे
टूब वेल तो कब से बंद हो गया था। उस दिन के बाद उन लडको ने कभी पानी बर्बाद नहीं किया।
मन को एक संतुष्टि मिली,पर कई प्रश्न भी उठ खड़े हुए ।
*जब लोगो ने देखा तो खुद उन लडको को ऐसा करने को मन क्यों नहीं किया?
*लोग सही बात कहने को बुरा बन्ने का खतरा क्यों समझते ?
*क्या यही बात मैं किसी पढ़े लिखे व्यक्ति को समझती तो वो भी इसे इतनी आसानी से समझ जाता?
तो जब भी आप अपने आस-पास कोई गलत kaam होते देखते है तो कुछ कहते क्यों नहीं? ये हमारा समाज है,हमारे सरोकार है इन्हें हमहें ही सुधारना है.और कई काम तो अक्सर अनजाने में होते है आप को बस एक बार बताना है ये ठीक नहीं है ,पर अधिकतर लोग इतनी भी जहमत नहीं उठाते,क्यों??????

Thursday, May 6, 2010

समय

शादी के चार ही महीने बाद अपनी गृहस्थी ले कर गाँव में जाना पड़ा नेहा को । पति की पहली पोस्टिंग ,हेड ऑफिस पर रहना जरूरी था । छोटा सा गाँव उस पर साहब का तमगा,गाँव की राजनीती,किसी के घर आना जाना नहीं होता था.घर में पड़े पड़े उकता जाती थी नेहा। तभी गाँव के स्कूल में एक अध्यापक की नियुक्ति हुई,घर के पास ही उनका घर था.उनकी भी नयी नयी शादी हुई थी, नेहा को लगा चलो कोई तो मिला जिससे दो घडी बोल-बतिया लेगी.जल्दी ही जान पहचान हो गयी,और कभी कभी रचना के घर आना जाना भी होने लगा.एक शाम नेहा अपनी सखी से मिलने के लिए उसके घर गयी पर न जाने क्या हुआ नेहा को देखते ही रचना पलटी और घर के अंदर चली गयी। अपने को अपमानित सा महसूस कर नेहा उलटे पाँव घर लौट आयी। कई दिनों तक यही सोचती रही की आखिर हुआ क्या ?रचना ने भी इसके बाद कोई सम्बन्ध नहीं रखा.वह समझ गयी जरूर किसी ने कोई गलतफहमी पैदा कर दी है।

दो साल बीत गए,एक बार पति के ऑफिस के एक कर्मचारी को देखने हॉस्पिटल जाना हुआ ,वहा जाने पर पता चला की मास्साब के ससुरजी भी भर्ती है चलती बस से गिर गए है । इंसानियत के नाते उन्हें भी देखने गए,सभी रिश्तेदार इकठ्ठे थे रचना उन्ही के साथ खड़ी थी ,देखा कर पास आयी पर कुछ बात नहीं हुई। मास्टरजी से हाल -चाल पूँछ कर वापस आ गए.अगली सुबह फिर हॉस्पिटल जाना हुआ,तो पता चला की रचना के पिताजी गुजर गए है,वहा जाने पर मास्टरजी नेहा और उसके पति को तुरंत अलग ले गए और बोले अभी रचना और उसकी माँ को कुछ नहीं बताया है आप भी अभी कोई बात नहीं करें। तब तक रचना भी वहां आ गयी,नेहा की और देख कर बोली क्या हुआ ?और नेहा की आँखों में आंसू देख कर नेहा के गले लग कर फफक कर रो पड़ी।

उसकी पीठ सहलाते हुए नेहा ने जिंदगी का सबसे बड़ा सबक सीखा ,समय बड़ा बलवान है ,कब किस को किस हाल में किसके सामने खड़ा कर दे नहीं पता.

Wednesday, April 14, 2010

यशी

स्कूल में मेरी छवि एक सख्त टीचर की है,उस पर विषय भी गणित ,तो विषय की मांग है विद्याथियों की एकाग्रता ,जो इस छवि में और भी सितारे जोड़ देती है.वैसे भी इतना कुछ होता है विद्यार्थियों को बताने के लिए की फालतू बातों के लिए समय भी नहीं होता, और यहाँ वहां की बाते करना मुझे सुहाता भी नहीं है। पिछले साल की बात है कक्षा ५ की एक लड़की ज्यादातर समय स्कूल से अनुपस्थित रहती थी ,उसकी कॉपी पूरी करवाना और पिछला सबक समझाना बहुत मुश्किल होता था। वैसे भी जो बात क्लास की पढाई में होती है वो एक विद्यार्थी को बैठा कर पढ़ाने में नहीं आती.इस पर जब भी उससे बात करो वो सर झुका कर चुपचाप खडी हो जाती ,न कुछ बोलना, न जवाब देना .काफी दिनों तक वह स्कूल नहीं आयी ,फिर बच्चों से ही पता चला की वो बीमार है ।

एक दिन स्टाफ रूम में बात करते हुए उसकी बात निकली तो मालूम हुआ कि उसकी माँ उसे छोड़ कर चली गयी है और दूसरी शादी कर ली है ,वह अपने दादा-दादी और पापा के साथ रहती है.वो काफी बीमार भी रहती है.सुन कर बहुत अफ़सोस हुआ.जब वह वापस आयी तो मैंने उसका विशेष ध्यान रखना शुरू किया।

इसी बीच स्कूल में परेंट- टीचर मीटिंग थी,जिसमे में उसके पापा आये,और बड़े ही जोश से भरे कहने लगे कि अपनी बेटी को तो मैं हो पढ़ता हू और वह गणित में काफी अच्छी है ,हाँ इस साल कुछ ज्यादा बीमार रही है इसलिए थोडा पिछड़ गयी है। मैंने भी कहा ठीक है आप भी ध्यान रखिये और जो भी कठिनाई उसे होगी मैं भी ध्यान रखूंगी।

एक बार फिर वह दो दिन नहीं आयी ,मैंने पूछा यशी क्यों नहीं आयी ,किसी को पता नहीं था कि क्या हुआ .जब वह आयी तो बहुत खुश थी और पूछने के पहले ही कहने लगी ,मम मेरे पापा शादी कर रहे है मेरे लिए नयी मम्मी लायेंगे .सुन कर और उसे खुश देख कर बहुत ख़ुशी हुई .मैंने पहली बार उसे इतना खुश देखा था।ये बात उसने हर टीचर को बताई ,फिर एक दिन कहने लगी मम मैं भी अपने पापा के साथ घूमने जाउंगी वो बहुत खुश थी । उसके पापा कि शादी के पहले ही उसने बता दिया कि मैं अब १० दिन नहीं आउंगी पहले शादी में हम जयपुर जायेंगे फिर घूमने जायेंगे .मैंने भी कहा ठीक है खूब मजे करना।

४-५ दिन बाद ही वो स्कूल आयी ,चुपचाप सर झुकाए जैसे ही मैं क्लास में पहुंची बच्चे चिल्लाये मम ,यशी आ गयी,सुनकर मैं भी चौंक गयी ,अरे वो तो १० दिन बाद आने वाली थी ,मैंने पूछा शादी कैसी हुई खूब मजे किये ,उसने आँखों में आंसू भर कर कहा यस मम ,फिर?पापा मम्मी को लेकर घूमने चले गए मुझे नहीं ले गए । अरे तो क्या हुआ बेटा , तुम जाती तो तुम्हारी पढाई का कितना नुकसान होता फिर हम सब भी तो तुम्हे रोज़ याद करते थे ,है न बच्चों ?मैंने पूछा सब ने एक स्वर में कहा यस मम ।

अब यशी पहले से भी अधिक गुमसुम रहने लगी ,न उसका पढ़ाने में मन लगता न किसी से बात करती ,एक दिन मैंने उससे बात की तो बोली ,मम पापा अब सिर्फ मम्मी का ध्यान रखते है,हर समय उनके आगे पीछे रहते है, रोज़ शाम को उन्हें घूमने ले जाते है,पर मुझे कभी भी साथ नहीं ले जाते ,मैं कहती हू तो मुझे दांत देते है,मैंने कहा तुम्हारे दादा-दादी कुछ नहीं कहते ,तो उसकी आँखों में आंसू भर आये कहने लगी वो भी मुझे दांत देते है । अब पापा न मुझ से बात करते है न मुझे पढ़ते है। मैंने कहा बेटा मम्मी अभी यहाँ नई है न इसलिए पापा उन्हें घुमाने ले जाते है,फिर अगर तुम रोज़ -रोज़ उनके साथ जाओगी तो पढाई कब करोगी ? इसलिए नहीं ले जाते ,फिर अब तो तुम भी बड़ी हो गयी हो ,थोड़ी पढाई खुद कर सकती हो,और अगर कोई परेशानी आये तो मुझे बताना मैं तुम्हारी मदद करूंगी । कह कर मैंने उसके सर पर हाँथ फेरा .वह थोड़ी आश्वस्त हो कर चली गयी .फिर भी उसका मन न लगा ।

स्कूल ख़त्म होने को आये,आखरी दिन यशी मेरे पास आईए और बोली ,मम मैं जा रही हू,मेरे पूछने से पहले ही उसके साथ आयी लड़कियाँ बोलने लगी मम यशी स्कूल छोड़ रही है ,क्या?? चौंक पड़ी मैं,कहाँ जा रही हो तुम ?किसी और स्कूल में ? नहीं मम इंदौर में नहीं ,पापा मुझे हॉस्टल में भेज रहे है .अंदेशा तो मुझे भी था पर इतनी जल्दी सब इतना बदल जायेगा मालूम न था। मैंने उसे बांहों में भर लिया और कहा बेटा कोई बात नहीं तुम बहुत समझदार हो वहा तुम्हे ढेर साडी सहेलियें मिलेंगी ,तुम ज्यादा मजे करोगी ,और तुम मन लगा कर पढ़ना ,जब भी इंदौर आओ यहाँ जरूर आना हमसे मिलाने .और वो चली गयी

छुट्टियों के बाद पहले दिन वो मुझे फिर मिली ,मम अरे यशी तुम ?कैसी हो बेटा ?बहुत ख़ुशी हुई उसे देख कर,मम मैं ठीक हू.क्या हुआ?मैंने पूछा,मम दादाजी को मालूम नहीं था कि मैं होस्टल जा रही हू जब उन्हें मालूम पड़ा तो उन्होंने पापा को बहुत दांता और कहा कि अब इसे कही भेजने कि बात कि तो मैं तेरी पिटाई करूंगा । पिटाई कि बात कहते हुए ख़ुशी से उसकी आँखे चमक रही थी । मुझे भी बड़ी ख़ुशी हुई ,वह फिर बोली मम नयी मम्मा प्रेग्नेंट है इसलिए पापा उन्ही का ध्यान रखते है , हाँ बेटा इस समय उन्हें ज्यादा जरूरत है न और अब तो यशी बहुत समझदार हो गयी है.यस मम इस साल मैं खुद ही पढाई करूंगी ,और अच्छे मार्क्स लुंगी ,वैरी गुड बेटा और कभी भी कोई भी परेशानी हो मुझे बताना ,यस मम ,और वो चली गयी ।

कल अच्कांक वो आयी और बोली मम ,यशी कैसी हो बेटा ?वो कुछ नहीं बोली उसने मेरी और देखा उसकी आँखों में अजीब सी उदासी थी वो चुपचाप खडी रही,फिर धीरे से उसके हांथों में हरकत हुई जैसे उन्हें ऊपर उठा रही हो मैंने अपनी बाहे फैला कर उसे समेत लिया ,और बहुत देर तक उसे सीने से लगाये रही,उसके सर और माथे पर बहुत सारा प्यार किया वह चुपचाप खडी रही फिर उसमे कुछ हलचल हुई और मैंने उसे धीरे से छोड़ दिया । उसने मेरी और देखा उसकी आँखे अब चमक रही थी उसने कहा मम मेरा games period है bye,और वह चली गयी

Thursday, April 1, 2010

करें गर्मी का सामना

गर्मी की शुरुआत होते ही कूलर ,पंखे,एसी,उसका सामना करने जुट जाते है,लेकिन गर्मी की मार से बचाना आसान नहीं है. उस पर बिजली और पानी की कमी बचे हुए हौसले भी तोड़ देती है। यहाँ गर्मी से लड़ने के कुछ आसान और आजमाए हुए तरीके है ,इन्हें आप भी आजमाइए।

(१० किलो बिना बुझा चूना, १ kg फेविकोल ,छोटी झाडू.)

*घर की छत को साफ़ कर लीजिये.बिना बुझा चुना रात में भिगो दीजिये ,सुबह उसमे फेविकोल मिलाकर साफ़ छत पर झाडू से पोत दीजिये.छत पर सफेदी होने से सूर्य-प्रकाश परावर्तित हो जायेगा ,जिससे छत गर्म नहीं होगी और घर का तापमान २-३ डिग्री तक कम हो जायेगा।

घर की खिड़कियों की दिशा देखिये,यदि उनपर सीधी धूप आती है ,तो उन पर बाहर से सफ़ेद कागज चिपका दें,कांच गर्म नहीं होंगे तो घर का तापमान कम रहेगा,और रोशनी भी आती रहेगी।

रात में घर के खिड़की दरवाजे खोल दीजिये जिससे हवा का प्रवाह बना रहेगा.यदि सीधी घर के अंदर से हो तो छत का दरवाजा खोल दें, गरम हवा बाहर निकल जाएगी.एक्सास्त फैन चालू कर दे जिससे गर्म हवा बाहर निकल जाये घर जल्दी ठंडा होगा।

इन उपायों से बिना बिजली का बिल बढ़ाये या पानी खर्च किये आप घर को ठंडा रख सकते है.

Tuesday, March 30, 2010

नियमो में कैद बचपन

मार्च आ गया इसी के साथ शुरू हो गया नया सत्र। नए सत्र के साथ ही नयी युनिफर्म्स,नए बैग ,नए शैक्षणिक कार्यक्रम के साथ ,कुछ नए और कुछ पुराने नियम । ये नियम बच्चों को कितना अनुशाषित करते है ये तो नहीं पता,पर कई नियम तो बच्चों पर लादे गए से लगते है । इनमे से कुछ नियम जो मुझे परेशान करते है उनका जिक्र यहाँ करती हूँ । (यहाँ बता दूं की जिक्र पब्लिक स्कूलों का हो रहा है )।
* मोटी-मोटी युनिफर्म्स जिनका कोलर बैटन बंद होना जरूरी है।
*कमर पर बेल्ट होना चाहिए जो ढीला या लटका ना हो.( चाहे बच्चे की कमर पसीने से गीली हो जाये।
* गर्मी में भी पूरे दिन जूते -मोज़े पहनना जरूरी है।
*गले में ताई होना जो उन्हें पब्लिक स्कूल का होने की पहचान देती है।
* क्लास में संन्मैका का फर्नीचर जिस पर उन्हें सारा दिन बैठना है,दो पेरिओद के बीच में उठ कर घूम नहीं सकते,
चाहे उनके बम्स पसीने से भीग जाये या दर्द करने लगे।
*दो पेरिओद के बीच-बीच में पानी पीने या बाथरूम जाने की की मनाही,आखिर उन्हें अपने पर नियंत्रण रखना जो सीखना है।
*एक नियम है हाथों को पीछे बांध कर चलाना,मुझे इसका ओउचित्य आज तक समझ नहीं आया .(मुझे तो लगता था की हाथों का मूवमेंट चल को आसान बनता है) ।
*इसी तरह के और भी कई नियम होंगे जो आपके नौनिहालों को परेशां करते होंगे ,उनका जिक्र करके इन्हें बदने की दिशा में कदम बढ़ाये।

Saturday, February 27, 2010

होली

आज ईद है पर हमारे स्कूल में छुट्टी नहीं थी.सभी को गुस्सा आ रहा था.वैसे भी आज स्कूल का आखरी दिन था.२ मार्च से परीक्षाएं हैं । बच्चे भी पढ़ने के मूड में नहीं रहते। सभी सोच रहे थे की आज छुट्टी होती तो कितना अच्छा होता। कल घर जाते हुए सभी के मुह पर एक ही बात थी ,अरे यार!कल भी आना है। फिर भी हमने निश्चय किया ,की आज सब चटकीले रंगों की साड़ियाँ पहन कर आयेंगे।

आज स्कूल भी आधे दिन का था इसलिए बच्चे भी कम आये थे,और आखरी दिन था इसलिए वे भी पढ़ने के मूड में नहीं थे। सारा दिन टीचेर्स को थेंक्यु देने का सिलसिला चलता रहा । बच्चों ने पूछा भी आज क्या खास है सभी मेम साड़ी पहन कर क्यों आयी है? (हमारे यहाँ टीचेर्स सलवार सूत भी पहनती हैं) तो हमने कहा ,की आप को गुड लक कहने । बच्चे भी बड़े खुश हुए।

बच्चों की छुट्टी के बाद हमारी मीटिंग थी । मीटिंग चाहे कैसी भी हो सभी का मुंह बन जाता है । पर खैर जाना तो था। शुक्र है ज्यादा लम्बी नहीं थी तो हम जल्दी ही फुर्सत हो गए ।

मीटिंग के बाद मैं भागी और पर्स में से गुलाल की पुडिया निकाली और सभी के माथे पर टीका लगाया ,और होली है का धमाल मचाया। गुलाल लगते ही सब होली की मस्ती में आ गए और सबने खूब गाने गए,और डांस किया। फिर तो माहौल ही बदल गया। हंसी- मजाक ,ढेर साड़ी गपशप,और आगे भी चाहे छुट्टी मिले या न मिले ,इसी तरह खुश रहने का वादा भी सभी ने किया ।

तो इस तरह चुटकी भर गुलाल ने सभी के मन से छुट्टी न मिलाने का मलाल मिटा दिया ,वहीँ सब को साथ बैठ कर हंसने -बोलने का मौका दिया ।

तो इस होली आप भी न आलस कीजिये न कंजूसी लगाइए टीका गुलाल का अपनों के माथे पर और हो जाइये सराबोर होली की मस्ती में ।

होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ !!!!!!

Wednesday, February 17, 2010

स्त्री मूल्य


स्कूल से घर आते समय रास्ते पर भीड़ देखी,तो रुक कर लोगो से पूछा ,क्या हुआ?पता चला पास ही रहने वाले आदिवासी परिवार की एक लड़की को किसी लडके ने मोबाइल पर फोन किया और मिलने के लिए बुलाया.उस लडके को लड़की के घरवालों ने पकड़ लिया और अब उसकी धुलाई हो रही है। वह परिवार काफी दिनों से वहा रह रहा था ,और उस लड़की को भी मैं अच्छे से जानती थी ,इसलिए मैं भी उसे देखने वहा चली गयी । वहा जा कर देखा की जिस लडके ने फ़ोन किया था वह तो भाग गया पर उसका दोस्त पकड़ में आ गया,अब उसकी पिटाई हो रही थी.किसी तरह उसकी पिटाई बंद करवाई और उसके घरवालों को फोन करने को कहा। तभी लड़की का मामा आ गया और उसने भी लडके को ४-६ लात घूंसे जमा दिए आखिर लड़की की इज्जत से उनकी इज्जत है। बात करने पर पता चला की लड़की ने फ़ोन नंबर अपनी सहेली को दिया था और उस सहेली से उसके भाई ने ले लिया।
दूसरे दिन से लड़की का स्कूल जाना बंद हो गया,घर से निकलना बंद हो गया,सभी ने उसके माँ-पिताजी को समझाया ,लड़की है पढ़ लिख जायेगी तो बाद में उसका ही भला होगा पर पिता की चिंता थी लड़की के पढ़ने से उसका भला होगा जब होगा , पर अगर लड़की किसी के साथ भाग गयी तो उनका इतने साल उस पर लगाया पैसा डूब जायेगा। (भील-भिलालों में शादी पर लडके को स्त्री मूल्य देना पड़ता है )।

और मैं सोचने लगी उस लड़की के लिए स्त्री मूल्य जब मिलेगा तब मिलेगा पर आज स्त्री (लड़की)होने का जो मूल्य वो चूका रही है वह तो इस जनम में वसूल होने से रहा

Thursday, February 4, 2010

दूध और मलाई


बचपन की जब यादे आती है तो याद आती है वे छोटी मोती शरारतें ,लड़ना झगड़ना,और छोटी मोटी गुस्ताखियाँ,जो उस समय निच्छल मन से की गयी हरकतें थी.बात जब की है जब हम रतलाम में रहते थे.न्यू रोड पर एक बड़ी सी बिल्डिंग जिसमे कई सारे किरायेदार रहते थे.उनका दूध,पेपर,पानीवाला,साझा और हर घर के सुख-दुःख साझे। दिन में सभी ओरतें गेलरी में बैठ जाती थी और घर के तमाम काम मिलबांट कर चुटकियों में हो जाते थे। वही बैठ कर घर गृहस्थी की तमाम समस्याओं का समाधान हो जाता था।
इन्ही दिनों मम्मी बहुत परेशान रहती थी कारण था दूधवाला दूध बहुत पतला ला रहा था.उसमे से मलाई नहीं निकलती थी जिससे घी नहीं बन पाता था.और हर महीने घी खरीदने में घर का बजट बिगड़ जाता था।
रोज़ सुबह जब दूध वाला आता मम्मी उस पर नाराज़ होती और वो कहता भौजी मैं तो बढ़िया दूध लाता हूँ बिल्डिंग में सभी को देता हूँ पूछ लो.अब उसके सामने तो कोई कुछ नहीं बोलता था ,पर दिन की पंचायत में सभी मम्मी को समझाते की दूध तो बढ़िया आ रहा है हर पंद्रह दिन में एक पाव से ज्यादा घी निकल जाता है, और मम्मी थीं की उस दूध वाले को बंद कर दूसरे दूधवाले की बंदी लगाने को तैयार थी .एक दिन सुबह सुबह तो मम्मी का गुस्सा सातवें आसमान पर था भैया कब से कह रहे हैं पर तुम दूध इतना पतला ला रहे हो बिलकुल मलाई नहीं उठती कल से दूध देना बंद कर दो वगैरह वगैरह ...................
मैं वही कड़ी सब सुन रही थी अब मुझे लगा आज तो भैया की खैर नहीं तो मैंने मम्मी की साड़ी धीरे से हिलाए और उनका ध्यान अपनी और देख कर कहा - मम्मी दूध वाले भैया तो अच्छा दूध देते है पर आप जब छोटू को लेने स्कूल जाती हो न तब मैं दूध पर से साड़ी मलाई खा जाती हूँ । अब इतना सुनना था की बिल्डिंग वाले सभी जोर से हंस पड़े,मम्मी चुप और दूध वाले भैया मूछों में मंद-मंद मुस्कुरा कर बोले- भौजी दूध तो हमी देंगे,और उठ कर चल दिए ।

Saturday, January 30, 2010

ड्यूटी

कल शाम घर लौटते हुए चौराहे पर लाल बत्ती होने से रुकना पड़ा.ग्रीन सिग्नल होने पर भी जब गाड़ियाँ रुकी रही तो कौतुहल हुआ की क्या कारण है?तभी यातायात पोलिसे का जवान एक ठेले वाले (जिसके ठेले पर लोहे के सरिये भरे थे ) के साथ-साथ उसे चौराहा पार करवाता हुआ निकला । जवान एक हाथ से ठेले को धकाने में मदद कर रहा था,और दूसरे हाथ से ग्रीन सिग्नल में भी यातायात को रुकने का इशारा कर रहा था।उसके चौराहा पार करते ही सभी गाड़िया तेज़ी से आगे बढ़ी ,पर मैं पलट कर उन दोनों को देखने का लोभ संवरण न कर पायी,चौराहा पार करके उस ठेलेवाले ने जवान को सलाम किया और उसने ठेलेवाले का कन्धा थपथपा कर उसे विदा किया।

उस जवान का काम यातायात को नियंत्रित करना है,पर जिस सहजता से उसने उस ठेले वाले की मदद की उसे देखने वाला कोई नहीं था।ऐसे ही कई वाकये हमारे चारों तरफ रोज़ होते हैं,जब यातायात पोलिस के जवान कभी किसी वृद्ध को सड़क पार करवाते है तो कभी,किसी मामूली से दिखने वाले इंसान की किसी और तरह से मदद करते हैं। यदि किसी चौराहे पर जवान न हो तो लोगो की आँखों में तुरंत खटकता है पर जब वे अन्य तरह से लोगो की मदद करते है तो कोई नहीं देखता।
क्या हम सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक चीजे ही देखने के आदि नहीं होते जा रहे है?
क्या हम किसी सकारात्मक बात या काम की सराहना करते है?
ऐसे ही कई उदहारण हमारे चारों और बिखरे पड़े है,जहाँ चाहे सरकारी अधिकारी हो या प्राइवेट जब वे अपने कार्यक्षेत्र पर अपनी निर्धारित ड्यूटी से अलग कोई काम करते है जिससे लोगो की मदद हो ,कार्य सुचारू रूप से चले पर उनकी सराहना के लिए लोगो को शब्द ढूंढे नहीं मिलते।आखिर वे भी इंसान है,हमीं में से एक है जब हम अपनी सराहना से उत्साहित होते है तो दूसरों की सराहना में कंजूसी क्यों?
लोगो की सराहना कीजिये उन्हें उत्साहित कीजिये ताकि वे और जोश से अच्छे काम करने में जुट जाए.आखिर इसी तो तो स्वस्थ समाज की रचना होनी है
.

Thursday, January 14, 2010

चिठ्ठियाँ .........६


शादी के बाद भी पत्रों का सिलसिला चलता रहा.सहेलियों के साथ,ननदों के साथ,और मायके जाने पर उनके साथ.अब हर पत्र एक अलग रंग का होता था.अब तो मम्मी के भी पत्र आते थे,जिसमे प्यार के साथ कई सीख भी होती थी,तो ससुरजी के पत्र भी जिसमे हमारे अकेले होने की चिंता के साथ हर हफ्ते बस दो ही लाइन की कुशल क्षेम देने का आग्रह भी होता था। चिठ्ठियों का यह नया रंग अभिभूत कर देता था। शादी के बाद अपने लाये सामान के साथ बचपन से अभी तक लिखी चिठ्ठियों का मेरा खजाना भी था.जिसे गाहे बगाहे पढ़ लेती थी।

नयी-नयी गृहस्थी के साथ एक शौक अकसर महिलायों को होता है वह है साफ़ सफाई का,सो एक दिन सफाई करते हुए न जाने क्या हुआ,शायद मन कुछ ठीक नहीं था,या कुछ और,पता नहीं क्यों ये सोचा की इतनी पुरानी सहेलियां जिनसे बिछड़े करीब १५ साल हो गए है,उन्हें तो शायद मेरी याद भी नहीं होगी,मैं ही उनके पत्रों को संजोए बैठी हूँ मैंने सबसे पुराने पत्र जला डाले.हाँ-हाँ वही पत्र जिनकी खजाने की तरह रक्षा करती थी जला डाले ,पता नहीं इससे घर में कितनी जगह बनी हाँ दिल का एक कोना आज भी खाली महसूस हो रहा है।

धीरे -धीरे सब सहेलियों की भी शादियाँ हो गयी,ननदे भी ब्याह गयी,मम्मी-पापा,सासुजी-ससुरजी भी इंदौर ही आ गए,पत्रों की जगह पहले फोन फिर मोबाइल ने ले ली,सब इतने पास आ गए पर फिर भी एक दूरी बन गयी है,पत्रों में विस्तार से लिखे समाचारों की जगह,मोबाइल के "हाँ और बोलो",या "सुनाओ"ने ले ली,बात करते हुए,आधा ध्यान टाइम पर और बिल पर रहने लगा,दुनिया जीतनी छोटी हो गयी उतनी ही दूरियां बढ़ गयी,आज मेरे घर कोई चिठ्ठी नहीं आती,डाकिया सिर्फ बिल या स्टेटमेंट्स लाता है ,आज चिठ्ठियों के बिना मेरे दिन सूने है मेरी जिंदगी का एक कोना सूना है,मैं आज भी चिठ्ठियों का इंतजार करती हूँ .................

Wednesday, January 13, 2010

चिठ्ठियाँ ........५


खैर अब धड़कते दिल से चिठ्ठी लिखी, सहेलियों से भी सलाह ली गयी,जिन सहेलियों ने कभी कोई चिठ्ठी नहीं लिखी थी उन्होंने भी पूरे मनोयोग से बताया की क्या लिखना चाहिए और क्या बिलकुल नहीं लिखना चाहिए।पर इन सबके बावजूद उस एक बात का तो जवाब दिया ही नहीं की मम्मी-पापा से पूछा की नहीं ?अब चिठ्ठियों में एक नया ही रंग आ गया था,उनके इंतज़ार में एक नयी ही कसक थी,और उनकी रक्षा ..........वो तो पूछिए ही मत। इन्ही पत्रों के साथ ननंदो और भाभीजी को भी पत्र लिखना शुरू हो गया,शादी के पहले उन्हें जानने समझाने का इससे अच्छा कोई जरिया नहीं था।अब पत्र अलग-अलग मन:स्थिति के साथ लिखे जाते थे,एक सहेलियों को,जो में सालो से लिख रही थी,दूसरे होने वाले पति को जहाँ एक झिझक थी साथ ही एक दूसरे को जानने की ललक भी थी। और तीसरे जहाँ एक अतिरिक्त सावधानी रखी जाती थी की किसी बात का कोई गलत अर्थ न निकल जाए।
तभी एक दिन ससुरजी का आना हुआ.वे शादी कितारिख और अन्य बाते सुनिश्चित करने आये थे.उन्होंने ने मेरी गोद भराई भी की,और फल,मेवा के साथ झोली में एक पत्र भी डाल दिया। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ,ये क्या है?खैर पत्र खोला गया, पढ़ा गया,उसमे उन्होंने अपनी होने वाली बहू के लिए अपने असीम प्यार और आशीर्वाद के साथ,जीवन को संवारने के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बड़ी ही साहित्यिक शैली में लिखा था.उनका ये पत्र अब तक के सभी पत्रों से निराला था,जिसे बार-बार पढ़ा गया और अपने आप को एक सुघड़ बहु के रूप में ढालने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल किया गया। पत्रों का ये सिलसिला बस यूँ ही चलता रहा ................

Monday, January 11, 2010

प्रबुद्ध भारत के प्रति


स्कूल की प्रार्थनासभा के लिए स्वामी विवेकानंदजी पर सामग्री तलाश करते हुए उनकी लिखी एक कविता हाथ आयी,जो उन्होंने सन १८९८ में प्रबुद्ध भारत पत्रिका के मद्रास से स्वामीजी द्वारा स्थापित भ्रात्रमंडल के हाथों में अलमोधा को स्थान्तरित होने के अवसर पर लिखी थी। कल १२ जनवरी को उनका जन्मदिवस है.
"प्रबुद्ध भारत के प्रति"

जागो फिर एक बार !
यह तो केवल निद्रा थी,मृत्यु नहीं थी,
नव जीवन पाने के लिए,
कमल नयनों के विराम के लिए
उन्मुक्त साक्षात्कार के लिए।
एक बार फिर जागो।
आकुल विश्व तुम्हे निहार रहा है
हे सत्य!तुम अमर हो!

फिर बढ़ो,
कोमल चरण ऐसे धरो
कि एक राज कण की भी शांति भंग न हो
जो सड़क पर, नीचे पढ़ा है।
सबल,सुद्रढ़,आनंदमय,निर्भय और मुक्त
जागो,बढे चलो और उद्दात स्वर में बोलो!

तेरा घर छूट गया,
जहाँ प्यार भरे हृदयों ने तुम्हारा पोषण किया
और सुख से तुम्हारा विकास देखा,
किन्तु,भाग्य प्रबल है-यही नियम है-
सभी वस्तुएं उद्गम को लौटती हैं,जहाँ से
निकली थीं और नवशक्ति लेकर फिर निकल पड़ती हैं।

नए सिरे से आरम्भ करो,
अपनी जननी-जन्मभूमि से ही,
जहाँ,विशाल मेघ्राशी से बद्ध कटी
हिमशिखर तुममें नव शक्ति का संचार कर
चमत्कारों की क्षमता देता है,
जहाँ स्वर्गिक सरिताओं का स्वर
तुम्हारे संगीत को अमरत्व प्रदान करता है,
जहाँ देवदारु की शीतल छाया में तुम्हे अपूर्व शांति मिलती है।

और सबसे ऊपर,
जहाँ शैल-बाला उमा,कोमल और पावन,
विराजती हैं,
जो सभी प्राणियों की शक्ति और जीवन है,
जो सृष्टि के सभी कार्य-व्यापारों के मूल में है,
जिनकी कृपा से सत्य के द्वार खुलते हैं
और जो अनंत करुना और प्रेम की मूर्ति हैं;
जो अजस्त्र शक्ति की स्त्रोत हैं
और जिनकी अनुकम्पा से सर्वत्र
एक ही सत्ता के दर्शन होते हैं।

तुम्हे उन सबका आशीर्वाद मिला है,
जो महान द्रष्टा रहे हैं,
जो किसी एक युग अथवा प्रदेश के ही नहीं रहे है,
जिन्होंने जाती को जन्म दिया,
सत्य की अनुभूति की,
साहस के साथ भले-बुरे सबको ज्ञान दिया।
हे उनके सेवक,
तुमने उनके एकमात्र रहस्य को पा लिया है।

तब,बोलो,ओ प्यार!
तुम्हारा कोमल और पावन स्वर!
देखो,ये दृश्य कैसे ओझल होते हैं,
ये तह पर तह सपने कैसे उड़ाते हैं
और सत्य की महिमामयी आत्मा
किस प्रकार विकीर्ण होती है!

और संसार से कहो_
जागो,उठो,सपनों में मत खोये रहो,
यह सपनों की धरती है ,जहाँ कर्म
vicharon की सुत्रहीन मालाएं गुन्थ्ता है,
वे फूल, जो मधुर होते हैं या विषाक्त,
जिनकी न जड़े हैं,न ताने जो शुन्य में उपजते हैं,
जिन्हें सत्य आदि शुन्य में ही विलीन कर देता है।
साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो,
उससे तादात्म्य स्थापित करो,
छायाभासों को शांत होने दो;
यदि सपने ही देखना चाहो तो
शाश्वत प्रेम और निष्काम सेवाओं के ही सपने देखो!

Sunday, January 10, 2010

चिठ्ठियाँ.....४

बस इसी तरह ठीक इसी तरह चिठ्ठियाँ लिखने का सिलसिला टूट जाया करता था सहेलियों के साथ भी, तब बहुत सारे शिकवे शिकायतों के साथ कभी बहुत बड़ा सा ख़त या कभी बहुत छोटा सा पत्र अपनी नाराजगी बताने के लिए लिखा जाता था.बैतूल में मेरी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी आया,मेरी सगाई तय हो गयी.इसकी खबर सहेलियों को लिखने से पहले न जाने कितने ही सूत्र पिरोये,कितनी ही बार खुद से ही शरमाई,मन था की बल्लियों उछल रहा था,लिखते भी नहीं बन रहा था,लिखे बिना रहा भी नहीं जा रहा था.उस पत्र के जवाब का इन्तजार सदियों सा भारी लगा.फिर एक दिन एक और पत्र आया धड़कते दिल से उसे खोला, वह पत्र था 'उनका".हाँ यही संबोधन होता था 'उनके 'लिए,जिस पर मेरी सहेलियां अच्छा उनका,वो कौन, अभी से "उनका"कह-कह कर मुझे परेशान कर देतीं थी,इस एक संबोधन से ही गाल लाल हो जाते थे,बहुत सादगी और शराफत से लिखा गया पत्र था, पर मुझे तो एक-एक शब्द मोती लग रहा था .पत्र मिलते ही जल्दी से सहेलियों से मिलने घर से निकल पड़ी,उन्हें बताये बिना चैन भी तो नहीं पड़ता था। पहले उन्हें बोल कर सब बताया क्या-क्या लिखा है,फिर न-नुकुर करते हुए पूरा पत्र पढ़ा दिया। आखिर में भी तो यही चाहती थी.इस पत्र की एक लाइन ने तो दिल को छू ही लिया,न-न ऐसा-वैसा कुछ मत सोचिये,वो लाइन थी "तुम पत्र का जवाब देने से पहले अपने मम्मी- पापा से पूछ लो उन्हें कोई एतराज़ तो नहीं है."जब से होश सम्हाला था पत्र लिख रही थी,ये पहला मौका था जब पत्र का जवाब देने से पहले मम्मी से पूछा गया,वो भी पशोपेश में थी,फिर पापा से पूछ कर बतायेंगी ,कह कर बात ख़त्म हो गयी.दूसरे दिन पत्र सिरहाने रख कर सो रही थी,की ऐसा लगा कोई पास आ कर बैठा,मैंने आँखे मूंदे राखी ,फिर एक हाथ धीरे से बड़ा और पत्र उठाया,थोड़ी देर बाद उसे वापस रख दिया,मैं अभी भी सोने का नाटक करती रही। थोड़ी देर बाद मम्मी ने आवाज़ लगाई,बेटा उठो चाय पी लो, चाय पीते हुए मम्मी ने कहा,हमने पापा से बात की थी उन्होंने ने कहा है,पत्र का जवाब दे दो इसमे तो कोई हर्ज़ नहीं है.आज अचानक चिठ्ठियों -चिठ्ठियों में कितना बड़ा फर्क हो गया.पर मन तो तुरंत जवाब देने को बैचैन था.लिखने बैठ भी गयी,पर ये क्या,आज कुछ लिखते क्यों नहीं बन रहा है,मैं तो कितने सालों से चिठ्ठियाँ लिख रही हूँ.................

Tuesday, January 5, 2010

चिठ्ठियाँ .............3

खंडवा से जब हम बैतूल आये तब मन न जाने कैसा -कैसा हो गया.ऐसा लगा जैसे दिल को किसी ने मुठ्ठी में भींच दिया हो.युवावय की प्यारी सहेलियां जिनसे हर बात ,हर भावना साझा की जाती थी उन्हें छोड़ कर जाना ऐसा था जैसे अपने प्राण छोड़ कर शरीर कही और ले जाना। पर उस समय की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि, उस समय टेलीफोन हर घर में नहीं था। संपर्क का एक ही साधन था पत्र। हाँ दिन में स्कूल कौलेज होते थे ,इसलिए पोस्टमेन का इन्तजार नहीं किया,लेकिन घर आते ही मेरी निगाहें अपने पढ़ने की टेबल पर घूमती जहां मेरे आये ख़त रखे होते थे। फिर तो खाना -पीना भूल कर जब तक दो-चार बार उन्हें पढ़ न लूं चैन नहीं आता था। अब एक पेज के पत्र से मन भी नहीं भरता था,३-४ पेज के पत्र रात को १२-१ बजे तक बैठ कर लिखे जाते थे,जिन्हें लिखते हुए खुद ही हंसती थी खुद ही सोचती थी ये पढ़ कर मेरी सहेलियां क्या-क्या बाते करेंगी ?मेरी इंदौर वाली सहेली के पत्र आने अब बंद हो गए थे। या कहना चाहिए उसके दायरे बदल गए थे,उनका भी इंदौर से तबादला हो गया था ,पर मुझे मालूम था की वहां से वो अजमेर गए है। तो एक दिन उसे याद करते -करते अजमेर उसके पापा के ऑफिस के पते पर ऑफिस इंचार्ज के नाम एक पत्र लिख दिया। की फलां-फलां व्यक्ति इंदौर से ट्रान्सफर हो कर इस साल में वहां आये थे अब वे कहाँ है उनकी जानकारी दे। बस उस पत्र में अंकल को अपना परिचित मित्र लिखा । अब ऑफिस इंचार्ज की भलमनसाहत देखिये की उन्होंने भी लौटती डाक से उनकी जानकारी दे दी पर मेरे संबोधन के हिसाब से अन्तेर्देशीय के ऊपर मेरा नाम लिखा "श्रीमती कविता ",हमारे पत्र पापा के ऑफिस में आते थे वहां से पापा घर भेज देते थे,तो में डाकिये के इन्तजार के बजाय चपरासी का इंतज़ार करती थी। जब वो पत्र ले कर आया तो वह खुला हुआ था,देख कर बड़ा गुस्सा आया,पापा ने पत्र क्यों खोला, पर जब पत्र पर अपना नाम पढ़ा तो खुद ही हंसी आ गयी . phir ye bhee sochaa ki patra khol kar padh lene tak paapa ka blood presure kitana badh gaya hoga............ बाकी अगले अंक में


Monday, January 4, 2010

चिठ्ठियाँ.......2

अरे हाँ याद आया इंदौर में भी एक सहेली थी मेरे पड़ोस में ही रहती थी,हमारी शामें साथ ही गुजरती थी । रोज़ शाम को छत पर बैठ कर अपने-अपने स्कूल की बाते करना, ढेर सारे गाने गाना,और जो भी कोई फिल्म देख कर आता उसकी स्टोरी दूसरे को सुनना। एक बार उससे झगडा भी हुआ था,तब मेरे और उसके भाइयों ने हम दोनों के बीच सुलह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उससे जरूर पत्रों का सिलसिला चला,पर उसकी आवृति कम थी.पर उसके साथ बिताये लम्हे आज तक जेहन में ताज़ा हैं। अब हम खंडवा में जहाँ सिर्फ इंदौर से पत्र मिलते थे.रानपुर फिर कभी जाना ही नहीं हुआ.पर ये पत्र बड़े सोच कर बढ़िया-बढ़िया बातें लिखकर भेजे जाते थे। हर पत्र को कई-कई बार पढ़ा जाता और कभी-कभी तो किताबों में रख कर स्कूल में भी चोरी से पढ़ा जाता। घर में सबको सख्त हिदायत थी की मेरे पत्र कोई नहीं खोलेगा, अब ये पत्र अन्तेर्देशिया थे जिसमे लिखे हर शब्द किसी अनमोल मोती से कम नहीं थे, और उन मोतियों को किसी से बांटने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। हाँ अपनी सहेलियों को जरूर गर्व से बताती थी की इंदौर से मेरी सहेली का पत्र आया है। कभी-कभी अपना पुराना फोल्डर खोल कर पुराने पत्र भी पढ़ लेती थी और उनमे खुद को ही बड़े होते देखती थी,हाँ मेरे सारे पुराने पत्र मेरे पास सहेज कर रखे गए थे और उनकी रक्षा किसी खजाने की रक्षा जैसे ही होती थी.जब भी कोई नया पत्र उस फोल्डर में रखती अपने खजाने को नज़र भर देखती, छूती पुराणी कितनी ही अनलिखी,अनकही यादों को याद कर लेती.इस समंदर का अगला मोती बस निकालने को ही है थोडा सा इन्तजार.................

Sunday, January 3, 2010

चिठ्ठियाँ


आज एक ब्लॉग पढ़ा जिसमे चिठ्ठियों का जिक्र था, पढ़ कर कई सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। मैं जब कक्षा ४ में थी तब हम लोग रतलाम से झाबुआ जिले के एक छोटे से गांव रानापुर में ट्रान्सफर हो कर गए थे । वह अपनी सहेलियों से बिछड़ने का पहला मौका था। आंसू भरी आँखों से उन सभी से उनका पता लिया और चिठ्ठी लिखने का वादा भी लिया। बचपन के वादे ज्यादा सच्चे होते है,इसीलिए सभी सहेलियों ने उसे ईमानदारी से निभाया, लगभग हर हफ्ते मुझे एक पोस्टकार्ड मिलाता, और मै उतनी ही ईमानदारी से उसका जवाब भी देती। हाँ इतना जरूर था की में एक हफ्ते में एक सहेली को पत्र लिखती थी और उसमे ही बाकियों को भी उनके प्रशनों या कहें की जिज्ञासाओं का जवाब दे देती थी। उस गाँव से ट्रान्सफर होने पर हम इंदौर आये । अब मेरा सखियों का संसार विस्तृत हो गया था,उसमे रतलाम और रानपुर की सहेलिया थीं,और सभी पूरे मन से इस दोस्ताने को निभा रही थी। इंदौर में ४ सालो के दौरान कई सहेलियां बनी पर शायद किसी से भी उतने मन से नहीं जुड़ पायी,इसी लिए इंदौर छोड़ने के बाद किसी से पत्रों के जरिये सतत संपर्क नहीं रहा। अब तक रतलाम की सहेलियों से भी पत्रों का सिलसिला टूट सा गया था ,एक तो उनसे दुबारा मिलाना नहीं हुआ ,दूसरे उनका भी एक नया दायरा बन गया था,पर हाँ उनकी यादे जरूर दिमाग के किसी कोने में बसी थी कुछ टूटी-फूटी ही सही पर थी जरूर। इसके आगे भी यादों, दोस्ती और पत्रों का सफ़र जारी रहा,पर वो अगली पोस्ट में .........................

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...