Thursday, August 13, 2015

गणपति उत्सव

मुंबई इंदौर से होते हुए देश के अनेक शहरों में फैले गणपति उत्सव को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस उद्देश्य से शुरू किया था कि धार्मिक माहौल में इस तरीके से लोगों को एकजुट किया जा सकता है।  ये परंपरा मुख्य रूप से आज़ादी की लड़ाई के लिए लोगों को संगठित करने और उसकी विभिन्न गतिविधियों से लोगो को परिचित करवाने के लिए थी। कालांतर में यह जन जन का उत्सव तो बना लेकिन इसका मूल उद्देश्य ही इसमें से गायब हो गया जो था एकजुटता। पहले जहाँ एक गाँव या शहर में एक गणपति विराजते थे वहीँ आज हर गली मोहल्ले में दो तीन गणपति की स्थापना होने लगी है। और तो और एक कुटुंब के हर परिवार में गणपति स्थापना होने लगी। कहीं कहीं तो घर के अंदर पूजा के लिए एक और बाहर झाँकी के लिये एक गणपति होते है जो बच्चों की जिद या बड़ों की शान का प्रतीक होते हैं। 
बड़ी संख्या में गणपति स्थापना ने मिट्टी के बजाय पी ओ पी से बनी मूर्तियों के बाज़ार को बढ़ावा दिया। कई बरस ये मूर्तियाँ नदियों तालाबों में विसर्जित की जाती रहीं और इन्हे प्रदूषित करती रहीं। अब जब पर्यावरणविदों का ध्यान इस ओर गया और इन पर रोक लगाने की माँग उठने लगी तब तक ये मूर्तिकार संगठित हो कर किसी भी बात को समझने से इंकार करने लगे। साथ ही इनकी अपेक्षाकृत कम कीमत के चलते लोग भी इन्हे खरीदने के आदि हो गए। इन मूर्तियों का विसर्जन नदी तालाब में हो या पानी की बाल्टी में पी ओ पी और रंग भूमि प्रदूषण तो करते ही हैं। 

गणपति के जन्म से दस दिन चलने वाला ये उत्सव घर में स्थापित गणपति की मूर्तियों की पूजा अर्चना के साथ भी तो मनाया जा सकता है। मूल भाव तो आराधना है।  इस तरह घर घर में स्थापित पी ओ पी की मूर्तियों में कमी आएगी जिससे उनके विसर्जन से होने वाले भूमि जल प्रदूषण को भी रोका जा सकेगा। 
कविता वर्मा 

Monday, August 3, 2015

क्या समय के साथ बदलना जरूरी नहीं है ?


आज राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त के जन्मदिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला।  कार्यक्रम हिंदी साहित्य समिति में हिंदी परिवार और मैथलीशरण गुप्त स्मारक एवम पारमार्थिक ट्रस्ट द्वारा आयोजित था। इसी कार्यक्रम में शहर के पाँच वरिष्ठ साहित्यकारों का सम्मान भी किया गया। कार्यक्रम में बैठे हुए कुछ बातों पर ध्यान गया जो आपके साथ साझा करना चाहती हूँ। 
 जयंती और सम्मान कार्यक्रम के आयोजक का स्टेज पर बड़ा सा बैनर लगा था मैथलीशरण गुप्त (गहोई वैश्य समाज ) स्मारक एवम पारमार्थिक ट्रस्ट। स्वाभाविक है मैथली शरण जी गहोई वैश्य समाज के रहे होंगे समाज उनके नाम को अपने गौरव के रूप में प्रचारित करना चाहता था इसलिए उनके नाम के आगे गहोई वैश्य समाज लिख कर दर्शाना चाह रहा था। लेकिन मुझे लगा ऐसा करके राष्ट्र कवि की छवि को सिर्फ एक समाज जो असल में जाति का द्दोतक थी में बाँध दिया गया। राष्ट्र कवि पूरे देश के होते हैं क्या उनके नाम के आगे गहोई वैश्य समाज लिखा जाना जरूरी था ? क्या इसके कोई और मायने थे जो मैं समझ नहीं पा रही हूँ ? 

मुझे आश्चर्य होता है साहित्यकारों के समारोह में इस तरह की सोच प्रकट की जा रही थी। क्या किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया या लोग देख कर भी अनदेखी कर देते हैं।

कार्यक्रम का समय शाम साढ़े पाँच बजे का था जिसे शुरू होते लगभग ६ :१५ हो गये इसके बाद शुरू हुआ साहित्यकारों का सम्मान जिसमे एक एक साहित्यकार को स्टेज पर बुलाया गया उनका शाल श्रीफल फूलमाला से स्वागत किया गया जिसके लिये गहोई वैश्य समाज के सम्माननीय पदाधिकारी स्टेज पर आये। यही चलन है सम्मान तो बाकायदा विधि विधान से होना चाहिये।  फिर सभी सम्माननीय साहित्यकारों को फोटो खिंचवाने के लिये एक साथ स्टेज पर बुलवाया गया इसमे फिर आधा घंटा लग गया। अब कार्यक्रम शुरू ही होने वाला था इसलिए सोचा बस थोड़ी देर और। 

कार्यक्रम के प्रथम वक्ता मंच पर आये और उन्होंने मंचासीन अतिथियों सम्मानित अतिथियों को सम्बोधित करने के साथ साथ सभा बैठे उनके परिचित एक एक व्यक्ति का नाम लेकर उनका आभार व्यक्त करना शुरू किया। लगभग एक घंटा हो चुका था कार्यक्रम शुरू हुए लेकिन कार्यक्रम तो अब तक शुरू ही नहीं हुआ था। सभागृह में नज़र दौड़ाई तो देखा वहाँ 95 फ़ीसदी अतिथि बुजुर्ग और रिटायर लोग थे। मैं यह नहीं कहती कि उनके पास टाइम ही टाइम होता है लेकिन फिर भी वहाँ युवा लोगों की संख्या ना के बराबर थी।  जो इक्का दुक्का लोग थे भी वे गहोई वैश्य समाज के पदाधिकारी थे।  महिलायें भी बहुत कम थी। कुछ नौकरी पेशा महिलाये थीं लेकिन इतनी लम्बी औपचारिकता से उकता कर और अपनी अन्य जिम्मेदारियों का ख्याल कर वे उठ कर चल दीं। 


इतने लम्बे और उबाऊ अौपचारिक कार्यक्रम में बैठना वाकई मुश्किल था इसलिए मैं भी वापस आ गई। एक अच्छा कार्यक्रम एक विद्वान अतिथि को सुनने की इच्छा सदियों पुरानी स्वागत परंपरा और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ गया। 
कविता वर्मा  





  

Tuesday, July 28, 2015

सच्ची श्रद्धा


मंदिर में भगवान के आगे तरह तरह की मिठाइयों का भोग सज गया।  घर के छोटे बेटे, अंशु के चाचू की नौकरी लगी है उसी के धन्यवाद ज्ञापन के लिये पूरा परिवार सुबह से मंदिर में था। नन्हा अंशु सुबह से मिठाई खाने को मचल रहा था ,'दादी ने समझाया पहले पूजा होगी फिर भगवान खाएँगे फिर अंशु को मिलेगी। ' 
अंशु बेसब्री से पूजा पूरी होने का इंतज़ार कर रहा था। पूजा के बाद भोग के लिये आव्हान करने के लिये सभी आँखें बंद किये बैठे थे। सभी के मन में अलग अलग भाव और विचार चल रहे थे।  दादी हिसाब लगा रही थीं रिश्तेदारों पड़ोसियों में बाँटने में कितनी मिठाई लग जाएगी तो मम्मी को चिंता थी बाहर नये चप्पल जूते रखे हैं कोई उठा ना ले जाये।  अंशु के पापा सोच रहे थे आधे घंटे में फ्री होकर टाइम से ऑफिस पहुँच जाऊँगा तो दादाजी पंडित जी को कितनी दक्षिणा देना है उसके हिसाब में लगे थे। चाचा नई नौकरी के ख्यालों में खोये थे।  सभी की आँखें बंद थीं सिर्फ अंशु पूरी ताकत से मींची आँखों को बार बार खोल कर देख रहा था कि भगवान ने मिठाई खाई या नहीं ? 
कविता वर्मा 

Saturday, July 18, 2015

कहाँ से चले कहाँ पहुँचे ?


साथ साथ रहने का फैसला उन दोनों का था बालिग थे आत्मनिर्भर थे। अपनी समझ से दुनिया के सबसे समझदार इंसान। अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने का युवा जूनून भी था और रीति रिवाजों को बेकार रवायत कह ठोकर मारने की आधुनिकता भी। 
माता पिता क्या कहते , कह भी क्या सकते थे ? 
साथ रहते जिंदगी रंगीन हो गई नित नए रंग भरते गए प्रेमी से सह जीवन साथी एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखते एक दूसरों का काम करते करते कब बिन ब्याहे पति पत्नी हो गए पता ही नहीं चला। प्यार भी कब तक एक रंगी रहता विविध रंग भरने को दो बच्चे भी हो गए उनकी खिलखिलाहट से घर गूँजता लेकिन जल्दी ही एक के लिये वह शोर में तब्दील होने लगा।
सारी आधुनिकता और सहजीवन के बावजूद भी राहें उसी परंपरागत मंजिल तक ही पहुँची जहाँ घर का मालिक तो था मालकिन नहीं। 
जीवन में रंग भरते उसने अपने जीवन को बेरंग कर लिया था अब उसके पास ना अपना करियर था ना ही आत्मविश्वास पूर्ण व्यक्तित्व। 
आखिर एक दिन मेरा घर मेरी शांति मेरी निजता के नाम से राहें अलग अलग हो गईं। बच्चों से गर्भनाल से लगा ममता का नाता था इसलिए बच्चे उसके हिस्से में आये और मकान पुरुष के हिस्से में। 
कविता वर्मा 

Wednesday, July 15, 2015

व्यापमं घोटाला

कल एक पुरानी स्टूडेंट से बात हुई वह एक साधारण परिवार की ब्रिलियंट स्टूडेंट थी।  उसका सपना था डॉक्टर बनना और हम सभी टीचर्स को पूरा विश्वास था कि उसका सेलेक्शन हो जायेगा। दो बार कोशिश करने पर भी जब उसका सेलेक्शन नहीं हुआ हम सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने भी इसे अपनी किस्मत मान कर बी एस सी करते हुए ट्यूशन लेना शुरू कर दिया।  उसके पढ़ाये बच्चे जब एग्जाम में बेहतरीन करते वह दिल से खुश होती थी लेकिन जब से व्यापम घोटाला उजागर हुआ है वह बहुत निराश है।  कल मिलते ही पूछने लगी "मैडम मेहनत और ईमानदारी का जो पाठ हमें स्कूल में पढ़ाया गया था क्या वो गलत था ?मुझे तो इसका कोई सुफल नहीं मिला।  जो सीट मैं डिज़र्व करती थी वह किसी और ने पैसों के दम पर खरीद ली। समय के साथ मेरा सपना तो टूट ही गया। अब सपने मेहनत से नहीं बेईमानी और पैसे के बल पर पूरे किये जाते हैं।" मैं अनुत्तरित थी लेकिन उसकी निराशा ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। 
आरक्षक भर्ती सेवा में चयनित होने के लिये अजय से जब पाँच लाख रुपये की माँग की गई तो वह इस कदर हतोत्साहित हो गया कि उसने सारी कोशिशें छोड़ चाय का ठेला लगा लिया।
 छात्र अभिषेक का कहना है उसके परिवार ने उसकी पढाई के लिए अपनी सारी संपत्ति दांव पर लगा दी।  
जिस तरह व्यापम घोटाला परत दर परत खुल रहा है और जिस तरह व्यापम घोटाले के आरोपी और गवाह मौत के मुँह में समा रहे हैं उससे आम जन हतप्रभ है।  पूरी कहानी जो अभी पूरी नहीं हुई है और पता नहीं कब और कैसे पूरी होगी पूरी होगी भी या नहीं लेकिन इसने नैतिक मूल्यों और साहस पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। 

कहाँ छूट गया शिक्षा का मूल उद्देश्य 

एक टीचर के रूप में मैं सोचने लगी हूँ एजुकेशन सिस्टम में बेहतरी के लिए बदलाव करते करते हम वहाँ पहुँच गये जहाँ शिक्षा का मूल उद्देश्य ही गायब हो गया है ? शिक्षा का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को विषय विशेष में शिक्षित करके उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाना है। अच्छा नागरिक से अभिप्राय है ऐसा नागरिक जिसमे नैतिक मूल्य नैतिक साहस हो। यही शिक्षा किसी राष्ट्र के विकास और खुशहाली के लिए आवश्यक है।  आज इस विषय को ही विलोपित कर दिया गया है।  शिक्षा का अर्थ किसी भी तरीके से स्वयं को आगे रखना है।  हर उस चीज़ को पाना है जिसकी  चाह है चाहे उसके लिए कोई भी राह अख्तियार करना पड़े।  मेहनत ईमानदारी जैसे शब्द कहीं पीछे छूट गए हैं।  

हम कर लेंगे से ज्यादा हम पा लेंगे का विश्वास 

आज छोटे छोटे बच्चे भी हर क्षेत्र में जुगाड़ लगा कर पा लेने में विश्वास करते हैं।  आश्चर्य होता है इन आधुनिक धृतराष्ट्रों पर। अपनी मेहनत से पाई सफलता से अपने बच्चों के लिए आसान सफलता खरीदने वाले ये माता पिता क्या वाकई इनके शुभचिंतक हैं ? क्या वाकई ऐसा प्यार जता कर वे इन्हे जिंदगी की जंग में उतरने के लिए तैयार कर रहे हैं ?
सॉल्वर के माध्यम से मेडिकल में प्रवेश पाये कितने ही विद्यार्थी अपना प्रथम वर्ष भी पार नहीं कर पाये हैं।  उन बच्चों की मानसिक उलझन अवसाद को समझने की कोशिश भी उनके माता पिता ने की है या वे उन्हें यही (दुः ) साहस देते रहे हैं कि हम सब संभाल लेंगे तुम चिंता मत करो लेकिन कब तक ? 

तोड़ी है उम्मीद 
शिक्षा का व्यवसायीकरण करके प्रायवेट स्कूल कॉलेज यूनिवर्सिटी बनने से इसे बिकाऊ तो कई सालों पहले बना दिया गया था लेकिन तब ये सभी के लिए बिकाऊ हुई।  स्कूलों की मोटी फीस यूनिफार्म स्टेशनरी का खर्च सभी के लिए एक सामान था। इसके बाद डोनेशन कॉलेजों के दौर में अपनी काबिलियत से स्थान पाने वालों के बाद कुछ सीट्स बेचीं जाती थीं लेकिन तब भी स्टूडेंट्स का मेहनत के प्रति विश्वास बना रहता था।  इस घोटाले ने तो सारा सिस्टम ही उलट दिया है जिसमे पहले खरीददारों का नंबर आता है उसके बाद काबिलियत का।  इस सब ने मेहनत , लगन , धीरज जैसे गुणों की हिम्मत तोड़ दी है। 

छींटे सभी पर आये हैं। 
व्यापम घोटाला जिस तरह से पूरे देश की सुर्खी बनी है , जिस तादाद में बड़े रसूखदार नाम इसमे शामिल हैं व्यापम एक ऐसे कीचड़ भरे बदबूदार तालाब की तरह हो गया है जिससे होकर गुजरने वाला इससे अछूता माना ही नहीं जा सकता।  चूंकि इसकी शुरुआत आठ से दस साल पहले हो गई थी इसलिए पिछले चार पाँच सालों पहले अपनी मेहनत से पास हुए बच्चों की काबिलियत पर भी ऐसा सवालिया निशान लग गया है जिससे निजात पाना उनके लिए आसान ना होगा।  खुद को हमेशा संदेह से देखा जाना , कमतर आँका जाना बेहद दुखदायी है।  

क्या है भविष्य ?
अब इन घोटालों के खुलने और अपने बच्चों के साथ आरोपी बनाये जाने वाले और जेल जाने वाले ये पालक क्या जिंदगी में कभी एक दूसरे से आँख मिला पाएँगे ? इस तरह अपना करियर और जीवन तबाह करने के लिये क्या ये बच्चे अपने माता पिता को माफ़ कर पाएँगे ? इनके जेहन में क्या ये प्रश्न नहीं उमड़ेगा कि हम तो बच्चे थे आप तो माँ बाप हैं अनुभवी हैं अच्छा बुरा सही गलत समझते हैं फिर क्यों आपने इतनी गलत राह चुनी जो कभी किसी मंजिल पर ही नहीं पहुँचती।  

क्या दाग अच्छे हैं ? 
राजनैतिक बात करें तो जिस तरह लालू यादव के नाम के साथ चारा , मायावती के साथ अंबेडकर पार्क , जयललिता के साथ अनुपात हीन संपत्ति जुड़ गए हैं उसी तरह शिवराज चौहान के साथ व्यापम का नाम जुड़ गया है।  इस राजनैतिक जीवन में इस दाग को किसी सर्फ़ से धोया नहीं जा सकता।  यह दाग जो जानबूझ कर लगाया गया हो या अनदेखी करते अब इतना बड़ा और भद्दा हो गया है साथ ही इसमे पड़े लाल छींटों ने इसे वीभत्स बना दिया है कि जनमानस से इसे मिटाया नहीं जा सकता।  
कविता वर्मा

Tuesday, July 14, 2015

बरसात

बरसात 
मड़िया में बैठा रामभरोसे झमाझम बारिश होते देख रहा था। बरसती हर बूँद के साथ उसका मन प्रफुल्लित होता जा रहा था। मन ही मन प्रार्थना करते उसने कहा। बरखा मैया ऐसे ही दो चार दिन बरसियो फसल को अमृत पिला दियो जा बेर  तुम्हरी मेहर रही तो बिटिया के हाथ पीले कर दूंगो।  बरखा रानी भी उसकी प्रार्थना को अनसुना कहाँ कर पाई ऐसे झूम कर बरसी की खेत खलिहान नदी बन गए। 
रामभरोसे मड़िया में बैठा बरखा रानी को कोस रहा है जा दारी बरसात ने सब कुछ बहा डालो सबरी फसल गल गई खेत में नदी की कीचड़ भर गई हे आग लगे ऐसी बरसात के। भगवान इस साल तो खाबे को अन्ना मिल जाये बहुत है। बिटिया की किस्मत पर पानी फेर डारो। 
गरीब की सुनवाई किस रूप में होती है ये तो जग जाहिर है।  अगले बरस रामभरोसे मड़िया में बैठे आसमान ताक रहा है बादल का नमो निशान नहीं है एक बरसात के बाद खेतों में बीज डाल दिया था फसल पानी की आस में मुरझा गई है और रामभरोसे बिटिया की किस्मत को कोस रहा है।  
कविता वर्मा 

Saturday, June 27, 2015

छू लिया आसमान


बचपन से वह उस पहाड़ी को देखती आ रही थी। उबड़ खाबड़ रास्ते फैले झाड़ झंखाड़ और फिसलन के बीच से उसकी चोटी पर वह बड़ा सा पत्थर सिर उठाये खड़ा था। मानों चुनौती दे रहा हो दुनिया को है हिम्मत इन दुर्गम रास्तों को पार कर मुझ तक पहुँचने की ?आसमान को छू लेने की ?
उसने भी हमेशा सपना देखा था एक दिन वह वहाँ तक जरूर पहुँचेगी लेकिन इतना आसान तो ना था। 
रास्ते के छोटे पत्थरों से रोड़े तो उसकी पढाई में भी आये।लोगों की कंटीली बातें ताने सुन कर उनसे अपने आत्मविश्वास को लहूलुहान होने से बचाते उसने नौकरी शुरू की। पुरुष मानसिकता की कीचड भरी फिसलन में खुद को संभालते संभालते आज जब उसका प्रमोशन ऑर्डर हाथ आया उसका मन चोटी की उस बड़ी चट्टान पर उछल कर मानों आसमान को छू रहा था। 
 कविता वर्मा 

Tuesday, June 2, 2015

इस प्रयास को समर्थन मिले

शांति प्रिय और सुरक्षित माने जाने वाले शहर इंदौर में पिछले कुछ दिनों में जो घटनाएँ घटीं वे इस शहर की छवि से कतई मेल नहीं खातीं। जिस तरह शहर में गुंडा गर्दी बढ़ रही है शराब और ड्रग्स के नशे में सरे राह लोगो पर कातिलाना हमले हो रहे हैं वह शहर की फ़िज़ा में चिंता घोलने के लिए काफी थे ही उस पर एक और खबर ने लोगों को ना सिर्फ चौंका दिया बल्कि हर लड़की के माता पिता को चिंता में डाल दिया। गुंडों के डर से एक परिवार को अपनी बेटियों को शहर में ही हॉस्टल में भेजना पड़ा। जब वे अपने माता पिता से मिलने आईं तो वे गुंडे फिर उनके घर में आ धमके और लड़कियों से छेड़ खानी शुरू कर दी और उन के माँ बाप पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया। शहर में गुंडा विरोधी अभियान के तहत पुलिस की कार्यवाही को कई न्यूज़ चैनल्स ने सनसनी खबर के तौर पर दिखाया जिसमें गुंडों की सरे आम पिटाई की गई उनका जुलुस निकाला गया। पुलिस के इस कदम पर सवालिया निशान लगाये गए की क्या उसे ऐसे अधिकार हैं ?क्या मानव अधिकारों का उलंघन नहीं है ?मुख्यमंत्री का ये बयान की पुलिस कार्यवाही में कोई राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं होगा ने हंगामा ही बरपा दिया। विरोधियों ने तो यहाँ तक कहा कि सरकार गुंडा गर्दी पर उतर आई है। 
पहले भी कई परिवारों ने कबूला है कि वे गुंडा गर्दी से बचाने के लिए अपनी बेटियों की पढाई छुड़वा कर उन की कम उम्र में शादी करने को मजबूर हुए हैं। 
इंदौर जैसे शहर में गुंडों के हौसले रातों रात तो नहीं बढ़ गए।  स्वाभाविक है पिछले काफी समय से या तो इन्हे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए या राजनैतिक प्रश्रय से इनके लिए उपजाऊ जमीन तैयार की गई , और जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तब इन पर लगाम लगाने की कवायदें की गई। 
इंदौर में लिंगानुपात का अंतर प्रांत के कई पिछड़े जिलों से से भी काफी अधिक है। ये वो जमीनी हकीकत है जो सरकार की बालिकाओ के लिए चलाई जा रही कई योजनाओं के बाद है। क्या माना जाये कि लोगों में व्याप्त भय उन्हें लिंग परिक्षण के लिए बाध्य कर रहा है ? लड़कियों का जन्म लेना उसके बाद उनकी परवरिश सुरक्षा जैसे मुद्दों पर माता पिता की चिंता स्वाभाविक है। पुलिस प्रशासन उन्हें सुरक्षा देने में बुरी तरह नाकामयाब रहा है। 
अभी जब गुंडा विरोधी अभियान चलाया गया जिसमे गुंडों की उन्ही के इलाकों में पिटाई करके उनका जुलुस निकाला गया इस पर देश भर में एक बहस शुरू हो गई । इसे अनैतिक और बर्बर कार्यवाही करार दिया गया तो कहीं इन गुंडों के मानवाधिकारों की बात भी कही गई। ये शोर मचाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या तो जमीनी हकीकत से बिलकुल अनजान है या इससे आँखें मींचे बस खबरे और बहस चला कर वाहवाही बटोरना चाहता है। 
ये हमारे देश की विडम्बना है कि यहाँ गैर कानूनी कामों में लिप्त लोगों के जीने के अधिकारों की जोरदार पैरवी करते समय हमारा प्रबुद्ध वर्ग आम आदमी के शांति से जीने के अधिकार को भूल जाता है। उन लड़कियों और उनके परिवारों के उन सपनों को भूल जाता है जो इन गुंडों के कारण असमय दम तोड़ देते हैं। 
पुलिस भी जानती है कि हमारी लचर कानून व्यवस्था इन्हे हफ्ते भर भी कैद में नहीं रख पायेगी और बाहर आ कर ये सवा शेर हो जायेंगे इसलिए इन्हे इन्ही के इलाके में पीट कर और इनका जुलुस निकाल कर इन्हे ये सन्देश देने की कोशिश की जा रही है कि ये कानून से ऊपर नहीं है और लोगों में उनके खौफ को कम करने का एक प्रयास है जिसे हर इंदौरी का समर्थन मिलना ही चाहिए। 
कविता वर्मा 

Sunday, May 3, 2015

ऐसा भी होते रहना चाहिए


वैसे तो लिखने की आदत समय के साथ पनपी लेकिन धीरे धीरे इसमें मज़ा आने लगा। लेकिन ये लेखन कुछ छोटे मोटे लेखो तक ही सीमित था। गुणी जनो के संपर्क में आकर और कुछ गोष्ठियों में शामिल होते रहने से इसका फलक विस्तृत होता गया और कविता कहानियां लघुकथाओं तक जा पहुँचा। कभी सोचा न था अपना कहानी संग्रह छपेगा बस लिखने का सिलसिला थोड़ा सुचारू गति से चल निकला फिर एक ख्याल सपना बन कर जेहन पर छा गया और धीरे धीरे लगा कि एक सपना आकार ले रहा है। 

अपने प्रथम कहानी संग्रह 'परछाइयों के उजाले 'पर लोगों की प्रतिक्रिया जानने की उत्सुकता किसे नहीं रहती। जान पहचान वालों की प्रतिक्रियाओं में एक अौपचारिकता भी छुपी रहती है। हालांकि अधिकतर प्रतिक्रियाएं सकारात्मक ही रहीं। कई मित्रों ने जिनमे कैलाश शर्मा जी राहुल वर्मा जी ने खुद हो कर पुस्तक समीक्षा भी लिखी जिसे समय समय पर ब्लॉग पर डालती भी रही हूँ। 

फिर भी कई बार लगता था कुछ और सटीक कुछ और ईमानदार प्रतिक्रिया मिले तो खुद का सटीक आकलन कर पाऊँ। इसी सिलसिले में मेरी पुस्तक बुरहानपुर गई वहाँ डॉक्टर वीरेंद्र निर्झर जी ने समीक्षा लिखी जिनसे आज तक नहीं मिली। बस समीक्षा आने के बाद एक बार फोन पर बात हुई थी। 
दिल्ली एक कथा कार्यशाला में जा रही थी तब ट्रेन में एक सहयात्री से काफी अच्छी बात चीत हुई और उन्हें अपनी एक पुस्तक भेंट की इस अनुग्रह के साथ की कैसी लगी पढ़ कर जरूर बताएं। लगभग ५ /६ महिने बाद एक मेल मिला। जिसे पढ़ कर लगा सच में जमीन से दो फुट ऊपर उड़ने लगी हूँ मैं। वह मेल यहाँ जस का तस कॉपी करके वह ख़ुशी आपके साथ शेयर करना चाहती हूँ। 

प्रिय बहिन कविता जी,
नमस्ते!
नव वर्ष की शुभकमनाओं के साथ आपका सहर्ष अभिवादन। आपको इस पत्र की आशा अब न रही होगी। आपकी कथा सन्ग्रह को पूरा पढ़ने के बाद ही मै आप को पत्र लिख रहा हूं। चिकित्सा व्यवसाय की व्यस्तता से समाय चुरा कर आपकी कहानियोंका आनंद लिया। वैसे तो छोठी सी पुस्तक को एक ही दिन में पढ़ा जा सकता था।परंतु एक कहानी को पढ़ कर हफ़्तों उसका स्वाद लेने के बाद ही दूसरी को देखना उचित समझा।
आपने कहानियों में एकदम अनूठे विषयों का चयन किया है। कहानियों के पात्र अत्यंत सजीव हैं तथा अनायास ही पाठक उनके साथ जीने लगता है। फिर कहानियों के नायक नायिकाएं चाहे आधुनिक नवयुवती हो या गाँव की असहाय बहू, एक साधारण गृहणी हो या घर का झाड़ू पोंछा करने वाली, पात्रों के मनोभाव उनका विचार मंथन अपना सा लगने लगता है। उनसे पूर्णतः एकमत हो पूर्ण सहानुभूति के साथ उनके साथ साथ हो लेता है। पात्रों की छोटी छोटी बातों का भी हृदय को छूने वाला चित्रण मुंशी प्रेम चंद्र की कहानियों जैसा है। किसी भी कहानी मेँ ऐसा नहीं हुआ कि मुझे  मुंशी प्रेम चंद्र की याद न आई हो। सारी कहानियाँ एक सकारात्मक मोड़ पर  कुछ अच्छा करने और हार न मानने की सीख देती हुई समाप्त होती हैँ।
अब कुछ त्रुटियों की जोर इंगित करना भी आवश्यक समझता हूँ। या त्रुटि न कह कर ऐसी दो तीन चीज़े जो मुझे अटपटी सी लगीं। पहली है भूमिका मे 'ठंडियों' शब्द और आगे कहीं 'समझावट' शब्द का प्रयोग असाहित्यिक सा है। पृष्ठ 119, पंक्ति 7 पर शायद 'महिना' के स्थान पर 'महीना' होना चहिये था।
एक और चीज़ जो अनूठी और अच्छी लगी वह थी कथा संग्रह का सासू जी को समर्पित किया जाना।
आप साहित्य के जगत मेँ आगे बढ़ते हुए नई ऊंचाइयों को छुएं ऐसी शुभकामनाओं के साथ, आपका एक सहयात्री!
अरविन्द पाल तोमर


अभी इस ख़ुशी को समाहित कर ही नहीं पाई थी कि एक दिन अचानक एक मेल प्राप्त हुआ। एक पाठक का जिन्हे न जानती थी न पहचानती थी। न ही कभी उनकी कोई टिप्पणी अपनी किसी ब्लॉग पोस्ट पर देखी थी। उनका ये मेल यहाँ जस का तस दे रही हूँ। 

From: Mahmud Alam
Date: Tue, Jan 27, 2015 at 1:55 PM
Subject: abhar prastvna
To: kvtverma27@gmail.com


Adarniya kavita jee, saadar pranam! Vigat ek saptah pahle sahitya ki khoj me apki ek laghu katha padhne ka soubhagya mila, padh to main samay wyatit karne ke liye tha parantu 1 ke baad 2 aur phir teesri kahani padhte hi meri khoj puri ho gaye. Vastutah do dashak pahle adhyan kaal me mujhe munshi premchand Jee ki rachnaon ka adhyan kiya aur phir munshi Jee ki sabhi sahitya sangrah Ko padh dala.taduprant maine unke samkalin anekon sahityakaron ki rachnaon ka adhyan kiya parantu premchand Jee ki rachnaon ka koi jod nahi mila man me yehi vichar ata ki kaash vê kuchh saal we yadi aur jiveet hote to na jane kitni amulya sahityik sampada hame prapt ho sakti thi. Kaalanter me Bhoutik vyastatao ke karan evang aisi kaaljayee, yatharth, shiksha parak evang anandonmukhi lekh ka sandhan na milna v ées kshetra se door rahne ka ek karan raha. Parantu jaise hi maine apki 3 kahaniya padhi, maine usi pal barambar 65 kahaniyan padh dali, apki rachnaon me v badi saralta se gudh tatwon ka yatharth chitran mila jo mere jaisa pathak ke liye badi prasannta ki baat hai. Apke lekh kisi bhi aayuwarg ke pathak Ko aakarshit, prasannachit evang sakaratmak soch Ko aage le jane me saksham hai.aap jaise veedushi mahan wyaktitwa ki swamini ka batour shikshika hona v Un lakhon bachhon ke liye soubhagya ki baat hai jinhe aapne vidya daan se sushobhit kiya.meri aapse ye vinamra aagraha hai ki aap lekhan jaari rakhen aaj samaj Ko sabse jyada sahityakar ki hi jarurat h, sahitya se susajjit wyakti nakaratmak karya se door rahne Ko pratibadhht hain, bahut bahut abhar,

अभी अभी मेरी एक कहानी उज्जैन से निकलने वाली समावर्तन पत्रिका में प्रकाशित हुई। उस कहानी को मेल द्वारा डॉक्टर गरिमा को भेजा जिनसे यूं तो कोई पहचान नहीं है न ही कभी कोई अनौपचारिक बात चीत हुई है ,हम व्हाट्स अप के एक ग्रुप में हैं बस। कहानी पढ़ कर उनका जो कमेंट आया उसे शेयर कर रही हूँ। 


कविता जी की कहानी ने शरणदाता  की याद दिला दी।कविता जी में अच्छा गद्य लिखने की ताक़त है।मन की बात कह पाना अल्ताफ के लिए आसान न था ,लेकिन सबके लिए मुमकिन नहीं,कहानी का अंत प्रेमचंद के आदर्शवादी अंत की याद दिलाता है।हम जिस समय में जी रहे हैं वहां आत्मीयता की जगह स्वार्थ और तटस्थता ले रहे हैं।ऐसी कहानियां इस प्रक्रिया में सकारात्मक हस्तक्षेप करती हैं।सम्मान नीय कविता जी आप इसे अच्छी जगह छपने भेजिए।

सृजन एक मानसिक संतोष देता है। लेकिन परचित और अपरिचित लोगों से मिली टिप्पणियां उत्साह बढ़ा देती हैं। 
कविता वर्मा 

Thursday, March 5, 2015

रंगो का त्यौहार होली

रीमा का मन आज बहुत उदास था। पति और बच्चों के जाने के बाद वह अनमनी सी काम निबटा रही थी। ऊब गई थी वह अपनी रूटीन जिंदगी से। तभी फोन की घंटी बजी। शहर के दूसरे छोर पर रहने वाली उसकी मौसेरी बहन का फोन था। क्या कर रही है सब काम छोड़ और जल्दी से घर आ जा। लेकिन किन्तु परन्तु सुनने के मूड में वह नहीं थी। इतनी दूर जाना। और  हाँ ऑरेंज साडी या सूट पहन कर आना ,कह कर उसने फोन रख दिया। पता नहीं क्या है अब मना भी नहीं किया जा सकता। वहाँ रीमा का स्वागत हंसी ठहाकों से हुआ। सारी मौसेरी ममेरी बहनें और भाभियाँ वहाँ इकठ्ठी थीं। सारा दिन हंसी ठहाकों खाने पीने और फोटो खींचने में निकल गया। सब एक रंग में रंगी थीं ऑरेन्ज और प्यार के रंगों में। शाम को जब रीमा घर लौटी वह रिश्तों के रंग में सराबोर थी उसकी उदासी गायब हो चुकी थी। 
 जब से  नीलू की नानीजी का देहावसान हुआ वह बचपन की उन यादों से ही बाहर नहीं आ पा रही थी। उसके मूड को देखते हुए घर में सब कुछ खामोश सा था। उस दिन उसकी बेटी कॉलेज से आ कर किचन में घुस गई। लाख कहने पर भी नीलू को न कुछ बताया और ना किचन में आने दिया। शाम की चाय के साथ उसने रंग बिरंगी भेल और हरे भरे कबाब बनाये और लॉन में रंगबिरंगे फूलों से सजी टेबल पर सब कुछ सजा कर नीलू को आवाज़ दी। सुन्दर सजीली टेबल और रंगबिरंगे नाश्ते ने नीलू को जैसे उसके अवसाद से बाहर ला दिया। उस दिन उसने अपनी बेटी के साथ अपनी नानी के संग बिताये  बचपन की ढेर सारी बातें शेयर की।  
रंगो का त्यौहार होली ,मन में इसका ख्याल आते ही लाल हरे नीले पीले रंग आँखों के आगे छा जाते हैं वैसे ही जैसे स्त्री का ख्याल आते ही उसके जीवन में मौजूद जिंदगी के विविध रंग। स्त्री और रंग , विविधता और स्त्री जीवन तो मानो एक दूसरे के पूरक हैं। छोटी सी बच्ची का लाल रंग के प्रति आकर्षण ,गुड़ियों के खेल में एक एक बात का ध्यान रखते हुए विवाह रचाना हो या आँगन के कोने को रंगीन दुपट्टों से सजाना जता देता है कि एक लड़की अपने जीवन को पूरे उत्साह और जीवटता से जीने के लिए तैयार है और उसके जीवन में उदासी हताशा जैसे अनमने रंगो का कोई स्थान नहीं है। 
रंग जहाँ अपने में ढेर सारी सुंदरता समेटे होते हैं वहीँ अपने चाहने वालों के मन को अनकहे ही मुखरित कर देते हैं। वैसे ही जैसे एक स्त्री के जीवन की सुंदरता उसके रहन सहन पहरावे से लेकर उसके जीवन की ऊर्जा में छुपी ललक से मुखरित होती है। 
स्त्री जीवन बनाम रंग 
कहने के तो स्त्री और पुरुष दोनों ही ईश्वर की बनाई कृति हैं लेकिन गाहे बगाहे उनके जीवन जीने की शैली की चर्चा तो होती ही है। लड़कपन से ही लड़कियों में रंगों के प्रति आकर्षण देखने को मिलता है और ये रंग सिर्फ चटक खिले हुए रंग ही नहीं होते बल्कि गहरे और उदासी भरे भी होते है बिलकुल वैसे ही जैसे गुड़िया की विदाई के बाद कई दिनों तक उदास रहना या उसकी याद में रोना। हमारी सामाजिक संरचना रीति रिवाज़ भी उन्हें बचपन से ही जीवन के विविध रंगों के प्रति तैयार कर देती है फिर चाहे वो भाई की झिड़की हो या दादी का उसकी चंचलता पर घूरना वह थोड़ी देर उदासी के गहरे रंग में रहने के तुरंत बाद उसे झटक झाड़ पोंछ कर चटक रंग में खिल खिला उठती है। 
कितना कुछ कहते हैं रंग 
हर रंग कुछ कहता है हर रंग अपने में जीवन के, आपके आपके मूड के , आपकी सोच के रंग को प्रकट करता है। लाल रंग सिर्फ प्रेम का ही रंग नहीं है  बल्कि ये आपको उतसाहित और ऊर्जावान भी रखता है। यही कारण है की शादी उत्सव में इस रंग को प्राथमिकता दी जाती है जिससे आप खिली खिली और उत्साहित दिखें। आपके मन में अगर कोई दुःख या उदासी है उसे कुछ देर के लिए इसके नीचे छुपाया जा सके। महिलायें ख़ास तौर पर रंगो के माध्यम से इसे बखूबी अंजाम देती हैं। 
हरा रंग है जिसे समृद्धि से जोड़ा जाता है वह जाने कितने रूप में मौजूद होता है स्त्री जीवन में। हरियाली तीज या सावन जिसमे हरे रंग में सजधज कर जीवन की विषमताओं को परे हटा कर स्त्री मन संतुष्ट महसूस करता है। ये त्यौहार विशेष रूप से स्त्रियाँ इसलिए मनाती हैं क्योंकि उनके मन की पूर्णता और उत्साह ही घर की धूरी  होते हैं। 
अब चाहती हैं अपना अधिकार भी 
जिन रंगों का पहले स्त्री जीवन में प्रवेश भी निषिद्ध था वही आज उनके जीवन में अपना स्थान बनाने लगे हैं। ब्लैक या कला रंग आधिपत्य को दर्शाता है जिसे पहले अशुभ या असगुन कह कर स्त्रियों से परे रखा जाता था। आज महिलाऐं ना सिर्फ अपना स्थान बना रही हैं बल्कि कई क्षेत्रों में उनका अधिपत्य भी है इसीलिए ब्लैक आजकल फैशन सिम्बल बना हुआ है जो आगाह भी करता है की हमें दबाने की कोशिश भी ना करना। 
अब हो गई है और दोस्ताना 
लद  गए वो ज़माने जब घर की चाहर दीवारी ही सब कुछ थी अब महिलाएं न सिर्फ दहलीज लांघ कर बाहर निकली हैं बल्कि अपनी जिंदगी में दोस्ती को भी महत्त्व देने लगी हैं फिर चाहे वह सोशल साइट पर बचपन की सहेली को ढूंढना हो या साथियों के साथ  हैंग आउट करना और इसीलिए पीले रंग ने उनकी जिंदगी में हल्दी कुमकुम से आगे जा कर एक अलहदा स्थान ले लिया है। दोस्ती और खुशमिजाजी का ये रंग ना सिर्फ दिखने में खिला खिला लगता है बल्कि मस्तिष्क और नर्वस सिस्टम को उद्दीप्त कर जीवन को ऊर्जावान बनाता  है। 
शांति सुकून सहजता 
सफ़ेद रंग जो कल तक वैधव्य का प्रतीक था अब शांति और सुकून के साथ ही सोफेस्टिकेशन का प्रतीक भी बन गया है। महिलायें न सिर्फ सफ़ेद परिधान में खुद की एक खास इमेज बना रही हैं बल्कि  जिंदगी में खुद के लिए सुकून भी खुद ही तलाश कर रही हैं। यह प्राकृतिक रंग उनकी सहज जीवन शैली का परिचायक बन रहा है। 
और भी बहुत रंग है जीवन में 
इसके अलावा भी ढेर सारे रंग हैं एक स्त्री के जीवन में जैसे पिंक रोमांटिक रंग हो या पर्पल जो रॉयल्टी दर्शाता हो सब कुछ  रहन सहन व्यवहार से ही तो प्रकट होती है। और सच देखा जाए तो अपने जीवन से दुःख या उदासी के ग्रे रंगों को छुपा कर महिलायें इन रंगों के साथ बेहतरीन सामजस्य बैठा कर आगे बढ़ रही हैं। साल दर साल रंगों और गुजरते महिला दिवसों के साथ हर महिला अपने जीवन के  विविध रंगों के खूबसूरत तालमेल के साथ आगे बढे हर रंग पूरी शिद्दत से जिए बस यही तो कहता है हर रंग और हर महिला दिवस। 
कविता वर्मा 

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...