tag:blogger.com,1999:blog-76096424501649365312024-03-17T23:14:17.373+05:30कासे कहूँ?kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.comBlogger280125tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-22789154938689492102024-03-17T23:13:00.000+05:302024-03-17T23:13:45.350+05:30नर्मदे हर <p> बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जीवन की प्रार्थना की याद ही नहीं। यह एक बहाना ही है कि फिर फिर उन देवस्थानों में जाएं और कृतज्ञता व्यक्त करें। इसी क्रम में आज नर्मदा स्नान का मुहूर्त निकला।</p><p>खरगोन आते-जाते हमेशा नर्मदा पार करते हैं। एक नदी जिसके दर्शन मात्र से पुण्य मिलता है। इस बार नर्मदा यात्रा के समय न स्वास्थ्य ठीक था और शादी की तैयारियों के कारण जाना संभव ही नहीं था।</p><p>शादियों के तीन महीने बाद तक न जाने कितनी बार नर्मदा पुल से गुजरे हर बार वादा किया माँ जल्दी ही आएंगे लेकिन जब तक वह न बुलाएं कैसे जाना होगा।</p><p>आज बुलावा आया तो शाम को निकल पड़े। स्नान करने के साथ मन में उछाह था दीपदान करने का। नर्मदा के विशाल विस्तार पर टिमटिमाते दीप मंथर गति से आगे बढ़ते हैं जिन्हें देखकर ही मन को सुख मिलता है। बस आजकल जिस तरह प्लास्टिक के दोने में रखकर दीप प्रवाहित करते हैं वह मुझे नहीं करना था। घर से घी में डूबी फूलबत्ती तो रख लीं लेकिन उन्हें जलाने के लिए आटे के दीपक नहीं बना पाए इसलिये जामुन के कुछ पत्ते तोड़कर रख लिये।</p><p>स्नान के लिए दो आप्शन थे एक महेश्वर का अथाह जल और दूसरा मंडलेश्वर का धीरे-धीरे ढलता किनारा। पिछली बार महेश्वर में स्नान करते जब पैर नीचे की सीढ़ी पर रखना चाहा वह अथाह तल की ओर चला गया और मैं बस डूबने लगी। मुझे संभालने में पतिदेव के भी पैर उखड़ गये और वे घबरा गये इसलिये आज जब लगभग अंधेरा हो चला था महेश्वर में स्नान करने की हिम्मत नहीं हुई। इसलिये रास्ता पूछते हम पहुँचे मंडन मुनि की नगरी मंडलेश्वर के घाट पर।</p><p>पत्थरों से बना घाट धीरे-धीरे पानी में उतरता है और जितनी गहराई तक जाना हो वहीं रुकने के लिए जमीन दे देता है। कमर से थोड़े ऊपर पानी में डुबकियाँ लगा लगाकर नहाए। पैरों के नीचे एक सुदृढ़ तल बड़ी आश्वस्ति था। नहाकर नदी को अर्ध्य दिया और बाहर निकले। कपड़े बदलने के लिए यूँ तो चेंजिंग रूम हैं लेकिन चूंकि अंधेरा था और तट बिलकुल खाली तो वहीं थोड़ी आड़ करके कपड़े बदले।</p><p>पूजा करके जामुन के पत्ते पर एक एक फूलबत्ती रखकर जलाई और नदी में प्रवाहित कर दी। हल्की-फुल्की बत्ती को पत्ते ने आसानी से वहन किया और नदी के मंधर बहाव के साथ दूर तक बहते चले गये। चूँकि रात नदी के तल पर फैल चुकी थी नावें बंद हो चुकी थीं और कोई स्नानार्थी नहीं थे इसलिए दीपों की इस यात्रा में कोई अवरोध नहीं था।</p><p>बस संतोष इस बात का था कि कुछ दिनों में पत्ते सड गल जाएंगे और बत्ती जलकर राख हो जाएगी और नदी में कोई प्रदूषण नहीं होगा।</p><p>बस इस तसल्ली के साथ नर्मदा स्नान पूर्ण हुआ।</p><p>हर हर नर्मदे</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-19842683615176150952023-07-13T17:25:00.001+05:302023-07-13T17:25:56.268+05:30घूंट घूंट उतरते दृश्य <p> #घूंट_घूंट_उतरते_दृश्य</p><p>एक तो अनजाना रास्ता वह भी घाट सड़क कहीं चिकनी कहीं न सिर्फ उबड़ खाबड़ बल्कि किनारे से टूटी। किनारा भी पहाड़ तरफ का तो ठीक लेकिन खाई तरफ का जहाँ से निकलने में रीढ़ की हड्डी में सिरहन दौड़ जाये। यही क्या कम था कि बीच-बीच में हवा के झोंकों के साथ आते बादल पूरी सड़क ही नहीं पेड़ पहाड़ सभी को ढंक लें। आपको पता ही न चले कि कितनी देर बाद कितनी दूर कितना तीखा मोड़ किस दिशा में आयेगा। हम बस चले जा रहे थे और तभी अचानक सड़क किनारे खड़ी वे दिखीं। गाड़ी की गति धीमी ही थी उन्हें देख और धीमी हो गई। बादलों के बीच बारिश हो न हो कोई फर्क कहाँ पड़ता है वे आपसे टकराते हैं और अपने संचय जल से कुछ नमी आपको दे देते हैं बिना मांगे बिना आपके चाहे।</p><p>इन बादलों के बीच वे खड़ी थीं हाथ में दोने लिये जामुन ले लो।</p><p>न जाने कितने बादल उनसे बिना जामुन लिये उन्हें अपनी नमी से तर करके चले गये थे। वे गीली तो नहीं थीं लेकिन नम थीं। बाल कपड़े हाथ और कुछ कुछ आँखें।</p><p>जामुन ले लो जामुन ले लो। कार का शीशा नीचे होते ही उनकी आवाज ही नहीं उनके हाथ भी अंदर चले आये। ताजा जामुन बारिश में गिरे धुले और कुछ पिलपिले। उनकी आँखों में उम्मीद की किरण कि जामुन उन्हीं से लिये जाएंगे।</p><p>अरे अरे आराम से कितने के दिये।</p><p>दस रुपये।</p><p>क्या नाम है तुम्हारा?</p><p>मैं अर्चना ये विमला ये वंदना।</p><p>स्कूल नहीं जातीं?</p><p>जाते हैं।</p><p>अब ध्यान गया अरे हाँ ये यूनीफॉर्म पहने हैं।</p><p>स्कूल के बाद जामुन बेचती हो यहाँ अकेले जंगल में डर नहीं लगता?</p><p>जवाब में बस एक मुस्कान ही मिली शायद लगता हो लेकिन दस रुपये कमा पाने के लिए डर पर काबू पाना जरूरी है।</p><p>एक दोना लेते ही दूसरी दोनों के चेहरे उदास हो गये।</p><p>बादल तेजी से रास्ते को घेर रहे थे इतने सारे जामुन खायेगा कौन का ख्याल था। तुमसे लौटते समय लेंगे। हाथ में दस दस के दो नोट कुलबुला तो रहे थे लेकिन कहीं उनके स्वाभिमान को धक्का न लगे इसलिये देने की हिम्मत न हुई।</p><p>गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई तभी ध्यान आया अरे हम तो सुबह लौटेंगे तब वे स्कूल में होंगी। तब तक गाड़ी एक तीखा मोड़ लेकर और ऊपर चढ़ गई और घने बादलों के बीच लेकिन उनकी आँखों में उतर आये बादल अभी भी उस एक दोने में गाड़ी में रखे हुए हैं।</p><p>#तोरणमाल</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-6690728798075057372023-06-23T10:48:00.002+05:302023-06-23T10:48:13.258+05:30यादगार सफर <p> पिछली बार की खरगोन यात्रा खतरों के खिलाड़ी वाली रही। शाम छह बजे निकली थी यह सोचकर कि डेढ़ घंटे में जाम घाट उतर जाऊँगी। उसके बाद अंधेरा हो जायेगा इसलिये हसबैंड से कहा था कि वे मंडलेश्वर के आगे चौली गाँव तक आ जाएं। लेकिन चार बजे खूब तेज बारिश हो गई। उसके बाद हसबैंड से बात नहीं हुई तो चाय बनाकर मैं थोड़ा अलसा गई। फिर अचानक धुन चढी कि नहीं बस अभी जाना है। तैयारी करके निकलते सवा छह बज गये ।</p><p>जाने की धुन में दाँए बाएँ सोचा नहीं। सोचा नहीं कि महान इंदौर के उटपटांग छोटे अंडरपास में जाम लगा होगा बस निकल गई। चार किलोमीटर बाद अंडरपास पर आधा घंटा लग गया। वहाँ से आगे बढ़ी तो रालामंडल फाटे पर फिर जाम था।</p><p>बादल घने थे सामने बिजली ऐसे चमक रही थी मानों आसमान से धरती तक रास्ता बनाकर उतर रही है। अंधेरा हो चुका था लेकिन गाड़ी पलटाकर वापस जाने की जगह नहीं थी। फिर खरगोन भी तो जाना था पतिदेव मंडलेश्वर पहुंच चुके थे।</p><p>खैर सोचा जो होगा देखा जाएगा खरगोन तो अभी जाना है।</p><p>बायपास से राऊ तरफ मुड़ी ही थी कि जोरदार बारिश शुरू हो गई इतनी तेज कि पचास मीटर दिखाई न दे। यही काफी न था महू में लाइट नहीं थी। टोल क्रास करते ही सड़क जिस तरह लहराती है उसके बलखाते डिवाइडर से गाड़ी टकराते बची।</p><p> तभी पतिदेव का फोन आया। बेचारा धक से हुआ मन उनके सहारे को मचल उठा और मैंने बड़ी उदारता से कहा कि एक काम करो जाम घाट के ऊपर आ जाओ क्योंकि बहुत रात हो गई है और यहाँ तेज पानी गिर रहा है। यह कहकर मानों अहसान ही किया था उन पर क्योंकि मैं तो रात में गाड़ी चलाने का एडवेंचर करना चाहती थी जो उन्हें टेंशन देता और मैंने उन्हें उससे बचा लिया।</p><p>खैर महू क्रास करते पानी बंद हो गया लेकिन शहर के बाहर घुप्प अंधेरा और नागिन सी लहराती बलखाती सड़क जो अंधेरे में पता ही नहीं चल रही थी कि किस तरफ मुड रही है। वहाँ आंधी-तूफान अभी-अभी गुजरा था इसलिये जाम घाट में रुकी हुई गाड़ियाँ सामने से आ रही थीं जिनकी तेज हेडलाइट मानों अंधा किये दे रही थी। </p><p>जाम घाट के बारह किलोमीटर पहले घाट शुरू हो जाता है जहाँ सड़क किनारे से काफी ऊँची है और इस अबूझे अंधेरे में डर था कि कहीं गाड़ी सड़क से उतर कर गिर न जाये। इस इलाके में फोन को सिग्नल भी नहीं मिलते कि किसी को मदद के लिए बुला लें या कि बता सकें कि कहाँ हैं। अब एक बार फिर मोबाइल चैक किया। डर से थरथराती एक दो डंडी देख उन्हें बस थाम लिया और पतिदेव को फोन लगाया। बताया कि कुछ दिखाई सुझाई नहीं दे रहा है इसलिए जाम घाट से आगे आ जाओ। उन्होंने पूछा कहाँ बडगोंदा ग्रिड पर रुक जाना।</p><p>पता नहीं ये बिजली वालों को अंधेरे में भी ग्रिड डीपी डबल सर्किट कैसे दिख जाते हैं। मैं झुंझलाई अरे यार चलते रहो उस तरफ आने वाली मेरी अकेली गाड़ी है दिख जाएगी। जहाँ दिखे हाथ दे देना।</p><p>अब यह नहीं बताया कि एक गाड़ी बड़ी देर से मेरे पीछे पीछे चल रही है। पता नहीं वह भी अंधेरे अबूझ की मारी है या साइड मिरर में उसे अकेली महिला ड्राइवर दिख गई। खैर जो भी हो ऐसे रिस्क लेने की अभी कोई इच्छा नहीं थी। (वैसे अंधेरी बरसती रात में पति से मिलने जाना कोई रिस्क थोड़ी था। जरा सोहनी महिवाल को याद कर लीजिये।)</p><p>आजकल खूब सारी सस्पेंस थ्रिलर हाॅरर स्टोरी पढ रही हूँ इसलिए दो तीन बार ऐसा लगा जैसे पैसेंजर साइड की खिड़की के बाहर कोई साथ-साथ दौड़ रहा है। चौंक कर उधर देखा सिर झटका फिर सड़क ढूंढने लगी । चार साल से आना-जाना कर रही हूँ कितनी बार पढ़ा कि तेंदुए की एक्टिविटी है वह कभी नहीं दिखा तो भूत क्या दिखेगा? </p><p>थोड़ी देर बाद एक गाड़ी ओवरटेक की जिसका नंबर एम पी 10 था। अरे ये तो खरगोन की गाड़ी है और मैं उसके पीछे चलती रही।</p><p>कहते हैं अंधेरे में दिमाग की क्रियाशीलता कम हो जाती है यह तब पता चला जब वह गाड़ी आगे रुकी और उसमें से एक हाथ निकला। अरे ये तो साहब की गाड़ी है ओह बढ़िया एक गहरी सांस आई जो इतनी देर से बस जरूरत भर चल रही थी। तुरंत गाड़ी रोकी अपना पर्स उठाया और जाकर उनकी गाड़ी में बैठ गई। उनके ड्राइवर ने मेरी गाड़ी ले ली और हम जाम घाट से उतरते मंडलेश्वर आ गये।</p><p>वैसे घाट उतरते एक अफसोस हुआ कि खुद को गाड़ी चलाना था अंधेरे में घाट उतरना एक अद्भुत अनुभव होता। खैर वह भी एक दिन करूँगी उस दिन के लिए काफी एडवेंचर हो चुका था।</p><p> बारिश होकर बंद हो गई थी लाइट आ गई थी और ड्राइवर का गांव मंडलेश्वर के पास था। पतिदेव ने पूछा वहाँ से तुम ले लोगी गाड़ी या उसे खरगोन ले चलें फिर किसी के साथ वापस छुड़वा देंगे। तब तक रात के ग्यारह बज रहे थे। मैंने कहा अब वो जाएगा फिर वापस घर पहुंचेगा उसे आधी रात हो जायेगी रहने दो मैं ले लूंगी गाड़ी। यह नहीं कहा कि घाट पर गाड़ी न चला सकने का दुख रात में बाकी रास्ते गाड़ी चलाकर कुछ कम कर लूँ।</p><p>मंडलेश्वर टोल पर एक बार फिर गाड़ी अदला-बदली हुई और इस बार आगे पायलट कार थी जिसके टर्न सिग्नल ब्रेक लाइट देखकर सुरक्षित चलते हम छह घंटे में रात बारह बजे खरगोन पहुंचे।</p><p>हाँ तो लब्बोलुआब यह है कि इस बार जब खरगोन आना था मैंने कल शाम आने का विचार किया लेकिन हवा पानी और ट्रैफिक जाम की स्थिति देख विचार त्याग दिया। आज सुबह जल्दी जल्दी करते भी 6:55 पर इंदौर से निकली। चालीस मिनट में महू पहुंच कर पांच मिनट जाम घाट पर रुकी पानी पिया फोटो खींची और दो घंटे बीस मिनट में खरगोन पहुंच गई।</p><p>वह सफर भी यादगार था यह सफर भी यादगार रहा दोनों के अपने अपने कारण थे। </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-12818645635506698432023-06-14T18:58:00.004+05:302023-06-14T18:58:21.123+05:30पहली बार मीठी याद <p> जीवन में बहुत कुछ या सभी कुछ पहली बार होता है और वह पहली बार एक याद छोड़ जाता है चाहे मीठी या खट्टी कड़वी।</p><p>कल ऐसा ही एक पहली-पहली बार हुआ।</p><p>भाई बहुत सालों बाद भारत आया है। मेल मुलाकातों का दौर चल रहा है। कल रात वह घर आया हम देर तक बातचीत करते रहे फिर खाना खाने बाहर गये। होटल के बाहर गाड़ी पार्क करके हम उतरे और डाइनिंग में पहुँचे तभी उसके मोबाइल पर पापाजी का फोन आया। उनसे बात करते उसने कहा जीजाजी को काॅल कर।</p><p>मैंने पर्स खोला मोबाइल निकालने के लिए लेकिन उसमें मोबाइल नहीं था। हडबडाना स्वाभाविक था मैंने दो बार बैग चैक किया कुर्ते की जेब चैक की मोबाइल कहीं नहीं था।</p><p>घर से निकलते समय पतिदेव का फोन आया था मैंने ताला लगाते हुए बताया था उन्हें कि हम बाहर जा रहे हैं और फोन साथ रखा था फिर फोन कहाँ गया?</p><p>भाई ने पूछा जीजाजी का नंबर याद है? उसने टेम्पररी एक नंबर लिया है भारत का उस फोन में नंबर सेव नहीं था।</p><p>संयोग से मुझे सिर्फ एक ही नंबर याद है पतिदेव का मैंने तुरंत उसे बताया।</p><p>वहाँ से क्या कहा गया नहीं पता लेकिन वह तुरंत उठ खड़ा हुआ ओके ओके हम जाते हैं।</p><p>उसके पीछे पीछे मैं भी उठ गई। उसने चलते हुए बताया कि जीजी तेरा फोन नीचे गिर गया है और किसी के पास है वह नीचे इंतजार कर रहे हैं।</p><p>तब तक उसने मेरे मोबाइल पर फोन लगा दिया। लिफ्ट से रूफ टाप से नीचे आते वह लगातार बात करता रहा कि बस हम आ रहे हैं दो मिनट रुकिए।</p><p>बाहर गाड़ी के पास दो युवक खड़े थे यही कोई 25=28 साल के। चूंकि बात करते करते ही हम वहाँ पहुँचे थे इसलिए पहचान का कोई संकट उपस्थित नहीं हुआ। भाई का नंबर सेव था।</p><p>उन्होंने फोन वापस किया और बताया कि वे यहीं खड़े थे आपने गाड़ी खड़ी की तब तक यहाँ कुछ नहीं था और अचानक हमें फोन दिखा। चूंकि उसमें लाॅक नहीं था और लास्ट काॅल पापा न्यू के नाम से सेव था इसलिए उस पर काॅल लगा दिया।</p><p>हमें लगा आप यहाँ नहीं हैं तो हम थाने में जमा करवाने जा रहे थे।</p><p>उन्हें खूब सारा धन्यवाद दिया और उनका नाम पूछा वह विपुल तिवारी था बनारस से। इंदौर में उसका अपना होटल है।</p><p>संयोग से भाई अभी बनारस यात्रा करके आया है और अभी भी बनारस के प्रभाव में है। मैं बनारस जाने के दो मौके अपने अनमनेपन में छोड़ चुकी हूँ और बनारस इस तरह भी मुझे इस बात का अहसास करवा रहा है।</p><p>जब से मोबाइल रखना शुरू किया यह पहली बार था कि फोन गुमा लेकिन एक मीठी याद बनाकर उसका वापस मिलना हमेशा याद रहेगा।</p><p>#Banaras</p><p>#yaad </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-57174674155672010092023-06-05T10:36:00.000+05:302023-06-05T10:36:27.580+05:30ऐसे सहेजें बारिश का पानी <p> बाइस साल पहले मैंने जब इस नई बनी कालोनी में मकान बनाया था मेरे बगल के दो प्लाट खाली थे। बारिश में मैंने देखा कि इन प्लाट पर आने वाला बारिश का पानी तीन-चार घंटे में जमीन में समा जाता है। बारिश के मौसम में वे प्लाट डेढ़ दो फीट भर जाते और खाली हो जाते। हर बारिश में ऐसा चार पाँच बार होता।</p><p>मैंने उन प्लाटस् पर कभी गाड़ी नहीं खड़ी की। उन पर लगी झाड़ियां भेड़ बकरियों ने खाईं लेकिन उन्हें कटवाया नहीं। पूरे साल विशेषकर बारिश के पहले उन पर हवा में उड़कर आई प्लास्टिक की पन्नियों को इकठ्ठा करके हटाया।</p><p>कुछ सालों में आसपास मकान और सड़क बनने के कारण वहाँ पानी की आवक कम हो गई। हमने फावडे से नालियाँ बनाकर सड़क का पानी इन दो प्लाट पर उतारा। </p><p>यहाँ तक कि अपने ट्यूबवेल की रीचार्जिंग के अलावा पोर्च का पानी भी इन खाली प्लाट में उतार दिया। </p><p>हर साल तीन-चार बार डेढ़ दो फीट पानी भरने का सिलसिला पिछले बाईस साल से जारी है।</p><p>एक दिन मैंने हिसाब लगाया तीस पचास के दो प्लाट मतलब तीन हजार स्क्वेयर फीट में हर साल एवरेज पाँच फीट पानी भरा और जमीन में चला गया। मतलब तीन हजार स्क्वेयर फीट का कुंआ जिसमें बाईस साल में 110 फीट पानी जमा हुआ। आगे भी जबतक मकान नहीं बनेगा इसकी ऊंचाई बढ़ती रहेगी।</p><p>सोचती हूँ इतना पानी मेरे दो बच्चों के पूरे जीवन भर के लिए पर्याप्त होगा। हर बार जब भी बारिश होती है और खाली प्लाट भरते हैं मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ इस पानी को मेरे बच्चों के अकाउंट में लिख देना प्रभु।</p><p>बच्चे अपने लिये पैसा तो खुद कमा लेंगे लेकिन हवा और पानी हमें उनके लिए छोड़ कर जाना होगा।</p><p>इस बारिश आप भी अपने बच्चों के अकाउंट में पानी जमा करना शुरू करिये। अपने घर के आसपास न हो तो सामने की जगह पर करिये कालोनी के किसी भी खाली प्लाट पर करिये अकेले नहीं तो सामूहिक रूप से करिये। यकीन मानिये ऊपर वाले का हिसाब किताब बहुत पक्का होता है। आपकी बचत आपके बच्चों को ही मिलेगी।</p><p>#पर्यावरण</p><p>#जल_संरक्षण</p><p>#environment_day</p><p>#water_conservation</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-3524605810972798422023-03-18T23:17:00.000+05:302023-03-18T23:17:16.827+05:30बैंक में एक दिन अनायास<p> <span style="font-family: sans-serif; font-size: large;"> </span></p><span style="font-family: sans-serif; font-size: large;">कल एक प्रायवेट बैंक में जाना पड़ा। पड़ा इसलिये क्योंकि मैं ज्यादातर बैंक जाना बिल भरना सब्जी खरीदने जैसे काम करना पसंद नहीं करती लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मुझे ये काम नहीं आते। आते भी हैं और जरूरत होने पर करती भी हूँ। अब चूँकि पतिदेव का प्रमोशन हो गया है और उनका वर्किंग डे में इंदौर आना कम ही होता है इसलिये काफी समय से पेंडिंग यह काम मैंने ही करने का सोचा। </span><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">हाँ तो हुआ यह कि बैंक में कुछ पैसे जमा करवाना था और बहुत दिनों से पासबुक अपडेट नहीं करवाई थी उसमें मेरी कुछ कहानियों के पेमेंट भी थे इसलिए उसे अपडेट करवाना थी। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">हाँ तो मैं एक प्रायवेट बैंक गई जो घर से आधा किलोमीटर दूर होगा। मैंने डिपाजिट स्लिप भरी और काउंटर पर पहुँची। काउंटर पर एक लड़की ने स्लिप ली और नोट गिनने वाली मशीन में डालकर गिनने के बजाय सीधे नोट छांटने वाली मशीन में डाल दिए। मैं सामने खड़ी मानिटर पर नंबर देख रही थी और वह नंबर उससे कम था जितने नोट मैंने दिये थे। मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि मैं घर से ही नोट गिनकर और एक स्लिप पर लिखकर ले जाती हूँ। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"मैंने पूछा ये कितने नोट हैं ये नोट कम हैं क्या?" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">एक दो बार कोई जवाब नहीं मिला फिर उसने बताया कि नहीं नोट बराबर हैं। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"ठीक है सिस्टम का कोई पेंच होगा सोचकर मैं शांति से खड़ी रही। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">ट्रांजेक्शन होने के बाद उसने पूछा" ये आपका रजिस्टर्ड फोन नंबर है?"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" हाँ" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" अभी इस नंबर पर एक मैसेज आयेगा वह आप मुझे मेरे नंबर पर फारवर्ड कर दीजिए"। कहकर उसने अपना फोन नंबर उसी स्लिप पर लिख दिया। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"कैसा मैसेज?"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"फीडबैक के लिए लिंक आयेगा आप मुझे भेज दीजिये मैं भर दूँगी।" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">कमाल है मैंने मन में सोचा।" फीडबैक का लिंक है न तो मैं भर दूंगी क्या दिक्कत है?"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" नहीं वह पाइंट रहते हैं न इसलिये।" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">मैंने कुछ नहीं कहा। आजकल फीडबैक पाइंट मार्केटिंग पर दुनिया चल रही है। खैर यह बेटी का अकाउंट था अब मुझे अपने अकाउंट में डिपाजिट करना था। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">मैंने स्लिप और पैसे उसे दे दिये। उसने पैसे काउंटिंग मशीन पर काउंट करने के बजाय नोट छांटने वाली मशीन पर रख दिए। नोट पुराने थे या ठीक से रखे नहीं गये इसलिए वे मशीन में फँस गये।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">उसने एकाध बार निकालने की कोशिश की फिर आवाज लगाई भैयाsss</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">पास ही खड़े प्यून कम आफिस असिस्टेंट, कैशियर बाक्स के अंदर गया।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"भैया ये देखिये न नोट फँस गये इसे निकालिए न।" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">मशीन में सिर्फ एक कवर था जिसे ऊपर उठाकर नोट निकालना था जिसे करना उसके लिए शायद बहुत कठिन था या डाउन ग्रेड काम इसलिये उस कैशियर केबिन में जहाँ किसी का जाना मना होता है वहाँ भैया फँसे नोट निकाल रहा था।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">नोट निकलने के बाद उसने फिर उसमें डाले नोट फिर फँस गये। फिर मशीन खोली गई। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"सारे नोट निकल गये" ? मैंने पूछा। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"हाँ" कहकर उसने फिर अंदर देखा तो एक नोट बाहर आया। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"ठीक से देखो" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">इस बार दो और नोट बाहर आये। एक बार फिर नोट मशीन में लगाए गए। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">भैया कहता रह गया "मैडम ये दूसरी मशीन है उसमें लगाकर गिन लो" लेकिन मैडम स्मार्ट वर्क में विश्वास करती हैं वे दो बार काम क्यों करतीं? वे एक ही बार में नोट गिनकर खराब नोट छांट लेना चाहती थीं। इस बार फिर नोट फँस गये फिर निकाले गये।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">अब आधे नोट भैया को दिये गये आधे खुद के हाथ में पकड़े और गिनना शुरू किया। भैया ने गिने उनचालिस मैडम ने कभी एक एक कभी दो को एक कभी एक को दो करते गिने और गिनती बताई। अब हुआ यह था कि मैंने गड्डी दी थी और इस गिनती के अनुसार ग्यारह नोट कम थे। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">मैंने कहा "मशीन में फिर से देखो और नोट तो नहीं फँसे हैं नीचे तो नहीं गिरे हैं" । </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">हुआ यह था कि वह पूरी गड्डी थी इसलिए मैंने गिनती नहीं की थी। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">उसने एक बार फिर देखा और कहा "नहीं हैं मैम आप एक बार फिर गिन लीजिये।" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">खैर मैंने गिना 89 नोट ही थे और मुझे उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखा इसलिये मैंने उसमें एक नोट और मिलाकर राउंड फिगर किया।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">अब हुआ यह कि डिपाजिट स्लिप का अमाउंट कुछ और था और रुपये कुछ और। मैडम ने मेरी स्लिप लेकर उसमें करेक्शन करना शुरू कर दिया। मैं देखती रही कि हो क्या रहा है क्योंकि वह स्लिप इतने करेक्शन के साथ बेकार ही थी। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">फिर आवाज लगाई गई " भैया एक स्लिप ले आइये।" </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">स्लिप आई और उन्होंने उसे भरना शुरू कर दिया। अकाउंट नंबर लिखते हुए कोई नंबर बाक्स के ऊपर कोई लाइन पर कोई बाहर कोई नीचे। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"आप जिस तरह से अकाउंट नंबर भर रही हैं ये आप खुद भी दस मिनट बाद पढ नहीं पाएंगी।" मैंने कहा।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"वो बाक्स हैं ही इतने छोटे"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"अच्छा। बैंक की एक्जाम देते ओएमआर शीट में भी इतने ही बड़े बाक्स होंगे न वे भी ऐसे ही भरे थे? अगर बाक्स इतने छोटे हैं तो कस्टमर को ऐसी स्लिप क्यों देते हैं बड़े बाक्स के साथ छपवाइये न।" अब यह लापरवाही बर्दाश्त से बाहर होने लगी लेकिन फिर भी मैंने आराम से कहा।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">फिर मुझे याद आया "आपने स्लिप में मेरे साइन तो लिये नहीं।"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"हाँ तो आप साइन कर दीजिए।" कहने का अंदाज इतना लापरवाह था कि जैसे साइन होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता फिर भी आपको करना है तो कर दीजिए। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">अब मैंने मन बना लिया।" शिकायत पुस्तक कहाँ है दीजिये मुझे।"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" किस लिये?"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" किस लिये? सच में! आपको यह पूछने का अधिकार है? " ओफ्फ मैं अभी तक बाल नहीं नोचने लगी थी यह अजूबा ही था मेरे लिए।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"भैया" उसकी नौकरी में भैया कितना बड़ा सहारा थे पता नहीं उसे और भैया को इस बात का एहसास भी था या नहीं।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">खैर मेरे पैसे जमा हो गये थे अब मुझे पासबुक में एंट्री करवाना था इसलिए मैं दूसरी डेस्क पर आ गई। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">पांच मिनट बाद वह भी बगल वाली अपनी डेस्क पर आ गई। दो मिनट अपने कंप्यूटर पर कुछ काम किया और फिर मेरी तरफ पलटी "मैम आपकी पासबुक दीजिये न प्लीज आपका अकाउंट नंबर देखना है।"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">वही हुआ वह अपनी ही राइटिंग समझ नहीं पा रही थी। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">"पासबुक! मैंने आपको पहले ही कहा था कि आप इसे पढ नहीं पाएंगी। मान लीजिए अगर मैं यहाँ नहीं रुकती और चली गई होती तो आप मेरा पैसा किस अकाउंट में डालतीं? या मुझे फोन करके घर से बुलवातीं? ये क्या तरीका है काम करने का?"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">अब मुझे थोड़ा तैश आने लगा। "कंप्लेन बुक कहाँ है भैया जब तक मुझे कंप्लेन बुक नहीं मिलेगी मैं यहाँ से नहीं जाऊंगी।"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" मैडम वो ब्रांच मैनेजर के पास है।" अब मेरी आवाज़ कांच के केबिन के अंदर चली गई या शायद अंदर तो पहले ही चली गई थी अब उसकी दृढ़ता ने एक संदेश अंदर पहुँचा दिया। अंदर से ब्रांच मैनेजर बाहर आये। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" क्या हुआ मैडम? "</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">" ये स्लिप देखिये और तय कीजिये क्या इसे ऐसे भरा जाना चाहिए था? अगर मैं चली गई होती तो अकाउंट नंबर अंदाजे से भरा जाता? किस अकाउंट में डालते आप यह पैसा?"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">मैनेजर ने स्लिप देखी और उन्हें समझ आ गया कि बात गंभीर है "मैम प्लीज आप अंदर आइये।"</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">अब अंदर केबिन में बैठकर फिर पूरी बात बताई गई शिकायत पुस्तक ली गई और पूछा कि क्या एम्पलाईज् को कैश काउंटिंग मशीन खोलना भी नहीं आता? स्लिप भरना, स्लिप में नंबर भरना इतना मुश्किल काम है कि ठीक से नहीं किया जा सकता जबकि बैंक में कुल जमा तीन कस्टमर हैं पिछले आधे घंटे में। सरकारी बैंक में इतनी देर में तीस कस्टमर आ चुके होते।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">प्रायवेट बैंक में हैंडसम सैलरी है लेकिन फिर भी काम करने का इतना गैर जिम्मेदार रवैया लापरवाही क्यों है?</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">एक गलती होती तो मैं नजरअंदाज कर देती लेकिन यहाँ तो गलतियों लापरवाही की सीरीज थी कब तक और क्यों नजरअंदाज किया जाना चाहिए। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">मुझे उस लड़की से कोई दुश्मनी नहीं है लेकिन शिकायत करना जरूरी था ताकि काम करने का रवैया सुधरे सिस्टम सुधरे। </div>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-27016726084710410342023-03-11T20:33:00.001+05:302023-03-11T20:33:35.317+05:30टेसू तेरे रंग अनेक <p> टेसू का नाम आते ही गहरे नारंगी लाल रंग के फूलों की तस्वीर आँखों में आ जाती है। होली के पहले ही इनकी आमद हो जाती है और ऐसा लगता है मानों जंगल में आग लगी हो।</p><p>खरगोन जाते हुए जंगल से भरी घाटियाँ पड़ती हैं। घाट सेक्शन में सफर मेरे लिए बहुत मुश्किल होता है लेकिन फिर भी इस जंगल का मोह मुझे इसी रास्ते पर ले जाता है।</p><p>इस साल टेसू जी खोल कर फूला है। जंगल में दूर दूर तक लाल फूलों से लदे पेड़ बार बार रुकने को मजबूर करते हैं लेकिन रुक जाने भर से मन नहीं भरेगा और मंजिल तक पहुँचना मुश्किल हो जायेगा इसलिये बस चलते रहते हैं।</p><p>पतिदेव के प्रमोशन के साथ एक मुश्किल यह हुई कि अब उनका इंदौर आना जाना कम हो गया। हेडक्वार्टर न छोड़ने की मजबूरी लेकिन मुझे तो इंदौर खरगोन दोनों ही घर देखना है।</p><p>होली पर अकेले ही थी लेकिन रंगपंचमी साथ मनाने के लिए आज सुबह इंदौर से अकेले ही गाड़ी लेकर निकल पड़ी।</p><p>गाड़ी तो लेने आ भी जाती लेकिन सामने सीट पर सफर में इतने चक्कर आते हैं कि पीछे सीट पर बैठ कर सफर बिलकुल असंभव है।</p><p>तो हुआ यह कि गाड़ी तो अपनी पूरी रफ्तार में थी टेसू लाल रंग दिखा रोक रहे थे लेकिन मन कड़ा कर उन्हें बाय कहते बढ़ती जा रही थी। एक कारण और था रास्ते में न रुकने का। कई जगह साथ चलती गाड़ी ओवरटेक करते लोग गाड़ी में झांक कर सुनिश्चित कर रहे थे कि बयडी अकेली छे।</p><p>तभी अचानक ऐसा कुछ दिखा कि अस्सी की गति को झटके से विराम देना पड़ा।</p><p>अहा सड़क किनारे केसरिया रंग का टेसू।</p><p>टेसू या पलाश का एक और रंग है पीला यह तो पता था। घाटी में पीले रंग के टेसू के आठ दस पेड़ हैं जिन्हें पिछली बार भी देखा था और पिछले बरस भी। उनके बारे में लिखा नहीं क्योंकि फिर शायद वे फूल बच नहीं पाते लेकिन यह तो एक अनोखा रंग है।</p><p>गाड़ी तुरंत पीछे ली और दो चार फोटो लीं। अहा आज की यात्रा का प्रतिसाद। मन तो नहीं था कि इस दुर्लभ पेड़ के बारे में बताऊँ क्योंकि ज्यादा जानकारी पेड़ के लिए खतरा हो सकती है लेकिन दुर्लभ है इसलिए जानकारी देना जरूरी है ताकि संरक्षण किया जा सके।</p><p>अगर आपको सफर में यह पेड़ दिखे तो बस दूर से देखिये फोटो लीजिये फूल तोड़ने की कोशिश मत कीजिये क्योंकि एक पेड़ के फूलों पर ही बीज बनाने का और अपनी प्रजाति को बचाने का भार होता है।</p><p>फोटो में तीनों रंग के टेसू देखिये और प्रकृति द्वारा दी जा रही होली और रंगपंचमी की शुभकामनाओं को दिल से महसूस कीजिये।</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-53410578707840522052022-12-14T19:52:00.000+05:302022-12-14T19:52:41.456+05:30नर्मदा यात्रा <p> </p><p dir="ltr">परकम्मा 1<br />
एक दिन में कितने किलोमीटर चल सकते हैं के विचार के साथ हिम्मत जुटाई गई थी यात्रा की। यात्रा जो की जा रही हैं सदियों से नदियों के किनारे की जंगलों की तीर्थ स्थलों की। हमारे मन में था इसका मूल भाव। यात्रा प्रकृति को निहारने की उसका हिस्सा बन जाने की उसमें समा जाने की उसे खुद में समाहित कर लेने की। <br />
वर्ष <a href="tel:2022">2022</a> के दूसरे महिने में औचक शुरू हुई यात्रा ने इतना उत्साहित कर दिया कि वर्ष की समाप्ति के दो महीने पहले फिर निकल पड़े नर्मदा और उसके किनारे के जंगलों में खो जाने को।<br />
जहाँ पहले एक बड़े समूह की योजना थी जो बहुत सारी व्यवस्थाओं और खर्च को देखते हुए सीमित साथियों के साथ शुरू की गई। पिछली यात्रा से इतर इस बार खूब योजना बनीं खूब रिसर्च किये और अंततः तय हुई यात्रा की तिथि।<br />
सुबह अपने अपने साधन से एक स्थान पर मिलना तय हुआ और तय हुआ जीवन को तय मानकों से इतर कुछ दिन बिताना।<br />
जंगल के रास्ते केवडेश्वर महादेव पहुंचे तो वहाँ से नर्मदा का खूबसूरत प्रवाह दिखा लेकिन यह समझते देर न लगी कि यहाँ से बाकी साथियों का आना असंभव है। मोबाइल नेटवर्क नहीं था बडवाह शहर से मात्र दस किलोमीटर दूर मोबाइल नेटवर्क नहीं था तो न संपर्क कर सकते थे न गूगल महाराज की सेवा ले सकते थे। तय किया कि सुरतीपुरा तालाब के किनारे नाग मंदिर में रुक कर साथियों का इंतजार किया जाये।<br />
सुदूर जंगल में एक मंदिर सेवा करने वाले चार छह लोग और मंदिर भी सड़क से बारह फीट नीचे उतर कर तालाब किनारे। जंगल में लकड़ी लेने आईं लडकियाँ औरतें जो ऊपर सड़क किनारे बैठे सुस्ता रही थीं बतिया रही थीं । न कोई परिचित न नेटवर्क लेकिन मन में भय का कोई विचार ही नहीं।<br />
नर्मदे हर के अभिवादन के साथ ही आप इस में प्रवेश करने सुस्ताने और चाय पाने के अधिकारी हो जाते हैं। नाग देवता आदिवासियों के ईष्ट देव हैं और उनके मंदिर में सभी सुरक्षित। मैंने वहाँ रुकना निश्चित किया पतिदेव को आफिस जाना था वे चले गए। <br />
मंदिर के बगल में बना हुआ है बड़ा हाॅल जो परकम्मा वालों की विश्राम स्थली है। आओ अपनी चादर बिछाओ और सोओ लेटो। हाल से उतर कर जाती हैं सीढियाँ तालाब किनारे जो पानी काई कमल के पत्रों से ढंकी हैं। तालाब के ऊपर फैले कमल के पत्ते उन पर गिरे सागौन के सूखे पत्ते उनके बीच सिर उठाए खड़े कमल के फूल और उन तक जाने के लिए एक डोंगी आसपास चहकते पंछी। सच कहूँ अगर साथियों का इंतजार नहीं होता न तो वहाँ दिन भर बैठकर एक कहानी तो बुन ही लेती।<br />
चाय बनकर आ गई समय न खाने का था न नाश्ते का लेकिन अतिथि को कुछ तो देना चाहिए इसलिये सेवादार दो सेब लेकर आया दीदी खा लीजिये। बहुत आग्रह किया मान तो रखना था फिर चाय बनकर आ गई कड़क मीठी निमाडी चाय। <br />
इस नीरवता में बाहर से आती लड़कियों पंछियों की चहकती आवाजें सेवादारों की भोजन की तैयारी की बातचीत भी शामिल थीं। थोड़ी देर में गाड़ी की आवाज के साथ इंतजार खत्म हुआ। बाहर आई तो पता चला गाड़ी तो आई है लेकिन साथी आधा किलोमीटर जंगल में चलने का प्रलोभन छोड़ नहीं पाए तो पैदल आ रहे हैं।<br />
आते ही सब जुट गये अपने अपने पसंदीदा चीजों की फोटो लेने किसी को जंगल भाया किसी को तालाब तो कोई लड़कियों के सिर पर लकड़ियों की भारी के बावजूद उनकी उत्फुल्लता से रीझ गया तो किसी को आगे जाते रास्ते ने मोहा। फिर लगा जयकारा नर्मदे हर शुरू हुई यात्रा।</p><p dir="ltr">कविता वर्मा </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-20764101090371504482022-11-12T11:03:00.001+05:302022-11-12T11:03:55.536+05:30अब तो बेलि फैल गई <p> <span style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">मेरी बात </span></p><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">आम मध्यमवर्ग के पास जब कमाने खाने की चिंता कुछ कम होती है तब उनके जीवन में अलग तरह के दुख चिंता परेशानी अपनी पैठ बना लेते हैं। वे इतने चुपके से जीवन में रिसते हैं कि बाहर से दिखते नहीं है और अपनी सीलन से जीवन की उष्णता को बुझाते रहते हैं। हर दिन हर क्षण जीवन के उमंग उत्साह के कम होते रहने से जीवन में व्याप्त अंधेरी सीलन का एहसास तब होता है जब उसमें भावनाओं का कोई दीपक टिमटिमाने लगे। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">समाज में अकेली स्त्री का जीवन कठिन है उसके हर क्रियाकलाप पर नजरों की पहरेदारी रहती है। इन नजरों के बीच, बेचारगी और लांछनों को परे रख स्व को बचाए रखना एक कठिन और सतत प्रक्रिया है। जरा चूके और सम्मान आत्मभिमान दम तोड़ देगा। इसके बावजूद यह स्त्री का नैसर्गिक गुण है या समाज की सदाशयता वह इस अकेली स्त्री को अपने में शामिल कर लेता है। प्यार दोस्ती सहानुभूति बेचारगी लाँछना और मदद के जरिए उसके होने की स्वीकृति देता है। <br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br />दूसरी ओर अकेले पुरुष की स्थिति इतनी उपेक्षित है कि उसकी उपस्थिति की स्वीकार्यता ही नहीं दिखती। अगर वह लंपट है तो शायद घुसपैठ बना ले लेकिन शरीफ अकेला अपने अपराध बोध से ग्रस्त और जिम्मेदारियों से दबा पुरुष न खुद खुलकर समाज का हिस्सा हो पाता है और न ही समाज उसका बाँहें फैलाकर स्वागत करता है। वह या तो अपने जैसे अकेले साथियों को ढूँढे या अपने सुख-दुख और अकेलेपन के साथ खुद में सिमटा रहे।<br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">अकेले पुरुष को समाज में कोई महत्व ही नहीं दिया जाता वह भी कहाँ अपनी परेशानियाँ कह पाता है और कहे भी तो सुने कौन समझे कौन? इसका यह मतलब तो नहीं है कि सब बढ़िया है मजे में है। इस बढ़िया के तले देखने की कोशिश की है इस उपन्यास में। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">जीवन में प्रेम पाने की ललक युवावस्था में ज्यादा होती है एक लंबा जीवन जी कर सब कुछ पाकर बहुत कुछ खो देने वाले इंसान के लिए प्रेम करना इतना आसान भी नहीं है। बल्कि वह तो इस एहसास को जुबान पर लाते और महसूस करते भी कतराते हैं। उसे तो इसके पहले बचे हुए को समेटने की चिंता सताती है। रिश्तों पर विश्वास कर पाने की जद्दोजहद, दबाव, छलावा, छवि का तड़कना ऊपर से शांत दिखने वाले जीवन की तलहटी में हलचल मचाते हुए धुँधलापन फैलाते रहते हैं। ये जीवन के झंझावात की तरह होते हैं जिनसे बचना आसान नहीं है। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">खोकर पाने और पाकर खोने वालों के लिए जीवन को देखने की दृष्टि अलग-अलग होती है। जिसने सब कुछ पाकर खोया है वह बचे हुए की सार संभाल के लिए सतर्क होता है। कुछ और पाने की आकाँक्षा भले हो लेकिन बचे हुए को दाँव पर लगाने की हिम्मत नहीं होती। जीवन के हर कदम हर निर्णय पर इसका असर स्पष्ट नजर आता है। खो देने के बाद का खालीपन जीवन पर छाया रहता है। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">खोकर पाने वाले का जीवट शायद कुछ बड़ा होता है। वे खोने के दर्द को पीना सीख जाते हैं और फिर आगे बढ़ना भी। इन दोनों ही तरह के लोगों के परस्पर सामंजस्य से जिंदगी की मुश्किलें हल करने की दिशा मिलती है। यही दोस्ती के दायरे बनाती है तो इससे आगे बढ़कर प्रेम और विश्वास की राह भी। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br />भारतीय समाज में खून के रिश्ते हमेशा सर्वोपरि रहे हैं जबकि इनमें निरंतर हास देखा गया है। सुख दुख में कहीं ये सबसे बढ़कर हैं तो कहीं तटस्थ और कहीं इससे भी आगे बढ़कर स्वार्थ सिद्धि का साधन। फिर भी इन का कमजोर होना, टूटना दिल को दुख देता है। यह किसी भी व्यक्ति के जीवन का इतना गहरा आघात होता है कि इसके बाद किसी अन्य पर विश्वास होना तो कठिन होता ही है खुद पर से विश्वास खत्म हो सकता है। ऐसे लोगों की स्थिति समझना आम लोगों के लिए संभव नहीं होता। समाज में बदलाव आते आते भी पुरानी धारणाएँ मन को जकड़ती हैं। महानगर की विराटता में यह जकड़न भले शिथिल पड़े इसके पहले व्यक्ति लंबी प्रक्रिया से गुजरता है।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"> </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">वस्तुतः मानव का स्वभाव, निर्णय लेने की क्षमता उसके जीवन की इन्हीं घटनाओं और उसे मिलने वाले व्यवहार से प्रभावित होती हैं, जिसे जाने समझे बिना किसी को टैग करना हमारे समाज में बेहद आम है। घटनाएँ भले छोटी हों उनके प्रभाव गहरे और व्यापक होते हैं।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br />'अब तो बेलि फैल गई' ऐसे ही लोगों के जीवन की कहानी है जो अचानक मिले, अपनी और एक दूसरों की जरूरतों के चलते जुड़ते गए, इस जुड़ाव से उपजी जिम्मेदारी ने विश्वास पैदा किया जो दोस्ती में बदलते एक मुकाम पर पहुँचा।<br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"> यह उपन्यास इन्हीं परिस्थितियों के दुख तनाव के साथ आगे बढ़ते हुए अपनी लय पाता रहा है। इसके पात्र हमारे आपके आसपास के छोटे कस्बे से महानगर तक विद्यमान हैं।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">इस उपन्यास को लिखते पात्रो की बैचेनियों ने लिखने न दिया लेकिन डॉ सोनल ने लगातार हौसला बनाया तो आदरणीय सुनील चतुर्वेदी जी ने इसे पढ़कर आश्वस्त किया और इसे पूरा करने की राह प्रशस्त की। प्रिय छोटी बहन रक्षा दुबे चौबे जिन्होंने पुस्तक के कवर पेज को बनाने की जिम्मेदारी अपनी व्यस्तताओं के बाबजूद उठाई। उनकी बहुत आभारी हूँ।</div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">इसे पढ़ते अगर आप अपने आसपास के लोगों को देखते और समझते हैं तो यह इस उपन्यास की सार्थकता होगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। </div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br /></div><div dir="auto"><div dir="auto"><span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;">अत्यंत हर्ष के साथ सूचित किया जता है कि मेरा उपन्यास ‘अब तो बेलि फैल गई’, ‘अद्विक पब्लिकेशन’ (दिल्ली) से प्रकाशित हुआ है। जिसे पाठक अमेज़न से या सीधे ही प्रकाशक से सम्पर्क कर प्राप्त कर सकते हैं।</span></span></div><div dir="auto"><span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></span></div><div dir="auto"><span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;">प्रकाशक अशोक गुप्ता जी से सम्पर्क कर पुस्तक मँगवाने पर प्रथम सौ पाठकों के लिए डाक-शुल्क ‘अद्विक पब्लिकेशन’ द्वारा वहन किया जाएगा।</span></span></div><div dir="auto"><span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></span></div><div dir="auto"><span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;">अपनी प्रति प्राप्त करने के लिए कृति का मूल्य रु. 250/- (ढाई सौ मात्र) 9560397075 नंबर पर ‘पेटीएम’, ‘गूगल पे’ या ‘फोन पे’ द्वारा अदा करें और स्क्रीन-शॉट सहित अपना पूरा पता whatsapp कर दें।</span></span></div></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">कविता वर्मा <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhivqdZYSGNrHBmUx7x5gjJ_dnobTv73BC9pEUT6Y4umT5OFtmk76eZc03O7VxNwg06pz2mnsivNQZPFogC04QzVlsEimE2iouS0ayUcZM7BbC1yuRj_MATK7svPJ3JNeV5wbG89Dt-w3SDKfx1vg8F2crOiBulyIledTRvVlVCswRfuqUNh2wAzmgl/s4000/IMG_20220918_092219.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4000" data-original-width="3000" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhivqdZYSGNrHBmUx7x5gjJ_dnobTv73BC9pEUT6Y4umT5OFtmk76eZc03O7VxNwg06pz2mnsivNQZPFogC04QzVlsEimE2iouS0ayUcZM7BbC1yuRj_MATK7svPJ3JNeV5wbG89Dt-w3SDKfx1vg8F2crOiBulyIledTRvVlVCswRfuqUNh2wAzmgl/s320/IMG_20220918_092219.jpg" width="240" /></a></div><br /></div>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-24302280175607703432022-09-13T22:30:00.001+05:302022-09-13T22:30:10.145+05:30बाल बाल बचे <p> </p><p dir="ltr">#बाल_बाल_बचे<br />
#गुस्से_के_गुड_इफेक्ट <br />
मोबाइल हाथ में ही था जब एक मैसेज आया कि अकाउंट में तीन सौ रुपये आये हैं। एक बार देखा फिर सोचा आये होंगे और वापस अपने सर्फिंग में व्यस्त हो गई। वैसे भी यह विभाग मेरा नहीं है इसलिये कभी देखती भी नहीं हूँ हाँ पतिदेव को फारवर्ड कर देती हूँ तो कर दिया। <br />
तभी एक अनजान नंबर से फोन आया "मैडम आपके अकाउंट में गलती से हमारे तीन सौ रुपये आ गये आप उसे उसी नंबर पर वापस कर दीजिए। हमसे गलती से चले गये।"<br />
सुनते ही वह मैसेज दिमाग में कौंधा। लगा शायद किसी ने मोबाइल रिचार्ज किया होगा (क्योंकि मैं बस इतना ही करती हूँ तो इसके आगे सोच ही नहीं पाई) और एकाध डिजिट गलत दबा दी।<br />
"हाँ तीन सौ रुपये तो आये हैं लेकिन उन्हें वापस कैसे करना है यह मुझे नहीं आता "मैंने असमर्थता जताई।<br />
तभी पीछे से कोई दूसरा लड़का बोला "मैडम वो हम रास्ते में थे जल्दी जल्दी में गलत नंबर चला गया। हमारे लिये बहुत मुश्किल हो जायेगी आप उसे वापस कर दीजिए।"<br />
"कहाँ से बोल रहे हो? "<br />
"बड़ौद से हम बाहर जा रहे थे। "<br />
अब तक मुझे उन पर दया आने लगी लेकिन तब भी मुझे सच में समझ नहीं आया कि उसके पैसे कैसे वापस करूँ।<br />
" ऐसा करिये कि आप इंदौर आयें तो बता दें मैं कैश में आपके पैसे वापस कर दूँगी "<br />
अब उसने पैंतरा बदला" मैडम हम बैंगलोर में हैं वहाँ से आने में ही हमें तीन हजार रुपये लग जाएंगे।"<br />
"तो आपको ध्यान रखना चाहिए था। मैंने तो आपको कहा नहीं था पैसे <u>डालने के लिए" बार बार एक ही बात दोहराते मेरा धैर्य जवाब देने लगा।</u><br />
<u>" मैडम प्लीज कर दीजिए न इंसानियत के लिए..."</u><br />
<u>अब तो मेरा पारा हाई हो गया।" इंसानियत के लिए का क्या मतलब? अगर मुझे पैसे वापस करना नहीं आता तो क्या मैं जानवर हो गई? क्या करूँगी मैं आपके तीन सौ रुपट्टी का? क्या बोल रहे हो कुछ समझ आ रहा है?"</u><br />
<u>अब पता नहीं मेरे गुस्से से या बातचीत से घबराकर उन्होंने कहा ठीक है मैडम और फोन बंद कर दिया।</u><br />
<u>फोन बंद करने के बाद मैंने थोड़ी देर सोचा फिर मुझे लगा कि फोन नंबर पर भी तो पे किया जा सकता है। बेचारे के लिए तीन सौ रुपये बड़ी रकम हो सकती है और मैं किसी के पैसे रखकर क्या करूँगी?</u><br />
<u>तो इंसानियत दिखाते हुए फोन नंबर पर पेमेंट करने का सोचा और एप खोलकर नंबर टाइप करने लगी। आधा नंबर टाइप करने के बाद अचानक न जाने कैसे दिमाग में कौंधा कि कहीं ये कोई फ्राड तो नहीं है? इतना ध्यान आते ही मैंने एप तुरंत बंद किया और हसबैंड को फोन लगाया।</u><br />
<u>जैसे ही उन्हें बताया वे तुरंत बोले कुछ मत करना यह फ्राड है अकाउंट डिटेल चली गई तो अकाउंट साफ हो जायेगा।</u><br />
<u>हे भगवान तो इंसानियत दिखाने की बात उकसाने के लिए थी वह तो भला हो जल्दी हाइपर होने की अपनी आदत का कि मैं भड़क गई और बाल बाल बची।</u><br />
<u>कविता वर्मा </u></p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-3497478061647561582022-02-28T19:21:00.001+05:302022-02-28T19:21:15.008+05:30प्रेस किये कपड़े <p> प्रेस किये कपड़े</p><p>पतिदेव की पोस्टिंग राजपुर में थी। घर के कुछ जरूरी सामान साथ लाये थे क्योंकि तब उस छोटे से कस्बे में इतना बड़ा घर मिलना ही मुश्किल था कि सभी सामान समा जाये। इन सामानों में कपड़े प्रेस करने वाली इस्त्री भी थी।</p><p>दरअसल हमारे पापाजी बहुत बढ़िया कपड़े प्रेस करते थे और उन्हें देखकर हमने सीखा। शादी के पहले पतिदेव खुद कपड़े प्रेस करते थे और बाद में धीरे धीरे यह काम हमने ले लिया। जिस दिन कपड़े धुलते उसी दिन प्रेस हो जाते और व्यवस्थित रखाते। एक के ऊपर एक रखने से निकालने में बिगड़ न जायें इसलिये कपड़े की एक जोड़ी छोटी तह में हैंगर पर टांग देती। राजपुर में शहर के व्यस्त चौराहे पर ही घर था और वहाँ एक चबूतरे पर एक प्रेस वाली बैठती थी। वह घर आकर बोल गई कि कपड़े भिजवा दिया करो मैं खुद आकर दे जाऊँगी। हालाँकि वह समय इतनी रईसी का नहीं था फिर भी कभी-कभी कपड़े भिजवा देती थी। लेकिन उसके प्रेस किये कपड़े पसंद ही नहीं आते थे। शोल्डर तक प्रेस न पहुंचती आस्तीन में पेंट में डबल क्रीज बन जाती आस्तीन मोड़ कर तह करने में उसमें ढेर सिलवटें आ जातीं। जब भी पतिदेव पहनते तब तब मैं भुनभुनाती और वे कहते ठीक है गरीब है हमसे उम्मीद है कभी-कभी भेज दिया करो।</p><p>एक दिन मैंने उसे तीन-चार जोड़ी कपड़े भेजे और घर में बेटी की यूनिफार्म और पतिदेव के कुछ कपड़े प्रेस किये। तभी उसने कपड़े भिजवाये और उन्हें अलमारी में टांगने के पहले उनकी प्रेस देखकर माथा भन्ना गया। मैंने बेटी को भेजकर उसे बुलवाया। वह आई तो मैंने उसकी प्रेस की शर्ट खोलकर उसे दिखाई साथ ही अपने हाथ की प्रेस किये कुछ कपड़े उसे दिखाये। उसे बताया कि शोल्डर आस्तीन और पेंट की प्रेस में क्या दिक्कतें हैं और यह भी कि ऐसे कपड़े पहन कर बड़े अधिकारियों के साथ मीटिंग करना ठीक नहीं लगता। उसे बताया कि बात पैसों की नहीं है लेकिन काम जिस तरह होना चाहिये वैसा ही चाहिये उससे कम बर्दाश्त नहीं है। अगर ऐसा काम कर सको तो मैं कपड़े भिजवा दिया करूंगी।</p><p>उसने कपड़े देखे और आश्चर्य से उसका मुँह खुला रह गया कि ये कपड़े मैंने नार्मल घरेलू प्रेस से बनाये हैं। उसने तीन-चार बार पूछ कर तसल्ली की फिर उसे एक शर्ट प्रेस करके दिखाई।</p><p>अब उसे कहने को कुछ नहीं रह गया था मैंने कहा कि मैं कपड़े भिजवाऊंगी लेकिन प्रेस ध्यान से करना।</p><p>यह पढ़कर शायद लगे कि गरीब महिला को काम देना चाहिए लेकिन पैसे देकर काम करवाने पर काम की क्वालिटी मिलना ही चाहिये और इसके लिए उन्हें आगाह करना उनके भले के लिए ही होता है कोई क्रूरता नहीं होती।</p><p>#यादें</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-10549016670453502862021-11-14T22:04:00.004+05:302021-11-14T22:04:42.640+05:30नाटक लेडीज संगीत <p> तुम सुंदर हो खुद को आइने में देखो और खुद को जानो। </p><p>तुम माधुरी नहीं मधु हो और मधु बनकर नाचो किसी और की तरह क्यों होना चाहती हो। </p><p>शादी में ये भारी लंहगे सांस रोकने वाले टाइट ब्लाउज क्यों पहनाए जाते हैं?</p><p>आपके और पापा के बीच क्या चल रहा है आप उनसे बात क्यों नहीं करतीं जाइये उनसे बात करिये।</p><p>मुझे अपना अधिकार चाहिये मुझे उससे मिलना है जिसने आपको मुझसे छीन लिया है।</p><p>सेक्स के लिए शादी करना क्यों जरूरी है?</p><p>एक दूसरे के अच्छे दोस्त बने रहने के लिए एक दूसरे का साथ देने के लिए शादी करना क्यों जरूरी है?</p><p>शास्त्रीय गायन की बंदिशों में नायिका गोरी खूबसूरत ही क्यों होती है वह साधारण क्यों नहीं हो सकती?</p><p>शादीशुदा महिलाएँ सेक्स करते हुए आर्गेज्म को महसूसती हैं?</p><p>क्या शादी सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए की जाती है?</p><p>ऐसे बहुत सारे प्रश्न उठाता नाटक #लेडीजसंगीत कल इंदौर में यूनिवर्सिटी आडिटोरियम में रसभारती के आयोजन में प्रस्तुत किया गया। मुंबई के बाइस कलाकारों द्वारा प्रस्तुत इस संगीतमयी प्रस्तुति में एक शादी के लेडीज संगीत की तैयारी के दौरान इन गंभीर प्रश्नों को उठाया गया।</p><p>रसभारती द्वारा आयोजित दिये गये समय से लगभग चालीस मिनट बाद शुरू हुए इस नाटक लेडीज संगीत में गीत संगीत हँसी मजाक के द्वारा मुख्यतः महिलाओं के प्रति समाज की सोच और उस सोच में ढली महिलाओं का खुद की सीमा तय कर एक खुशहाल जिंदगी जीने के पीछे छुपे दर्द और प्रश्नों को उभारने का प्रयास हुआ।</p><p>गाँव की हवेली में दादी की जिद के चलते पारंपरिक शादी में वेडिंग प्लानर द्वारा की गई व्यवस्था और उसके बीच उभरते इन प्रश्नों का सामना करते दर्शक कहीं कहीं अनावश्यक लंबे खींचे गये दृश्यों को शांति से देखते रहे। स्त्री शरीर के अंगों को मादकता और पुरुषों को लुभाने वाले हथियार के रूप में प्रयोग करने वाले कुछ दृश्य बाडी शेमिंग की तरफ कब बढ गये यह शायद कलाकार और डायरेक्टर समझ नहीं सके या शायद हास्य को अश्लील बनाकर परोसने के लोभ में उस हद को पार कर गये।</p><p>गीतों के साथ आगे बढ़ते इन प्रश्नों के जवाब पाने की कोशिश की गई। पुराना सभी अच्छा और नया सब खराब नहीं है इसे स्थापित करने का प्रयास कथावस्तु पर हावी रहा। हालाँकि दादी द्वारा शास्त्रीय संगीत की बंदिशों का गायन और पोती द्वारा उन्हें नये अंदाज में गाना और इस दौरान दादी का धैर्य पोती का अधैर्य बेहद रोचक रहा।</p><p>कोरोना काल के बाद संभवतः यह पहली नाट्य प्रस्तुति थी जिसे सराहा जाना चाहिए लेकिन कुछ मुद्दे इंदौर जैसे शहर के दर्शकों द्वारा हजम किये जाना मुश्किल ही था जैसे बेटी का माँ से सेक्स के आर्गेज्म तक पहुंचने बाबत पूछना या पच्चीस साल के वैवाहिक जीवन के बाद पति का गे होना अविश्वसनीय परिस्थितियां बनाता गया और दर्शकों की रुचि कम करता गया।</p><p>नाटक में कुछ तथ्यात्मक गलतियाँ भी थीं जो अखरने वाली थीं। </p><p>नाटक के बीच मध्यांतर ने भी इस लय को तोड़ा। बहुत सारे मुद्दों को समेटने के कारण किसी एक को समग्रता से नहीं उठाया जा सका। बहरहाल कुछ संवादों गीतों और बंदिशों ने ध्यान आकर्षित किया।</p><p>मंच और लाइट का इस्तेमाल अच्छा हुआ। कलाकारों द्वारा लाइव गायन ने आकर्षित किया संगीत भी अच्छा था।</p><p>कविता वर्मा</p><p>#लेडीजसंगीत</p><p>#हिन्दी_नाटक </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-21654683199864075452021-10-21T17:31:00.001+05:302021-10-21T17:33:44.286+05:30नवग्रह मंदिर खरगोन <p> आज आपको दर्शन करवाते हैं खरगोन के प्राचीन नवग्रह मंदिर के। खरगोन नगर में प्रवेश करते ही बांई ओर कुन्दा नदी के किनारे एक प्राचीन मंदिर का शिखर दिखाई देता है। बगल से गुजरती अति व्यस्त सड़क के किनारे लेकिन उससे निस्पृह यह मंदिर पिछली यात्राओं में भी आकर्षित करता रहा लेकिन जाना नहीं हुआ।</p><p>आज सुबह मंदिर जाने का तय किया। मंदिर के बाहर काफी जगह है वहाँ गाड़ी खड़ी करके एक परकोटे से घिरे आंगन में पहुंचे जिसे काफी उम्रदराज नीम इमली के पेड़ अपनी छाया में लिये हुए थे।</p><p>मंदिर की सीढ़ियाँ चढकर ऊपर पहुँचे तब तक भी अंदाजा नहीं था कि कहाँ जा रहे हैं। एक छोटी सी दहलान जिसके बांई ओर छोटे छोटे मंदिर बने थे। मोटी दीवार छोटे दरवाजे वाले इन मंदिरों में अति प्राचीन पत्थर की मूर्तियाँ थीं। महालक्ष्मी मंदिर शिव मंदिर जिसमें शिव की गोद में कार्तिकेय श्री राम परिवार राम सीता लक्ष्मण भरत और हनुमान की मूर्ति। इसके बाहर एक खूबसूरत कांस्य शिव मूर्ति थी। इन छोटे-छोटे मंदिर के सामने दांई ओर एकदम खड़ी सीढ़ियाँ नीचे उतर रही हैं। ये बारह सीढियाँ बारह राशी की प्रतीक हैं।</p><p>नीचे गर्भगृह में दीवार पर बने आले में आठ ग्रहों की मूर्तियाँ उनके नाम वाहन और मंडल की जानकारी के साथ उनके स्तुति श्लोक लिखे हैं।</p><p>बीच में सभी गृहों के स्वामी सूर्य और उनके पीछे उनकी अधिष्ठात्री बगलामुखी देवी की प्रतिमा थी। माँ बगलामुखी की यह पीताम्बरा पीठ है। सूर्य अपने रथ पर सवार हैं। इनके पीछे दीवार के ऊपरी सिरे पर एक तिरछा छेद है जिसमें से जून जुलाई में जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन होता है तब सूर्य की किरणें सूर्य रथ पर पड़ती हैं।</p><p>मंदिर से बाहर जाने का रास्ता दूसरी ओर है यहाँ भी बारह सीढियाँ हैं जो बारह मास चैत्र वैशाख.... फागुन की प्रतीक हैं।</p><p>ये सीढ़ियाँ एक और छोटे से कमरे में खुलती हैं जहाँ शनि राहू-केतु की मूर्तियाँ हैं जिन पर भक्त तेल तिल उडद चढ़ा सकते हैं। इसी कमरे के एक ओर छोटे झरोखे हैं जिनसे कुन्दा नदी के दर्शन होते हैं।</p><p>यहाँ मंदिर से संबंधित कई खबरों की पेपर कटिंग फोटो और मंदिर के इतिहास की जानकारी है। यह लगभग छह सौ साल पुराना मंदिर है। इस में प्रवेश के लिए सात सीढ़ियाँ हैं जो सात वार की प्रतीक हैं।</p><p>नवग्रह की हमारे सभी धार्मिक और प्रकृति के त्योहार में बड़ी मान्यता है। इस मंदिर में भी संक्राति शिवरात्रि शनि जयंती आदि पर भव्य आयोजन होता है।</p><p>सबसे अच्छी बात है कि मंदिर अभी भी अपने प्राचीन स्वरूप में है और यहाँ पर्यटक नहीं दर्शनार्थी आते हैं। मंदिर का वातावरण बेहद शांत है। आप दर्शन करते हैं उस शांति को अपने भीतर महसूस करते हैं और उन लोगों की परिकल्पना को सराहते हैं जिन्होंने छह सौ साल पहले इस मंदिर का निर्माण करवाया।</p><p>कविता वर्मा </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMObL5WO17M2tBQqjqJJiZW3UlMr1NT4KniFz4qbGjWjvBHG2y-0zYmp4QrpAwRQ91GvP3OouHOz8aXKYe_TnjWKUI7r7_yi3sq06D2c4HG-WxvTACgibDhV84tbJlDJzpcfFDMpiY0TI/s1600/IMG-20211021-WA0027.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMObL5WO17M2tBQqjqJJiZW3UlMr1NT4KniFz4qbGjWjvBHG2y-0zYmp4QrpAwRQ91GvP3OouHOz8aXKYe_TnjWKUI7r7_yi3sq06D2c4HG-WxvTACgibDhV84tbJlDJzpcfFDMpiY0TI/s320/IMG-20211021-WA0027.jpg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXkz-bFFl_Cz_FukXZZUR6cfTpFuMvR53iVGgPm3gvlnMzoYqekTs333nCvC_T-hCZ65SRVezo-hURN28hxwFNxb5IU6FsgRG6n2EGPF9y9pzARGjHluehzi8zeVzuydKdNtmOwPC7aPQ/s1600/IMG-20211021-WA0024.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXkz-bFFl_Cz_FukXZZUR6cfTpFuMvR53iVGgPm3gvlnMzoYqekTs333nCvC_T-hCZ65SRVezo-hURN28hxwFNxb5IU6FsgRG6n2EGPF9y9pzARGjHluehzi8zeVzuydKdNtmOwPC7aPQ/s320/IMG-20211021-WA0024.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBLsvQtfiozrHWJr0gTNupcb0-hSF9tiTQ9bmECGVFsfIlavgWLG7sIpAn9Cs9OMVgKnWO7ytKW2Jlq65u_-xMap93nY2UXOEE7XuifPmSRLleJsY0-GNrquHWifNslgDTGgdsPlWiK5Q/s1600/IMG-20211021-WA0022.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBLsvQtfiozrHWJr0gTNupcb0-hSF9tiTQ9bmECGVFsfIlavgWLG7sIpAn9Cs9OMVgKnWO7ytKW2Jlq65u_-xMap93nY2UXOEE7XuifPmSRLleJsY0-GNrquHWifNslgDTGgdsPlWiK5Q/s320/IMG-20211021-WA0022.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhLY8rpi-QK6oReBfuhkOGLLRnkEq-9uHIoD-2780m4U9lrL7MmrsIvaNdzCm8f3w8_SbZ2JVOzRh_Tk3kLV2qjwm9At7sKMOiHxas-bUw5lhKyhahC3JpndEqKSE3mkgaqRMrVgkowio/s1600/IMG-20211021-WA0021.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhLY8rpi-QK6oReBfuhkOGLLRnkEq-9uHIoD-2780m4U9lrL7MmrsIvaNdzCm8f3w8_SbZ2JVOzRh_Tk3kLV2qjwm9At7sKMOiHxas-bUw5lhKyhahC3JpndEqKSE3mkgaqRMrVgkowio/s320/IMG-20211021-WA0021.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRqvRXhVTEROB61in4itHRNG35LVPT504ghjYFrnREPf7aeLGiYUd9UA6GLKkp0TZn2zO_N2BWKWbC17fiizUeQrxBEfDLNKcRkWm8PGJqrBuobiYS5-_5eD8unALhaaZwSOWMR61GtwQ/s1600/IMG-20211021-WA0019.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRqvRXhVTEROB61in4itHRNG35LVPT504ghjYFrnREPf7aeLGiYUd9UA6GLKkp0TZn2zO_N2BWKWbC17fiizUeQrxBEfDLNKcRkWm8PGJqrBuobiYS5-_5eD8unALhaaZwSOWMR61GtwQ/s320/IMG-20211021-WA0019.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2Q-Mn_ezcGNhDtscq1MsBI8E41cbhuCKuxiFSY0fKkMkAS3_ljLse-YWYm0GlIGM6XL1WOpMH4TnImKyl5NyewQvIvAMApmL2j-0dOp77lRryNCU1ea0PtQakqZ-4Q8hxRASMT9Le4zQ/s1600/IMG-20211021-WA0012.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2Q-Mn_ezcGNhDtscq1MsBI8E41cbhuCKuxiFSY0fKkMkAS3_ljLse-YWYm0GlIGM6XL1WOpMH4TnImKyl5NyewQvIvAMApmL2j-0dOp77lRryNCU1ea0PtQakqZ-4Q8hxRASMT9Le4zQ/s320/IMG-20211021-WA0012.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgG4S4NX0XPb7k5U7EvO4Y54chY7bzGFeOMYhAyOeL9_ARgEG9ed_Ya_PBjTEjWZTH7aD_ZfGxq3FSpoVX7zZd2n5gxstowN3fKT0q50WCAIN4B-69fFzk9NqfxvMS6a6bh3KEll8vmwms/s1600/IMG-20211021-WA0009.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgG4S4NX0XPb7k5U7EvO4Y54chY7bzGFeOMYhAyOeL9_ARgEG9ed_Ya_PBjTEjWZTH7aD_ZfGxq3FSpoVX7zZd2n5gxstowN3fKT0q50WCAIN4B-69fFzk9NqfxvMS6a6bh3KEll8vmwms/s320/IMG-20211021-WA0009.jpg" width="240" /></a></div><br /><p></p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-43295980806131804782021-09-29T23:11:00.005+05:302021-09-29T23:11:57.894+05:30ठगी के तरीके <p> #FraudAlert </p><p>मेरे यहाँ अभी मकान खाली है जिसे किराये पर देना है इसके लिए एक एप पर प्रापर्टी डाली है। कुछ दिन पहले मेरे पास एक फोन आया कि मकान किराये पर लेना है।</p><p>क्या करते हैं?</p><p>आर्मी में हूँ। अभी दिल्ली से महू ट्रांसफर हुआ है।</p><p>कहाँ के रहने वाले हैं? फैमिली या सिंगल? </p><p>उत्तराखंड का। फैमिली। मैम हमें तो महू में क्वार्टर मिलेगा लेकिन वहाँ फैमिली रखना ठीक नहीं है इसलिये फैमिली को इंदौर में रखेंगे। मैं रविवार को हाफ डे में आऊंगा।</p><p>तो इंदौर में इतनी दूर फैमिली क्यों रख रहे हैं महू या उसके आसपास की कालोनी में रखिये। यहाँ से तो महू बहुत दूर पडे़गा। आप यहाँ के लिये नये हैं आपकी पत्नी अकेले रहेगी तो ऐसी जगह फैमिली रखिये जहाँ आप आधे घंटे में पहुँच सकें।</p><p>नहीं मैम वह कोई इश्यू नहीं है मैं आ जाऊंगा। मैंने आपके मकान के फोटो देखे मुझे अच्छे लगे वाइफ को भी पसंद आये। मैं नौ तारीख को फैमिली को लेकर इंदौर आऊँगा तो आप आनलाइन पेमेंट के लिए अकाउंट नंबर दे दीजिए ।</p><p>आवाज से वह कम उम्र का ही लग रहा था फिर आर्मी में है तो उसकी मदद कर सुविधा पूर्ण जगह पर मकान लेने में मदद करना चाहती थी। मैंने कहा कि आप आ जाइये इंदौर मकान देख लीजिये यहाँ से महू की दूरी देख लीजिये पेमेंट भी हो जायेगा।</p><p>इस बीच उसने अपने आधार कार्ड मिलिट्री आई कार्ड कैंटीन कार्ड और खुद के भी दो तीन फोटो भेज दिये। वे फोटो मैंने हसबैंड को भेजे और उन्हें पूरी बात बताई। </p><p>मैंने उससे कहा ऐसा करिये आप मेरे हसबैंड से बात कर लीजिये। मैंने सोचा कि शायद वे उसे समझा पाएं। हसबैंड ने कहा कि मुझे कुछ गड़बड़ लग रहा है।</p><p>कैसे?</p><p>कोई ऐसे ही अपने सभी आई कार्ड नहीं देता।</p><p>अरे कम उम्र का लड़का सा लग रहा है कोई सरल भी तो हो सकता है कि सहज ही आई कार्ड दे दिये। दुनिया में कहीं कहीं ऐसी सरलता भी बची हुई है। मेरे अंदर का लेखक सिर उठाने लगा। 😀😀</p><p>दूसरे दिन सुबह उसका फोन आया मैम उनका फोन नहीं लग रहा है। मुझे नौ तारीख को आना है आप अपना अकाउंट नंबर दे दीजिए ।</p><p>मैंने कहा कि फिर से फोन लगाइये जब तक उनसे बात नहीं होगी अकाउंट नंबर नहीं दूँगी। वह बोला ठीक है मैम मैं फिर ट्राई करता हूँ।</p><p>थोड़ी देर बाद हसबैंड ने बताया कि उससे बात हुई और उसे कहा कि आप इंदौर आ जाएं फिर पेमेंट भी हो जायेगा। </p><p>थोड़ी देर बाद हसबैंड का फोन आया कि उसे अपने अकाउंट या बैंक की कोई डिटेल मत देना वह फ्राड है।</p><p>कैसे पता?</p><p>अभी एक फोन आया था कि महू से कर्नल बोल रहा हूँ हमारा एक जवान है उसे मकान चाहिए आपका मकान उसे पसंद आया है उसे अकाउंट नंबर दे दीजिए ताकि वह पेमेंट कर दे। उन्होंने कहा सेना में कर्नल रैंक का आदमी किसी जवान के लिए फोन नहीं करता ।फोन पर वह बहुत धीरे बोल रहा था और मुश्किल से आधा मिनट बात की।</p><p>कहना न होगा कि उसके बाद न उसका फोन आया और न ही नौ तारीख को वह खुद आया।</p><p><br /></p><p>मकान अभी भी खाली है। कल शाम फिर एक फोन आया। मैम आपका मकान खाली है। मैंने वेबसाइट पर देखा था मैं एयरपोर्ट पर काम करता हूँ। छोटी सी फैमिली है पति पत्नी और छोटी बच्ची। मैंने कहा एयरपोर्ट तो यहाँ से काफी दूर है। इतनी दूर मकान क्यों ले रहे हैं वहीं आसपास लीजिये।</p><p>नहीं मैम कोई बात नहीं आप अपने मकान के फोटो भेज दीजिए।</p><p>फोटो तो वेबसाइट पर हैं वहीं से देख लीजिये अभी मैं खाना बना रही हूँ अभी फोटो नहीं भेज सकती।</p><p>ठीक है मैम मैं वाइफ को वहीं फोटो दिखा देता हूँ फिर आपको फोन करता हूँ।</p><p>फिर फोन नहीं आया मेरी तरह वह भी आवाज पहचान गया होगा।</p><p>790962807_</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-55272074378949117072021-06-28T22:45:00.002+05:302021-06-28T22:45:30.967+05:30कहानी जो पढी जाना चाहिए <p> अभी कुछ दिनों में दो कहानियाँ पढीं जिनके बारे में कहने से खुद को रोक नहीं पा रही। इत्तेफाक से दोनों कहानियाँ सोनल की हैं। सोनल की लेखनी से परिचय उनकी कविताओं के माध्यम से था। ' देखन में छोटी लगें विचार दें गंभीर ' की तर्ज पर उनकी कविताएँ प्रभावित करती रही हैं। उनके गद्य से परिचय हुआ फिल्म बनती नहीं बनाती भी हैं से जो कालीचाट फिल्म के बनने की और इस दौरान गाँव के सीधे सादे सरल लोगों के बीच खुद को जानन समझने सीखने की संस्मरणात्मक कथा है। हाँ कथा ही है जो आगे क्या की उत्सुकता बनाए रखते चलती है। उनकी पुस्तक कोशिशों की डायरी को इस वर्ष म.प्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा कथेतर गद्य का वागीश्वरी पुरस्कार मिला है। </p><p>तो बात करते हैं कहानियों की। </p><p>पहली कहानी है परीकथा में प्रकाशित चस्का। सोनल की लेखनी में खास बात यह है कि वे अपने आसपास को बेहद सजगता से देखती और विवेचन करती हैं। वे जीवन के छोटे छोटे उल्लास को भी पकड़ती हैं और हँसी के पीछे छुपे दुख और तकलीफों को भी। वे इनमें शामिल होकर उनकी तीव्रता को जैसे महसूस करती हैं वैसे ही शब्दों में उतारती भी हैं और इतनी सरल सहज भाषा में कि आप उसमें रम जाते हैं। वे लोकजीवन के परिवर्तनों को सूक्ष्मता से देखती हैं और उसे उजागर करती हैं। चस्का कहानी ऐसे ही सरोकारों की कहानी है जो आम तौर पर लोगों की नजरों से चूक जाती है। </p><p>खजुराहो के मंदिरों के आसपास घूमने वाले गाइड जो पर्यटकों को घुमाने किताबें या सजावटी सामान बेचने दिन भर भटकते हैं और कभी झिड़के जाते हैं कभी नजरअंदाज किये जाते हैं। शायद ही कभी कोई इनसे व्यक्तिगत बातें करता होगा और जानकारी लेने की कोशिश करता होगा कि आखिर इनकी जिंदगी कैसी चल रही है। लेखिका के रूप में सोनल न सिर्फ एक ऐसे ही गाइड से बात करती हैं बल्कि विदेशी पर्यटकों द्वारा इन गरीब मजदूर वर्ग के युवाओं को दिये जाने वाले प्रलोभनों और खाने पीने के लगाए चस्के के कारण अन्य कोई कार्य न कर पाने की आदत को भी समझती हैं। वे देखती हैं कि काम न मिलने पर भी ये युवा अपने खुद के खेतों में काम नहीं करना चाहते। दरअसल कहानी उन पर्यटन स्थलों की एक बड़ी समस्या को इंगित करके सोचने पर मजबूर करती है जहाँ बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक आते हैं। वास्तव में पर्यटन स्थलों के विकास के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार के बारे में भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। </p><p>कहानी आत्मकथ्य रूप से चलती है लेकिन लेखिका कहीं भी हावी नहीं होतीं बल्कि उस गाइड की निजी जिंदगी उसकी तकलीफ विवशता और उसकी क्षुब्धता को मुख्य रूप से सामने लाती हैं। कभी उस पर क्रोध आता है तो कभी तरस । विदेशी पर्यटकों द्वारा गाँव के इन भोले भाले युवाओं को कुछ पैसों के बदले नकारा बनाए जाने की यह कहानी विकसित चमकीले स्थलों के स्याह पक्ष की कहानी है। </p><p>दूसरी कहानी जानकी पुल पर प्रकाशित कहानी है जात्रा। सोनल जिस तरह गाँवों जंगलों नदियों और लोक से जुड़ी हैं यह कहानी उसे बखूबी बताती है। विदेश से अपने मित्र के घर आये एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जो बरसों बाद अपने देश के गांवों को देख रहा है। जबकि उसका वह मित्र जो इन्हीं जंगल नदी के बीच काम करता है इन सब से अनभिज्ञ सिर्फ काम में व्यस्त है। वह अपने दोस्त के साथ जिस तरह धीरे-धीरे अपने परिवेश को देखते उसमें शामिल होता जाता है पाठकों को अद्भुत खुशी से भर देता है। ग्रामीण जीवन में जात्रा नदियों की परिक्रमा भंडारा तीज-त्यौहार खेल जीवन को गति देते हैं। इन्हें शहरों ने या तो छोड़ दिया है या भुला दिया है। धीरे-धीरे ही सही इनमें जीवन का रस पहचान कर जब दोनों दोस्त उसमें रमते हैं तो अपने तनावों को भूलकर नई जीवनी शक्ति से भर जाते हैं। गाँव के मजदूर जो दुगने पैसे मिलने पर भी अपने त्योहार छोड़कर काम पर नहीं आना चाहते वे अपने साहब के प्रेमभाव के कारण कम समय में काम पूरा करने के लिए राजी हो जाते हैं। यह प्रसंग ही बताता है कि पैसों से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता और छोटी छोटी बातों से बड़ी बड़ी खुशियाँ पाई जा सकती हैं। </p><p>दोनों ही कहानियाँ अपनी भाषा कथ्य और कहन में बेहद प्रभावित करती हैं। </p><p>#कहानी #kahani </p><p>कविता वर्मा</p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-66994361523361061612021-06-02T10:19:00.000+05:302021-06-02T10:19:19.999+05:30#कोरोना_कथा1<p> कोरोना के उस वार्ड में एक दो या शायद तीन दिन कैसे बीते सिलसिलेवार कुछ भी याद नहीं है। कुछ छुटपुट बेतरतीब सी बातें गाहे-बगाहे याद आती भी हैं तो दिल धड़कने लगता है। हास्पिटल से आने के पंद्रह दिनों बाद भी वह वार्ड वहाँ का माहौल रात के सन्नाटे में अपनी रंगबिरंगी लाइट चमकाते बीप बीप करते मानिटर याद आते हैं तो पल्स बढ़ जाती है।</p><p>मेरे बेड के दो बेड छोड़कर थी वह। उसे बायपेप लगा था। वह मेरे पहले आई थी या बाद में यह भी नहीं पता। मोटे बेल्ट से पूरे चेहरे पर बंधा वह मास्क उस गर्मी में लगाये रहना बेहद मुश्किल था। लाल गाउन पहने वह लगातार बैठी रहती। कभी-कभी उसकी मास्क के अंदर से घुटी घुटी आवाज आती। उसके पास मोबाइल नहीं था। अक्सर वह हाउस कीपिंग वाली सफाई कर्मचारियों के मोबाइल पर अपने घर बात करती जिसमें उसकी बेबसी झुंझलाहट गुस्सा झलकता।</p><p>दो तीन दिन में जब मैं अपने आसपास को देखने की स्थिति में आई तब उसे बैठे या मोबाइल पर बात करते देखकर सोचती कि इस समय उसे काउंसलिंग की आवश्यकता है। कोई ऐसा आत्मीय या प्रोफेशनल जो उसे इस माहौल और इलाज के प्रति आश्वस्ति दे सके। इसके लिए मानसिक रूप से तैयार कर सके ताकि वह इलाज को पूरी तरह स्वीकार कर पाए। कभी-कभी मेरा मन होता कि पांच मिनट ही सही उससे बात करूँ।</p><p>यह बिल्कुल भी संभव नहीं था। आक्सीजन मास्क के साथ आप खूंटे पर बंधी गाय से ज्यादा नहीं रहते। तीन बाय छह का वह पलंग उस पर रखा सामान का थैला और बगल की टेबल पर रखी पानी की बाटल और दवाइयाँ। जबकि खाना खाते हुए भी मास्क उतारने की अनुमति न हो। बिस्तर पर मल-मूत्र विसर्जन मजबूरी हो ऐसे में हास्पिटल के बाहर आपके इंतजार में पल पल गिनते पति बच्चे माता-पिता भाई भाभी को नजरअंदाज कर आप एक अनजान के लिए आपके लिए बताये नियमों को नहीं तोड़ सकते।</p><p>हाउस कीपिंग वाली एक लड़की आशा से अच्छी बातचीत हो गई थी। वह सुबह मुझे व्हीलचेयर पर बैठा कर वाशरूम ले जाती और वहीं रुकती। मैं फ्रेश हो हाथ मुंह धोकर कपड़े बदलती और वापस आते हाँफने लगती। आते ही वह आक्सीजन मास्क लगाती और पलंग पर लेटने में मदद करती। चौबीस घंटे में वह दस बारह मिनिट ही होते जब मैं रिस्क लेती और अपना ध्यान रखने के एवज में उसकी मुठ्ठी गर्म करती। आशा से उसके बारे में पता चला कि वह अपने पति पर भडकती है उसे समझाते हैं लेकिन मानती नहीं है। </p><p>हालांकि दिन में कई बार जूनियर डाक्टर नर्स हाउस कीपिंग स्टाफ के सदस्य उसे समझाते कि वह परेशान न हो और आराम करे। बाहर उसके पति उसकी चिंता कर रहे हैं। मैं अपने बेड पर बैठी लेटी सुनती देखती और ईश्वर से प्रार्थना करती कि उसके चित्त को शांत करे उसे जल्दी ठीक करे। दिन गुजरते गये उसे कुछ अन्य तकलीफें होती गईं जिनके बारे में वह डाक्टर को बताती और उसे इलाज मिलता। कुछ आवाजें मुझ तक आतीं लेकिन अब उसकी फोन पर लंबी बातें बंद हो गई थीं या शायद अब उसे मोबाइल नहीं मिलता था। कभी-कभी वह बात करती लेकिन अपेक्षाकृत शांत रहती। मुझे भी सुकून लगता कि वह एडजस्ट हो रही है और जल्दी ठीक हो जायेगी।</p><p><br /></p><p>लगभग आठ दिन बाद मेरा आक्सीजन मास्क निकल गया। उस दिन जिस असुरक्षा का अहसास हुआ उसके साथ रहना अन्य दिनों से ज्यादा मुश्किल था। उसी दिन बगल के बेड पर एक नया मरीज आया। पता नहीं उसे कितना इंफेक्शन है और मैं सिर्फ एक सर्जिकल मास्क लगाए पांच छह फीट दूर बैठी हूँ।</p><p>उस दिन भी उसे देखा। वह शांति से बैठी वार्ड के मरीजों को देख रही थी। आठ दिन वहाँ और उसके पहले चार दिन अन्य हास्पिटल में रहने के बाद घर जाने की उत्सुकता कोई भी अति उत्साही बेवकूफी करने की इजाजत नहीं दे रही थी। वैसे भी कमजोरी इतनी थी कि फोन पर दो मिनट बात करना दो मंजिल सीढियाँ चढ़ने जितना थका देता था। लगभग आधा दिन बिना मास्क शांति से गुजरा और उम्मीद बंधी कि जल्द ही छुट्टी मिलेगी।</p><p>अगले दिन सुबह से पतिदेव प्रोसेस में लगे डाक्टर के साइन फाइल मीटिंग करते करते दो बज गये । व्हीलचेयर पर अपने सामान लादे मैं उसके सामने से गुजरी लेकिन न कुछ कह पाई न कर पाई। नीचे पतिदेव इंतजार कर रहे हैं घर पर मम्मी पापा राह देख रहे हैं।</p><p>घर आकर जब तीन बाय छह के बिस्तर से नीचे कदम रखा तो जाना कि घर जो शरीर आया है उसमें पहले की तुलना में रत्ती भर ताकत ही बची है और अभी लंबा सफर तय करना है जिसमें न जाने कितना समय लगेगा। सच कहूँ तो घर आने के बाद के दस बारह दिन हास्पिटल के दस बारह दिनों के समान ही थे। हास्पिटल की याद आते ही दिल की धड़कन तेज हो जाती पल्स बढ जाती। आधी रात में नींद खुलती तो लगता कि ढेरों मानिटर अपनी लाल हरी पीली लाइट चमकाते बीप बीप कर रहे हैं। मैं जोर से आंखें और कान बंद कर लेती और उसका चेहरा दिमाग के पर्दे पर कौंध जाता। वह ठीक हो गई होगी एक उम्मीद जागती और कहीं एक नाउम्मीदी भी। दिल और दिमाग के बीच इन दोनों के बीच जंग छिडती। वह ठीक हो गई होगी उसमें जिजीविषा नहीं थी नहीं हुई होगी। तो क्या अब तक हास्पिटल में होगी? और मैं दस पंद्रह फीट दूर लाल गाउन पहने उसे बायपेप लगाये बैठा हुआ देखने लगती। वह सपना होता या खुली आँखों का भ्रम समझ नहीं आता।</p><p>आखिर एक दिन इस जंग ने बैचेन कर दिया। मैंने आशा को फोन लगाया। कभी उसकी जरूरत पड़ेगी तो बुलाने के लिए उसका नंबर ले लिया था मैंने। हालचाल पूछने और बताने के बाद मैंने उससे पूछा कि उस लाल गाउन वाली का क्या हुआ वह ठीक हो गई न।</p><p>'नहीं दीदी वह नहीं रही। बहुत कोशिश की लेकिन बची नहीं। सबने उसे खूब समझाया कि वह खुश रहे लेकिन वह समझती ही नहीं थी। उसका पूरा शरीर सूज गया था। दो बच्चे हैं उसके एक साल और तीन साल के और पति मजदूरी करता है।'</p><p>रोना नहीं रोक पाई मैं क्या सच में मैनें गलती कर दी क्या मुझे उससे एक बार बात करना था अपने डर पर काबू करके थोड़ा रिस्क लेकर? क्या मैं नियति का लिखा बदल सकती थी या शायद कुछ उम्मीद जगा सकती थी। पता नहीं जो हुआ वह ठीक था या नहीं लेकिन उसकी मौत बार बार याद आती रहेगी। लाल गाउन पहने वह दो बेड दूर इतनी दूर क्यों थी बस यही सोच रही हूँ।</p><p>कविता वर्मा </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-78811492796118227592021-04-10T22:42:00.001+05:302021-04-10T22:42:24.349+05:30ये इत्तेफाक है या कुछ और <p> आप लोग इत्तेफाक में विश्वास रखते हैं या नहीं? अगर नहीं रखते तो इस किस्से को पढ़कर बताइये कि यह क्या है?</p><p><br /></p><p>अभी कुछ दिन पहले मैं पतिदेव की पोस्टिंग वाले शहर में रहने चली गई। अभी तक तो उनका बैचलर्स अपार्टमेंट था सिंगल बेड से काम चल रहा था। मेरे जाने के बाद दो अलग-अलग डील डौल आकार के पलंग बदलने की जरूरत महसूस हुई। तो हम लोग शहर की एक दुकान पर डबल बेड देखकर आये। चूँकि हमारा वहाँ रहना लाॅकडाउन के कारण कुछ दिन टल गया तो हमने सोचा पलंग देख लेते हैं और जब लगेगा खरीद लेंगे।</p><p>उसी दिन सुबह हमने सोचा कि एक्स्ट्रा पलंग एक परिचित को अगर जरूरत हुई तो दे देते हैं इस बारे में हमने उनसे फोन पर बात भी की। साथ ही यह भी बताया कि वे जब चाहे बता दें और पलंग ले जाएं।</p><p>सभी बातें तय हो गई।</p><p>उसी दिन दोपहर में मेरे नंबर पर एक फोन आया "मैम आपने पलंग का आर्डर दिया था उसकी डिलीवरी कब करना है?</p><p>यह चौंकाने वाला था क्योंकि अभी तक हमने कोई आर्डर नहीं दिया था। दूसरी बात कि दुकानदार के पास मेरा फोन नंबर कैसे आया? क्योंकि अनजान लोगों को मेरा नंबर नहीं देती हूँ खासकर जब हसबैंड भी साथ में डील कर रहे हैं।</p><p>"मैंने कहा कि अभी हम तुरंत नहीं ले रहे हैं आपको दो चार दिन में बता देते हैं।" </p><p>वह बोला "मैम फिर दो दिन लाॅकडाउन रहेगा।" </p><p>"हाँ ठीक है हमें अभी कोई जल्दी नहीं है" यह कहकर मैंने फोन रख दिया लेकिन इस बात से हम दोनों ही अचंभित थे। थोड़ी देर सोचने के बाद कि ऐसा कैसे हुआ हसबैंड ने उस नंबर पर फिर फोन लगाया और पूछा कि आपको ये नंबर कहाँ से मिला?</p><p>उसने कहा ये फलाने भाई ने दिया। अब उसने जिस फलाने भाई का नाम लिया था उसी नाम के हमारे परिचित से हमने सुबह पलंग देने की बात की थी।</p><p>इस बार बात करके हम और ज्यादा कंफ्यूज हो गये कि फलाने भाई अभी पलंग लेने आ रहे हैं क्या? उन्होंने ऐसा कुछ तो नहीं कहा था कि आज पलंग लेंगे।</p><p>हम सोचने लगे कि उन परिचित को फोन लगाकर पूछें कि वे किसी को पलंग लेने भेज रहे हैं क्या? इस दौरान पलंग लेना है या डिलीवर करना है का कंफ्यूजन बना रहा।</p><p>इस बात को तीन-चार घंटे बीत गये फिर अचानक फोन की घंटी बजी "मैम आपका पलंग हमने भेज दिया है आप घर पर ही हैं न"</p><p>अब यह सुनकर मुझे थोड़ा गुस्सा आया मैंने कहा "आप यह तो बताइये कि आप यह पलंग किसके घर डिलीवर करना चाहते हैं। उनका कोई नाम तो होगा?"</p><p>"मैम फलाने जी ने कहा कि पलंग डिलीवर कर दें उन्होंने ही नंबर दिया।"</p><p>दिन भर के दो तीन बार फोन पर हुई बातों को प्रोसेस करके दिमाग ने निष्कर्ष निकाला कि निश्चित रूप से यह रांग नंबर है। अब मैंने खुद को संयत किया और कहा" भाईसाहब या तो फलाने भाई ने आपको गलत नंबर दिया है या आपने गलत नंबर नोट किया है या गलत नंबर लगाया है। आप एक बार नंबर फिर से चैक करें। मैं आपकी मदद ही करना चाहती हूँ। अगर मैं कह दूँ कि पलंग ले आइये और वहाँ घर पर कोई नहीं मिला तो आपका चक्कर बेकार होगा। आप फिर मुझे फोन करेंगे लेकिन उससे क्या होगा? आप नंबर फिर से अच्छे से चैक करें। "</p><p>अब वह मेरी बात समझ गया" जी मैम समझ गया ठीक है मैं देखता हूँ "कहकर उसने फोन रख दिया।</p><p>पता नहीं फिर वह पलंग डिलीवर हुआ या नहीं दुकानदार को सही नंबर मिला या नहीं?</p><p>आपको क्या लगता है कि मुझे फोन करके पूछना चाहिये?</p><p>पूछना तो खैर नहीं होगा लेकिन आप इसे क्या कहेंगे इत्तेफाक या कुछ और?</p><blockquote><p>कविता वर्मा </p></blockquote>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-37894246024891967232021-04-06T22:39:00.000+05:302021-04-06T22:39:34.033+05:30मन में बसते रास्ते <p> अपना घर छोड़कर जाना हमेशा एक अजीब सा अहसास देता है। बार बार रुक कर पीछे मुड़कर देखती हूँ कि उसे थोड़ा और अपने अंदर उतार लूँ थोड़ा सा और साथ ले जाऊँ लेकिन फिर भी बहुत कुछ पीछे छूट जाता है।</p><p>इस अहसास को सांत्वना देने के लिए या कहें कि इसे एक अवसर की तरह जीवन में कुछ और जोड़ने के लिए रास्ते मोड़ जंगल नदी पहाड़ पत्थर खेत पेड़ फूल फल को अपने भीतर उतारती चलती हूँ। भरती जाती है हर दृश्य को अपने अंतस में फिर चाहे वे खेत में काम करती गोबर के कंडे पाथती दरांता लेकर खेत पर जाती या सड़क किनारे बैठ कपड़े धोती स्त्रियाँ हों या सड़क किनारे खेलते बच्चे किसी छप्पर के नीचे बीड़ी फूंकते गेंहूँ निकालते भूसा ढोते पुरुष या कि गाँव की सड़कों पर बहती नालियाँ नलों का पानी गांव के बाहर कचरे के ढेर या सड़कों पर बने गढ्ढे। हर दृश्य उस जीवन से जोड़ता है जो आमतौर पर हम से बहुत दूर रहता है।</p><p>इसी दृश्य में एक और स्थान जुड़ता है वह है किसी छोटे से गांव में आहते से घिरा एक मंदिर जो हर बार आते-जाते रास्ते के एक पहचान चिन्ह के रूप में गुजर जाता है।</p><p>आज अचानक उस मंदिर के सामने गाड़ी रोकी। आधा बना आधा खुदा आहता जिसमें नक्काशी दार बलुआ पत्थरों से बना बडे़ से गुंबद को पत्थरों के खंभे पर उठाए एक प्राचीन हनुमान मंदिर। मंदिर के सामने गुंबद के नीचे बिछा हरी घास का कार्पेट बाहर के तापमान को रोक कर सुकून भरा अहसास दे रहा था। मंदिर में खड़े हनुमान जी की बड़ी सी प्रतिमा भक्तों को प्रेममयी दृष्टि से निहारती। आप देर तक टकटकी लगाए देखते रह सकते हैं।</p><p>इसी मंदिर परिसर में थोड़े अंदर एक और परिसर है जिसमें एक अति प्राचीन शिव मंदिर है। यह मंदिर अहिल्या बाई के शासनकाल या उससे पहले का हो सकता है। बडे-बडे पीपल के वृक्ष कलरव करती गौरैया छोटे पत्थर के खंभो पर टिका मंडप जिस पर कोई विशेष सज्जा न होते हुए भी वे आकर्षक थे। पीली मिट्टी जैसे रंग से पुते ये खंभे समय के थपेड़ों से अपनी नक्काशी की धार खो चुके फूल पत्तों से सजे थे। आधुनिक मंदिरों में ये साधारणता अब गायब हो चुकी है। महेश्वर में राजराजेश्वर मंदिर में कृत्रिम फूल पत्तों की सजावट और वंदनवार मंदिर की गरिमा को कम करते ही प्रतीत होते हैं। ऐसे में शिवलिंग पर सहज चढ़े फूल बेलपत्र कलश से बूँद बूँद टपकता पानी सामने एक छोटा सा नंदी और सिर झुका कर अंदर जाया जा सके इतना बड़ा द्वार।</p><p>मंदिर परिसर में रामायण की चौपाई के स्वर गूँज रहे थे। पता चला कि यहाँ लगभग चालीस पचास वर्षों से सतत रामायण पाठ हो रहा है। नजर घुमाई एक वृद्ध रामायण की चौपाई बोलते दिखे। उन्हें शायद रामायण कंठस्थ थी। बिना किसी लाउडस्पीकर और जल्दबाजी के चौपाई के शब्द वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा भर रहे थे। </p><p>मंदिर में दर्शन करके कुछ देर वहीं बैठे प्रसाद लिया और बाहर आ गये। कुछ और देर हनुमान जी से भेंटने का मन हुआ तभी दाँयी ओर नजर पड़ी थोड़ा आगे जाकर देखा तो एक बावड़ी दिखी। आश्चर्य इस इलाके में बावड़ी मिलना बहुत सामान्य नहीं है। किनारे जाकर देखा काफी पानी था। एक छोटी पुरानी मोटर लगी थी। पानी साफ था और सीढियाँ भी साफ सुथरी थीं। मन प्रसन हो गया। थोड़ी देर वहाँ रुककर हम आगे बढ़ गये।</p><p>घर छोड़कर आने का मलाल खत्म हो जाता है जब ऐसे स्थानों के दर्शन हो जाते हैं जो आधुनिक दुनिया से दिखावे से दूर अपने सहज स्वरूप में हैं। </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-40390181320093994822021-01-20T21:43:00.005+05:302021-01-20T21:43:49.397+05:30त्रिभंग या बहुभंग <p> त्रिभंग या बहुभंग </p><p>बहुत दिनों से सोशल मीडिया पर फिल्म त्रिभंग की चर्चा चल रही थी। कई बार इसका प्रोमो सामने आया लेकिन न जाने क्यों प्रोमो देखते हुए फिल्म देखने की इच्छा नहीं जागी इसलिए इसे स्थगित करती रही।</p><p>आज सोचा कि क्यों न इसे देख ही लिया जाये। अकसर बहुत ज्यादा तारीफ प्राप्त फिल्म या वेबसीरीज निराश ही करती हैं लेकिन हो सकता है कि यह इस धारणा को तोड दे। एक संवेदनशील लेखिका द्वारा लिखी कहानी पर नामी अभिनेत्रियों का अभिनय कुछ तो खास होगा। स्त्री जीवन और उसकी जिजीविषा को कोई अलग आयाम उठाया गया होगा इसमें।</p><p>फिल्म की शुरुआत में कांपते हाथों से लिफाफे पर नाम लिखती नायिका के साथ शुरू हुई कहानी नायिका की इस स्वीकारोक्ति के साथ कि उससे गलती हुई है। जीवन कई बार चुनाव के मौके देता है और उस चुनाव में गलती होना स्वाभाविक है लेकिन इस फिल्म में जो हुआ वह गलती नहीं ब्लंडर ज्यादा लगा।</p><p>एक लेखिका जो माँ भी है उसका अपने पति बच्चों जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ कर सिर्फ लेखन में लिप्त होना कई प्रश्न खड़े करता है।</p><p>लेखन इतना जरूरी था तो शादी करने घर गृहस्थी बसाने की क्या जरूरत थी? जिन बच्चों को जानते समझते पैदा किया उनकी जिम्मेदारी से बड़ा और क्या?</p><p>अब अगर नारीवादी यह कहें कि क्या घर बच्चों के काम सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी है तो वे ये बताएं कि फिर नायिका पैसे कमाने की ही जिम्मेदारी उठा लेती। पति नौकरी कर रहा है उसकी माँ घर बच्चे संभाल रही है और फिर भी पत्नी दुखी है और आँसू पोंछती कोसती बच्चों को लेकर घर से निकल जाती है और नारीवादी यह कहने पर गुस्सा और दुख जताते हैं कि सास ने कहा 'ये तो मैं मर जाऊंगी तब भी लिखेगी' या आफिस से थके हारे आये पति ने कहा कि 'खाना लगाओ '। उनकी नजरों में यह स्त्री के लिए सबसे बड़ी गाली है।</p><p>नायिका को अबला बताते हुए कहानी की लेखिका और डायरेक्टर यह भूल गईं कि वह बूढ़ी औरत जो इस उम्र में अपने पोते पोती और घर को संभाल रही है वास्तव में उस पर अत्याचार हो रहा है। एक तरफ स्त्री वादी नारेबाजी करते हैं कि महिलाओं को घर गृहस्थी से रिटायर्मेंट नहीं मिलता दूसरी ओर वे खुद एक बूढ़ी स्त्री को घर गृहस्थी में झोंक रहे हैं और उसकी थकान उसकी झल्लाहट को नजरअंदाज करके उसे सास रूपी अत्याचारी साबित करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उसके सामने बहू लोगों के साथ बैठकर शराब पिये लेकिन वह कुछ न बोले। </p><p>पति को शुक्र है कि बख्श दिया वह एक सफल पत्नी के तेवरों को झेलता आम आदमी है जो माँ बच्चों को हैरान परेशान देखता है लेकिन कुछ कर नहीं पाता। </p><p>पहले समय में जब स्त्री घर छोड़ती थी या घर से निकाली जाती थी उसके सामने आजीविका की समस्या उत्पन्न होती थी। त्रिभंग की नायिका इसका तोड़ निकालती है कि किसी अमीर आदमी से प्रेम करो उसके दिये आलीशान मकान में रहो एक फुलटाइम मेड रखो और अपना लेखन जारी रखो। जब एक से दिल भर जाये या उसका दिल भर जाये दूसरे को पकड लो। जिस नायिका के पास पति के घर आने पर उसके पास दो मिनट बैठने की उसका हालचाल पूछने की फुर्सत नहीं है उसे बाय फ्रेंड बनाने उससे प्रेम करने की फुर्सत कैसे मिल जाती है? तब भी प्रेम करने की ही फुर्सत मिलती है अपने बच्चों को जानने समझने उनसे बात करने की न वह जरूरत समझती है न कभी कोशिश करती है।</p><p>क्या लेखिकाएं इतनी असंवेदनशील होती हैं कि उन्हें अपने ही बच्चों की परेशानियाँ नहीं दिखतीं?</p><p>जिस लेखिका को पहले ही उपन्यास के लिये अकादमी पुरस्कार मिलता है वह न अपने बच्चों का व्यक्तित्व बना पाती है और न ही उनका मन पढ पाती है। उसके पात्र कैसे होंगे यह तो सोचने की जरूरत ही नहीं है।</p><p>काजोल जिसने एक ऐसी लड़की का रोल किया है जिसने बचपन में माँ बाप को अलग होते देखा है माँ की गैरजिम्मेदारी की शिकार हुई है माँ के बाय फ्रेंड के द्वारा यौन अत्याचार सहा है वह बेहद अकेली है लेकिन अकेले पन की पूर्ति बिना शादी किये लिव इन में रहते बार बार पार्टनर बदलते करती है। वह अपने को विद्रोही दिखाने के लिए धाराप्रवाह गालियाँ देती हैं और एक सफल नृत्यांगना पेज थ्री पर्सनालिटी होते हुए भी पत्रकारों को उन्हीं के मुँह पर गालियाँ देती है।</p><p>माँ के कोमा में जाने पर उसे लोकाचार निभाते हास्पिटल जाना पड़ता है। एक स्वतंत्र स्त्री गालियाँ देने वाली अपनी माँ को उसके नाम से पुकारने वाली समाज क्या कहेगा के डर से माँ को देखने जाती है उसके साथ हास्पिटल में रहती है। यह तो आम स्त्रियाँ भी करती हैं। देखा जाये तो वह फिल्म की मुख्य हीरोइन है पर्दे पर सबसे ज्यादा फुटेज उसे ही मिला है लेकिन सिवाय गालियों के कोई महत्वपूर्ण डायलॉग या चरित्रिक मजबूती वे प्रकट नहीं कर पाई हैं। पहले प्यार के साथ लिव इन में रहना जिसमें उनकी माँ उनकी मदद करती हैं उस प्रेमी से प्रेगनेंट होना उसकी मारपीट सहना फिर उसे घर से निकाल देना। माँ से नाराजगी बेटी होने के बाद फिर माँ से जुड़ाव नृत्य से जुड़ाव लेकिन फिर माँ से कब कैसे दूरी बनी इसका कोई जिक्र नहीं है। उसका घर कैसे चला बेटी को अकेले कैसे पाला ये संघर्ष तो आजकल की फिल्मों में वैसे भी नहीं होते हैं। यही माँ अपनी बेटी का रिश्ता एक पारंपरिक परिवार में करने जाती है तो वहाँ कहती है कि अगर आपको दहेज चाहिए तो मुझे एक अमीर बाय फ्रेंड पकड़ना पडे़गा क्योंकि अभी तो मेरे पास कुछ नहीं है। आश्चर्य कि ऐसी बात सुनकर भी वह पारंपरिक परिवार उनकी बेटी को अपनी बहू बना लेता है। हालाँकि शायद यही एक बात अच्छी और तसल्ली देने वाली है कि लड़की की माँ और नानी के अतीत की छाया उस लड़की के जीवन पर पड़ती नहीं दिखाई है।</p><p>फिल्म के अंतिम दृश्य में जब काजोल की बेटी अपनी सास से सिर पर पल्ला रखकर वीडियो काल पर बात करती है और उसकी माँ को सास की पूछताछ चिंता अखरती है। वह फोन लेकर खुद बात करती है। तभी वह अपनी बेटी से बात करती है और तब उसकी बेटी पहली बार अपनी माँ के सामने अपने दुख अपने अपमान बताती है जो उसे बचपन में माँ के व्यवहार के कारण मिले हैं। लब्बोलुआब यही रहा कि एक लड़की जिसे माँ की देखभाल नहीं मिली जिसके कारण वह अपनी माँ से नाराज रही वही अपनी बेटी की भावनाओं से इस कदर बेखबर है कि उसके प्रेगनेंट होने तक जान ही नहीं पाती कि बेटी कैसा महसूस कर रही है। यह माँ भी कलाकार है जो कि आम इंसानों से ज्यादा संवेदनशील माना जाता है।</p><p>अंततः सबसे युवा पीढ़ी की लड़की एक परंपरा वादी परिवार में इसलिए इतनी पाबंदियां सहती है कि उसे अपने बच्चे के लिए पिता का नाम चाहिए। वह ससुराल वालों को खुश करने के लिए भ्रूण परीक्षण तक करवाती है।</p><p>लब्बोलुआब यह है कि स्त्री स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी जिम्मेदारियों से मुँह चुराना उस पर सीनाजोरी करना शराब पीना देह की स्वतंत्रता का इस्तेमाल आर्थिक स्वतंत्रता लेने के लिए करना और बाय फ्रेंड कपड़े की तरह बदलना। जब यह भटकन पीढ़ी दर पीढ़ी चले तब फिर घूम फिर कर उसी सोलहवीं सदी में पहुँच जाना जहाँ सिर ढंकना बेटा पैदा करना जैसी चीजें स्त्री को घर से बांधे रखती हैं और उनके बच्चों को पिता का नाम दिलवा देती हैं।</p><p>अंत में एक प्रश्न जो मेरे दिमाग में कुलबुलाता रहा कि आज अच्छे-अच्छे लेखक भी अपने लेखन से चार लोगों को काफी नहीं पिला सकते वहीं फिल्म की नायिका अपने लेखन से न सिर्फ अपना उच्च स्तरीय जीवन चलाती हैं बल्कि शराब के गिलास पर गिलास खाली करती रहती हैं।</p><p>कविता वर्मा</p><p>#tribhang #kajol </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-15117420301762100662021-01-16T12:06:00.004+05:302021-01-16T12:06:46.150+05:30 उन आठ दिनों की डायरी 8 <p><br /></p><p>12 नवंबर 2020 </p><p>आज सुबह से जाने की तैयारी जैसी हडबडी थी अंदर से बार बार रुलाई आ रही थी लेकिन दिमाग हर चीज हर काम को करने में भी लगा था। कई बार सबकी नजरें बचा कर मन में भरी दुख आशंका डर की बदली को बरसा कर हल्का करने की कोशिश की लेकिन ये इतने अधिक थे कि बार बार फिर भर आते थे। इन्हें बार बार खाली करने का समय कहाँ था। खाली पेट बहुत सारे टेस्ट होना था। बिटिया ने कहा वह हमें छोड़कर वापस आ जायेगी फिर खाना बना लेगी।</p><p>स्नान ध्यान करके भगवान के आगे दीपक लगा कर देर तक सलामती की कामना करती रही। सवा नौ बजे के लगभग हम मेदांता हास्पिटल पहुँचे। गेट पर हमें छोड़कर बेटी कार पार्क करने चली गई। मैंने व्हीलचेयर मँगवाई और बताया कि डॉ श्रीवास्तव के पेशेंट हैं कल बायपास होना है। उन्होंने तुरंत इमर्जेंसी डोर से उन्हें अंदर लिया और मुझे काउंटर पर एडमिशन के लिए कहा। चूंकि एक दिन पहले सभी बात हो चुकी थी मेडिकल इंश्योरेंस से क्लीयरेंस आ चुका था इसलिए वहाँ कोई ज्यादा समय नहीं लगा। कहना पडे़गा कि मेदांता का स्टाफ बहुत विनम्र और मददगार है। पूरा फार्म भी उन्होंने ही भरा मुझे सिर्फ अपना नाम पेशेंट से रिश्ता और साइन करना था। जब सब करके फाइल लेकर इमर्जेंसी रूम में पहुँची तब तक पतिदेव के टेस्ट शुरू हो चुके थे। उन्होंने हास्पिटल की ड्रेस पहन ली थी। उनके कपड़े मुझे दिये और जल्दी ही हमें रूम में शिफ्ट कर दिया। यहाँ भी कुछ जानकारी ली गईं बेटी भी आ गई थी अब सारे दिन बस टेस्ट होना थे। एक्सरे डोपलर ईको ब्लड शुगर बीपी के अलावा एनेस्थेटिस्ट की इंक्वायरी। दिन भर फोन आते रहे डाक्टर नर्स हाउस कीपिंग की आवाजाही के बीच मन कभी आशा से भर जाता कभी डर और आशंका से। बीच-बीच में जब भी समय मिलता हम एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे रहते। दोनों ही डरे हुए थे और दोनों ही एक-दूसरे का हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। अपने अंदर आये नकारात्मक विचारों को होठों पर आने से रोक रहे थे जो अत्यधिक दबाव से तरल होकर आँखों के रास्ते बाहर आ रहे थे।</p><p>यहाँ नर्सिंग स्टेशन मतलब इस फ्लोर का काउंटर रूम के बाहर ही था। वहाँ से नर्स डाक्टर की बहुत तेज आवाजें आ रही थीं। दोपहर में थोड़ी देर सोने की कोशिश की लेकिन दुश्चिंता और शोर ने सोने नहीं दिया। दो रातों की अधूरी नींद अब थकान पैदा कर रही थी। </p><p>बेटी वापस घर जाये खाना बनाए इसकी इच्छा नहीं हुई। पास ही एक रेस्तरां था वहाँ जाकर हमने बारी बारी से खाना खाया। पतिदेव का खाना नाश्ता हास्पिटल कैंटीन से आ रहा था। </p><p>हसबैंड को एक्सरे के लिए लेकर गये काफी देर हो गई वे वापस नहीं आये। बेटी देखने गई तो देखा कि वहाँ लंबी वेटिंग है और वे बाहर व्हीलचेयर पर बैठे हैं। यह देखकर वह नाराज हुई कि पहले पता करो कि रूम खाली है या नहीं। कोरोना काल में इस तरह कारीडोर में इतनी देर पेशेंट को क्यों बैठाना। फिर वह भी वहीं रुकी रही ।वापस आकर उसने पूरी बात बताई।</p><p>उसका भी तनाव लगातार बढ़ रहा था वह कुछ बोल नहीं रही थी लेकिन अंदर ही अंदर चिंतित थी। अभी तक कभी ऐसी कोई स्थिति नहीं आई थी उसके जीवन में पहली बार ऐसा तनाव आया था जिसे एक के बाद एक कामों के चक्कर में उसे निकालने का समय उसे भी नहीं मिल रहा था।</p><p>शाम को एनेस्थिसिया देने वाले सीनियर डाक्टर आये और उन्होंने लंबा इंटरव्यू लिया। खान पान की आदतें किस हाथ से काम करते हैं वगैरह वगैरह। यह सब आपरेशन की तैयारी का हिस्सा था।</p><p>शाम को बेटी को घर जाने का कह दिया।। छोटी बेटी से भी वीडियो काल पर बात हुई। वह भी अपनी चिंता और तनाव के साथ इतनी दूर अकेली थी। उसके सब्मिशन हो चुके थे इसलिए अब उसे हर पल की खबर दे रहे थे। या कहें कि उससे कह कर अपना मन हल्का कर रहे थे। वह भी हौसला बढा रही थी और बात करते करते हँस रही थी वास्तव में तो वह अपनी रुलाई रोक रही थी।</p><p>अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे आपरेशन थियेटर में जाना था। मम्मी पापा को भी सुबह जल्दी आने का कह दिया था। बेटी से भी कहा अब घर जाओ। गुरुजी ने कुछ दान का कहा था उसकी सामाग्री खरीद कर रख लो कल सुबह जल्दी दान कर आना। देर रात तक आवाजाही चलती रही। करीब दो बजे एक ब्लड टेस्ट के सैंपल लेने नर्स आई। सैंपल लेते ही पतिदेव को अचानक घबराहट शुरू हो गई। ड्यूटी डाक्टर को बुलाया उन्होंने चैक किया सब ठीक था तब तक घबराहट कम हो गई। डाक्टर को कहा कि बाहर बहुत शोर है हम एक मिनट नहीं सो पा रहे हैं। यह तीसरी रात थी जो आँखों में कट रही थी।</p><p>नर्स ने कहा कि सुबह साढ़े चार बजे उठकर नहा कर तैयार हो जाएं। अब बमुश्किल तीन घंटे बचे थे आपरेशन में। मन बुरी तरह आशंकित था पलकें भारी थीं लेकिन नींद गायब थी। जैसे तैसे आँखें बंद किये पडे रहे। बाहर अब शांति थी लेकिन मन में उथल-पुथल मची थी। चार बजे हम उठ गये फ्रेश होकर थोड़ी देर बैठे फिर नहा कर तैयार हो गये। नर्स वार्ड बाॅय आ गये पतिदेव के पूरे शरीर पर बीटाडाइन का लेप किया। बड़ी बेटी को फोन किया वह घर से निकल गई थी। छोटी को फोन किया उससे बात की। हम आपरेशन थियेटर के बाहर पहुंचे बड़ी बेटी का फोन आया कि गार्ड अंदर नहीं आने दे रहा है। उससे बात की लेकिन फिर भी उसने बेटी को अंदर नहीं आने दिया। पतिदेव को ओटी के अंदर करने के लिए डाक्टर आ गई उनसे रिक्वेस्ट की कि बस दो मिनट बेटी आ रही है उससे मिल लेने दीजिए। वे रुक गये लेकिन बेटी अभी भी नहीं आई। उसे फोन किया तो बोली मम्मी अंदर नहीं आने दे रहे हैं। वहाँ मौजूद गार्ड से कहा कि प्लीज फोन करके बोलो न। उसने फोन किया कि उसके पापा का बायपास है आने दो अंदर। पापाजी का फोन आया वे रास्ते में थे। उनसे कहा कि हम ओटी के बाहर खड़े हैं। दो तीन मिनट में बेटी दो दो सीढियाँ चढते हुए आई वह बुरी तरह हाँफ रही थी। उसने पापा को दूर से देखा। पतिदेव ने उससे कहा मम्मी का ध्यान रखना।</p><p>मम्मी पापा पहुंच नहीं पाये ओटी का दरवाजा बंद हो गया।</p><p>अचानक आई इस विपत्ति पर कैसी मनःस्थिति थी और किस तरह से उसका सामना किया इसका दस्तावेजीकरण करने की कोशिश की है। यह पूर्णतः निजी और मौलिक है। इस पर किसी तरह की आपत्ति और शंका के लिए कोई स्थान नहीं है। बस इसे पढ़कर ऐसी स्थिति का कोई धैर्य से सामना कर पाए इसलिए इसे लिखा गया है।</p><p>#बायपास #bypass #minor_attack </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-15057766363390812372021-01-14T18:55:00.001+05:302021-01-14T18:55:06.250+05:30उन आठ दिनों की डायरी 7<p>11 नवंबर 2020</p><p>रात की भयावह परछाई सुबह के उजाले में कहीं नहीं थी लेकिन मन के किसी कोने में उसकी कालिमा अपना असर छोड़ गई थी। क्या हुआ था रात में क्या हार्ट को ब्लड आक्सीजन की सप्लाई नहीं हो रही थी? क्या वह भी कोई छोटा सा अटैक था? क्या यह कोई ईश्वरीय संकेत था जो कह रहा था कि अपने निर्णय पर विचार करो?</p><p>मुझे पाँच तारीख याद आ गई जब सुबह आफिस जाते समय हसबैंड ने सीना दबाया था। वह प्रथम ईश्वरीय संकेत था जिसे नजरअंदाज किया गया। दूसरा था जब पतिदेव आफिस में सीढ़ियों से चढ़े और हाँफने लगे थे लेकिन वे रुके नहीं और काम करते रहे। उन्होंने किसी को भी अपनी तकलीफ के बारे में नहीं बताया। अगर बताया होता तो कोई उन्हें डाक्टर के पास ले जाता उसी समय ईसीजी हो जाता तो शायद अटैक नहीं आता और हार्ट को नुकसान नहीं होता। अटैक के बिना भी एंजियोग्राफी करवा लेते।</p><p>कल रात जो हुआ वह भी ईश्वरीय संकेत था। शरीर ने अपने संकेत भेजे हैं क्या इन्हें नजरअंदाज करना ठीक होगा?</p><p>इतना बड़ा आपरेशन पूरे शरीर को खोलना उसमें से हार्ट को बाहर निकालना। आपरेशन के बाद लंबी देखभाल और जीवन चक्र में इतने आकस्मिक बदलाव। अब न वह बेफिक्री रहेगी न स्वतंत्रता कि कभी भी कहीं भी घूमने फिरने चल दो कितनी भी गाड़ी चलाओ जहाँ जो मिले खाओ पियो। सोच सोच कर रोना आ रहा था लेकिन रो नहीं सकती थी। यह समय कमजोर पड़ने का नहीं है। </p><p>थोड़ी देर पतिदेव से बातचीत की क्या हो रहा था कैसा लग रहा था? क्या करें आपरेशन की डेट ले लें क्या? अभी तीन चार दिन डाक्टर यहाँ हैं फिर वे बाहर चले जाएंगे। एक और डाक्टर का ओपिनियन लेने का विचार था लेकिन वह जिस हास्पिटल में आपरेशन करते हैं उसकी अच्छी रिपोर्ट नहीं थी इसलिए मन आगे पीछे हो रहा था।</p><p>लगभग ग्यारह बजे मैंने मम्मी पापा जी को फोन किया रात में क्या हुआ और आगे क्या करें का विचार करना है तो आप लोग आ जाओ। उन्हें बताते बताते रोना आ गया। आज सुबह बिटिया भी पूना से इंदौर आने के लिए निकली थी। वह अपनी गाड़ी से आ रही थी। उससे भी सतत संपर्क बना हुआ था लेकिन उसे अभी तक कुछ नहीं बताया था।</p><p>मैं खाना बनाने की तैयारी में जुट गई। पतिदेव ने तब तक मेडीकल क्लेम के लिए एजेंट को फोन किया। उसने हास्पिटल में डाक्टर के असिस्टेंट को फोन किया और जो भी जरूरी पेपर्स लगने थे उनकी स्कैन कापी उसे भेजीं। खाना बनने खाने तक लगभग तय हो गया कि अगले दिन ही हास्पिटल में एडमिट होना है ताकि उसके अगले दिन यानि कि रूपचौदस के दिन बायपास सर्जरी हो सके।</p><p>अभी दिन उगे बमुश्किल पांच घंटे हुए थे हमें उठे शायद चार घंटे ही हुए थे। एक रात पहले सोच कर सोये थे कि आपरेशन दस पंद्रह दिन बाद करवाएंगे। रात में विचार डगमगाया। सुबह सब ठीक था और मात्र तीन चार घंटे में बायपास करवाना है यह लगभग तय हो गया था।</p><p>दो बजे तक मम्मी पापा जी आ गये ।उन्हें भी बताया कि अब और ओपिनियन के लिए रुकने का समय नहीं है। वैसे भी एंजियोग्राफी करने वाले डाक्टर ने भाभी ने उनकी बहन जो हार्ट सर्जन हैं उन्होंने और कल डाक्टर श्रीवास्तव ने बायपास के लिए ही कहा है तो अब करवा लेना ही बेहतर है।</p><p>दरअसल कुछ दिन रुकने का एक कारण यह भी था कि भाई तीन साल बाद नाइजीरिया से वापस आया था और हम चाह रहे थे कि वह अपने परिवार के साथ दीपावली मना ले। आपरेशन के कारण वह परिवार के पास नहीं जा पाता जो दूसरे शहर में रहता है। लेकिन अब परिस्थितियां ऐसी बन गई थीं कि रुकना संभव नहीं था। रात बड़ी भयावह थी जिस तरह की असहायता महसूस की थी और जिस गंभीर स्थिति की आशंका अब बन गई थी उसके बाद तुरंत बायपास ही उचित था।</p><p>पापाजी ने भी कहा कि दीपावली तो हर साल आएंगी। भाई से बात की तो वह भी बोला मेरे और दीपावली के लिए मत रुको जो जरूरी है वह करो। भाभी से बात हुई उन्होंने भी कहा कि नहीं स्थिति ठीक नहीं है देर मत करो।</p><p>शाम को बिटिया के आने का समय होने को था मैं खाने की तैयारी में लग गई। दिन भर के लंबे सफर के बाद वह थकी होगी। अगले दिन सुबह हास्पिटल जाने की तैयारी भी करना था।</p><p>पाँच बजे बिटिया आ गई ।वह नाना-नानी को देखकर चौंकी। हालचाल पूछने के बाद उसे बताया कि कल पापा को एडमिट होना है परसों बायपास है।</p><p>चौंक गई वह भी सब कुछ अचानक लेकिन जल्दी ही संभल गई ठीक है क्या तैयारी करना है बताओ।</p><p>छोटी बेटी को भी फोन करके बताया कि पापा का आपरेशन करने का डिसाइड किया है और कल एडमिट हो जाएंगे। थोड़ी देर में उसने अपने दोस्तों से और गूगल पर आपरेशन के बारे में पता किया और हमें हौसला देने लगी कि सब ठीक होगा। वह बड़ी कुशलता से अपने डर और तनाव को छुपा रही थी। </p><p>खाना खाते नौ बज गये। सुबह की तैयारी करके रख दीं थोड़ी देर टीवी देखा आज का दिन भी बेहद लंबा और व्यस्त रहा। रात में थोड़ी देर पतिदेव के पास बैठी। मन का डर जुबान पर आ ही गया। तुम ठीक हो जाओगे न? बस जो भी हो ठीक हो जाना कहते कहते रोना आ ही गया।</p><p>हम दोनों देर तक एक दूसरे का हाथ थामे बैठे रहे।</p><p>रात बारह बजे अचानक नींद खुल गई। एक रात पहले का वह पल ही था जिसने जगा दिया। करीब एक घंटे तक पतिदेव के चेहरे को देखती रही। उनकी साँसों की गति माथे का ताप सभी नार्मल था कि अचानक उनकी नींद खुल गई। फिर वही दर्द वही बैचेनी। मैंने उठकर गर्म पानी दिया। वे टायलेट गये लेकिन बैचेनी दूर नहीं हुई। मन हुआ सुबह का इंतजार क्यों अभी हास्पिटल चलें। वे कभी लेटते कभी बैठते कभी गर्म पानी पीते कभी डकार लेने की कोशिश करते। मैं कभी उनकी पीठ पर हाथ फेरती कभी हाथ थामे बैठती भगवान का स्मरण लगातार करती रही हे ईश्वर रात ठीक से गुजर जाये।</p><p>ईश्वर ने सुन ही लिया। दिन भर की थकी हारी बिटिया को नींद से नहीं जगाना पड़ा। थोड़ी देर में पतिदेव सो गये मैं देर तक जागती रही।</p><p>#बायपास #bypass #minor_attack </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-10590072745837850382021-01-11T15:44:00.003+05:302021-01-11T15:44:50.436+05:30उन आठ दिनों की डायरी 6<p> 10 नवंबर 2020 </p><p>चार दिन बाद सुकून से नींद आई। सुबह जल्दी ही आँख खुल गई। हास्पिटल में सोशल मीडिया पर बात करते एक वैद्य का पता मिला था जिनकी बहुत तारीफ मेरी एक दोस्त ने की थी। मैंने फोन पर बात करके पूछा था कि क्या हार्ट प्राब्लम की दवा आयुर्वेद में है? उन्होंने आज बुलाया था। जाने के पहले जल्दी जल्दी घर के काम निपटाए। कोरोना के चलते अभी कोई हाउस हेल्प भी नहीं थी और अब तक पतिदेव जिन कामों में सहयोग दे देते थे वह भी कोई सहयोग नहीं कर पा रहे थे। साफ सफाई के साथ ही खाने की तैयारी पूरी की ताकि आते ही खाना बना सकूं। आयुर्वेद में नब्ज देखने का महत्व है इसलिए खाली पेट ही जाना था जबकि कुछ दवाएं जो चल रही थीं उन्हें नाश्ते के बाद ही लेना था। वैद्य जी से बात की तो उन्होंने कहा कि अन्न न खाएं कुछ और खाकर दवाइयाँ ले लें।</p><p>औषधालय घर से दूर था और मेन मार्केट में था जहाँ गाड़ी की पार्किंग मिलना मुश्किल था। हमने मेन मार्केट से दूर एक पार्किंग में गाड़ी खड़ी की और वहाँ से आटो करके औषधालय पहुँचे। नब्ज देखकर थोड़ी देर बातचीत करके और बहुत देर तक खुद की तारीफ करने के बाद दवाइयाँ दीं जिन्हें लेकर हम घर जाने के लिए निकले।</p><p>पतिदेव की गाड़ी अभी भी बाम्बे हास्पिटल में खड़ी थी जिसे लेने जाना था। वहाँ हुए कुछ टेस्ट की रिपोर्ट भी मिली नहीं थीं इसलिए लौटते में बाम्बे हास्पिटल गये। वहाँ देर तक इस डिपार्टमेंट से उस डिपार्टमेंट में घूमते रहे लेकिन कोई जिम्मेदारी से जवाब नहीं दे रहा था। अंततः एक व्यक्ति को कुछ तरस आया और उसने हस्तक्षेप किया और ईसीजी की रिपोर्ट और एक्सरे की रिपोर्ट दिलवाई लेकिन एक्सरे फिल्म नहीं मिली। </p><p>इसी समय डाक्टर से मिले और अनायास मैंने पूछा वर्माजी गाड़ी चला सकते हैं? उन्होंने कहा असंभव। अब गाड़ी ले जाने का सवाल ही नहीं था हम घर आ गये। </p><p> काफी देर हो गई थी आते ही खाना बनाया और दोपहर में थोड़ी देर आराम किया।</p><p>शाम को पांच बजे मेदांता हास्पिटल के हार्ट सर्जन डॉ श्रीवास्तव से अपॉइंटमेंट था। उन्हें दिखाने के लिए एंजियोग्राफी की सीडी ले जाना था। हमने सीडी देखने के लिए लैपटॉप में चलाई लेकिन वह प्ले ही नहीं हो रही थी। बहुत कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। इसी वक्त पंजाब से भतीजे का फोन आया। वह साफ्टवेयर इंजीनियर है। जरूरी हालचाल बता कर उससे कहा कि यह सीडी कैसे चलेगी बताओ। सीडी डाउनलोड करके उसे भेजी। उसने थोड़ी देर देखा फिर फोन करके बताया कि क्या कैसे करना है। पांच बजने वाले थे फिर जल्दी से तैयार हुए हास्पिटल जाने के लिए। पतिदेव ने एक ड्राइवर बुलवा लिया था जो गाड़ी से हमें लेकर हास्पिटल पहुँचा।</p><p>वहाँ ओपीडी का रजिस्ट्रेशन करवाकर ऊपर गये तो डॉक्टर के असिस्टेंट ने कहा कि एक्सरे करवाइये। मरीज का कोरोना टेस्ट के लिए एक्सरे जरूरी है। बाम्बे हास्पिटल में तीन-चार एक्सरे हुए थे लेकिन सभी उन्होंने रख लिये थे। सिर्फ रिपोर्ट देखकर वे लोग मानने को तैयार ही नहीं थे। मैंने उनसे कहा कि आपके हाथ में पेपर्स हैं जो बता रहे हैं कि पेशेंट कल तक हास्पिटल में एडमिट थे और वह भी हार्ट प्राब्लम के लिए। सारी दवाइयाँ हार्ट प्राब्लम की हैं कोई भी कोरोना की दवा नहीं है। इसका यह अर्थ है कि पेशेंट को कोरोना नहीं है। आप मेरी बात न माने लेकिन आपके हाथ में जो पेपर्स हैं वह आपके प्रोफेशन के लोगों द्वारा बनाए गये हैं उनकी बात तो मानें। ये पेपर्स बाम्बे हास्पिटल के हैं कोई गली कूचे के छोटे से हास्पिटल के तो नहीं हैं।</p><p>मेरे तर्क ने उन्हें सोचने को मज़बूर किया और वे बिना एक्सरे डाक्टर को दिखाने पर सहमत हो गये। डाक्टर के केबिन में सीडी लैपटॉप पर लगा कर देखी जा चुकी थी। हम गये तब तक वे देख चुके थे। उनके सामने एक बड़ा सा शीशा लगा था। हम उनसे कम से कम आठ फीट दूर बैठे थे। शीशे के उस पार डाक्टर ने फेसशील्ड लगा रखी थी। देख कर हँसी भी आई कि इतने सब के बाद अगर कोरोना पेशेंट भी होगा तो उसके विषाणु कैसे डाक्टर तक पहुँचेंगे?</p><p>मजे की बात यह कि चेस्ट एक्सरे सिर्फ पेशेंट का होता जबकि अटेंडेंट यानि की मेरा नहीं होता और मैं भी उसी केबिन में बैठी थी।</p><p>डाॅ ने कुछ प्रश्न पूछे और बताया कि यह हाई रिस्क सर्जरी है और तुरंत करवाना चाहिये। साथ ही बताया कि वे अगले किन किन दिनों में आपरेशन कर सकते हैं। उसके बाद वे एक हफ्ते के लिए देश से बाहर जाने वाले थे।</p><p>मैंने उनसे पूछा कि अगर हम आठ दस या पंद्रह दिन रुकते हैं फिर आपरेशन करवाते हैं तो रिस्क फैक्टर क्या होंगे?</p><p>अगला अटैक मेजर हार्ट अटैक होगा।</p><p>इस बात ने तो जैसे साँस ही रोक दी।</p><p>यह अटैक हो सकता है अगले पांच दस या पंद्रह दिनों में आ जाये या शायद पाँच साल तक न आये कुछ कह नहीं सकते। </p><p>सच ही था कैसे कहा जा सकता है कि शरीर के अंदर किसी अनजानी शक्ति से चलती मशीनरी कब क्या रंग दिखाएगी? </p><p>किसे पता था कि आठ दिन पहले डेढ़ घंटे तक बैडमिंटन खेलने वाले व्यक्ति की तीनों आर्टरी सिकुड़ गई हैं और अब बायपास ही एकमात्र इलाज है। यह बात बेहद डरावनी थी। </p><p>आप वेन्स का बायपास करेंगे या आर्टरी का यह पूछने पर डाक्टर अचानक चौंक गये । इतने टैक्नीकल प्रश्न की उम्मीद उन्हें नहीं थी लेकिन क्षणांश में उन्होंने खुद को संभाल लिया फिर बहुत धैर्य और शांति से बताया कि वैसे तो वेन्स का ट्रांसप्लांट भी कई मामलों में अच्छा रहता है। वह भी काफी समय चलता है लेकिन आर्टरी का ट्रांसप्लांट भी कर सकते हैं। इसमें दो आर्टरी चेस्ट से और एक हाथ से निकाली जायेगी।</p><p>हार्ट के आपरेशन के एक हफ्ते पहले खून को पतला करने वाली दवाइयाँ बंद कर दी जाती हैं लेकिन कभी-कभी जरूरी होता है तो एक दो दिन पहले बंद करके भी आपरेशन किया जा सकता है। आप लोग जैसा भी डिसाइड करें बता दें। अभी दीवाली आने वाली है वह सब आप लोग देखें हम तो दीवाली के दिन भी आपरेशन करते हैं। </p><p>इसके बाद डाक्टर के असिस्टेंट ने हमें आपरेशन के कितने पहले एडमिट होना कितने दिन रहना कितना खर्च क्या प्रोसेस सभी कुछ बताया। वहाँ से बाहर निकले तो दिल में बड़ा असमंजस था।</p><p>ड्राइवर गाड़ी लेकर आ गया और हम वहाँ से निकल कर बाम्बे हास्पिटल गये। वहाँ मैंने अपनी गाड़ी ली और ड्राइवर ने पतिदेव की गाड़ी ली और हम घर आ गये ।</p><p>आज का पूरा दिन बेहद व्यस्त और पल पल मन के विचार बदलने वाला था। सुबह आयुर्वेद पर विश्वास कर मन में जो आशा बँधी थी वह शाम तक डाक्टर की सलाह और चेतावनी के बाद डगमगा गई थी।</p><p>दिन भर की भागदौड़ के बाद भी पतिदेव को कोई थकान कोई शिथिलता नहीं थी। यह देखकर भी लगा कि शायद हम लोग कुछ ज्यादा सीरियस हो रहे हैं ऐसी भी गंभीर बात नहीं है। </p><p>घर आकर थोड़ा आराम किया खाना बनाया पापाजी को फोन किया और बताया कि डाक्टर ने क्या कहा है। अभी तो कुछ समझ नहीं आ रहा है आयुर्वेद की दवाइयां शुरू करते हैं फिर दीवाली के बाद ही आपरेशन का सोचेंगे मैंने कहा। पापाजी भी इससे संतुष्ट ही दिखे।</p><p>रात में खाना खाकर थोड़ी देर टीवी देखा फिर सो गये।</p><p>लगभग डेढ़ बजे नींद खुली देखा पतिदेव बाथरूम जा रहे हैं। मैंने पूछा मैं चलूँ तो बोले नहीं। वहाँ से काफी देर में वापस आये और फिर बिस्तर में बैठे रहे।</p><p> क्या हुआ?</p><p>कुछ अजीब सा लग रहा है शायद पेट दर्द हो रहा है। </p><p>गैस तो नहीं बन रही? </p><p>समझ नहीं आ रहा है थोड़ा गर्म पानी दे दो गैस पास हो जायेगी। </p><p>मैंने पानी गर्म करके लाकर दिया। उसे पीकर वे वज्रासन में बैठ गये लेकिन अजीब सा दर्द घबराहट हो रही थी। मैंने माथे पर हाथ फेरा यह क्या उन्हें ठंडा पसीना आ रहा था। ठंडा पसीना अगला मेजर अटैक डाक्टर की बात दिमाग में गूँज गई। </p><p>पता नहीं क्या है यह ऐसे में टहलने को भी नहीं कह सकते और क्या करें यह भी समझ नहीं आ रहा है। गाड़ी निकालूं हास्पिटल ले चलूँ या एंबुलेंस को फोन करूँ। दिमाग कुछ सोच नहीं पा रहा था। कभी उन्हें पानी देती कभी माथे पर हाथ फेरती तो कभी हास्पिटल जाने का विचार करती पतिदेव से पूछती हास्पिटल चलें क्या और वे चुप। खुद ही नहीं समझ पा रहे थे क्या कहें क्या करें? ये अटैक का दर्द है या गैस का? </p><p>लगभग पंद्रह बीस मिनट यह असमंजस रहा फिर उन्हें कुछ ठीक लगने लगा और वे सो गये। मैं देर तक जाग कर उनके माथे पर हाथ फेरकर देखती रही कभी उनकी साँसों की गति देखती सुनती रही। वे चैन से सो रहे थे जब यह आश्वस्ति हुई तब पता नहीं कब मेरी आँख लग गई। </p><div>कविता वर्मा </div><div>#बायपास #bypass #minor_attack </div>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-77330785656035406292021-01-08T12:17:00.002+05:302021-01-08T12:17:21.309+05:30उन आठ दिनों की डायरी 6<p> 10 नवंबर 2020 </p><p>चार दिन बाद सुकून से नींद आई। सुबह जल्दी ही आँख खुल गई। हास्पिटल में सोशल मीडिया पर बात करते एक वैद्य का पता मिला था जिनकी बहुत तारीफ मेरी एक दोस्त ने की थी। मैंने फोन पर बात करके पूछा था कि क्या हार्ट प्राब्लम की दवा आयुर्वेद में है? उन्होंने आज बुलाया था। जाने के पहले जल्दी जल्दी घर के काम निपटाए। कोरोना के चलते अभी कोई हाउस हेल्प भी नहीं थी और अब तक पतिदेव जिन कामों में सहयोग दे देते थे वह भी कोई सहयोग नहीं कर पा रहे थे। साफ सफाई के साथ ही खाने की तैयारी पूरी की ताकि आते ही खाना बना सकूं। आयुर्वेद में नब्ज देखने का महत्व है इसलिए खाली पेट ही जाना था जबकि कुछ दवाएं जो चल रही थीं उन्हें नाश्ते के बाद ही लेना था। वैद्य जी से बात की तो उन्होंने कहा कि अन्न न खाएं कुछ और खाकर दवाइयाँ ले लें।</p><p>औषधालय घर से दूर था और मेन मार्केट में था जहाँ गाड़ी की पार्किंग मिलना मुश्किल था। हमने मेन मार्केट से दूर एक पार्किंग में गाड़ी खड़ी की और वहाँ से आटो करके औषधालय पहुँचे। नब्ज देखकर थोड़ी देर बातचीत करके और बहुत देर तक खुद की तारीफ करने के बाद दवाइयाँ दीं जिन्हें लेकर हम घर जाने के लिए निकले।</p><p>पतिदेव की गाड़ी अभी भी बाम्बे हास्पिटल में खड़ी थी जिसे लेने जाना था। वहाँ हुए कुछ टेस्ट की रिपोर्ट भी मिली नहीं थीं इसलिए लौटते में बाम्बे हास्पिटल गये। वहाँ देर तक इस डिपार्टमेंट से उस डिपार्टमेंट में घूमते रहे लेकिन कोई जिम्मेदारी से जवाब नहीं दे रहा था। अंततः एक व्यक्ति को कुछ तरस आया और उसने हस्तक्षेप किया और ईसीजी की रिपोर्ट और एक्सरे की रिपोर्ट दिलवाई लेकिन एक्सरे फिल्म नहीं मिली। </p><p>इसी समय डाक्टर से मिले और अनायास मैंने पूछा वर्माजी गाड़ी चला सकते हैं? उन्होंने कहा असंभव। अब गाड़ी ले जाने का सवाल ही नहीं था हम घर आ गये। </p><p> काफी देर हो गई थी आते ही खाना बनाया और दोपहर में थोड़ी देर आराम किया।</p><p>शाम को पांच बजे मेदांता हास्पिटल के हार्ट सर्जन डॉ श्रीवास्तव से अपॉइंटमेंट था। उन्हें दिखाने के लिए एंजियोग्राफी की सीडी ले जाना था। हमने सीडी देखने के लिए लैपटॉप में चलाई लेकिन वह प्ले ही नहीं हो रही थी। बहुत कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। इसी वक्त पंजाब से भतीजे का फोन आया। वह साफ्टवेयर इंजीनियर है। जरूरी हालचाल बता कर उससे कहा कि यह सीडी कैसे चलेगी बताओ। सीडी डाउनलोड करके उसे भेजी। उसने थोड़ी देर देखा फिर फोन करके बताया कि क्या कैसे करना है। पांच बजने वाले थे फिर जल्दी से तैयार हुए हास्पिटल जाने के लिए। पतिदेव ने एक ड्राइवर बुलवा लिया था जो गाड़ी से हमें लेकर हास्पिटल पहुँचा।</p><p>वहाँ ओपीडी का रजिस्ट्रेशन करवाकर ऊपर गये तो डॉक्टर के असिस्टेंट ने कहा कि एक्सरे करवाइये। मरीज का कोरोना टेस्ट के लिए एक्सरे जरूरी है। बाम्बे हास्पिटल में तीन-चार एक्सरे हुए थे लेकिन सभी उन्होंने रख लिये थे। सिर्फ रिपोर्ट देखकर वे लोग मानने को तैयार ही नहीं थे। मैंने उनसे कहा कि आपके हाथ में पेपर्स हैं जो बता रहे हैं कि पेशेंट कल तक हास्पिटल में एडमिट थे और वह भी हार्ट प्राब्लम के लिए। सारी दवाइयाँ हार्ट प्राब्लम की हैं कोई भी कोरोना की दवा नहीं है। इसका यह अर्थ है कि पेशेंट को कोरोना नहीं है। आप मेरी बात न माने लेकिन आपके हाथ में जो पेपर्स हैं वह आपके प्रोफेशन के लोगों द्वारा बनाए गये हैं उनकी बात तो मानें। ये पेपर्स बाम्बे हास्पिटल के हैं कोई गली कूचे के छोटे से हास्पिटल के तो नहीं हैं।</p><p>मेरे तर्क ने उन्हें सोचने को मज़बूर किया और वे बिना एक्सरे डाक्टर को दिखाने पर सहमत हो गये। डाक्टर के केबिन में सीडी लैपटॉप पर लगा कर देखी जा चुकी थी। हम गये तब तक वे देख चुके थे। उनके सामने एक बड़ा सा शीशा लगा था। हम उनसे कम से कम आठ फीट दूर बैठे थे। शीशे के उस पार डाक्टर ने फेसशील्ड लगा रखी थी। देख कर हँसी भी आई कि इतने सब के बाद अगर कोरोना पेशेंट भी होगा तो उसके विषाणु कैसे डाक्टर तक पहुँचेंगे?</p><p>मजे की बात यह कि चेस्ट एक्सरे सिर्फ पेशेंट का होता जबकि अटेंडेंट यानि की मेरा नहीं होता और मैं भी उसी केबिन में बैठी थी।</p><p>डाॅ ने कुछ प्रश्न पूछे और बताया कि यह हाई रिस्क सर्जरी है और तुरंत करवाना चाहिये। साथ ही बताया कि वे अगले किन किन दिनों में आपरेशन कर सकते हैं। उसके बाद वे एक हफ्ते के लिए देश से बाहर जाने वाले थे।</p><p>मैंने उनसे पूछा कि अगर हम आठ दस या पंद्रह दिन रुकते हैं फिर आपरेशन करवाते हैं तो रिस्क फैक्टर क्या होंगे?</p><p>अगला अटैक मेजर हार्ट अटैक होगा।</p><p>इस बात ने तो जैसे साँस ही रोक दी।</p><p>यह अटैक हो सकता है अगले पांच दस या पंद्रह दिनों में आ जाये या शायद पाँच साल तक न आये कुछ कह नहीं सकते। </p><p>सच ही था कैसे कहा जा सकता है कि शरीर के अंदर किसी अनजानी शक्ति से चलती मशीनरी कब क्या रंग दिखाएगी? </p><p>किसे पता था कि आठ दिन पहले डेढ़ घंटे तक बैडमिंटन खेलने वाले व्यक्ति की तीनों आर्टरी सिकुड़ गई हैं और अब बायपास ही एकमात्र इलाज है। यह बात बेहद डरावनी थी। </p><p>आप वेन्स का बायपास करेंगे या आर्टरी का यह पूछने पर डाक्टर अचानक चौंक गये । इतने टैक्नीकल प्रश्न की उम्मीद उन्हें नहीं थी लेकिन क्षणांश में उन्होंने खुद को संभाल लिया फिर बहुत धैर्य और शांति से बताया कि वैसे तो वेन्स का ट्रांसप्लांट भी कई मामलों में अच्छा रहता है। वह भी काफी समय चलता है लेकिन आर्टरी का ट्रांसप्लांट भी कर सकते हैं। इसमें दो आर्टरी चेस्ट से और एक हाथ से निकाली जायेगी।</p><p>हार्ट के आपरेशन के एक हफ्ते पहले खून को पतला करने वाली दवाइयाँ बंद कर दी जाती हैं लेकिन कभी-कभी जरूरी होता है तो एक दो दिन पहले बंद करके भी आपरेशन किया जा सकता है। आप लोग जैसा भी डिसाइड करें बता दें। अभी दीवाली आने वाली है वह सब आप लोग देखें हम तो दीवाली के दिन भी आपरेशन करते हैं। </p><p>इसके बाद डाक्टर के असिस्टेंट ने हमें आपरेशन के कितने पहले एडमिट होना कितने दिन रहना कितना खर्च क्या प्रोसेस सभी कुछ बताया। वहाँ से बाहर निकले तो दिल में बड़ा असमंजस था।</p><p>ड्राइवर गाड़ी लेकर आ गया और हम वहाँ से निकल कर बाम्बे हास्पिटल गये। वहाँ मैंने अपनी गाड़ी ली और ड्राइवर ने पतिदेव की गाड़ी ली और हम घर आ गये ।</p><p>आज का पूरा दिन बेहद व्यस्त और पल पल मन के विचार बदलने वाला था। सुबह आयुर्वेद पर विश्वास कर मन में जो आशा बँधी थी वह शाम तक डाक्टर की सलाह और चेतावनी के बाद डगमगा गई थी।</p><p>दिन भर की भागदौड़ के बाद भी पतिदेव को कोई थकान कोई शिथिलता नहीं थी। यह देखकर भी लगा कि शायद हम लोग कुछ ज्यादा सीरियस हो रहे हैं ऐसी भी गंभीर बात नहीं है। </p><p>घर आकर थोड़ा आराम किया खाना बनाया पापाजी को फोन किया और बताया कि डाक्टर ने क्या कहा है। अभी तो कुछ समझ नहीं आ रहा है आयुर्वेद की दवाइयां शुरू करते हैं फिर दीवाली के बाद ही आपरेशन का सोचेंगे मैंने कहा। पापाजी भी इससे संतुष्ट ही दिखे।</p><p>रात में खाना खाकर थोड़ी देर टीवी देखा फिर सो गये।</p><p>लगभग डेढ़ बजे नींद खुली देखा पतिदेव बाथरूम जा रहे हैं। मैंने पूछा मैं चलूँ तो बोले नहीं। वहाँ से काफी देर में वापस आये और फिर बिस्तर में बैठे रहे।</p><p> क्या हुआ?</p><p>कुछ अजीब सा लग रहा है शायद पेट दर्द हो रहा है। </p><p>गैस तो नहीं बन रही? </p><p>समझ नहीं आ रहा है थोड़ा गर्म पानी दे दो गैस पास हो जायेगी। </p><p>मैंने पानी गर्म करके लाकर दिया। उसे पीकर वे वज्रासन में बैठ गये लेकिन अजीब सा दर्द घबराहट हो रही थी। मैंने माथे पर हाथ फेरा यह क्या उन्हें ठंडा पसीना आ रहा था। ठंडा पसीना अगला मेजर अटैक डाक्टर की बात दिमाग में गूँज गई। </p><p>पता नहीं क्या है यह ऐसे में टहलने को भी नहीं कह सकते और क्या करें यह भी समझ नहीं आ रहा है। गाड़ी निकालूं हास्पिटल ले चलूँ या एंबुलेंस को फोन करूँ। दिमाग कुछ सोच नहीं पा रहा था। कभी उन्हें पानी देती कभी माथे पर हाथ फेरती तो कभी हास्पिटल जाने का विचार करती पतिदेव से पूछती हास्पिटल चलें क्या और वे चुप। खुद ही नहीं समझ पा रहे थे क्या कहें क्या करें? ये अटैक का दर्द है या गैस का? </p><p>लगभग पंद्रह बीस मिनट यह असमंजस रहा फिर उन्हें कुछ ठीक लगने लगा और वे सो गये। मैं देर तक जाग कर उनके माथे पर हाथ फेरकर देखती रही कभी उनकी साँसों की गति देखती सुनती रही। वे चैन से सो रहे थे जब यह आश्वस्ति हुई तब पता नहीं कब मेरी आँख लग गई। </p><p>#बायपास #bypass #minor_attack </p><div><br /></div>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-83338287975317774692021-01-05T15:29:00.000+05:302021-01-05T15:29:01.471+05:30उन आठ दिनों की डायरी 5<p> </p><p dir="ltr">8 /9 नवंबर 2020<br />
देर रात रूम में आने के बाद शुगर बीपी टेस्ट फाइल का, दवाइयों का हैंड ओवर आदि करते साढ़े बारह एक बज गये। रात सुकून से गुजरी हालाँकि नई जगह नींद आसानी से नहीं आती लेकिन फिर भी बहुत ज्यादा देर जागरण नहीं करना पड़ा। यह शायद दिन भर के तनाव और थकान के कारण हुआ कि नींद लग गई। <br />
सुबह पांच बजे से हलचल शुरू हो गई स्पंज बेड क्लीनिंग बीपी शुगर टेस्ट। थोड़ी देर लेटे रहने की कोशिश की लेकिन बार बार किसी के आने-जाने से लेटना कहाँ हो पाता है इसलिए उठ जाना ही ठीक लगा। <br />
कमरे की खिड़की से सोये अलसाये शहर का नजारा बहुत खूबसूरत था। हालाँकि दूर तक फैली धूल की लेयर इस आनंद में खलल डाल रही थी फिर भी बारहवीं मंजिल से शांत शहर को देखना खूबसूरत अहसास देता है। जल्दी ही सड़क पर ट्रैफिक शुरू हो गया था धूप धीरे-धीरे मकानों की छत से उतरते हुए दीवारों पर उतरते हुए सड़क पर गई थी। नाश्ता चाय अभी तक नहीं आया था। हसबैंड को तेज भूख लगने लगी। बाहर से कुछ लाना संभव नहीं था और अंदर कैंटीन पर ही निर्भर थे। <br />
चाय नाश्ता करके स्नान किया तब तक हसबैंड के कलीग आ गये। उनसे देर तक बात हुई जिसमें एक दिन पहले उस डाक्टर की बदतमीजी के बारे में भी बात हुई। मुख्यतः वे मुझे शांत रहने और शिकायत न करने के लिए ही समझाते रहे। यह तो तय था कि उस डाक्टर को समझ आ गया था कि उसने बड़ी गलती कर दी है लेकिन मानें किस मुँह से। खैर मैं तो अभी सामने आई समस्या के समाधान में व्यस्त थी ऐसे में छोटी मोटी बातों के लिए समय कहाँ था? <br />
दोपहर में डाक्टर राउंड पर आये उन्होंने बताया कि वे आज ही डिस्चार्ज पेपर बना कर दे देंगे। कल दिन में डिस्चार्ज हो जायेगा। आगे बायपास के बारे में क्या सोचा है आदि के बारे में बात करते रहे। मैंने बताया कि सेकेंड ओपिनियन ले रहे हैं फिर डिसाइड करेंगे। <br />
मैं एक दिन पहले ही मेदांता हास्पिटल में फोन करके मंगलवार का अपॉइंटमेंट ले चुकी थी। हास्पिटल से तो सोमवार को डिस्चार्ज होना था लेकिन पिछले तीन बार के मेडीक्लेम के कटु अनुभवों ने बताया था कि लगभग पूरा दिन निकल जाता है क्लेम क्लीयर होने में इसलिए एक दिन बाद का ही लेना ठीक है। <br />
रविवार का पूरा दिन आराम करते बीता। हसबैंड अच्छा महसूस कर रहे थे कुछ देर सोते कुछ देर खिड़की से बाहर देखते बातचीत करते दिन कट गया। <br />
9 नवंबर 2020 <br />
सोमवार की सुबह से एक आस जगी कि आज तो घर चले जाएंगे। चाय नाश्ते के बाद इंतजार शुरू हुआ डिस्चार्ज का जो दोपहर के बाद देर शाम तक जारी रहा। शाम को तीस हजार रुपये जमा करने का संदेश आया। हसबैंड ने सारी जानकारी निकलवाई। पता चला कि प्रायवेट रूम होने से आईसीयू का पैसा भी फर्स्ट क्लास का जोड़ा गया था। जो दस हजार जमा किये थे वे भी समायोजित नहीं किये गये थे। <br />
मेरा सब्र अब खत्म होने लगा था। हसबैंड ने दो तीन बार फोन पर बात की फिर खुद ही लिफ्ट से नीचे टीपीए डिपार्टमेंट में गये। वहाँ उन्हें लगभग पौन एक घंटा लग गया। कमरे में बैठे बैठे मेरा दिल घबराने लगा। अभी तीन दिन पहले ही अटैक आया है और इतनी भागदौड़ बहस। मेडीक्लेम की कैशलेस पालिसी के बावजूद हजारों का बिल होता ही है। इतने सबके बावजूद लगभग सत्ताईस हजार रुपये भरने थे जो जमा कर दिये। <br />
यहाँ भी एक पेंच था कि जितने भी टेस्ट हुए हैं उनकी रिपोर्ट हमें नहीं दी गई। कहा गया कि वे मेडीक्लेम के लिए जमा होंगीं। जबकि तय था कि आगे अभी और इलाज करवाना है जिसमें ईसीजी चेस्ट एक्सरे सभी लगेंगे लेकिन और कोई रास्ता नहीं था। मेडीक्लेम कंपनियों और हास्पिटल की जुगलबंदी आपको बंधक बना लेती है और आप पालिसी होने के बावजूद अपनी ही चीजों से वंचित किये जाते हैं। <br />
रात के खाने का समय हो गया था आसपास के कमरों में खाना आ रहा था। मैंने कैंटीन फोन लगाया और खाना भिजवाने को कहा। वहाँ से जवाब मिला आपका तो डिस्चार्ज हो गया है सुनकर खून खौल गया। <br />
नहीं भैया कहाँ हुआ डिस्चार्ज अभी तो हम यहीं हैं अभी पेपर क्लीयर नहीं हुए हैं। अब बाहर का खाना लाने नहीं देते यहाँ खाना भिजवाते नहीं हैं तो पेशेंट को क्या भूखा रखोगे? <br />
नहीं नहीं मैडम मैं खाना भिजवा देता हूँ। खैर थोड़ी देर में खाना आ गया। एक एक्स्ट्रा थाली के पैसे दिये और खाना खाया। रात के आठ बज गये थे इंतजार करते करते थक चुके थे अब घर जाकर खाना बनाना संभव नहीं था। <br />
काउंटर पर बता दिया कि पैसे भर दिये हैं लेकिन देर तक कोई नर्स ड्रिप के लिए लगाई निडिल निकालने नहीं आई। मैं दो बार काउंटर पर जा चुकी थी। धैर्य चूकने को था मन चिल्लाने का हो रहा था बस और थोड़ी देर कह कहकर खुद को समझा रही थी। <br />
निडिल निकलने के बाद दवाइयों के डोज के लिए फिर काउंटर पर गई। नर्स को रूम में आकर दवाइयाँ बताने में जोर आ रहा था। ये बची हुई दवाइयाँ थीं कुछ के नाम फट चुके थे ऐसे में फाइल पर देखकर दवाई समझना मुश्किल था। उसका बना हुआ मुँह देखकर फिर गुस्सा आने को हुआ लेकिन चुप ही रही। <br />
अंततः रात लगभग नौ बजे हम घर पहुंचे जबकि शनिवार से डिस्चार्ज तय था और रविवार को पेपर्स भेजे जा चुके थे। <br />
घर आकर राहत की सांस ली। <br />
कविता वर्मा <br />
</p><p dir="ltr">#बायपास #bypass #minor_attack </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7609642450164936531.post-457322963759332332020-12-26T21:17:00.005+05:302020-12-26T21:17:40.467+05:30उन आठ दिनों की डायरी 4<p> उन आठ दिनों की डायरी 4</p><p>7 नवंबर 2020</p><p>सुबह जल्दी उठकर हास्पिटल पहुँची कुछ देर बाहर हाॅल में बैठी रही। गार्ड को बता दिया था कि मुझे मिलना है हसबैंड से और जानना है कि उनकी तबियत कैसी है? उसने कहा थोड़ी देर में बुलाते हैं। थोड़ी देर करते करते लगभग डेढ़ घंटा बीत गया अब धैर्य जवाब देने लगा। मैं फिर अंदर गई गार्ड नहीं था तो अंदर चली गई। नर्सिंग स्टेशन और वार्ड के बीच में खड़ी थी कि कोई दिख जाये तो उससे पूछ कर हसबैंड को देख आऊं। तभी वहाँ ड्यूटी डाक्टर आया और बिना कोई बात सुने चिल्लाने लगा। मैडम आप कल भी आईं थीं आपको बार बार अंदर नहीं आना है आप क्यों बार बार अंदर आ रही हैं?</p><p>बार बार कहाँ आ रही हूँ कल मुझे हसबैंड ने बुलवाया था रिपोर्ट लेने उसके पहले उन्हें खाना खिलाने आई थी क्योंकि पैर से एंजियोग्राफी करने के कारण वे उठ कर बैठ नहीं सकते थे। जो रिपोर्ट आपको मुझे उपलब्ध करवाना था वह आपने नहीं करवाई इसलिये मुझे आना पड़ा। लेकिन वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था और लगातार चिल्लाता रहा फिर आखिर में बोला आपके हसबैंड ठीक हैं।</p><p>बिना बात की चिल्ला चोट से मैं आहत हुई। अपने पेशेंट का हालचाल जानना हर अटेंडेंट का अधिकार है और उसके लिये भेड़ बकरी जैसे हकाला जाये यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। मैंने कहा कि आपने जो आखरी लाइन बोली वह सबसे पहले ठीक से बोल देते तो मैं चली जाती। बस यही तो जानना था मुझे कि मेरे हसबैंड कैसे हैं?</p><p>यह सुनकर उसका पारा फिर चढ़ गया और वह कहने लगा आपको अपने हसबैंड को यहाँ रखना है तो रखिये नहीं तो कहीं और ले जाइये।</p><p>अब यह बात असहनीय थी। मैंने कहा माइंड योर लैंग्वेज। वह फिर चिल्लाने लगा तब तक मैंने कहा ये कहने का अधिकार आपको तो क्या किसी को नहीं है यू जस्ट माइंड योर लैंग्वेज। तब तक और डाक्टर नर्स आ गये उन्होंने उसे शांत किया और अंदर ले गये। जाते जाते उसने डाक्टर मनोज बंसल को फोन लगाया जो हसबैंड का इलाज कर रहे थे। मैंने कहा जिसे फोन लगाना है लगाओ लेकिन अपनी हद में रहना मैं यहाँ इलाज करवा रही हूँ खैरात नहीं ले रही। मैं बाहर आ गई तभी डाक्टर बंसल का फोन आया क्या हुआ मैम?</p><p>मैंने कहा समझा लेना आपके ड्यूटी डाक्टर को तमीज से बात करे। ये मत समझना कि मैं हेल्पलेस हूँ। इलाज करवाना है तो करवाओ या ले जाओ अपने पेशेंट को यह कहने का अधिकार हास्पिटल के मालिक को भी नहीं है। हास्पिटल मेडिकल काउंसिल के नियमों से बंधा है मैं छोडूंगी नहीं उसे ।</p><p>मैंने उन्हें पूरी बात बताई कि कब कब और क्यों मैं अंदर गई थी और यह भी कि अगर मुझे टाइम टू टाइम मेरे पेशेंट की प्रोग्रेस रिपोर्ट नहीं मिलेगी तो मैं अंदर जाऊंगी रिपोर्ट लेने। मुझे ये रिपोर्ट सेकेंड ओपिनियन के लिए भेजना है और ये मुझे तुरंत चाहिए ये मेरा अधिकार है।</p><p>डाक्टर को भी शायद समझ आ गया कि मैं आसानी से हकाले जाने वाले लोगों में नहीं हूँ और इसलिए वह समझाने लगे जाने दीजिये मैम हो जाता है वगैरह वगैरह। इसके बाद डाक्टर ने हसबैंड के कलीग को फोन लगाकर सभी बातें बताई वे डॉक्टर के पूर्व परिचित थे। उनका फोन आया जो मुख्यतः मुझे शांत करने के लिए था कि कहीं मैं शिकायत न कर दूँ। मैंने कहा मैं किसी का बुरा नहीं करना चाहती लेकिन मैं कमजोर नहीं हूँ और रही बात शिकायत की तो मेरे हसबैंड की केयर में कोई कोताही हुई तो मैं नौकरी नहीं कैरियर भी खत्म कर दूंगी यह आप समझा देना।</p><p>मन बेहद क्षुब्ध था थोड़ी ही देर में भाई आ गया। मैंने उसे कुछ नहीं बताया क्योंकि अगर उसे पता चलता कि मेरे साथ इस तरह बात की गई है तो वह कोहराम मचा देता।</p><p>थोड़ी देर बाद मुझे अंदर बुलाया गया। हसबैंड को शायद कुछ पता न था उन्होंने कोई बात नहीं की और न ही मैंने। यह समय उनको टेंशन देने का नहीं था।</p><p>बाहर आकर बैठी तब देखा एक बेहद बुजुर्ग महिला बदहवास सी बैठी हैं। आसपास बैठे लोग उनके फोन से नंबर लेकर उनके रिश्तेदारों को फोन कर रहे थे। उनका मेडिक्लेम था या नहीं यह भी उन्हें नहीं पता था। उनका पोता दिल्ली में था उसे खबर की गई वह आने वाला था। उन्हें दवाइयों की लिस्ट दी गई जिसे किसी और पेशेंट के परिजन लेकर आये उन्होंने उन्हें पैसे दिये। पता चला कि सुबह सुबह उनके हसबैंड को खून की उल्टी हुई है और वे पडोसियों की मदद से उन्हें यहाँ लाईं हैं।</p><p>बोली भाषा से वे बिहार की लगीं मैंने पूछा कि यहाँ आप और आपके हसबैंड अकेले रहते हैं? बच्चे वगैरह कहीं बाहर हैं।</p><p>कहने लगीं कि बेटा तो यहीं है पोता अभी दिल्ली से आ रहा है। मैंने पिछले दो घंटे में उनके बेटे को नहीं देखा था और इसके बाद कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। ऊफ इतना अकेलापन झेलते वे किस ह्दय से यहाँ बैठी हैं उन्हें कुरेदना ठीक नहीं है। मैंने बात बदलते हुए कहा कि आपने खाना खा लिया।</p><p>खाना तो पडोसी लेकर आये थे लेकिन अंदर ही नहीं लाने दिया। यहाँ कैंटीन है वहाँ जाकर खा लूँगी।</p><p>दो बज रहे हैं कब खाएंगी पहले खाना खा लीजिये।</p><p>हाँ पोता आ जाये न फिर खाऊंगी ।</p><p>कब तक आयेगा?</p><p>चार बजे उसकी फ्लाइट है दिल्ली से।</p><p>अरे तब तो उसे पांच साढ़े पांच बज जाएंगे आने में। मैं खाना खाने जा रही हूँ कैंटीन आप चल रही हैं? मैं समझ गई थी कि अकेले जाने की घबराहट है कि इतने बड़े हास्पिटल में कहीं खो न जाऊँ।</p><p>वे तुरंत तैयार हो गईं। मुझे अंदर से एक फाइल दी गई थी कि सीएमओ से रूम अलाॅट करवा लूं मैंने वह पर्स में रखी कि लौटते में वह काम भी करवा लूंगी।</p><p>लिफ्ट तक पहुंचे कि हसबैंड दूसरे दरवाजे से लिफ्ट के सामने लाये गये। वे व्हीलचेयर पर थे। कहां तो सुबह मिलने के लिए इतनी हील हुज्जत हुई और अब वे यहाँ पब्लिक प्लेस में व्हीलचेयर पर बैठे हैं और लिफ्ट से ईको के लिए ले जाये जा रहे हैं जिसमें सभी रोगी और अटेंडेंट ले जाये जाते हैं। अब ये लूप होल बता दिये जाएं तो फिर कोई तिलमिला जायेगा इसलिए बस दो मिनट हैलो हाय करके हम नीचे कैंटीन में चले गये। </p><p>कैंटीन में आंटी जी के लिए बिना प्याज लहसुन की पेशेंट वाली थाली ली उन्होंने तुरंत पर्स खोला पैसे मैं दूंगी। मैंने पैसे लेकर उनकी स्लिप कटवाई हमने खाना खाया और उन्हें लिफ्ट में छोड़ा और मैं सीएमओ आफिस चली गई।</p><p>सीएमओ ने कहा कि अभी कोई रूम खाली नहीं है। सेमी प्रायवेट भी नहीं है।</p><p>जनरल। आप फर्स्ट क्लास वाले हैं जनरल आपको जमेगा नहीं कहते हुए उन्होंने फाइल रख ली जैसे ही रूम खाली होगा मैं अलाॅट कर दूंगा।</p><p>मेडीकल इंश्योरेंस कंपनी से फोन आया कि आप एक लेटर दें कि पेशेंट का पहले कहीं इलाज नहीं हुआ है?</p><p>अरे ये क्या शर्त है क्या एक बार ही बीमार पड़ सकता है कोई? लेकिन एक बार इंश्योरेंस के चक्कर में पड़ गये तो आप चकरघिन्नी से घुमाए जाते हैं। मैंने लेटर लिख कर रखा था भाई उसे लेकर गया।</p><p>हसबैंड के कलीग का फिर फोन आया कि डाक्टर आपसे बात करना चाह रहे हैं लेकिन डर रहे हैं भाभीजी थोड़ा आराम से बात करियेगा।</p><p>मैंने कहा कि अगर वे आराम से बात करेंगे तो मैं भी करूँगी लेकिन गलत बात बर्दाश्त नहीं करूंगी। मेरे कोई सींग नहीं उगे हैं इसलिए उन्हें डरने की जरूरत नहीं है।</p><p>डाक्टर ने कहा कि मैडम आप चाहें तो वर्मा जी को आज ही डिस्चार्ज कर देते हैं क्योंकि संडे को डिस्चार्ज हो नहीं पाएंगे फिर मंडे को डिस्चार्ज करेंगे। अभी कोई रूम खाली नहीं है जब रूम मिलेगा तब शिफ्ट कर देंगे।</p><p>आज कैसे डिस्चार्ज करेंगे? अभी तो अटैक आये अडतालीस घंटे हुए हैं 72 घंटे आब्जर्वेशन में रखना पड़ता है न।</p><p>जी रखना तो चाहिए लेकिन रूम खाली नहीं है।</p><p>रूम नहीं है तो आईसीयू में रखिये लेकिन अभी मैं डिस्चार्ज नहीं करवाऊंगी। हद है यह तो मैंने मन में सोचा। वह तो अच्छा था कि भाभी से सुबह शाम बात हो रही थी और उसने अभी डिस्चार्ज करवाने से मना किया था नहीं तो ये लोग तो किसी भी पेशेंट को कभी भी डिस्चार्ज कर देंगे। गुस्सा तो आ रहा था लेकिन मैंने दबा लिया और यही कहा कि 72 घंटे के पहले डिस्चार्ज नहीं करवाऊंगी जब रूम मिले आप शिफ्ट करिये।</p><p>शाम को फिर दवाई मंगवाई गई जिसे अंदर पहुंचाया इसके साथ ही ईको की रिपोर्ट भी ली जिसमें पता चला कि हार्ट का एक लोब 30%डैमेज हुआ है अटैक से। रिपोर्ट भी भाभी को पहुँचा दी।</p><p>वहीं एक परिवार बैठा था उनके घर के बुजुर्ग लगभग हफ्ते भर से एडमिट थे। हालाँकि डाक्टर ने अभी डिस्चार्ज के बारे में स्पष्ट नहीं बताया था लेकिन वे डिस्चार्ज के बाद घर की व्यवस्थाओं के बारे में सोच रहे थे और पूर्व तैयारी के लिए सबको फोन लगा रहे थे। उन्होंने दिन-रात देखभाल के लिए मेल नर्स के लिए किसी को फोन किया और उसकी तनख्वाह और दूसरे खर्च की बात करने लगे जो लाख रुपये महीने से भी अधिक हो रहे थे। मैंने अपनी एक सखी के लिए कुछ दिन पहले ही मेल नर्स की खोज के लिए एक समूह में लिखा था और मेरे पास कुछ नंबर थे। उनका फोन बंद होने के बाद मैंने उन्हें वे सभी नंबर दिये साथ ही मेडिकल इक्विपमेंट जैसे पलंग वाकर व्हीलचेयर किराये पर मिलने वाली संस्था के बारे में उन्हें बताया। इस बीच वह महिला मोबाइल पर अरदास लगा कर कहीं बाहर चली गई। उसके शोर में बात करना मुश्किल था। मैंने गार्ड से कहा भैया इसे कम कर दो और उसने आकर उसे बंद कर दिया।</p><p>थोड़ी ही देर में आपसी बातचीत से खुशनुमा माहौल बन गया था। आंटी का पोता आ गया था। आंटी को ब्लड का इंतजाम करने को कहा था। मैंने पूछा कि अगर आपके पास कोई डोनर हो तो फोन करके बुलवा लें नहीं तो मैं किसी ग्रुप पर डालकर डोनर बुलवा लेती हूँ ।उनके पोते को भी कहा कि आप बेसमेंट में ब्लड बैंक में जाकर पता कर लीजिये कि ब्लड की उपलब्धता कैसी है?</p><p>शाम को एक बार मैं घर गई लाइट जलाईं पड़ोसियों को अभी तक कुछ नहीं पता था उन्हें घर का ख्याल रखने का कहा। रूम मिलने पर जरूरी कपड़े आदी रखे और बैग तैयार करके गाड़ी में रख दिया और वापस हास्पिटल आ गई ।</p><p>अंधेरा हो गया था मैं एक और बार सीएमओ के पास हो आई थी लेकिन कोई रूम खाली नहीं था। करीब नौ बजे मैंने पूछा कि कोई दवा तो नहीं मँगवाना है फिर मैं घर जा रही हूँ। वही गोलमाल जवाब मिला जरूरत होगी तो मँगवा लेंगे। मैंने कहा मैं घर जा रही हूँ।</p><p>गार्ड ने अंदर जाकर पता किया फिर मैं घर आ गई।</p><p>घर के कुछ जरूरी काम किये कपड़े बदले खाना खाया और दिन भर की थकान के साथ सुबह की बहस को दिमाग से निकालने के लिए मैंने टीवी चालू किया। लगभग सवा ग्यारह बज रहे थे कि अचानक मोबाइल बजा। मैं चौंक गई इतनी रात में किसका फोन है?</p><p>हास्पिटल से नर्स का फोन था कि मैम एक रूम अभी खाली हुआ है और सर को वहाँ शिफ्ट करना है।</p><p>इतनी रात में!! चौंक गई मैं ।यह कौन सा समय होता है रूम खाली करने का और पेशेंट को शिफ्ट करने का? आप कल सुबह शिफ्ट कर देना अभी तो मैं घर आ गई हूँ और उन्हें अकेले तो रूम में भेज नहीं सकते।</p><p>मैम कल तक रूम रहेगा या नहीं क्या पता। अगर आपको रूम चाहिए तो अभी शिफ्ट करना होगा। सर कह रहे हैं कि शिफ्ट कर दें वे अकेले रह जायेंगे आप सुबह आ जाना।</p><p>अरे ऐसे कैसे आप एक हार्ट पेशेंट को रूम में अकेले शिफ्ट कर देंगी? अभी आप रुकिये मैं पंद्रह मिनट में पहुंच रही हूँ और तब तक आप सर को अकेले नहीं छोड़ेंगी।</p><p>मैं जल्दी से तैयार हुई सामान गाड़ी में ही था दरवाजा लगाया गाड़ी स्टार्ट की और सूनी अंधेरी सड़क पर चल पड़ी। मैं तो मात्र पंद्रह मिनट दूरी पर थी लेकिन जो लोग दूर या दूसरे शहर में रहते हैं उनके लिये ऐसी स्थिति कितनी विकट होगी। ज्यों-ज्यों घटनाएँ घट रही थीं बाम्बे हास्पिटल के बड़े नाम के छोटे पन के दर्शन होते जा रहे थे।</p><p>आईसीयू में डिस्चार्ज की प्रक्रिया चल रही थी मैंने और पंद्रह मिनट इंतजार किया। अधिकांश लोग सो चुके थे। दो लोग उनकी नींद की परवाह किये बिना जोर जोर से बातें कर रहे थे। इच्छा तो हुई कि टोक दूँ लेकिन चुप ही रही।</p><p>पंद्रह बीस मिनट बाद हसबैंड बाहर आये हम बारहवीं मंजिल पर प्रायवेट रूम में पहुंचे। वहाँ फिर बीपी शुगर टेस्ट हुआ और सभी प्रक्रिया पूरी होते सोते सोते साढ़े बारह बज गये।</p><p>कविता वर्मा</p><p>#बायपास #minor_attack #bypass </p>kavita vermahttp://www.blogger.com/profile/18281947916771992527noreply@blogger.com1