Thursday, December 22, 2016

सूर्योदय सूर्यास्त और पीस पगोडा


 सुबह गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ों से नींद बहुत जल्दी खुल गई ये सब सुबह टाइगर पॉइंट पर जाने वाली गाड़ियाँ थीं जो कंचनजंघा पर सूर्योदय देखने जा रही थीं। हमने भी टैक्सी की बात की थी तो ड्राइवर ने कहा कोई फायदा नहीं है साब सुबह बादल हो जाते हैं कुछ दिखाई नहीं देता क्यों अपनी नींद ख़राब करते हैं। यह सुन कर हमने जाने  इरादा बदल दिया था पर अब नींद खुल ही गई थी और खिड़की से कंचनजंघा की चोटी दिख ही रही थी तो स्वेटर शॉल पहन कर खिड़की में खड़े हो गये। गहरे नीले जामुनी आसमान में धवल शिखर शान से सिर उठाये खड़ा था देखते ही देखते धुऐं की एक काली लकीर ने उसे ढँक लिया आसमान का रंग गहरे नीले से चमकीले नीले में बदलता जा रहा था और धवल शिखर कालिमा के आगोश में छुपता जा रहा था और देखते देखते पूरी तरह गायब हो गया। बहुत निराशा हुई सिर्फ इसलिए नहीं कि सूरज की पहली किरण से सुनहरी हुई चोटी को नहीं देख पाई बल्कि इसलिए भी कि जितना हम ज्ञान और जानकारी से लैस होते जा रहे हैं उतने ही कर्तव्यों से लापरवाह भी। लगातार चलती डीजल गाड़ियाँ उनके हॉर्न का शोर हमारा शोर धूल कचरा सुदूर प्राकृतिक स्थानों को भी इस कदर प्रदूषित कर चुका है इसके बाद कहाँ पनाह मिलेगी समझ नहीं आता। 
सुबह हो चुकी थी आसमान में धुएँ की धुंध थी अब सोने का मन ना था तो सोचा चलो सैर कर आयें बस तैयार हुए और पहुँच गये ओपन थियेटर वाले चौक में। सफाई चल रही थी लोग टहल रहे थे कुछ लोग बेंच पर बैठे थे। तभी एक व्यक्ति ने जेब से एक रोटी निकाली और बारीक़ टुकड़े कर बिखेर दिये। कबूतरों का एक झुण्ड तुरंत रोटी खाने पहुँच गया। इसके बाद तो  एक के बाद एक लोग आते गये और रोटी बाजरा बिस्किट के टुकड़े कर डालने लगे। थोड़ी ही देर में चिड़िया कबूतर और कुत्ते सभी अघा गये और उन्होंने खाना बंद कर दिया सफाई करने वालों ने बचा खाना झाड़ कर डस्टबिन के हवाले कर दिया। हमारी आस्थाएं भावनाएँ गलत नहीं हैं बस उनको नियंत्रित करने में कहीं चूक जाते हैं। 
टैक्सी टाइम से आ गई पहला स्थान था जापानी मोनेस्ट्री पीस पगोडा। मुख्य सड़क से काफी अंदर भव्य सफ़ेद स्तूप जिसपर बुद्ध की सुनहरी मूर्ति बगल के पहाड़ को टक्कर देते ऊँचे ऊँचे पेड़ साफ सुथरी खुली खुली जगह जिसमे करीने से लगा छोटा सा बगीचा अर्ध वृत्ताकार सीढियाँ और एक दूसरे से मुखातिब कंचनजंघा और बुद्ध। एक नज़र में प्यार हो जाये ऐसी जगह से। लेकिन यहाँ ढम ढम की आवाज़ क्यों ? शहर का शोर कुछ इस कदर कानों में भरा हुआ है कि कोई भी आवाज़ अब सहन नहीं होती। मोनेस्ट्री में अंदर गये भव्य मूर्ति के सामने एक बड़े ड्रम पर मंत्र उच्चार के साथ बीट दी जा रही थी एक बूढी महिला ने बैठने का इशारा किया फिर वहीँ रखे रैकेट जैसे ड्रम और ड्रम स्टिक उठाने का इशारा किया। बोर्ड पर एक मंत्र लिखा था जिसे पढ़ कर उसके अनुसार ड्रम बजाना था। थोड़ी ही देर में हम उस लय में आ गये और फिर उसमे ऐसे रमे कि थोड़ी देर के लिये सब कुछ भूलकर सिर्फ मंत्रमय ध्यान में पहुँच गये। उठने का मन तो नहीं था लेकिन अगले स्पॉट पर भी जाना था  मसोस कर उठना ही पड़ा। इसके बाद स्तूप पर गये। इतनी ऊँचाई पर एक तरफ पहाड़ की दीवार और दूसरी तरफ विशाल नीला आसमान जिसकी हद तय करती कंचनजंघा की चोटी। सिक्किम के आदिम जन कंचनजंघा की पूजा करते हैं इसलिए भारत की इस सबसे ऊँची चोटी पर भूटान या चीन की तरफ से ही चढ़ा जाता है। कंचनजंघा नेशनल पार्क में और इसके बेस कैंप में लोग हर नियम का बिना किसी चौकसी के पालन करते हैं। स्तूप के चारो तरफ चार विशाल सुनहरी मूर्ति और उनके बीच चार लकड़ी की नक्काशी के भित्ति चित्र थे। 
अगला पड़ाव था बतिस्ता लूप। दार्जिलिंग प्रसिद्द है अपनी टॉय ट्रेन के लिये। अंग्रेजों के ज़माने से शुरू हुई यह ट्रैन अभी भी दार्जिलिंग से सिलीगुड़ी के बीच चलती है। बतिस्ता लूप ट्रेन की दिशा बदलने के लिये एक स्थान है। सुबह साढ़े दस बजे यहाँ एक ट्रैन आती है। कोयले से चलने वाली छोटी सी छुकछुक गाड़ी जब आई हवा में कोयले की कनि बिखर गई। सबने खूब फोटो खींचे कुछ खाली डब्बे में चढ़ गये। यहाँ बेहद खूबसूरत बगीचा भी है गुनगुनी धूप खूबसूरत फूल छोटी सी रेलगाड़ी एक स्वप्नलोक सी दुनिया। सड़क के दूसरी और दो तीन रेस्टॉरेंट हैं। हम बिना नाश्ते के चल दिए थे रेस्टॉरेंट की पहली मंजिल पर कांच की दीवारों के परे बिखरे अनंत आसमान और धवल शिखर को निहारते कॉफी के घूँट भरना एक सपने के पूरा होने जैसा है। 
अगला पड़ाव था एक और मोनेस्ट्री। परिसर में छोटे छोटे बच्चे बुद्धिस्ट ड्रेस पहने खेल रहे थे। ये बच्चे यहीं रह कर अपनी शिक्षा पूरी करते हैं इसके बाद कुछ अपनी भौतिक दुनिया में वापस लौट जाते हैं और कुछ आजीवन अविवाहित रहने का फैसला कर मठ में ही रहते हैं। ये अपनी गहरी मैरून बौद्ध ड्रेस के ऊपर एक सुनहरी जैकेट पहनते हैं। हर टूरिस्ट स्पॉट के बाहर स्थानीय लोग ऊनी कपड़े मोज़े टोपी शॉल लिये नज़र आते हैं। पर्यटक ही उनकी कमाई का साधन है। पुरुष टैक्सी गाइड एजेंट जैसे काम करते हैं महिलायें व्यवस्था दुकानदारी जैसे काम संभालती हैं। 
ज़ू चिड़ियाघर और हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान दोनों एक ही कैंपस में हैं। जानवरों के प्राकृतिक आवास पहाड़ी ढलान को ज्यों का त्यों रख कर उसमे अनगढ़ सा आवास बना कर प्राकृतिक रूप दिया गया है। ऊँची नीची पहाड़ी जगह में जानवर भी जंगल सा ही महसूस करते होंगे। यहीं है हिमालयीन पर्वतारोहण संस्थान जिसमें माउंट एवेरेस्ट के पहले एक्सपिडिशन में पहने कपडे जूते उपयोग किये औजार टेंट आदि सामान रखे हैं। इन्हें देख कर मुँह आश्चर्य से खुला रह जाता है। आज तो इस दिशा में बहुत तरक्की हो गई है। मौसम बर्फ ठण्ड के अनुसार सभी साजोसामान की क्वालिटी बहुत सुधर गई है। पानी की बॉटल रस्सी खाने पीने की सुविधा गैस आदि। पर उस समय के साजो सामान को देख कर उन पर्वतारोहियों की हिम्मत दंग करती है। इस संग्रह में पर्वतारोहण की पूरी विकास यात्रा प्रभावी रूप से प्रदर्शित की गई है। समय कम था अभी रोप वे पर जाना था इसलिए जू का कुछ हिस्सा जल्दी जल्दी पार किया। 
यह पाँच किलोमीटर की रोप वे है ढाई किलोमीटर जाना ढाई आना। एक ट्रॉली में छह लोग बैठते हैं हम दो थे लाइन के आखिर में खड़े तभी वहाँ का कर्मचारी आया और हमें लाइन में सबसे आगे आने को कहा। दरअसल चार लोगों के ग्रुप के साथ बैठने के लिए दो लोग चाहिए इसलिए हमारा नंबर जल्दी आ गया। हमारे साथ थे चार लड़के उनकी बातों में कई गलत जानकारियाँ थीं जिन्हें मैंने ठीक कर दिया और फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ। पता चला वो स्टूडेंट्स हैं और बांग्लादेश से आये हैं। आगे जाने का कोई फिक्स प्लान नहीं है और यहाँ वहाँ से जानकारी ले रहे हैं कि आगे कहाँ जायें ? रोप वे खूबसूरत चाय के बागानों के ऊपर से गुजरता है नीचे एक स्कूल एक छोटा सा गाँव पगडण्डी जैसे रास्ते दिखते हैं। स्कूल के बाहर बच्चे खेल रहे थे लौटते हुए बच्चे उछलते कूदते घर जाते हुए दिखे। दूर तक पहाड़ों की श्रृंखला और दूर पहाड़ पर दिखता एक मंदिर एक बड़ी मूर्ति। पता चला यह जगह दक्षिण सिक्किम में है। 
यहाँ से टी स्टेट जाने के बीच में पड़ती है तेनसिंग रॉक। लगभग 30 /40 फ़ीट ऊँची एक चट्टान जिस पर माउंटेन क्लाइम्बिंग का शौक पूरा किया जा सकता है। यह अनुभव शानदार था। आखरी स्टॉप था टी स्टेट। यहाँ दूरबीन लेकर बैठे लोग दक्षिण सिक्किम की वह मूर्तियाँ और मंदिर दिखाते हैं। चाय बागान के बाहर छोटे छोटे स्टाल जहाँ चाय दालचीनी लौंग इलायची आदि मिलती है। हमने भी थोड़ा बहुत सामान लिया और वापसी में फिर मॉल रोड पर घूमते हुए सूर्यास्त देखते चहल पहल देखते रहे। यह दार्जिलिंग की आखरी शाम थी हम देर तक वहाँ बैठे रहे फिर हेस्टी टेस्टी में खाना खा कर वापस होटल आ गये। 
टैक्सी ड्राइवर टैक्सी के मालिक ही थे और शांत और हँसमुख भी। कई जानकारियाँ वो देते रहे। उन्ही से कहा कि अगले दिन सुबह हमें गंगटोक जाना है अगर कोई ड्राप आउट वाली टैक्सी हो तो बताना और रात ही उनका फोन आ गया एक टैक्सी है जो गंगटोक जा रही है पर जाम से बचने के लिए सुबह जल्दी निकलना होगा। आते हुए जाम देख चुके थे इसलिये सुबह जल्दी ही दार्जिलिंग को विदा कह दिया एक बार फिर आने का वादा करके। 
कविता वर्मा 


Tuesday, December 13, 2016

कैसे प्रकृति प्रेमी थे वे लोग


बहुत दिनों बाद अपने सफर पर फिर निकली हूँ। मैं जानती हूँ आप लोग मेरे ब्लॉग पर नियमित आते हैं अगली पोस्ट के इंतज़ार में और यही कारण अगली क़िस्त लिखने की प्रेरणा भी देता है। 
आज हम चलेंगे दार्जिलिंग की सैर पर। 
न्यू जलपाई गुड़ी से सड़क मार्ग द्वारा ही दार्जिलिंग पहुँचा जा सकता है शेयरिंग टैक्सी में आठ दस लोगों के साथ पहाड़ी रास्ते का पहला सफर करना बहुत तनाव दे रहा था। फिर पता चला जो टैक्सी दार्जिलिंग से सवारी छोड़ने आती हैं वो वापसी में कुछ कम में न्यूजलपाईगुड़ी से सवारी ले जाती हैं। उसके लिए रेलवे स्टेशन पर टैक्सी ड्राइवर से संपर्क करके उन्हें अपना नंबर दे दिया जाये तो वे खुद संपर्क कर लेते हैं। सुबह जल्दी स्टेशन पर पहुँच कर भी ऐसी गाड़ियाँ मिल जाती हैं। हमें भी एक इनोवा मिल गई जिसमे गाड़ी का मालिक और ड्राइवर वापस दार्जिलिंग जा रहे थे। 
न्यूजलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी होते हुए रास्ता है। सिलीगुड़ी में छोटी रेल लाइन है इसलिए न्यूजलपाईगुड़ी ही अंतिम मुख्य स्टेशन है। सिलीगुड़ी  से दार्जिलिंग का रास्ता बेहद खूबसूरत है। सड़क के दोनों ओर ऊँचे ऊँचे कतार में लगे पेड़ जिनके नीचे फर्न और दूसरे छोटे पौधों का हरा गलीचा सा बिछा हुआ है। कुछ ठन्डे मौसम का असर कुछ जमीन तक धूप ना पहुँच पाने का और कुछ दो दिन पहले हुई तेज़ बारिश का सड़क किनारे किनारे पानी की नहर सी चल रही थी। यही नमी घने पेड़ों के नीचे छोटी वनस्पति को जीवन देती है। सिलीगुड़ी  सेवक मोड़ काली मंदिर और बंगाल सफारी का रास्ता पार करते ही मिलिट्री एरिया शुरू हो जाता है। साफ सुथरी छायादार सड़क दोनों किनारे सेना की अलग अलग बटालियन के हरी टीन से बने बैरक ऑफिस कुछ रिहायशी मकान और साफसुथरे कैंपस मन को एक अलग ही अनुशासित भाव से भर देते हैं। कहीं कहीं इक्का दुक्का जवान अपने काम में मगन तो कहीं सेना के ट्रक में लदे सैन्य सामान। वातावरण में अनुशासित ख़ामोशी मन को मोह रही थी। सेना के इलाके से बाहर निकलते ही पहाड़ी इलाका शुरू हो गया। कुछ किलोमीटर की दूरी पर कई कलकल छलछल करती पहाड़ी नदियाँ सफ़ेद गोल मटोल पत्थरों के बीच से बह रही थीं तो कहीं कहीं पानी के प्रवाह ने इन पत्थरों को सूक्षम तत्व ज्ञान युक्त कर सुनहरी रेत में बदल दिया था। रास्ते में तीस्ता नदी का पुल पार किया विशाल चौड़े पाट के साथ पानी की गहराई प्रवाह को गंभीरता प्रदान कर रही थी। नदी के किनारे मानव संक्रमण से अछूते नैसर्गिक सुवास से परिपूर्ण थे 
सुबह हम लोग बगैर नाश्ता किये चल पड़े थे पहाड़ी रास्ते खाली पेट मितली आती है ड्राइवर को कहा जरा जल्दी ही कहीं रोक देना। उसने एक छोटे से गाँव के छोटे से रेस्तरां पर गाड़ी रोकी। यहाँ नाश्ता पूरी आलू की सब्जी का होता है। गरमा गरम पूरी सब्जी के बाद एक एक चाय पी कर हम बाहर सड़क पर आ गए। ट्रैफिक  बहुत ज्यादा नहीं था ठंडी हवा धूप की गर्मी को कुनकुनाहट पर रोके हुए थी। छोटा सा गाँव छोटी छोटी रोजमर्रा के सामान से भरी दुकाने पैदल स्कूल जाते बच्चे। ना कोई शोर न अफरातफरी। कितना सुकून होता है ना छोटी जगह में?
आगे रास्ता सीधी चढ़ाई वाला था एक मोड़ मुडते ही पिछली सड़क से कम से कम पंद्रह बीस फ़ीट ऊपर। जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे दूर छूटता मैदान उसमे बहती तीस्ता नदी का नज़ारा और विस्तार पाता जा रहा था। सड़क के एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर खाई। पहाड़ों से बहता पानी जिसे व्यवस्थित नाली बना कर बहने का रास्ता बनाया हुआ था। कहीं भी पानी सड़क पर बहता नहीं मिला। चट्टान पर उग आई झाड़ियों और वनस्पति की कटाई की जा रही थी ताकि वे सड़क पर ना आएं और गाड़ी चलाने को पूरी जगह मिले। नाली की सफाई कर उसमे से सूखी पत्तियाँ पत्थर निकाल कर ढेर बनाया गया था जिसे वहाँ से उठाया भी जा रहा था और यह सब हो रहा था बीच जंगल में जहाँ से बस्ती मीलों दूर थी। सच अगर इच्छा शक्ति हो प्रशासनिक क्षमता हो तो सब संभव है। 
ज्यों ज्यों ऊपर चढ़ते जा रहे थे तीस्ता क्षितिज से मिलती जा रही थी और एक मोड़ के साथ तीस्ता ओझल हो गई और दूसरी ओर धवल पर्वत शिखर अपने भव्य रूप में प्रगट हो गया जिसे देख कर पलकें झपकना भूल गईं। दो तीन दिन पहले ही तेज़ बारिश हुई थी उसके बाद आसमान एक दम साफ चमकीला नीला था उस पर हिमाच्छादित कंचनजंघा एक अलौकिक नज़ारा था। फटाफट कैमरा निकाला और धड़ाधड़ फोटो  खींचना शुरू कर दीं। इसके बाद तो दो चार छह मोड़ के बाद भी कंचनजंघा के दर्शन होते रहे तब हमने कैमरा रख कर उसे निहारने में ही भलाई समझी। 
रास्ते में कुछ टी कंपनी की प्रोसेसिंग यूनिट्स थीं दार्जिलिंग से कुछ पहले एक थोड़ा बड़ा शहर जिसे क़स्बा कहेंगे तो बेहतर होगा मिला। सड़क के किनारे एक या दो मंजिल मकान 
दार्जिलिंग शहर में घुसने से पहले ही सड़क पर जाम मिलने लगा। सड़क के एक किनारे टॉय ट्रेन की पटरियाँ दोनों तरफ दुकानें बाकी सड़क पर दोनों तरफ का ट्रैफिक। सड़क पर पैदल चलने वालों की भीड़। दार्जिलिंग करीब बीस किलोमीटर दूर था जहाँ पहुँचने में डेढ़ दो घंटे लग गये। पहाड़ को काट कर बनाई गई दीवार पर कई रबर के पाइप लगे थे रस्सी या तार से बंधे थे। पता चला पहाड़ से गिरने वाले पानी के नीचे एक रिजरवायर कोई टब या टंकी रख दी जाती है उसमे से ये पाइप घरों तक पानी पहुँचाते हैं। मतलब सबकी अपनी अपनी पानी की पाइप लाइन। 
लगभग बारह साढ़े बारह बजे हम दार्जिलिंग पहुँचे। ड्राइवर ने टैक्सी स्टैंड पर हमारा सामान उतार कर कुली के लिये कहा तो पचास बावन की उम्र की स्थूल नाटी महिला आकर खड़ी हो गई। होटल का पता बताया उसने सामान देखा और ले चलने को तैयार हो गई। भाड़ा डेढ़ सौ रुपये जो कुछ ज्यादा लगे लेकिन इससे कम में कोई तैयार नहीं था। जब चलते चलते बहुत दूर पहुँच गये और खड़ी चढ़ाई आ गई तब वही भाड़ा मुझे कम लगने लगा। मैंने उससे पूछा दिन भर में कितने चक्कर लगा लेती हो तो कहने लगी दो तीन कभी चार। वो पंद्रह बीस कुली हैं सबके नंबर बंधे हैं। जिसका नंबर होता है वही सामान ले कर जाता। कितना अच्छा समाजवादी तरीका था जो स्थानीय लोगों ने खुद ही बना लिया था। अब सुबह से अपने नम्बर के लिए स्टैंड पर नहीं बैठना था अपना नम्बर आने वाला हो तब आओ और नंबर हो जाने के बाद वापस घर। मैंने पूछा दिन भर में कितना पैसा बना लेते हो हर चक्कर के १५०/२०० रुपये के अनुसार लगभग ४००/५०० रुपये रोज़ के कमा लेते हैं। बारिश के तीन चार महीने सीजन नहीं होता तब घर बैठना पड़ता है। 
दोपहर का वक्त था लेकिन ठण्ड बहुत तेज़ थी। घुमावदार रास्ते के चक्कर सिर चकरा रहे थे भूख जोरों से लग आई थी पानी गरम होने का इंतज़ार करना भी भारी लग रहा था। तब तक कमरे की खिड़की से दिखाई देती कंचनजंघा की चोटी निहारना बेहद भला लग रहा था। होटल में वेज खाना बनाने के अलग बर्तन नहीं थे इसलिए बाहर जाना ही तय किया। दोपहर हो चुकी थी उस दिन कहीं घूमने जाना संभव नहीं था इसलिए खाना खा कर हम लोग माल रोड पर घूमते हुए चौक पर पहुँच गए। यह माल रोड के आखिर में एक बड़ी खुली खुली जगह है जिसपर एक बड़ी स्क्रीन समेत ओपन थियेटर बना है। सैलानी यहाँ बैठते चाय पीते टूरिस्म विभाग की फिल्म देखते और फोटो खिंचवाते हैं। इस चौक से थोड़े आगे एक रास्ता नीचे की ओर जाता है जिस पर आगे राजभवन और एक बहुत पुराना चर्च है। यही रास्ता आगे ज़ू तक जाता है। चर्च के गार्डन में हम बहुत देर तक बैठे रहे एक अद्भुत शांति जो पीले रंग से पुती उन मोटी मोटी दीवारों से पूरे वातावरण में झर रही थी। चर्च का विशाल ऊँचा टॉवर नीले आसमान में सिर उठाये इस शांति को आत्मसात करने का आव्हान कर रहा था। हम लोग काफी देर तक उस तिलिस्म से भौचक बैठे रहे और सोचते रहे उन लोगों की हिम्मत के बारे में जिन्होंने कई दशक पहले इन घने जंगली इलाके में सफर कर यहाँ निर्माण करवाया होगा। कितने प्रकृति प्रेमी होंगे वो लोग और प्रकृति के सानिध्य में रहने की कैसी गहरी जिजीविषा होगी उनकी। अगर वो लोग नहीं होते तो क्या आज का दार्जिलिंग आज इस स्वरुप में होता ? क्या सच में हम भारतीय प्रकृति के इसी प्रेम के चलते इतने दूर आते हैं या महज अपने दैनिक जीवन की आपाधापी से छुटकारा पाने के लिए बस अपने स्थान से भाग आते हैं। सच तो यह है कि हम जहाँ बस्तियाँ बनाते हैं वहाँ के पेड़ नदी जंगल तालाब को ही सबसे पहले नुकसान पहुँचाते हैं। चर्च से उतर कर हम लोग ओपन थियेटर पर काफी देर बैठे रहे। ठण्ड बढ़ने लगी थी लोग जाने लगे हम लोग भी उठ खड़े हुए। माल रोड की दुकानों पर स्वेटर शाल देखते कुछ खरीदा और अगले दिन घूमने जाने के लिए टैक्सी की बुकिंग करवाते हुए वापस होटल आ गए। आठ बजे तक बाजार बंद हो गया था दिन भर दौड़ती भागती हॉर्न बजाती गाड़ियाँ थम चुकी थीं। हम लोग भी उस दिन नौ बजे तक सो गए। 
कविता वर्मा


Thursday, November 10, 2016

आपको पता है जंगल में भूत है।


सिक्किम यात्रा ( वो जो हमारी मदद करते रहे )

वैसे तो यात्रा के दौरान बहुत लोगों से साबका पड़ता है ये लोग ख़ामोशी से हमारे आस पास बने रहते हैं जिन्हें हम देख कर भी नज़र अंदाज कर देते हैं या एक व्यावसायिक सा भाव होता है कि उनकी सेवाओं के बदले पैसा तो दिया है। सभी पैसों के लिए काम करते है ये भी कर रहे हैं तो इसमें क्या खास है? अगर कभी जितना पैसा दिया उसके बदले कितनी मेह्नत कितनी ईमानदारी और मुस्तैदी दिखी इसका आकलन किया जाये काम करने की परिस्थियों पर ध्यान दिया जाये तो दिल उन सेवाओं का मोल समझ उनके सामने कृतज्ञ हो जाता है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम सेवाओं से संतुष्ट नहीं होते या लगता है पैसे का पूरा मोल नहीं वसूल हुआ लेकिन उसके कारण अच्छे  ईमानदार और मेहनती लोगों का जिक्र ना किया जाये यह भी ठीक नहीं। 

उत्तरी सिक्किम जिला मंगन जाते हुए रास्ते में गाड़ी रुकी नामोक में। दो मंजिला पक्का मकान पहली मंजिल की बालकनी और मुख्य प्रवेश द्वार पर लगे फूलों के गमले। अंदर एक बड़ा सा हाल जिसमें टेबल कुर्सी लगी थीं। हाल के बीच से एक दरवाजा जिसके एक तरफ किचन और दूसरी तरफ एक कमरा जिसमे कई बोरे कनस्तर रखे थे। वहाँ भी एक दो बेंच लगी थीं। भूख जोर से लगी थी मैं सीधे किचन में चली गई। अंदर मध्यम वय की एक महिला और 20 /22 साल की एक लड़की थी। एक तरफ चूल्हा जल रहा था जो थोड़ा ऊँचा था और एक दिवार से अलग किया गया था जिस पर एक देगची रखी थी। बगल में मोरी में जूठे बर्तनों का ढेर लगा था। शेष दो तरफ टेबल और प्लेटफार्म पर बरतन प्लेट्स रखे थे। एक पारंपरिक रसोई का नज़ारा जो कई सालों बाद देखा। 
"हैलो क्या बनाया है जोर से भूख लगी है ?"मैंने कहा। 
"चिकन राईस " जवाब आया और मेरा मुँह खुला रह गया। 
"ओ लेकिन हम तो वेज हैं " धड़कते दिल से मैंने कहा आसपास और कोई होटल दुकान नहीं थी यह आते हुए देख चुकी थी। 
"आपको वेज मिल जायेगा दाल चावल और आलू की सब्जी " अब तक वो लोग भी अचानक हुई इस घुसपैठ से सहज हो चुकी थीं। 
मैंने राहत की साँस ली शुक्र है अब भूखे नहीं रहना पड़ेगा। "फिर ठीक है पर हम बहुत सारा खाने वाले हैं। "
"आप पेट भर कर खाइये बहुत सारा बना है। " 
"मैं कुछ मदद करूँ ?" उन दोनों के सिवाय वहाँ और कोई नहीं था हम दस पर्यटक और ड्राइवर कुल ग्यारह लोग और वे दो। 
"बस सब हो गया खाना लगा ही रहे हैं। "
मैं बाहर आ गई हर टेबल पर एक एक पानी की बोतल और अचार रखा था। सबसे पहले उन्होंने हमें प्लेट्स दीं हम ही दो वेज वाले थे। नॉन वेज के साथ शायद चम्मच नहीं दी जाती हमारी प्लेट्स में भी चम्मच नहीं थीं। मैं फिर अंदर गई चम्मच लेने। दोनों माँ बेटी एकदम शांति से अपने काम में लगी थीं। दाल चावल आलू की सब्जी और एक लोकल फली की सब्जी। खाना सादा और स्वादिष्ट था और वो पूछ पूछ कर परोसती रहीं। खाना खा कर मैंने सभी प्लेट्स कटोरियाँ एक दूसरे में रख कर इकठ्ठे कर दीं। पानी के लिए बोतल थीं गिलास नहीं थे। अनावश्यक बरतन नहीं निकाले जाते। जब मैं थैंक्यू कहने वापस अंदर गई बेटी बरतन साफ कर रही थी और माँ सामान समेट रही थी। मैंने पूछा रोज़ कितनी गाड़ियाँ आती हैं आपके यहाँ। 
चालीस पचास जवाब मिला। 
मतलब चार पाँच सौ लोगों का खाना रोज़ और सारा काम हाथ से। तब तक एक छोटी लड़की स्कूल से वापस आ गई मैंने एक दो फोटो खींचे और बाहर आ गई। आसपास एक दो मकान और थे ऊपरी मंजिल पर रुकने के लिए कमरे थे। ड्राइवर से पूछा खाने की जगह फिक्स रहती हैं ? उसने कहा हाँ सुबह फोन पर बता देते हैं। 

***
उत्तरी सिक्किम के लाचुंग में एक अति साधारण होटल था हम पहुंचे भी काफी रात में थे और ठण्ड भी बहुत थी। पैकेज टूर था और बुकिंग करने वाले गंगटोक में थे इसलिए कुछ कहने सुनने का कोई फायदा भी नहीं था। इतने सघन जंगल में सुदूर पहाड़ों के बीच इतने लोग रहते हैं यही अचरज वाली बात थी। चलने के पहले ही बोल दिया गया था सामान्य सुविधा होंगी इसलिए मानसिक रूप से भी सब तैयार थे। यहाँ भी खाने में चिकन राईस था। होटल के दूसरे कमरों में और लोग भी ठहरे थे। काम करने वाला सोलह सत्रह साल का  एक लड़का ही दिखा। वही दौड़ दौड़ कर खाना परोस रहा था किसी को पानी दे रहा था जूठे बर्तन उठा रहा था टेबल साफ कर रहा था। हमारे कमरे में पलंग की एक पाटी खिसक गई बड़ी समस्या कि सोयेंगे कैसे ? उससे कहा तो बोला सर और कोई रूम खाली नहीं है मैं सबको खाना खिला दूँ फिर आकर देखता हूँ। हमने थोड़ी देर इंतज़ार किया फिर गद्दे को हटा कर देखा और पाटी ठीक से बैठा दी। ठण्ड बहुत थी हम तो खाना खा कर सो गये वैसे भी दिन भर सफर में थक गए थे और सुबह जल्दी उठना था। वह रात में एक बार चक्कर लगा कर हर कमरे में पूछ कर गया सबने खाना खा लिया न ?
दूसरे दिन सुबह नलों में पानी नहीं आ रहा था फिर उसकी पुकार हुई। अब वह सबको चाय बना कर दे रहा था तो किसी को गर्म पानी की बाल्टी भर के दे रहा था चाय के कप धो रहा था तो लोगों की बातें सुन उनका समाधान भी कर रहा था। थोड़ी ही देर में सब चले जाने वाले थे उसके बाद उसे खाना बनाना था। जीरो पॉइंट से वापस आकर जब हम खाना खा रहे थे वह परसने आया तब मैंने कहा "कल रात में तुम आये नहीं पलंग देखने ?"
पता नहीं उसके भरे मन को किस भाव  ने छू लिया वह ऐसे बोल पड़ा जैसे सुनने वाला बड़ा संबल मिल गया हो। "मैडम मैं अकेला हूँ यहाँ काम करने वाला खाना बनाना परसना बरतन साफ करना सब अकेले करता हूँ। कल रात में भी बहुत देर हो गई और मैं भूल गया।"
"कोई बात नहीं पलंग की पाटी खिसक गई थी हमने ठीक कर ली थी। "मैंने सहानुभूति पूर्वक कहा तो वह अपनी बात कहने से खुद को रोक नहीं पाया। 
"मैडम अभी आप लोग जाओगे फिर मुझे सारे कमरे साफ करना है। अभी शाम को फिर तीन चार गाड़ियाँ आ रही हैं। फिर तीस चालीस लोगों का खाना बनाना है। मैडम मैं तो तीस तारीख का इंतज़ार कर रहा हूँ जिस दिन ये लोग मेरा हिसाब करेंगे। जिस दिन पैसे मिलेंगे यहाँ से भाग जाऊँगा। "
" मैंने उसे समझाने की कोशिश करते नरमी से कहा "काम में कभी कम ज्यादा होता रहता है क्या कर सकते हैं ?" 
"मैडम गाड़ी भेजते हैं तो काम करने वाले लोग भी तो भेजें मैं अकेले काम कर करके परेशान हो गया हूँ मेरा मन भी नहीं लगता शरीर भी आधा हो गया। अब यहाँ नहीं रुकूँगा पैसा मिलते ही भाग जाऊँगा। "
"कहाँ के रहने वाले हो ?"
"न्यू जलपाई गुड़ी का, मैडम अब घर की याद आती है।"
"चलो अब थोड़े ही दिन की बात है तीस तारीख आने ही वाली है तब तक मन मत ख़राब करो ये समय भी निकल जायेगा। " और क्या कहती उससे इतना बड़ा समझदार भी तो नहीं था बच्चा ही था पता नहीं क्या मजबूरी रही होगी जो इतनी दूर जंगल में पड़ा था काम के लिए। 
उसके बाद और कुछ नहीं खाया गया। जाते जाते उसके हाथ पर कुछ रुपये रखे लेकिन मन उसकी उदासी में अटक गया। 

लाचुंग से जीरो पॉइंट जाते हुए लगभग 26 किलोमीटर दूर युमथुंग में नाश्ते के लिए रुके। दो बहनें दुकान चला रही थीं। सबकी पसंद का नाश्ता पूछना नाश्ता बनाना सर्व करना साथ ही बूट्स हैण्ड ग्लव्स किराये पर देना किसी को कुछ खरीदना हो तो देना पैसों का हिसाब किताब रखना। लौटते हुए बूट्स वापस करने के लिए रुके तब छोटी बहन पीमा (palmu ) थोड़ी फुरसत में थी। उससे बात करने लगी उसने बताया दुकान का मालिक कोई और है वो वहाँ काम करती है छह हजार रुपये महीने की तनख्वा पर। मालिक तो ठीक है उसकी पत्नी थोड़ी टेड़ी है। सामान किराये पर नहीं जाता तो गुस्सा करती है तुम लोग ठीक से बताते नहीं हो। अब क्या हम जबरजस्ती किसी को सामान देगा। ये काम सिर्फ सीजन तक है उसके बाद हम नीचे चले जाते हैं। मालिक उसी समय हिसाब करके पैसे लेकर गया था जो लगभग पाँच हजार रुपये थे अब वह फुरसत में थी। बहुत देर तक उससे बात होती रही। वह बच्चो के बारे में हमारे प्रदेश के बारे में पूछती रही। 

नाथुला पास ले जाने वाला ड्राइवर था रुस्तम खवासी और लाचेन लाचुंग (उत्तर सिक्किम ) के टूर पर ले जाने वाला Tsong Rinsing .दोनों ही बौद्ध थे बड़े शांत काम से काम रखने वाले पर हर जिज्ञासा का बड़े चाव से जवाब देने वाले। सोंग रिन्ज़िंग तो लाचेन का ही रहने वाला था उसके घर के सामने से निकले तो उसकी पत्नी और बेटा बाहर खड़े उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसने बताया तीन दिन के टूर में एक दिन घर आने को मिलता है। बर्फ गिरने के बाद टूरिस्ट नहीं आते रास्ते बंद हो जाते हैं तब तीन महीने सिर्फ खाना टीवी देखना और मोटे होना होता है। 

***
लाचेन में होटल का रूम बहुत अच्छा था। गुरदुम्बर लेक के लिए रात तीन बजे निकलना था जिसका हमारा मन नहीं हुआ। होटल के मालिक तोशी को बताया तो कहने लगा अगर आप नहीं जा रहे हैं तो मुझे रात में ही बता दें मैं सुबह जल्दी आ जाऊँगा आपके चाय नाश्ते का इंतज़ाम करने। नहीं तो हम दिन में बारह एक बजे तक होटल आते हैं। सुबह तो यहाँ कोई नहीं होता है। जब उसे पता चला कि हम लोग ज्यादा चावल नहीं खाते हमारा मुख्य भोजन रोटी है तो कहने लगा मैं आपके लिए रोटी बनवा लाऊंगा। और सच में सुबह आठ बजे वह सब्जी रोटी के नाश्ते और चाय के साथ हाजिर था। हमें भी करीब एक हफ्ते बाद रोटी मिली थी इसलिए हमने भी टाइम देखे बिना गर्मा गर्म खा ली। 

गंगटोक के होटल में हम चार दिन रुके लेकिन बीच में उत्तर सिक्किम घूमने भी गए तो सामान कमरे तक लाना ले जाना होता रहा। वहाँ एक लड़का था प्रवेश थापा दार्जिलिंग का। बड़ा क्यूट सा हर काम को तत्पर हर वक्त चेहरे पर मुस्कराहट। आखरी दिन हम थके हुए होटल पहुंचे तो उसने पूछा मैडम खाना ? मैंने कहा क्या खिलाओगे ?
आप जो खाना चाहें। 
सब्जी रोटी बना दूँ ? उसे भी पता था हम रोटी खाने वाले लोग हैं। 
मैंने पहले दिन की रोटी याद करते हुए कहा तुम इतनी छोटी छोटी रोटी बनाते हो कि पेट ही नहीं भरता। तो मुस्कुरा के कहने लगा बड़ी रोटी बना देंगे मैडम। 
ठीक है तो बस दाल रोटी खिला दो। ( हरी सब्जी वहाँ बहुत कम मिलती है ) वह बढ़िया गरमा गरम दाल रोटी रूम के साथ लगी बालकनी में टेबल पर लगा गया। 
मैंने उससे पूछा कल सुबह होटल का दरवाजा कौन खोलेगा हमें सुबह जल्दी जाना है?
मैं उठ जाऊँगा मैडम आप मेरा नंबर भी ले लीजिये सुबह एक मिस काल कर दीजियेगा मैं आपके लिए चाय बना दूँगा आपका सामान ले चलूँगा। 
मैंने पूछा प्रवेश कहाँ तक पढ़े हो तो कहने लगा मैडम 12th में बेक आ गई थी तब पढाई छोड़ दी। 
अब आगे नहीं पढ़ना है ?
पढ़ना है मैडम अब यहाँ आने के बाद लगता है पढ़ना चाहिये। 
हम्म पढ़ना तो चाहिए तुम बहुत अच्छे लड़के हो पढ़ो आगे बढ़ो तुम्हे ज्यादा अच्छा काम मिलेगा। 
जाते हुए ऐसा लगा काश कुछ और समय प्रवेश से बात की होती। 

***
लाचेन से लौटते समय रास्ते में रुके सूर्यास्त हो चुका था अँधेरा होने ही वाला था। तीन दिन के इस सफर में कहीं अकेले पैदल चलने का मौका नहीं मिला था अब ये आखरी मौका था सो तुरंत लपक लिया। पति देव को बताया उनकी इच्छा नहीं थी सो अकेले निकल पड़ी। कोई सौ मीटर चली होऊँगी कि सामने से आती सात आठ बरस की एक बच्ची ने रोका ,कोठार जाइबे ? 

मैं अचकचा गई मुझे झिझकता देख उसे तुरंत समझ आया कि मुझे बांगला नहीं आती। तुम कहाँ जाते हो ?उसने मेरी मुश्किल आसान की। 
"घर "
" तुम्हारा घर तो बहुत दूर है इतनी दूर पैदल कैसे जाओगे ?"
"तुम भी तो अपने घर पैदल जा रही हो ना वैसे मैं भी चली जाऊँगी। "
"मेरा घर तो यहीं है वो सामने " उसने इशारे से बताया। 
"हाँ तो ठीक है न जैसे तुम पैदल जा रही हो वैसे मैं भी धीरे धीरे चली जाऊँगी। "
उसे समझ आ गया ये ढीठ प्राणी है आसानी से नहीं समझेंगी अब उसने तुरुप का पत्ता चलाया 'तुमको पता है जंगल में भूत है आत्मा है। "उसके साथ  आँखें और हाथ भूत की भयावहता बखान कर रहे थे। 
बात तो बड़ी डरावनी थी मैंने दो मिनिट सोचा उसकी चिंता का ध्यान भी तो रखना था " ठीक है हम उस को भी साथ ले लेंगे वो हमारा कुछ काम करवा देगा। "
"उलटा वो आपसे अपना काम करवाएगा। " वह भी हार मानने वाली नहीं थी। 
"ओह्ह ऐसा चलो ठीक है हम सबका काम करते है उसका भी कर देंगे। "
सच में ये मेरी दुष्टता थी वह छोटी सी अनजान बच्ची मेरी शुभचिंतक और मैं , मुझे तो पैदल चलने की पड़ी थी। अँधेरा घिरता जा रहा था रुक जाती फिर पतिदेव ही न जाने देते और हसरत दिल में रह जाती। 
"अच्छा देखो वो अंकल खड़े हैं न वो पीछे से गाड़ी लेकर आयेंगे और मुझे लेकर जायेंगे ठीक है अब हम जाएँ ? बाय " 
इतनी बड़ी लंबी बात तो उसे समझ नहीं आई पर ये समझ आ गया कि इन अंकल से बात करना चाहिए उन्हें बताना चाहिए कि ये उन्होंने क्या किया। वह पतिदेव के पास पहुंची और बोली "ये जो बेबी हैं वो पैदल क्यों जा रही हैं ?"
"क्योंकि उन्हें पैदल चलना अच्छा लगता है। "
"पर उनका घर तो बहुत दूर है आपने उन्हें क्यों जाने दिया ?"
"वो नहीं मानती कहती हैं पैदल जाएँगी। "
"आपको पता है जंगल में भूत है आत्मा है आपको उन्हें पैदल नहीं जाने देना चाहिए था। "
"क्या करें वो मानती ही नहीं हैं अब हम जायेंगे तो उन्हें गाड़ी में बैठा लेंगे। "
थोड़ी संतुष्ट थोड़ी असंतुष्ट वह चली गई। 
मैं थोड़े आगे बड़ी थी एक गाड़ी मेरे पास आकर रुकी ड्राइवर ने पूछा "मैडम आपका गाड़ी पीछे आ रहा है ना ?" 
"हाँ हाँ मेरा गाड़ी आ रहा है। "
ऐसे चिंता करने वाले ऐसी मदद करने वाले लोग जहाँ हों वहाँ घूमना कितना भला लगा होगा आप सोचिये। उस समय तो मैं यह सोच रही थी कि अभी एक हफ्ता तो भाषा सुधरने में लगेगा। 
क्रमशः 
कविता वर्मा 

Monday, November 7, 2016

जिंदगी भर कमाओ और मरने के लिये बचाओ

सिक्किम यात्रा (नाथुला पास ) 

 नाथुला पास वाले ट्रिप में तीन ही पॉइंट्स होते हैं छंगू लेक नाथुला पास और बाबा मंदिर।  अब वापसी का समय था। मौसम बहुत ठंडा हो गया था। सेना के कैंटीन की चाय समोसे जम चुके थे। ठंडी हवा हड्डियों को भी जमा चुकी थी।  दरअसल गंगटोक दिन में पहुँचे थे तब मौसम गरम था शाम को थोड़ी ठण्ड हो गई थी और हम उसी हिसाब से साधारण ठण्ड  के कपडे पहने थे जो अब और गरम रखने में असमर्थ साबित हो रहे थे। 
वापसी का सफर शुरू हो गया थोड़ी ही देर बाद गाड़ी फिर रुक गई चाय नाश्ते के लिये। हमारा पेट तो भरा ही था और ज्यादा चाय पीने की आदत नहीं है इसलिए हमने फिर कदमताल करने का विचार बना लिया। ड्राइवर को बताया और निकल पड़े। रास्ता उतार का था तो मेहनत भी नहीं करना पड़ रही थी और मज़ा भी आ रहा था। शहर में गाड़ियों की भीड़ से त्रस्त लोगों के लिए खाली साफ सुथरी सड़कें किसी वरदान से कम नहीं लगतीं। 
तभी एक गाड़ी पास आकर रुकी ड्राइवर ने कहा आगे मिलिट्री एरिया है वहाँ की फोटो ना खींचें। सच अभिभूत हो गई स्थानीय लोगों की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति सजगता देखकर। अगर यही सजगता हर प्रदेश में हर नागरिक में हो तो देश की आधी से ज्यादा समस्याएं खुद बखुद ख़त्म हो जाएँ। हमने भी अच्छे नागरिक होने की जिम्मेदारी समझी और कैमरा अंदर रख दिया। चलते चलते गर्मी आ गई थी और रुकने का मन ही नहीं हो रहा था कब डेढ़ दो किलोमीटर तय कर लिए पता ही नहीं चला जब हमारी गाड़ी आकर रुकी तो ड्राइवर ने पूछा बैठोगे या पैदल ही आ जाओगे ? मन तो वाकई नहीं था गाड़ी में बैठने का पर पचास किलोमीटर चलने की हिम्मत भी नहीं थी। 
रास्ते में फिर छंगू झील के पास से निकले पानी को बादलों ने ढँक लिया था। अब चढ़ाई शुरू हो गई और थोड़ी ही देर में हम बादलों के बीच से गुजर रहे थे। ट्रेकिंग की भाषा में इसे व्हाइट आउट होना कहते हैं जिसमे आप बादलों से इस तरह घिरे हों कि आगे पाँच दस किलोमीटर भी न दिखे। उस समय यही हाल था सड़क किस ओर मुड़ रही है यह भी नहीं दिख रहा था घाटी बादलों से भर गई थी लेकिन गाड़ी उसी रफ़्तार से चल रही थी। ये तो मानना पड़ेगा वहाँ ड्राइवर्स बेहद एक्सपर्ट हैं। बिना हॉर्न टेड़े मेढे संकरे रास्ते पर गाड़ी चलाना ओवरटेक करने साइड देने में नियमों का पालन करना। ये तो बाद में पता चला कि तय समय में मिलिट्री एरिया से बाहर नहीं आने पर ड्राइवर पर पाँच हजार का जुर्माना होता है। 
थोड़ा और नीचे उतर आये थे व्हाइट आउट ख़त्म हो गया अब आपस में बातें शुरू हुई। चार अलग अलग प्रदेशों से आये दस लोग अब एक मित्र मंडली से हो गए थे। 
मैंने ड्राइवर रुस्तम खवासी से पूछा इस रास्ते पर कभी कोई हादसा हुआ है जैसे गाड़ियों की टक्कर या कोई गाड़ी खाई में गिरी हो ? 
ऐसा तो कुछ नहीं हुआ लेकिन 2011 की बात है मैं टूरिस्ट लेकर नाथुला पास आया था आठ टूरिस्ट को लेकर आया था वो साउथ के थे उन्हें मेरी भाषा समझ नहीं आती थी। कुछ कुछ समझते थे तो मानते नहीं थे। घूमने आये हैं तो पूरा पैसा वसूल कर लें। 
उस दिन मौसम अजीब हो चला था बाबा मंदिर पर मैंने कहा जल्दी करो वो नहीं माने। रास्ते में गाड़ी के सामने चट्टान गिरी पीछे देखा तो पीछे भी चट्टान गिरी थी गाड़ी बीच में फंस गई। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया गंगटोक शहर की लाइट बंद थी। न कोई आर्मी का ट्रक न जवान कुछ समझ नहीं आया क्या हुआ। सारी रात गाड़ी में बैठे रहे टूरिस्ट रोते रहे। सुबह सात बजे सबको गाड़ी से निकाला चारों तरफ पहाड़ गिरे हुए थे रास्ते बंद थे। पैदल चलना शुरू किया और शाम को सात बजे सभी के साथ गंगटोक पहुंचे तब पता चला भूकंप आया है और बहुत लोग मारे गये हैं। 2011 के उस भूकंप के निशान बाद में भी सिक्किम में कई जगह देखने को मिले। 
पहाड़ों पर कई जगह रंगबिरंगी झंडियाँ लगी थीं जो बौद्ध मतावलंबी लगाते हैं। इन झंडियों पर मंत्र लिखे होते हैं और मान्यता है कि जब ये हवा से लहराते है मंत्र भी हवा की लहरों पर सवार हो दूर दूर तक पहुँचते हैं। एक पहाड़ पर एक कतार में सफ़ेद झंडे लगे थे। पता चला जब किसी की मृत्यु हो जाती है उसके नाम पर उसके परिवार वाले 108 सफ़ेद झड़े लगाते हैं इन पर भी मंत्र लिखे होते हैं और ये मृत आत्मा की शांति के लिये हैं। रंगीन झंडियां घर की शांति के लिए लगाई जाती हैं। मैंने पूछा बौद्ध धर्म में मृतक का अंतिम संस्कार कैसे होता है ? दाह संस्कार ही होता है पर बौद्ध धर्म में मरना बहुत मंहगा होता है। मरने के समय के अनुसार साइत देखी जाती है उसके अनुसार निर्णय होता है कि संस्कार कितने दिन बाद होगा। तीन पांच सात ग्यारह दिन बाद या कभी कभी कभी तो महीने भर बाद। तब तक शव घर में रहता है और बौद्ध भिक्षु को रोज़ बुलाकर मंत्र पाठ करवाया जाता है। दो से पाँच सात भिक्षु रोज़ आते हैं एक भिक्षु का एक दिन का खर्च दो से पांच हजार तक होता है। बौद्ध धर्म में मरने का खर्च बहुत होता है। मैंने कहा इसका मतलब है जिंदगी भर कमाओ और अपने मरने के लिये जमा करो। 
हाँ शादी का खर्च ज्यादा नहीं होता। शादी घर में या मोनेस्ट्री में हो जाती है। कोई जब तक साथ रहना चाहे ठीक है नहीं तो अपना साथी बदल ले या अलग हो जाये। 
दिसंबर में सिक्किम में बौद्ध उत्सव होता है जिसमे याक का गोश्त और वहाँ के अन्य व्यंजन बनते हैं। स्थानीय रहवासी हिंदी इंग्लिश बंगाली भूटिया भाषा बोलते और समझते हैं। 
एक बड़ी दिलचस्प चीज़ हर गाड़ी में देखी। गाड़ी के डेश बोर्ड पर बौद्ध हनुमान शंकर या किसी अन्य देवी देवता की मूर्ती हो उसमे एक या दो नोट (रुपये ) फंसा कर रखते हैं शायद मान्यता हो रूपया रूपये को खींचता है। खैर मैंने पूछा नहीं कभी कभी आस्थाओं की व्याख्या ना करना ना पूछना ही ठीक होता है। 
शाम साढ़े पाँच तक हम लोग गंगटोक वापस पहुँच गये थे। इतने जल्दी होटल जा कर भी क्या करते तो टहलते हुए एम जी रोड चले गये। नाथुला पास एक यादगार सफर की यादों को संजोते हुए देर तक माल रोड की रौनक देखते रहे। 
कविता वर्मा 
क्रमशः 

Saturday, November 5, 2016

ललचाता झरने का ठंडा ठंडा पानी

(9th day )नाथुला पास।  

अगले दिन सुबह नाथुला पास जाना था भारत चाइना बॉर्डर जो पूर्व सिक्किम गंगटोक जिले में पड़ती है। गंगटोक से 80 किलो मीटर दूर लगभग 14140 फ़ीट की ऊंचाई पर है जहाँ जाने के लिये शेयर्ड टैक्सी भी मिलती हैं और प्राइवेट टैक्सी भी। लगभग हर होटल में टूरिस्ट एजेंसी के एजेंट मौजूद होते हैं जो बुकिंग करते हैं। बुकिंग के साथ ही दो फोटो और पहचान पत्र की एक कॉपी देना होती है। वहाँ जाने के लिए पहले परमिट बनवाना पड़ता है जो एजेंट करवा देते हैं। 
गंगटोक का टैक्सी स्टैंड जो शहर के बीचों बीच है बहुत ही बढ़िया लगा। कम जगह में बेहतरीन व्यवस्था। यह एक तीन मंजिला टैक्सी स्टैंड है हर मंजिल पर जाने के मेन रोड से अलग अलग रास्ते जो अंदर भी सीढ़ियों से जुड़ा है। हर मंजिल पर एक रेस्टॉरेंट और टॉयलेट। 
परमिट बनते बनते 10 /11 बज ही जाते हैं। साढ़े ग्यारह तक स्टैंड लगभग खाली हो जाता है और लोकल टैक्सी या प्राइवेट गाड़ियों की पार्किंग के काम आता है। शाम को जो टैक्सी जल्दी आती हैं यहीं सवारी उतारती हैं पर रात में यहाँ कोई गाड़ी खड़ी नहीं रहतीं सब अपने मालिक या ड्राइवर के घर के सामने सड़क किनारे लेकिन व्यवस्थित तरीके से खड़ी होती हैं। रात आठ बजे तक हर सड़क के एक किनारे गाड़ियों की कतार मिलती है जो सुबह साढ़े सात बजे तक हटा कर फिर स्टैंड पर पहुँचा दी जाती हैं। गंगटोक में टैक्सी ड्राइवर का पार्किंग सेंस इतना अनुशासित है कि आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। खास कर विशाल मैदानी इलाकों में रहने वाले जो जगह और पार्किंग की कमी की शिकायत करते हैं पर ना नियमो का पालन करते हैं ना ही अपनी आदतें सुधारते हैं। 

शहरी सीमा पार करते ही गाड़ी खुले पहाड़ी रास्ते पर बढ़ चली। एक ओर आसमान में फख्र से सिर उठाये ऊँचे पहाड़ तो दूसरी ओर अपनी विनम्रता की मिसाल देती गहरी खाईयाँ। पहाड़ों से झरते झरने अपनी ओर ललचा रहे थे। एक चेकपोस्ट पर गाड़ी रुकी तो पानी की बोतल लेने का विचार किया। कीमत तीस रुपये सुन कर रुक गई। मेरा मन तो झरने का शुद्ध शीतल जल पीने का हो रहा था लेकिन उन तक पहुँचना मुश्किल था। फिर सोचा अभी तो आधी बॉटल पानी है जब ज्यादा पैसे देना ही है तो ऊपर ही देंगे इतनी दूर संभालना नहीं पड़ेगा। 
चाय नाश्ते के लिये गाड़ी रुकी तो सामने ही बहुत बड़ा एक झरना था लेकिन बहाव तेज़ और पहुँचने का रास्ता उबड़ खाबड़ इसलिए मन मसोस कर रह जाना पड़ा। अच्छी बात ये है कि पूरे सिक्किम में पेड टॉयलेट हर जगह हैं और उसके अलावा कहीं गाड़ी रोकने से ड्राइवर मना कर देते हैं। अपने टूरिस्ट की बात के ऊपर अपने प्रदेश की साफ सफाई को तरजीह देना बहुत बड़ी बात हैं। वैसे अपवाद सभी जगह देखने को मिलते हैं वही आदत से लाचार लोग।
साफ़ सुथरी सड़कें नीला आसमान मिलिट्री एरिया की सुरक्षा मन मचल ही गया पैदल चलने को। हमने ड्राइवर से कहा हम पैदल चलते हैं आप चलोगे तो रास्ते से हमें ले लेना। ड्राइवर हंसमुख था बोला आप छूट गये तो मेरी जिम्मेदारी नहीं। 
मैंने हँसते हुए कहा "आपने परमिट चेक करवाया था ना आठ लोगों को लेकर आये थे छह को वापस लेकर जाओगे तो सेना आपको पकड़ लेगी कि आपने दो लोगों को बॉर्डर पार करवा दी। " 
थोड़ी दूर ही चले होंगे कि एक और झरना मिल गया यह कम प्रवाह वाला और कुछ आसान पहुँच वाला था। मैंने झट से बॉटल निकली उसमे बचा पानी ख़त्म किया और थोड़ी मशक्कत के बाद पतिदेव बॉटल भर लाये। ठंडा मीठा पानी जो किसी भी कंपनी के पैक पानी को मात करता है। हवा ठंडी थी पर धूप की गुनगुनाहट उसे भला बना रही थी क्यों न हो आखिर प्रकृति के अवयव एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले ही चलते हैं। हम लगभग आधे पौन किलोमीटर आ गए थे कई गाड़ियाँ निकलती जा रही थीं और अब हमें डर लगा कहीं सच में हम छूट तो नहीं गये ? वहाँ से कोई खाली गाड़ी कोई टैक्सी भी नहीं मिलने वाली थी सब गिनती के पैसेंजर लेकर आती हैं और किसी के पास खाली सीट नहीं होती। ओवर लोडिंग वहाँ होती नहीं। आगे खड़ी चढ़ाई थी इसलिये अब हम रुक कर अपनी गाड़ी का इंतज़ार करने लगे। 

रास्ते में कई जगह सेना के कैंप हैं जहाँ फोटोग्राफी निषिद्ध है। परमिट चेक करने के लिए गाड़ियों को थोड़ी ज्यादा देर रुकना पड़ता है। पहाड़ों के बीच जहाँ भी थोड़ी जगह थी वहाँ टीन के शेड और बैरक बने थे। गाड़ियाँ हथियार से लैस। कई जगह रास्ते में बोर्ड लगे थे चीनी निगरानी क्षेत्र। गलबंद गरम कपड़ों से लैस जवान मुस्तैदी से अपने काम में जुटे थे। लगातार ठंडी हवाओं ने चेहरे की त्वचा को झुलसा कर काला कर दिया था लेकिन ड्यूटी के आगे इसकी चिंता किसे है ? मैं सोचने लगी जब ये जवान छुट्टी में घर जाते होंगे तब ही शायद ध्यान जाता होगा इस ओर। 

यात्रा का पहला पड़ाव था छंगू लेक (झील ) Tsomgo lake जो 14310 फ़ीट ऊँचाई पर है। पहाड़ों से घिरी इस प्राकृतिक झील तक पहुँचते बादल छाने लगे थे ठण्ड बढ़ गई थी। इतनी ऊंचाई पर पहाड़ों पर वनस्पति कम होने लगी थी। झील को जगह देने के लिए यहाँ पहाड़ पीछे खिसक गए हैं और बीच में झील और पर्यटकों के लिए बड़ी सी जगह छोड़ दी गई है। झील में मछलियाँ हैं और 51 फ़ीट गहरी यह झील ठंडों में पूरी तरह जम जाती है। यहाँ सजे धजे याक लिये स्थानीय रहवासी याक पर फोटो खिंचवाने का आग्रह करते हैं। 
आगे बढते ऊपर हुए बार बार झील दिखती है और हम देखते जाते हैं साफ सुथरे स्थिर पानी पर पहाड़ों का प्रतिबिम्ब मन मोह लेता है। पचास साठ फ़ीट ऊपर से भी उथली सतह के पत्थर दिखते हैं तब अनछुई प्रकृति की सुंदरता गहराई से महसूस होती हैं। 
नाथुला पास करीब आ रहा था ठण्ड बढ़ने लगी थी गाड़ी में भी हाथ में मोबाइल और कैमरे की अनुमति नहीं थी। पास के करीब हर मोड़ पर चार बाय चार के केबिन के बाहर मुस्तैदी से मशीनगन थामे जवान खड़ा था। संभवतः लोगों को फोटो खींचने से रोकने के लिए यह तैनाती थी। यह इलाका चीनी निगरानी क्षेत्र में आता है इसलिए यह सावधानी जरूरी है। 
गाड़ी से उतरते ही ड्राइवर ने कहा अपने मोबाइल कैमरे गाड़ी में छोड़ जाइये जवानों ने देख लिए तो जब्त हो जायेंगे फिर वापस नहीं मिलेंगे। मैंने बैग से सिर्फ पानी की बॉटल निकाली और बैग भी गाड़ी में छोड़ दिया। पार्किंग से लगभग ढाई तीन सौ फ़ीट चल कर बार्डर थी। ठण्ड बहुत बढ़ गई थी बादल आसपास उतर आये थे हवा में ऑक्सीजन की कमी थी। ड्राइवर ने कह दिया था ज्यादा देर मत रुकना नहीं तो तबियत ख़राब हो जाएगी अधिकतम एक घंटे। कई महिलाएं और बच्चे हांफ रहे थे कई अपर्याप्त गरम कपड़ों में थे तो कइयों ने पर्याप्त कपड़ों के बावजूद उन्हें ठीक से नहीं पहना था। जैकेट की जिप खुली थी सिर नहीं ढँका था साँस लेने में तकलीफ के बावजूद लोग बच्चों को चढ़ा रहे थे या उनके मुँह पर स्कार्फ नहीं लपेटा था। 
जहाँ दोनो  देशों के दरवाजे हैं उनके बीच महज पंद्रह बीस फ़ीट की दूरी है इसे देखने के लिए खुली टैरेस जैसी जगह है। टैरेस पर दीवार ऐसी है जैसे दो छतों के बीच दीवार होती है। दो जवान दुश्मन देश पर नज़र रखे तैनात थे तो पाँच छह जवान भारतीय पर्यटकों पर नज़र रखे थे जो किसी न किसी तरह नज़र बचा कर फोटो लेने की फ़िराक में थे। जब वे पकडे जाते अजीब अजीब तर्क देने लगते हम इतनी दूर से इतना खर्च करके आये हैं ,अपने दोस्तों को दिखाने के लिए फोटो चाहिये और कई तो अपने पद पैसे और पहुँच की धौस देने से भी नहीं चूके। जिस ठण्ड में हम बमुश्किल घूम पा रहे थे और एक घंटे बाद वापस चले जाने वाले थे वहाँ उन जवानों की लोगों से बहस मशक्कत देख सिर शर्म से झुक गया। सिविलियन को सिविक सेन्स सीखने की बहुत जरूरत है सिर्फ मंहंगे कपडे जूते गाड़ियाँ इस्तेमाल करने से ही सभ्य नहीं कहलाया जा सकता। पिंक फिल्म की तर्ज पर No को विस्तार से परिभाषित करने की आवश्यकता है। मैंने हंसते हुए एक जवान से कहा जितनी चौकसी आपको दुश्मन देश चीन की नहीं करनी पड़ती उससे ज्यादा तो अपने देश के लोगों की करना पड़ती है। वहाँ दो जवान काफी हैं यहाँ पांच जवान लगे हैं। 
चाइना बॉर्डर में ख़ामोशी छाई थी मैंने वहाँ मौजूद जवान से पूछा चाइनीज़ लोग नहीं आते बॉर्डर देखने ? 
कभी कभी आते है पर सिर्फ 40 /50 लोग ही आते हैं। अब पता नहीं ऐसा कम आकर्षण के कारण है या नीतियों के कारण। 
लगभग चालीस मिनिट में ही ठण्ड से हमारी हालत ख़राब थी। वहीँ दो टेंट में सेना ने मेडिकल हेल्प और कैंटीन बनाया हुआ था। कैंटीन में गरमा गरम कॉफ़ी समोसे और मोमो मिल रहे थे। तीन चार टेबल कुर्सी लगी थीं लोग ठंड से राहत पाते खाते चाय-कॉफी पीते और चल देते। 
सेना का एक जवान बार बार लोगों से आग्रह कर रहा था कि डस्टबिन का उपयोग करें। 
लोग खुद से यह भी नहीं सोच सकते कि इतनी ऊंचाई पर बार्डर पर उनके कप प्लेट उठाने के लिए कौन नौकर लगे होंगे?
गरम कॉफ़ी पी कर थोड़ी राहत मिली हम लोग वापस गाड़ी पर आ गये। अगला पड़ाव था बाबा मंदिर यानि बाबा हरभजन श्रीन का मंदिर। बाबा हरभजन सेना में थे जो रसद ले जाते हुए पहाड़ी झरने में बह गए थे और घटना स्थल से दो किलोमीटर दूर उनका शव मिला। कहते हैं उन्होंने अपने साथियों को सपने में दर्शन दे कर अपने शव की स्थिति बताई थी। सेना ही मंदिर की व्यवस्था देखती है। यहाँ पास की एक पहाड़ी पर एक बड़ी सी शिव प्रतिमा स्थापित है जिसके पीछे बड़ा सा झरना बहता है। पहाड़ों में जो जगह बड़े पास दिखती हैं वो पहुँचने में बड़ी दूर होती हैं। हमने वहाँ जाना कैंसिल किया और ठंडी हवा उतरते बादल के बीच फोटोग्राफी का मज़ा लिया। 
कविता वर्मा 
क्रमशः



Thursday, November 3, 2016

जब पाँच बजे आसमान तारों से भर गया

पंद्रह दिन के अपने टूर में गुवाहाटी दार्जिलिंग और सिक्किम गये थे। लिखना तो सभी के बारे में है पर कुछ यादें ज्यादा याद आती हैं और उन्हें लिखने की इच्छा हो जाती है। ये यात्रा वृतांत थोड़ा बेतरतीब लगेगा पर उम्मीद है आपको अच्छी सैर भी करा देगा। 
  
19 अक्टूबर 2016 (8th day )
सिक्किम की राजधानी गंगटोक के बारे में काफी सुना था।  धुल धुंए रहित बिना शोर शराबे के एक शांत पहाड़ी शहर जो राजधानी भी है। हम गंगटोक पहुंचे दोपहर करीब दो बजे। होटल की लॉबी में पहुँच  तबियत जितनी खुश हुई कमरे में पहुँचते ही मूड ख़राब हो गया। सजा धजा साफ़ सुथरा रूम लेकिन बाहर की तरफ कोई खिड़की नहीं और बंद कमरे रहना मानो सज़ा। दार्जिलिंग में भी होटल का रूम पसंद नहीं आया था तब make my trip फ़ोन करके उसे अपग्रेड करवाया था जिसमे करीब आधा पौन घंटा लग गया। अब यहाँ फिर वह सब दोहराने की हिम्मत नहीं बची थी। एक तो पहाड़ी रास्ते का चार घंटे का सफर और साथ में चार घंटे लगातार बजते गानों ने सारी शक्ति छीन ली थी अब तो बस फ्रेश होकर खाना खाकर आराम करने का मन था। फिर सोचा सिर्फ रात में सोना ही तो है तो क्या फर्क पड़ता है ?
खाने का मेन्यू देखा कुछ खास पसंद नहीं आया फिर सोचा सिर्फ दाल रोटी आर्डर करते हैं शाम को बाहर खाएंगे। जब खाना आया रोटी इतनी छोटी छोटी थीं कि एक रोटी दो तीन कौर में ही ख़त्म हो गई और बुलवाते तो पता नहीं कितनी देर लगती इसलिए साथ लाये नाश्ते में से कुछ निकाला और उदरस्थ किया। ठण्ड तो थी खाने के बाद और तेज़ लगने लगी तो थोड़ी देर लेट गए रजाई कम्बल की गर्मी मिलते ही नींद लग गई। 
शाम साढ़े चार बजे घडी देखी तो सोचा थोड़ी देर और फिर एम जी रोड (माल रोड ) चलते हैं। तैयार हो कर बाहर आये तो पाँच बजकर दस मिनिट हुए थे और अँधेरा हो चुका था आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। कमरे से बाहर का कोई नज़ारा दिख नहीं रहा था बस घडी के हिसाब से समय देखा। ( जी हाँ वहाँ पता चला समय सिर्फ घड़ी में नहीं खुले आसमान पर भी दिखाई देता है। ) सुदूर पूर्व में सूर्योदय भी जल्दी होता है और सूर्यास्त भी। एम जी रोड करीब ढाई तीन किलोमीटर दूर था टैक्सी का इंतज़ार करते एक गाड़ी को हाथ दिया और वह रुक भी गई लेकिन वह टैक्सी नहीं थी। सिक्किम का बंदा था शायद उसे भी अजनबियों से बात करने का शौक था (मुझे भी है ) . उसने सिक्किम और गंगटोक के बारे में कई बातें बताई जैसे वहाँ हॉर्न बजाना पब्लिक प्लेस पर सिगरेट पीना मना है पर लिकर (शराब ) कोई भी कभी भी कहीं भी पी सकता है। ज्यादातर लोग पर्यटन पर निर्भर हैं। सिक्किम के चार जिले हैं उनमे से हमें कहाँ कहाँ घूमना चाहिये वगैरह वगैरह। बातचीत में ही पता चला कि जैसे हमें सुदूर पूर्वी प्रदेशों के बारे में बहुत कम जानकारी है वैसे ही वहाँ के लोगों को भी देश के अन्य प्रदेशों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है। दुःख हुआ कि इतने सालों में हम अपने देश के हर प्रदेश को और उनके बाशिंदों को ही एक दूसरे से नहीं जोड़ पाये। 
माल रोड या एम जी रोड के शुरुआत में गाँधी जी की बड़ी सी प्रतिमा है। वहाँ वाहन प्रतिबंधित है। रोड डिवाइडर से दो भागों में विभक्त है और काफी चौड़ा साफ सुथरा और चौकोर पत्थरों से जड़ा है। दोनों तरफ सुसज्जित दुकानें कई नई और पुरानी जगमगाती इमारतें। बीच में डिवाइडर पर हरियाली बैठने के लिये बेंचेस और हर पचास मीटर पर डस्टबिन। ऐसा लग रहा था जैसे विदेशी धरती पर हों। ( यकीन मानिये ऐसा लिखना मुझे भी बुरा लग रहा है लेकिन ऐसी साफ़ सफाई और अनुशासन कम ही जगहों पर देखने को मिलता है। ) काफी देर वहीँ बैठे रहे टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर से घूमने के लिए कुछ जानकारी जुटाई। वैसे तो अब कई ब्लोग्स हैं जिनपर सभी कमी खूबियों के साथ ज्यादा अच्छी जानकारी मिल जाती और हम वह लेकर गए थे। वहाँ दो वेज रेस्टॉरेंट दिखे उन्हीं में से एक 'परिवार रेस्टॉरेंट' में बिरियानी खाई। हरी सब्जियाँ वहाँ कम ही मिलती हैं रोटी मिल जाती है पर दिन की पूरी के आकार की रोटी के बाद मन नहीं हुआ। ज्यादा भूख नहीं थी इसलिए गर्मागर्म बिरियानी ही खाई। 
एम रोड के लगभग आखिर में थोड़ा नीचे उतर कर लाल बाजार है जो थोड़ा सस्ता है। आठ बजे तक बाजार बंद होने लगता है। लौटते हुए आइसक्रीम खाई। मैं आइसक्रीम लेकर बाहर आ गई तो दुकान के सामने डस्टबिन में मैंने रैपर डाल दिया जबकि हस्बैंड ने दुकानदार को पैसे देकर वहीँ रैपर खोला जिसे दुकानदार ने लेकर अपने काउंटर पर एक डब्बे में रख लिया। 
सिक्किम में हर नागरिक अपने शहर अपने राज्य की साफसफाई के लिये खुद को जिम्मेदार मानता है इसका पहला प्रत्यक्ष उदाहरण सामने था। 
क्रमशः 
कविता वर्मा 

Friday, September 30, 2016

अब हमारी बारी

  
देश की सरहदों पर तैनात हमारे जवान हमेशा अपनी जान हथेली पर लिये देश की रक्षा में लगे रहते हैं। जान देने की बारी आने पर एक पल के लिए भी नहीं सोचते ना खुद के बारे में ना अपने परिवार के बारे में। जिस तरह हम अपने घरों में इस विश्वास के साथ चैन से सोते हैं कि सरहद पर सैनिक हैं उसी तरह वे विश्वास करते हैं कि पीछे से देश की जनता और सरकार है जो उनके परिवार की देखभाल करेगी। किसी भी जवान की शहादत पर लोगों में भावनाओं का ज्वार उठता है उसकी अंतिम यात्रा में पूरा गाँव शहर उमड़ता है सरकार तुरंत मदद घोषित कर देती है। हर प्रदेश सरकार अपनी सोच की हैसियत के अनुसार मदद घोषित करती है। अब जिनकी सोच में ही दिवालियापन हो वह उसी के मुताबिक मदद घोषित करते हैं। हाँ लोगों के गुस्से मीडिया की लानत मलानत से कभी कभी सोच परिष्कृत हो जाती है और स्तर बढ़ जाता है सोच का भी और मदद का भी। 
खैर मुद्दा प्रदेश सरकार या राजनैतिक पार्टी की सोच का नहीं है मुद्दा है इन सैनिक परिवारों की सच्ची मदद और उनके सही हाथों में पहुँचने का। कई बार होता यह है कि भावनाओ के अतिरेक में घोषणाएं तो हो जाती हैं पर उनपर अमल कब और कितना होता है इसे जाँचने वाला कोई नहीं होता। 
हाल ही में उरी में और इसके पहले भी सीमा पर होने वाली घटनाओं के कारण मारे गये सैनिकों की अंतिम यात्रा के प्रसारण को देखते हुए महसूस हुआ कि अधिकतर सैनिक सुदूर ग्रामीण इलाके के हैं और उनकी सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अधिकतर के परिवार में माता पिता , पत्नी या तो पढ़े लिखे नहीं हैं  बहुत कम पढ़े लिखे हैं। ऐसे में सरकारी और कानूनी पेचीदगियों को समझना और मदद पाने के लिए सही द्वार तक पहुँचना इनके लिए मुश्किल होता है। ऐसे में कोई रिश्तेदार कोई बिचौलिया मदद के नाम पर इनके साथ हो लेता है और वह मदद इन तक पहुँचने के पहले ही हड़प ली जाती है या उसके हिस्से हो जाते हैं। एक साथ मिली रकम का यथोचित उपयोग और इंवेस्टमेंट करने में वे लोग असफल होते हैं और मतलबपरस्त की धोखाधड़ी का शिकार हो सकते हैं।
अगर पत्नी दूसरी शादी कर ले तो बूढ़े माता पिता बुढ़ापे में आर्थिक परेशानियों से घिर जाते हैं भाईबहन का भविष्य अंधकार में डूब जाता है। जब परिवार की भूखों मरने की स्थिति आती है और वे भटकते हुए मीडिया तक पहुँचते हैं तो बिना जमीनी सच्चाई जाने सरकार को कोसना शुरू हो जाता है। 

दरअसल अब ऐसी मदद या मुआवजे को शहीद के परिवार की जरूरत का ध्यान रखते हुए पूरी योजना बना कर  देने की जरूरत है। होना यह चाहिये कि सैनिक पर निर्भर परिजनों की पूरी जानकारी सेना के पास होनी चाहिये। जिसमे भाई बहनों की जिम्मेदारी का एवरेज टाइम पीरियड शामिल हो। जैसे अगर भाई 18 साल का है और पिता की कोई आय नहीं है आगे कितने साल में अपनी पढाई पूरी कर अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है या बहन की शादी कितने साल में करने का इरादा है। ऐसे ही बच्चों की उम्र उनकी जिम्मेदारी जरूरतों का मोटा हिसाब होना चाहिए। 

प्रदेश सरकारों द्वारा दी गई मदद मुआवजे का कुछ हिस्सा माता पिता को और कुछ पत्नी और बच्चों के नाम से बराबरी से बाँटी जाना चाहिए जो तुरंत मदद के लिए हो और यह बहुत ज्यादा नहीं होना चाहिये। बाकी पैसा अलग अलग हिस्सों में बाँट कर उसकी एफ डी बनवाना चाहिये जो उन्हें अगले बीस बाइस सालों तक ब्याज और मूल देती रहे जब तक बच्चे अपने पैरों पर ना खड़े हो जाएँ। पत्नी को मृत्युपर्यंत पेंशन तो मिलना ही चाहिये। 
ये ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि ये सैनिक हमारे और सरकार के भरोसे अपने परिवार को हमारे भरोसे छोड़ जाते हैं उनके लिए हमारे दिलों में बहुत मान सम्मान है उनके परिवार से सहानुभूति है और उसे सही दिशा दे कर हमें अपना फ़र्ज़ निभाना है। 
कविता वर्मा 


Thursday, September 22, 2016

जीने दे मुझे तू जीने दे


सामाजिक बदलावों में फिल्मो की भूमिका पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। हमारे यहाँ फिल्मो को विशुद्ध मनोरंजन का साधन माना जाता है ऐसे में कोई फिल्म अगर सोचने को विवश करती है तो उस पर चर्चा की जाना चाहिए। हाल ही में शुजीत सरकार की फिल्म पिंक रिलीज हुई। महिलाओं के प्रति समाज के नज़रिये पर सवाल उठाती इस फिल्म ने हर आयु वर्ग के चैतन्य लोगों को झकझोरा है और इस पर चर्चा जोर शोर से जारी है। दिल्ली के निर्भया कांड के बाद पूरे देश में एक लहर उठी थी जिसमे बड़ी संख्या युवकों की थी। उस घटना ने युवकों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया था और स्वयं को सदैव शक के दायरे में पाना उनके लिए असह्यनीय था। कभी लड़कियों के बारे में सोचा है जो हमेशा समाज की निगाहों की चौकसी में रहती हैं और उनके क्रिया कलाप हमेशा ही शक़ के दायरे में। 
फिल्म की कहानी तीन मध्यम वर्गीय कामकाजी लड़कियों के आसपास घूमती है जो दिल्ली में एक फ्लैट किराये पर लेकर रहती हैं। उनके साथ हुए एक हादसे के बाद उनकी जिंदगी बदल जाती है तब एक बूढा वकील उनका केस लड़ता है और अदालती कार्यवाही के दौरान समाज की लड़कियों के प्रति मानसिकता पर उठाये सवालों के द्वारा पूरे समाज को सोचने पर मजबूर कर देता है। फिल्म में रसूखदार नेता परिवार और लड़कों की मानसिकता, सोसायटी के तथाकथित आधुनिक लोगों की सोच, पुलिस प्रशासन की कार्यप्रणाली, दोस्ती, रिश्ते, इंसानियत सभी को बखूबी दर्शाया गया है। हर बात इतने सहज स्वाभाविक ढंग से आती है और अचानक एक बड़ा प्रश्न छोड़ जाती है की हम भौचक रह जाते हैं। 
लड़कियों के लिये हर समाज में कई अलिखित नियम हैं। अब मोहल्ला प्रथा तो रही नहीं और हम सब तथाकथित आधुनिक हो गये हैं इसलिये आते जाते किसी पर सीधे कटाक्ष नहीं करते लेकिन पीठ पीछे किसी पर टैग तो लगा ही देते हैं और अपने लगाये टैग को सही साबित करने के लिये उसकी चर्चा भी खूब करते हैं।
इस स्थिति से समाज में हर लड़की को जूझना पड़ता है। लड़की देर रात घर आती है डिस्को पब में जाती है अकेली रहती है लड़कों से मिलती है उनसे हँस हँस कर बात करती है कैसे कपड़े जूते पहनती है बाल कितने स्टाइल में कटवाती है ये सब बातें उसका  चरित्र निर्धारित करती हैं। इसी के आधार पर उसे चालू आवारा और सहज उपलब्ध मान लिया जाता है। समाज द्वारा लगाए गये इन टैग के सामने कोई तर्क कोई स्पष्टीकरण नहीं चलते। अगर लड़की पर परिवार की जिम्मेदारी है वह कामकाजी है तो उसे सिर्फ काम करना चाहिये उसके आगे अपने लिए सोचना अपने लिए जीना समाज को खटकता है। लड़कियों को आज़ादी भी एक तय चौखटे में ही दी गई है। ऐसे कोई चौखटे लड़कों के लिये निर्धारित नहीं हैं वे जो चाहे करें सब मान्य है। 
फिल्म के एक दृश्य में जब लोग मीनल को देख उसके बारे में बात करते हैं तो वह अपने सिर पर हुड लगा लेती हैं तब अमिताभ बच्चन उस हुड को हटा देते हैं। प्रतीकात्मक रूप से बहुत बड़ी बात यहाँ कही गई है। अब समय आ गया है कि लड़कियाँ खुद को छुपाना परदे के पीछे छुपना बंद कर दें।  कहने दें लोगों को जो कहना है उसका खुल कर सामना करें। 
फिल्म के एक दृश्य में कीर्ति कुल्हारी चीख चीख कर कबूल करती हैं कि उनने और उनकी सहेलियों ने पैसे लिये हैं। उनका बयान केस कमजोर कर सकता है लेकिन बार बार यह सुन कर वे आपा खो बैठती हैं। अगले दृश्य में वे कहती हैं मना करते रहने से भी क्या होता जब सबने मान ही लिया है। लड़कियों के बारे में यही सोच काम करती है। यही स्थिति है उनकी। उनकी सफाई उनके स्पष्टीकरण को कोई नहीं मानता समझता लोग वही सोचते हैं जो वो सोचना चाहते हैं। 
 रिश्ते भारतीय समाज की पहचान है और रिश्तों के लिये जितने नाम हमारे यहाँ हैं उतने शायद किसी और संस्कृति में नहीं हैं। दोस्ती का रिश्ता खून के सभी रिश्तों से ऊँचा रिश्ता है जिसकी अवधारणा हमारे पुराणों में भी मिलती है। कृष्ण सुदामा, कर्ण दुर्योधन, राम सुग्रीव ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। लेकिन लड़के और लड़की की दोस्ती को आज भी सम्मान की नज़रों से नहीं देखा जाता। उनका साथ उठना बैठना खाना पीना हंसना बोलना लड़की को हर बात के लिए तैयार है ऐसा माना जाता है। इस फिल्म में हर तरह के रिश्ते हैं। एक दोस्ती का वह रिश्ता जो इन तीन लड़कियों के बीच है जिसके दम पर वे कठिन से कठिन समय में एक दूसरे का साथ देती हैं तो एक वह रिश्ता जो अपनी सुविधा के साथ चलता है पर बुरे वक्त में साथ छोड़ देता है। एक रिश्ता है मकान मालिक और किरायेदार का जो व्यावसायिक होते हुए भी इन सब से ऊपर उठ इंसानियत का सबूत देता है और एक छोटा सा पर सबसे महत्वपूर्ण वह खूबसूरत रिश्ता जो एक पडोसी का है जो मददगार बन कर उभरता है। 
समाज के रिश्तों के बदलाव की बात सभी करते हैं पर क्या कभी हम खुद में झांक कर देखते हैं कि अपने रिश्तों में हम कितने ईमानदार हैं ? 
फिल्म में पुलिस प्रशासन की कार्यप्रणाली को लगभग वैसा ही दिखाया गया है जैसी वह है। आम इंसान के लिये न्याय की आशा अभी भी आकाश कुसुम है। हमारे देश में त्वरित न्याय या इतने काबिल वकील मिलते हैं या नहीं या एक रसूखदार परिवार के लड़कों को इतने संगीन जुर्म का आरोपी बनाया जा सकता है या नहीं यह इस फिल्म का मकसद नहीं है। सबूत कहाँ से कैसे जुटाये गये जैसी रोमांचकता इसमें नहीं जोड़ी गई है लेकिन सबूत हैं और जब वे सबूत बोलते हैं तब उनके तर्क अकाट्य होते हैं। अदालती कार्यवाही के सबूत और जिरह लड़कियों को एक इंसान समझे जाने की वकालत करते हैं। उनकी इच्छा अनिच्छा को सामाजिक मान्यता दिलाने की जिरह करते हैं। उनको मूक कठपुतलियों से बढ़कर एक इंसान समझा जाना ही अभी जद्दोजहद का विषय है। 
फिल्म के बारे में बात करते हुए शुजीत सरकार ने बताया कि उनकी पत्नी ने एक बार उनसे कहा कितना अजीब है ना कि आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी हमें स्त्री सशक्तिकरण की बात करना पड़ रही है। ये स्टेटमेंट अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा करता है। 
फिल्म का क्लाइमेक्स अमिताभ बच्चन के झकझोरने वाले स्टेटमेंट से होता है जब वे कहते है की NO एक शब्द नहीं एक पूरा वाक्य है और इसे इसी तरह समझा जाना चाहिये। नो मतलब सिर्फ नहीं होता है और कुछ नहीं फिर वह नहीं कोई लड़की कहे बेटी बहन सेक्सवर्कर या फिर पत्नी कहे इसका मतलब सिर्फ नहीं होता है। 
लड़कों की परवरिश में इस NO शब्द का इस्तेमाल बहुधा नहीं होता। उनकी इच्छा अनिच्छा जरूरते सबके लिये हाँ ही होती है। किसी बात के लिए ना होती भी है तो वह क्षीण प्रतिरोध होता है जिसे आसानी से हाँ में बदलवा लिया जाता है। इसीलिए लड़कियों की ना को भी हाँ समझना या उसे बलपूर्वक हाँ में बदलवा लेना आम मानसिकता होती है। परिवार की मानसिकता भी यही होती है। ये फिल्म लड़कियों को एक इंसान के रूप में देखे जाने की पुरजोर कोशिश करती है। उन्हें उनकी जिंदगी उनके तरीके से जीने के स्पेस देने की मांग करती है उन पर अपने विचार अपने बनाये टैग ना लगाए जाने की  गुजारिश करती है। 
फिल्म बना लेना उसे लोगों तक पहुँचाना और दिखाना एक बात हो सकती है लेकिन लोग अभी भी अपनी पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिकता के साथ ही फिल्म देख रहे हैं। मेरे पास कई महिलाओं के स्टेटमेंट आये की कुछ भी हो लड़कियों का शराब पीना देर रात तक बाहर रहना उनकी सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है अंत में नुकसान तो उन्ही को होता है। 
इस बारे में मेरा कहना है जिस तरह लड़के शराब पिए या डांस करें देर रात तक बाहर रहे उन्हें ये डर नहीं रहता कि उनकी मर्जी के खिलाफ उनके साथ कुछ गलत होगा। यही माहौल लड़कियों को क्यों नहीं दिया जाता सकता ? मैं शराब पीने की वकालत नहीं कर रही पर कोई लड़की कब तक बाहर रहेगी कहाँ जाएगी कब आएगी ये सब उसकी मर्जी होना चाहिये और उसे एक सुरक्षित माहौल मिलना चाहिये जैसे बेफिक्र लड़के रहते हैं वैसे ही उन्हें भी बेफिक्री हो कि वे सुरक्षित हैं। युवा लड़कों को इसी बात ने बहुत ज्यादा प्रभावित भी किया है। समानता का यह अर्थ अभी तक ठीक से सामने आया ही नहीं था। 
फिल्म के एक सीन में तापसी पन्नू कहती हैं बहुत बुरा लगता है घिन आती है जब कोई आपको आपकी इच्छा के खिलाफ छूता है। हमारे यहाँ लड़कियाँ महिलायें आये दिन इस बुरे स्पर्श से जूझती हैं। कोई लड़की एक या अधिक बार अपनी मर्जी से संबंध बना चुकी हो तब भी एक और बार उसकी मर्जी के खिलाफ उसे छूने का हक़ किसी को नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की इस मानसिकता को बदलने की बहुत बड़ी जरूरत है और इस सीन ने शायद लड़कों में भी उस जबरजस्ती के स्पर्श के प्रति जुगुप्सा पैदा की होगी ऐसा मेरा मनना है। 
फिल्म देखते समय आसपास कई लड़के थे लेकिन हाल में कहीं कोई कमेंट नहीं हुआ कोई सीटी नहीं बजी। विषय की गंभीरता ने सभी को अवाक् कर रखा था। 
कई लोगों ने मुझे बताया कि वे इस फिल्म की चर्चा से इतने प्रभावित हुए हैं कि अपने बेटों को यह फिल्म दिखाना चाहते हैं। यह बेहद अच्छी सोच है और नयी पीढ़ी की सोच विकसित करके ही बदलाव लाया जा सकता है। 
फिल्म का एक गीत 
जीने दे जीने दे मुझे 
यार हट जा जरा 
देख ले मैं हूँ यहाँ 
मेरी जिंदगी है ये मेरा जहाँ 
तू समझे यहाँ तू ही है बादशाह 
जीने दे मुझे तू जीने दे 
जिंदगी का जाम तू पीने दे 
जैसे भी हूँ मुझको तू रहने दे 
दिल में जो है वो मुझे कहने दे  
कविता वर्मा 

Monday, September 19, 2016

'आइना सच नहीं बोलता'

मातृभारती मातृभारती पर प्रकाशित हो रहे धारावाहिक उपन्यास 'आइना सच नहीं बोलता' की इस पहली और दूसरी कड़ी की लेखिका हैं नीलिमा शर्मा और कविता वर्मा... नंदिनी की इस कहानी को पढ़िए और सुझावों व् प्रतिक्रियाओं से अवगत कराइये..


http://matrubharti.com/book/6191/ 


http://matrubharti.com/book/6337/

एप डाऊनलोड करें
यूज़र वेरिफिकेशन करवाएं। मोबाईल या ईमेल से
पासवर्ड बनाएं

अपनी भाषा चुने
केटेगरी चुने
फिर बुक लिस्ट आएगा
अपनी बुक चुनें
और डाऊनलोड करें

Monday, September 12, 2016

हँसते हँसते कट जायें रस्ते भाग 1


रोजमर्रा की जिंदगी में कितनी ही बातें ऐसी होती हैं जिन्हें जब याद करो हंसी फूट पड़ती है। ये छोटी छोटी बातें घटनायें हमें जीने की ऊर्जा देती हैं। कुछ घटनायें गहरी तसल्ली दे जाती हैं कुछ खुद की पीठ थपथपाने का मौका। ऐसी ही घटनाओं को कलमबद्ध करने का मन आज हो आया। आप भी पढिये और मुस्कुराइये। 

सिटी बस से सफर करना हमेशा ही रोमांचक होता है और अगर आसपास एक दो सहयात्री भी मजेदार या नोटंकीबाज मिल जाएँ तो फिर कहना ही क्या। बेटी रोज़ सिटी बस से कॉलेज जाती है कभी बैठने की जगह मिल जाती है कभी नहीं। कभी कभी बीच के स्टॉप पर कोई उतरने वाला होता है तो आसपास वालों में उस सीट को हथियाने की होड़ लग जाती है। अब सफर रोज़ का ही है इसलिए बिना वजह की सदाशयता भी कोई नहीं दिखाता सब अपने में मगन अपने लिए थोड़ी सी जगह और सुकून जुटाने भर की चिंता करते हैं। एक दिन एक लड़की दो सीट के बीच की जगह में खड़ी थी। सीट पर बैठी लड़की अगले स्टॉप पर उतरने वाली थी। एक स्टॉप पहले एक महिला चढ़ीं और उस सीट से थोड़ी दूर खड़ी थीं। जैसे ही स्टॉप आया वह लड़की उठी तो उन महिला ने अपना पर्स खाली हुई सीट पर फेंक दिया क्योंकि वहाँ तक तुरंत पहुँचना मुश्किल था बस में काफी भीड़ थी। वह लड़की जो सीटों के बीच में खड़ी थी उसने उनका पर्स उठा कर उन्ही की ओर बढ़ाया और कहा आंटी शायद आपका पर्स गिर गया है और खुद उस सीट पर बैठ गई। 

एक और वाकया हुआ एक आंटी और उनकी मम्मी हाय हाय करते भीड़ भरी बस में चढ़ीं। आंटी जोर जोर बोल रहीं थी हाय मेरे पैर में चोट लगी है देखो संभल कर बहुत दर्द हो रहा है। माँ बेटी दोनों माहौल बनाती रहीं कि शायद कोई उन्हें बैठने की जगह दे दे लेकिन सब अपने में मगन थे।  फिर उन्होंने एक एक से पूछना शुरू कहाँ उतरोगे। आखिर तंग आकर एक लड़की खड़ी हो गई कहते हुए कि आंटी आप बैठ जाइये और सीट खाली होते ही उनकी मम्मी सीट पर बैठ गई। 

छुट्टे पैसे ना होने पर टॉफियाँ तो हम सभी को कभी ना कभी मिली होंगी। कभी हंस के तो कभी मुँह बनाते हम उन्हें रख ही लेते हैं और करें भी क्या दुकानदार तो अकड़ के खड़ा हो जाता है कि छुट्टे दो जैसे छुट्टे ना होने पर भी सामान लेने आकर हमने कोई गुनाह कर दिया हो। 
एक बार मोबाइल का रेट कटिंग वॉउचर लेने गई जो अड़तीस रुपये का था और खुल्ले थे सिर्फ छत्तीस रुपये। एक हाथ में खुल्ले पैसे पकडे दूसरे हाथ से सौ का नोट आगे बढ़ा दिया। दुकानदार बोला छुट्टे दीजिये मैंने कहा सिर्फ छत्तीस रुपये हैं चलेंगे। वह असमंजस में पड़ गया क्या करे वह दुकान में नोकर था। उसे असमंजस में देख कर मैंने कहा दो रुपये की टॉफी दे दूँ और दो टॉफी निकाल कर काउंटर पर रख दी। दुकान का मालिक वहीँ बैठा था वह बोला तो कुछ नहीं पर उसे इतनी हंसी आई की क्या कहें। पहली बार कोई उसकी टोपी उसी के सिर पहना गया। 

ऐसे ही एक बार रेस्टॉरेंट में खाने के बाद बिल चुकाया तो दस के नोट की जगह दस टॉफी देख दिमाग ख़राब हो गया। वेटर को टिप भी देनी थी तो उन दस टॉफी के साथ दो नोट और मिलाये और वेटर से कहा इसके बदले काउंटर से पैसे ले लेना। अभी राजस्थान टूर पर पांच के सिक्के की जगह मिंट की छोटी डिब्बी मिली किसी एपल मिंट फ्लेवर की जो हमें पसंद नहीं था। बिटिया उसे लेकर काउंटर पर गई और बोली इसकी जगह मिंट पुदीना फ्लेवर दे दो। दुकानदार ने बदल कर दे दिया। तब मैंने उससे कहा ऐसा लग रहा है जैसे तुम कोई फटा नोट बदलवा कर ले आई हो। 
कविता वर्मा 

Tuesday, August 9, 2016

कौन कहता है आंदोलन सफल नहीं होते ?


बात तो बचपन की ही है पर बचपन की उस दीवानगी की भी जिस की याद आते ही मुस्कान आ जाती है। ये तो याद नहीं उस ज़माने में फिल्मों का शौक कैसे और कब लगा जबकि उस समय टीवी नहीं हुआ करते थे। उस पर भी अमिताभ बच्चन के लिए दीवानगी। मुझे लगता है इसके लिए वह टेप रिकॉर्डर जिम्मेदार है। थोड़ा अजीब है अमिताभ बच्चन और फिल्मो की दीवानगी के लिए टेप रिकॉर्डर जिम्मेदार पर है तो है। 
बात है सन 79 की है तलवार तीर कमान ले कर कोई  क्रांति नहीं हुई थी पर क्रांति तो हुई थी। झाबुआ जिले के उस छोटे गाँव में रेडियो भी नहीं चलता था तब पापाजी ने टू इन वन खरीदा था और अपने मनपसंद गानों की लिस्ट बना कर कुछ कैसेट रिकॉर्ड करवा ली थीं। उन्हीं में से एक कैसेट में मिस्टर नटवरलाल का गाना था शेर की कहानी वाला।  जिसे पापा रोज़ सुबह से लगा कर हम बच्चों को जगाया करते थे। तो ये पहला परिचय था हमारा अमिताभ बच्चन से उनकी आवाज़ के मार्फ़त। जब वे कहते थे 'लरजता था कोयल की भी कूक से बुरा हाल था उसपे भूख से ' और 'ये जीना भी कोई जीना है लल्लू ' और तभी से वे हमारे मनपसंद हीरो थे। फेवरेट उस ज़माने में ईजाद नहीं हुआ था। 

जब हम लोग इंदौर आये तब कभी कभार टाकीज में फिल्म देखने लगे। अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म कौन सी देखी ये तो याद नहीं पर उससे उनके हमारे दिलो दिमाग पर छाये जादू पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उसी समय उनकी एक फिल्म आई लावारिस। 

हमारा बड़ा मन था लावारिस देखने का जिस आवाज़ को कैसेट में सुनते आये थे उसे बड़े परदे पर अपने सामने सुनने का। सुना था उसमे भी एक गाना अमिताभ बच्चन की आवाज़ में है और वो गाना रोज़ रेडियो पर सुनते थे। स्कूल में कुछ दोस्त देख चुके थे जिसकी जानकारी दोनों भाई देते रहते थे। उससे उनकी दीवानगी में इजाफा ही हुआ था। हमने पापाजी से कहा हमें लावारिस फिल्म देखना है। सुनते ही उन्होंने कहा लावारिस ये कैसा नाम है ? बेकार होगी वो फिल्म कोई अच्छी फिल्म आएगी तब दिखाएंगे। अब क्या कहते थोड़ी बहुत पैरवी की इस दोस्त ने देखी है उसने बताया है पर पापाजी को तो नाम ही पसंद नहीं आया था इसलिए साफ़ इंकार हो गया। 
फिल्म लगे काफी दिन हो गये थे जल्दी ही वह उतरने वाली थी।  एक दिन दोनों भाइयों ने सलाह की हम भूख हड़ताल करते हैं। थोड़ा मुश्किल था लेकिन फिल्म तो मुझे भी देखना थी।  अब भूख हड़ताल कोई चुपचाप तो की नहीं जाती तो बाकायदा टोपी बनाई गई तख्तियाँ बनीं उन पर भूख हड़ताल लिखा गया और पापाजी के आने से पहले हम तीनों भाई बहन बाहर वाले कमरे में पलंग पर बैठ गए। 

जब पापाजी आये छोटे भाई ने नारे लगाये जिसमे हमने साथ दिया 'पापाजी की तानाशाही नहीं चलेगी नहीं चलेगी। ' पापाजी ने एक नज़र हम सब पर डाली और अंदर चले गये मम्मी से पूछा क्या माजरा है उन्होंने बता दिया लावारिस फिल्म देखना है। उन्होंने हमसे कुछ नहीं कहा मुँह हाथ धो कर खाना खाया तब तक हम बीच बीच में चुपके से अंदर झांकते रहे पर वहाँ कोई असर होता दिख नहीं रहा था। क्रांतिकारियों के हौसले पस्त होते जा रहे थे। पेट के चूहों ने उम्मीदों को कुतर दिया था। दो चार नारे और लगे फिर हम इशारों में बातें करके अगले कदम के बारे में विचार करने लगे थे। हमने तो इतनी तैयारीं की थी और हमें अपने आंदोलन की सफलता पर पूरा यकीन था पर हाय री किस्मत। ऐसा पता होता तो कोई अगला कदम सोच कर रखते। खैर थोड़ी देर में अंदर से पापाजी की आवाज़ आई कविता प्रवीण योगेश चलो खाना खा लो और थोड़े बुझे मन से ही सही हमें अपना अगला कदम मिल गया जो किचन की ओर बढ़ रहा था। 

भरे पेट और उम्मीद से खाली हम अपने बिस्तरों पर पड़ गये। 'बुदबुदाते हुए 'ये जीना भी कोई जीना है लल्लू '
फिल्म कल उतर जायेगी आज बुधवार है उस दिन हम ये सोच कर ही स्कूल गए थे। महीना जुलाई का था या अगस्त का ये तो याद नहीं पर उस दिन मूसलधार बारिश हो रही थी। हम स्कूल से वापस आये तो देखा पापाजी घर पर हैं। पापाजी आज आप जल्दी घर आ गये ? 
क्यों हम जल्दी घर नहीं आ सकते क्या ? जल्दी से कुछ खा पी लो और तैयार हो जाओ। 
कहाँ जाना है ? 
कहा न तैयार हो जाओ। 
इशारे से मम्मी से पूछा तो पता चला फिल्म देखने छह से नौ वाले शो में।  फिर क्या था जल्दी जल्दी सब तैयार हो गए पर बारिश इतनी तेज़ थी कि मोटर साइकिल से तो जा नहीं सकते थे। तय हुआ छाता ले कर चौराहे तक जायेंगे वहाँ से ऑटो ले लेंगे। आज तो सब में राजी थे। तेज़ हवा का पानी था कुछ पैदल जाते भीगे कुछ ऑटो में। जब पहुंचे पहला गाना बस ख़त्म ही हुआ था लेकिन अमिताभ बच्चन की एंट्री हमारी एंट्री के बाद ही हुई। टाकीज में पापाजी ने गरमा गर्म कचोरियाँ खिलाई कि ठण्ड ना लगे पर हम तो फिल्म में ऐसे डूबे थे कि काँपते हुए भी परदे से नज़र नहीं हट रही थी। अंदर अमिताभ बच्चन के घूंसे चल रहे थे बाहर जोर शोर से बारिश लौटते में रात नौ बजे सड़के सुनसान हो गई थीं।  दूंढने पर भी ऑटो नहीं मिला तो हमने मार्च पास्ट शुरू किया आखिर को आंदोलन की सफलता के बाद परेड सलामी तो बनती ही है ना। 

(कौन बनेगा करोड़पति के लिए कुछ फोन मैंने भी किये थे पर करोड़ों रुपये जीतने से ज्यादा चाव तो ये किस्सा खुद अमिताभ बच्चन को सुनाने का था। अब जब लग रहा है कोई मौका नहीं बचा तो सोचा लिख ही डालूँ इस किस्से को।)
कविता वर्मा 

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...