Tuesday, June 15, 2010

महेश्वर यात्रा













छुट्टियों में कही जाने का कार्यक्रम नहीं बन पाया तो सोचा चलो एक दो दिन के लिए महेश्वर ही हो आया जाये.वैसे मालवा की गर्मी छोड़ कर निमाड़ की गर्मी में जाना कोई बुध्धिमात्तापूर्ण फैसला तो नहीं कहा जायेगा,पर और कही जाने के लिए सफ़र के लिए ही कम-से-कम २४ घंटे चाहिए,फिर रुकने के लिए समय ही कहा बचा? हमारे पास कुल दो दिन का समय था जिसमे आना-जाना और घर ऑफिस की दिनचर्या से थोडा आराम हमारा लक्ष्य था.इसलिए महेश्वर को चुना.वैसे भी वहा ज्यादा घूमना नहीं था ले दे कर एक घाट ही तो है जहा जाया जा सकता है।
तो हम पहुँच गए महेश्वर। महेश्वर होलकर वंश की महारानी "अहिल्याबाई 'की कर्मस्थली रही है.उन्होंने इंदौर रियासत की बागडोर यही से संचालित की.नर्मदा नहीं के किनारे उनका बहुत साधारण सुविधायों वाला किला बना है.पर उन्होंने यहाँ नदी के किनारे भव्य घाट बनवाये।( हमारे जाने के दो दिन पहले ही किसी फिल्म की शूटिंग के लिए पूरा देओल परिवार यहाँ था)।
दिन तो होटल मे ऐ सी में गुजरा पर शाम को घूमने घाट पर चले गए।वहा शाम की आरती हो रही थी । पंडितजी के साथ कुछ श्रद्धालु आरती और भजन गा रहे थे.कुछ लोग नहा भी रहे थे.पर नहाने के बाद घाट पर दिया जला कर अपनी श्रध्दा समर्पित कर रहे थे। हम लोग भी आरती के ख़त्म होने तक वहा खड़े रहे ,फिर बैठने का स्थान तलाश करने लगे । पत्थर तो गर्म थे पर नदी में पाँव डाल कर बैठना बहुत सुकून दायक लग रहा था।हमारे सामने ही एक परिवार के बहुत सारे सदस्य खाना खा रहे थे,और हम बैठे हुए अनुमान लगाने लगे की गर्मियों की छुट्टियों में सब बहन-बेटियां अपने बच्चों के साथ मायके आयी है और आज यहाँ पिकनिक मनाई जा रही है । घर से लाया खाना ,पानी की बड़ी सी बोतल ,बिछाने के लिए चादर,बर्तन,और ढेर सारी बातें। खाना खा कर बच्चे खेलने लगे पानी में तैरती बड़ी बड़ी मछलियों को देखने लगे,बड़ी उम्र की महिलाये घाट पर घूमने निकल गयी,और बाकियों ने फटाफट सामान समेत लिया। अभी हम उस परिवार की चहल-पहल में ही खोये थे तभी आवाज़ आयी"जय श्री कृष्णा" और हमरी बगल में एक और परिवार आ कर अपनी चादर बिछाने लगा। थोड़ी ही देर में खाने का सामान सज गया । अपने आस-पास नज़र डाली तो पाया की यहाँ कई परिवार है जो अपना शाम का खाना यहाँ आ कर खा रहे है। मन विभोर हो गया इस सहज सरल जीवन शैली को देख कर। दिनभर की तीखी धुप में तो बाहर निकलना संभव नहीं है,शाम को इस छोटी सी जगह में जाये तो कहा जाए ? इसलिए शाम होते ही परिवार की महिलाये बच्चे खाना बना कर नदी किनारे आ कर गपशप करते हुए खाते है और अपनी दुकान या काम से फारिग हो कर घर के पुरुष सदस्य भी यही आ जाते है। एक दो घंटे का समय कट जाता है ,रूटीन से हट कर मन प्रसन्न हो जाता है।
दूसरे दिन शनि जयंती थी ,सोचा जब इतने पावन दिन इस पवित्र नगरी में जीवनदायनी नर्मदा के किनारे है तो क्यों न स्नान किया जाये। घाट पर कपडे बदलने की व्यवस्था संतोषप्रद थीं, सो दूसरे दिन सुबह पहुँच गए नदी किनारे.घाट खचाखच भरे थे,पर कोई चिकचिक नहीं थी ,सभी शांति से जगह मिलाने का इन्तेजार कर रहे थे।ऐसा लग रहा था आज तो सारा महेश्वर ही यहाँ उमड़ आया है। स्नान के साथ लोगो का मिलाना मिलाना ,हालचाल पूछना ,नहा कर साथ लाये लोटे से घाट पर बने शिवलिंग पर जल चढ़ाना ,दीपक लगाना ,सब इतना सुखद लग रहा था,की उसका वर्णन नहीं कर सकती । ऐसा लगा महानगरीय जीवन शैली में जाने कितनी छोटी-छोटी बातों को त्याग कर हम कितनी ही बड़ी-बड़ी खुशियों को अपने जीवन में आने से रोक रहे है । दिन के उजाले में इन भव्य घाटों को देख कर अचम्भित हो गए। उस ज़माने में जब मशीनी सुविधाए नहीं थी ,कैसे बने होंगे ये घाट,कैसे की गयी होगी इनकी परिकल्पना कितना समय लगा होगा इन्हें बनाने में,और कितना संयम रहा होगा उन लोगो में ,ये सोच में ही नहीं समां पाया।
स्नान के बाद घट पर स्थित सहस्त्रबाहु मंदिर दर्शन के लिए गए। यह एक अति प्राचीन मंदिर है जहा सालों से शुध्ध घी के ७ दीपक जल रहे है। यहाँ इन दीपक के लिए घी दान देने की परंपरा है,और यहाँ इतना घी चढ़ावे में आता है .की कई कमरे भरे हुए है।
महेश्वर यहाँ की हाथ की बनी महेश्वरी साड़ियों के लिए प्रसिध्ध है । इन सरियों को हाथ से बने लूम पर बनाया जाता है.जिनकी सुनहरी किनारी अपनी सुन्दरता में बेजोड़ अब घूमने आये और खरीदी न करे ये पत्नीव्रत धर्म के खिलाफ होता है। इसलिए दो साड़ियाँ खरीद कर पतिदेव को उनका धर्म निभाने का पुण्य प्राप्त करने का मौका भी दिया।
इस तरह महेश्वर यात्रा सानंद संपन्न हुई । साथ में कुछ फोटेस है आप अभी इन्ही का आनद लीजिये,और जब भी समय मिले घूम आइये।






Tuesday, June 8, 2010

न्याय........

२ दिसम्बर १९८४ शाम को ५ बजे मम्मी और पास में रहने वाली वैध आंटी के साथ घूमने निकली। सूरज पश्चिम में डूबने को था.आसमान में सुर्ख लाल रंग बिखेर कर आगाह कर रहा था की,पंछियों घर जाओ मुझे जाना है। पंछी भी जैसे सूरज की चेतावनी को समझ कर अपने साथिओं को आवाज़े दे कर तेज़ी से चले जा रहे थे।
मम्मी ने कहा ,कितनी सुंदर शाम है पूरा आसमान लाल हो गया ,"देखो कैसा दिन फूला है"।
आंटी बोली ,हमारी दादी कहती थी ऐसा दिन डूबना अशुभ होता है।
अरे, हम तो समझ रहे थे कितना सुन्दर लग रहा है, मम्मी ने कहा ।
बात आयी गयी हो गई,हम लोग घूम कर कुछ गप्प्पे मार कर वापस अपने -अपने घरो को चले गए।
दूसरे दिन सुबह सामान्य हुई.अपने काम निबटा कर मम्मी आराम कर रही थी, तभी पास वाली आंटी ने आवाज़ दे कर कहा ,:भाभी जल्दी आओ ,वैध भाभी के यहाँ कुछ हो गया।
देखा उनके घर के सामने भीड़ जमा थी.कुछ लोग अंदर थे ,बाहर लोगो से बात करने पर पता चला की कल भोपाल में कुछ हादसा हो गया ,वैध सर वही थे ,उनकी तबियत ख़राब हो गयी है। अभी भोपाल से फ़ोन आया है ,सर के कोलाज में ,वहा से उनके साथियों ने घर आ कर खबर दी । आंटी के कुछ करीबी रिश्तेदार आये है उन्हें भोपाल ले जाने के लिए।
यहाँ आंटी अपने बेटे के साथ रहती थी,अंकल का कुछ दिनों पहले ही भोपाल तबादला हुआ था.उनका बड़ा बेटा कही बाहर रह कर पढ़ रहा है। जब आंटी बाहर आयीं तो सभी ने उन्हें धधास बंधाया ।
सब ठीक हो जायेगा भाभीजी ,आप चिंता मत करो।
उस शाम सूरज भी जैसे आगाह करना भूल गया, बस उदास सा, लालिमा बिखेरे बिना चला गया । लोगो में चर्चा होती रही क्या हुआ होगा, सर तो बिलकुल ठीक थे,वगैरह वगैरह ।
उस समय २४ घंटों के न्यूज़ चैनल्स नहीं होते थे,न ही शाम के अखबार खंडवा जैसी छोटी सी जगह में छपते थे ।
रात ८ बजे के समाचार में पता चला की हादसे की भयावहता क्या है ?पर कौन सी गैस,कितनी नुकसानदेह ये अभी भी समझ नहीं आ रहा था ।
दूसरे दिन अखबारों में छपी ख़बरों ने तो जैसे सब को हिला कर रख दिया। अब सही मायने में सब को वैध सर की तबियत की चिंता हुई।
उस समय मोबाइल जैसे साधन भी नहीं ठ । २-३ दिन बाद किसी लड़के ने कोलेज से ला कर खबर दी ,कि "सर नहीं रहे "।
कोलोनी में सन्नाटा पसर गया ,आंटी की,उनके बच्चो की ,इतनी बड़ी जिम्मेदारियों की चिंता ने सब को व्यथित कर दिया।
१२-१५ दिन बाद जब आंटी वापस आयी ,तब पूरी बात पता चली। अंकल रसायन शास्त्र के प्रोफेसर थे। जब गैस फैली उन्हें उसकी सान्ध्रता का अंदाजा हो गया था। और उसकी मारक शक्ति का भी, पर उन्हें मालूम था की मुह-नाक पर गीला कपडा रखने से इससे बचा जा सकता है। इसलिए वे न सिर्फ उनके परिवार के लोगो को बल्कि हॉस्पिटल में भी और लोगो को मुह पर गीला कपडा रखने की सलाह देते रहे। और बोलने के लिए अपने मुह से गीला कपडा हटाते रहे,और गैस की चपेट में आने से उनकी मौत हो गयी।
इस आकस्मिक आघात से उबरने में आंटी को बहुत समय लगा ,गैस त्रासदी के मुआवजे के रूप में मिलाने वाली रकम उनके बेटों के भविष्य की राह बना सकती थी।
पर आंटी के मन में इस त्रासदी के जिम्मेदार लोगो के लिए जो गुस्सा था ,वह मुआवजे की रकम से ठंडा नहीं हो सकता था।
सालों -साल भोपाल गैस त्रासदी की खबरे पढ़ते रहे ,आन्दोलन होते रहे,दिलासे मिलते रहे ,
"कल मिलेगा न्याय"जब ये शीर्षक पढ़ा तो मन में एक आस बंधी अब आंटी चैन मिलेगा ,उनकी जिंदगी की खुशियाँ छीनने वाले को सजा मिलेगी.शायद और जिम्मेदार लोग इस सजा से सबक सीखेंगे ,और अपने काम के प्रति गंभीर होंगे।
२५ साल के इन्तेजार के बाद जो हाथ आया ,ऐसा लगा अगर ये फैसला आंटी के जाने के बाद आता तो शायद वो इंतजार में ही सही एक आस के सहारे जी तो लेती। इस फैसले के बाद उनके दिल पर क्या गुजारी होगी ......
अब मैं क्या बताऊ आपको........

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...