Friday, December 14, 2012

क्षणिकाएं


आज एक सहेली के आग्रह पर स्कूल के नाटक के लिए कुछ लाइन लिखी थी।।


लड़कियों की शिक्षा 

बेटियां भी है आपकी बगिया की फुलवार 
उन्हें भी है पनपने का पूरा अधिकार। 
उचित देखभाल,भोजन और पढाई 
लड़कियों की उन्नति से ही 
दोनों घरों में खुशहाली है छाई।। 

भ्रूण हत्या 

बाबा मैं भी हूँ तुम्हारा ही अंश 
मानों तो चलाऊँगी तुम्हारा ही वंश। 
करुँगी जग में रोशन नाम तुम्हारा 
न रोको  इस दुनिया में आने से 
पाने दो मुझे भी प्यार तुम्हारा।।


दहेज़ 

ना तौलो मान मेरा सोने-चांदी से 
बड़ी आस से आयी हूँ अपना नैहर छोड़ के। 
अपना लो मुझे अपनी बेटी समझ के
पा जाऊं तुममे मेरे माँ-बाबा प्यारे से। 
बन जाये फिर इक संसार प्यारा प्यारा 
जो हो कीमती हर इक दहेज़ से। 

बाल विवाह 

बचपन के झूले, गुड़ियों के खेल, 
अम्मा की गोदी, सखियों का मेल, 
भाई का प्यार, बाबा  का दुलार, 
सुख की नींद, भोला संसार, 
न छीनो मुझसे करके बचपन में ब्याह 
अम्मा ये है मेरी छोटी सी चाह।। 

Saturday, December 8, 2012

गर्भनाल पत्रिका के दिसंबर 2012..73अंक में मेरा आलेख पेज नंबर 16

http://www.garbhanal.com/Garbhanal%2073.pdf




Saturday, November 17, 2012

जिंदगी



जाने किसमे क्या 
तलाशती है जिंदगी 
एक अनबुझी प्यास सी जिंदगी 
प्यास में भी आस को 
तलाशती है जिंदगी। 

मिले जो राहों में 
ठिठक कर उनका 
साथ चाहती है जिंदगी 
चलते चार कदम साथ उनके 
उन्हें अपना सा ढालना 
चाहती है जिंदगी।

ढले जो मन के अक्स में 
उस पर इठलाती है जिंदगी 
फिर क्यों बदलने की 
शिकायत करती है जिंदगी 

बदलती राहों में 
साथ पुराना चाहती है जिंदगी 
फिर क्यों हर नयी राह  पर 
बदलाव चाहती है जिंदगी 

मेरा नया ब्लॉग  कहानी kahani 
http://kahanikahani27.blogspot.in/

Friday, October 26, 2012

लड़कों में आत्मघाती प्रवृत्ति

आज सुबह का अखबार पढ़ते ही मन दुखी हो गया।मेडिकल फाइनल के एक छात्र ने इसलिए फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी प्रेमिका की सगाई कहीं और हो गयी थी।उस छात्र के जीजाजी जो की खुद मेडिकल ऑफिसर है ने एक दिन पहले उसे इसी बारे में समझाइश भी दी थी लेकिन रात  वह होस्टल के कमरे में अकेला था और उसने इसी अवसाद में फांसी लगा ली।  इसी के साथ एक और खबर थी की मेडिकल के जुड़ा के अध्यक्ष ने दो महीने पहले इसी कारण  की उसकी प्रेमिका की किसी और के साथ शादी हो गयी आत्महत्या की कोशिश की थी और वह अभी तक कोमा में है। वैसे भी आजकल आये दिन अखबार में युवा लड़कों द्वारा आत्महत्या किये जाने की ख़बरें आम हो गयीं हैं।ये लड़के अवसाद की किस गंभीर स्थिति  में होंगे की उनके लिए उनके माता पिता भाई बहन परिवार जिम्मेदारी कोई चीज़ मायने नहीं रखती और वे इस तरह का आत्म घाती  कदम उठा लेते हैं। 

अगर इस बारे में गंभीरता से सोचा जाये तो हमारे यहाँ का पारिवारिक सामाजिक ढांचा इस स्थिति के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। हमारे यहाँ लड़कों को बहुत ज्यादा संवेदनशील न समझा जाता है न उनका संवेदनशील होना प्रशंशनीय बात मानी जाती है। बचपन से ही उन्हें इस मानसिकता के साथ पाला जाता है की तुम लड़के हो तुम्हे बात बात पर भावुक होना या रोना शोभा नहीं देता। इस तरह से एक प्रकार से घर परिवार के लोगों के साथ वे अपनी भावनाएं शेयर कर सकें इस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। लड़के 10-11 साल के होते न होते अपनी बातें घर के लोगों से छुपाना शुरू कर देते हैं।अधिकतर माता पिता को पता ही नहीं होता की स्कूल में या अपने दोस्तों के बीच बच्चा किस मानसिक दबाव से गुजर रहा है। स्कूल में भी लड़कों पर कई तरह के दबाव होते हैं वहां भी कोई परेशानी होने पर उनकी बात उस सहानुभूति के साथ नहीं सुनी जाती जिस सहानुभूति के साथ लड़कियों की बातें सुनी जाती है। उसके साथी लड़के अगर उसे चिढाते है या उसके साथ उसे अच्छी न लगे ऐसी बातें करते है तो वह इस बारे में न घर पर न ही स्कूल में किसी से कह पाता है। इस उम्र में इतनी समझ भी विकसित नहीं होती की अपने दोस्त की सीक्रेट बातें अपने तक रखी जाएँ।इस तरह यदि कोई बच्चा अपने किसी दोस्त को अपने मन की बातें बताता  भी है तो उसका हमउम्र दोस्त उन बातों  को कभी भी सबके बीच उजागर कर के उसे शर्मिंदा कर देता है।और इस तरह लड़कों में अपनी बातें अपने दोस्तों को भी न बताने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। ( फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा  इसका बहुत ही बढ़िया उदाहरण है ). 

थोड़े बड़े होने पर हाई स्कूल तक आते आते जब की लड़कों में बहुत सारे परिवर्तन होने लगते है एडोलेसेंस या वयः संधि के परिवर्तन की जितनी जानकारी लड़कियों को दी जाती है लड़कों को वैसी जानकारी देने के इतने प्रयास नहीं किये जाते हैं। परिणाम स्वरुप वह आधी अधूरी जानकारी या हमउम्र साथियों द्वारा मिली गलत जानकारी के आधार पर इनसे जूझता है। यही वह उम्र होती है जब लड़कों में लड़कियों के प्रति आकर्षण बढ़ता है।ऐसे समय में जब उन्हें उनसे दोस्ती की चाह  होती है ये चाह  एक हमदर्द या संवेदनशील दोस्त की चाह ज्यादा होती है। ऐसे में अगर उन्हें एक लड़की की दोस्ती हासिल हो जाये जो वाकई दोस्ती रखना चाहती हो तो ठीक लेकिन अगर वह लड़की किसी कारणवश दोस्ती न करे या दोस्ती तोड़ दे तो उनपर खुद को एक वयस्क के रूप में साबित करने का दबाव रहता है और सिगरेट शराब पीना ,लड़ाई झगडा करके खुद को एक हेरोइटिक इमेज में दर्शाना, दाढ़ी बढ़ाना स्कूल में नियमों को तोडना,टीचर्स के साथ बदतंमीजी करना ,अनापशनाप गाड़ी चलाना आदि इसी के परिणाम होते हैं। असल में लड़के इस उम्र में खुद को एक वयस्क के रूप में स्थापित करने की जद्दोजहद में होते हैं। 

किशोर उम्र की लड़कियों की जितनी जानकारी उनके घरवालों द्वारा रखी  जाती है की वह कहाँ जा रही है किससे मिल रही है लड़कों के बारे में उतनी जानकारी रखना उनके घरवाले जरूरी नहीं समझते,ऐसे में उसकी किसी लड़की से दोस्ती या दोस्ती की हद समझाने के भी बहुत प्रयास नहीं किये जाते हैं। न ही उनकी दोस्ती टूटने की और उससे होने वाले अवसाद की कोई जानकारी परिवार वालों को होती है।ऐसे समय में लडके के बहुत ज्यादा घर से बाहर होने को दोस्तों की गलत संगत पढाई न करना कमरे में अकेले बैठे रहना कान में एयर फोन लगा कर खुद को सबसे दूर रखने की कोशिश को कोई भी उनके डिप्रेशन से जोड़ कर न देखता है न समझता है।ये मान लिया जाता है की इस उम्र में लड़के ऐसे ही हो जाते है और उम्र बढ़ने पर समझ आने पर संभल जायेंगे। पर कभी कभी बहुत देर हो जाती है। 

परिवार की लड़कों से उनके करियर के बारे में भी बड़ी बड़ी उम्मीदें होती हैं।कई बार माता पिता अपनी उमीदें उन पर थोप देते हैं जिन्हें पूरा करना उनके लिए नामुमकिन दिखता है। लेकिन इस बारे में बात करने पर उन्हें माता पिता की नाराजगी ही मिलती है।उन्हें पढाई करो तो क्या नहीं कर सकते,दोस्तों को छोड़ने टी वी न देखने जैसी ढेरों हिदायतें मिल जाती हैं। 

लड़कों का ये अकेलापन उनकी उम्र की हर स्टेज पर देखने को मिलता है।वे अपने दुःख,अपनी चिंताएं अपने घरवालों से आसानी से शेयर नहीं करते।यहाँ तक की अपनी पत्नी से भी वे कई बातें छुपा जाते हैं।लेकिन जब परेशानियाँ हद से बढ़  जाती हैं तब घर छोड़ कर चले जाना या आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं।आज आये दिन अख़बारों में वयस्क व्यक्तियों द्वारा कर्ज का बोझ बढ़ने या पारिवारिक समस्याओं से जूझने में असमर्थ रहने पर आत्महत्या कर लेने की ख़बरें बहुत आम हो गयीं हैं। 

अब समय आ गया है जब की लड़कों को भी मजबूत भावनात्मक सहारे का एहसास करवाया जाये। 
परिवार,स्कूल में उनकी बातें सहानुभूति के साथ सुनी और समझी जाएँ। 
उनकी संगत ,दोस्ती लड़कियों के प्रति उनके आकर्षण को समय रहते समझा जाये और इस दिशा में उन्हें सही समय पर सही सलाह दी जाये। 
उनके भावुक होने को मजाक में न लिया जाकर उन की परेशानियों को समझा जाये और उन्हें इससे उबरने के लिए उचित सलाह दीं जाएँ। 
किशोरावस्था के परिवर्तनों को समझाने के लिए स्कूल में ,परिवार में उन्हें सही समय पर सही मार्गदर्शन दिया जाये। 
बचपन से ही उन्हें सिर्फ दिखावटी मजबूत होने के बजाय वाकई ऐसा मजबूत बनाया जाये की वे अपनी परेशानियों को अपने परिवार के साथ शेयर करें उसमे झिझकें न .
लड़कों की परवरिश में थोडा सा परिवर्तन कर के हम उनपर पड़ने वाले दबावों को कम कर सकते हैं और ऐसी आत्मघाती प्रवृत्तियों से उन्हें बचा सकते हैं। 

Friday, October 19, 2012

समझा जो होता


समझा जो होता 
मेरी विवशता और 
उलझनों को 
जाना जो होता 
मेरी सीमा और 
बंधनों को 
थमा जो होता 
मेरी ख्वाहिशों और
अरमानों को 
पाया जो होता 
मेरे मन की
गहराइयों को
सोचा जो होता
मेरी धडकनों और
सांसों को
महसूस जो होता
मेरे प्यार और
भावनाओं को
यूं चले न जाते
इक पुकार के इंतजार में
पलटकर देखते तो पाते
ठिठके पड़े शब्द
विवशताओं के उलझे धागे में फंसे।

Tuesday, October 16, 2012

कहानी


कहानी 
चूल्हे पर चढ़ी खाली हांड़ी से 
कुछ दाने पके चावल के 
बच्चे को खिलाते  हुए 
माँ का मन कसमसाया होगा 
भूखे बच्चे को थपक सुलाते हुए 
भरे पेट का एहसास कराने 
कहानी में रोटी को 
चाँद से भरमाया होगा। 

दिला दो नए कपडे माँ 
बेटी की जिद पर 
माँ को गुस्सा आया होगा 
लगा दो चांटे उसे चुप कराया होगा 
फटे आँचल से पोंछते आँसू 
बिटिया को बहलाया होगा 
कात रही है सूत बूढी माँ 
तेरी फ्राक बनाने को 
बेटी को सुलाते हुए ये 
सपना उसके मन जगाया होगा। 

खिलौने,कपडे ,रोटी,मिठाई 
झूले,गुब्बारे,दूध की मलाई 
पूरे न हो सकें जो कभी 
लेकिन बनें रहें उनके ख्यालों में 
ताकि उन्हें पाने की आस में 
बच्चे करते रहें कोशिशें 
ऐसे ही किसी ख्याल ने 
माँ के मन में 
कहानी को उपजाया होगा। 

Wednesday, October 10, 2012

आँगन की मिट्टी



कुछ सीली नम सी
माँ  के हाथों के  कोमल स्पर्श  सी
बरसों देती रही सोंधी महक
जैसे घर में बसी माँ की खुशबू
माँ और आँगन की मिट्टी

जानती है 
जिनकी जगह न ले सके कोई और
लेकिन फिर भी रहती चुपचाप
अपने में गुम
शिव गौरा की मूर्ति से तुलसी विवाह तक
गुमनाम सी उपस्थित
एक आदत सी जीवन की
माँ और आँगन की मिट्टी

कभी खिलोनों में ढलती
कभी माथा सहलाती
छत पर फैली बेल पोसती
कभी नींद में सपने सजाती
कभी जीवन की धुरी कभी उपेक्षित
माँ और आँगन की मिट्टी

उड़ गए आँगन के पखेरू
बन गए नए नीड़
अब न रही जरूरी
बेकार, बंजर, बेमोल
फिंकवा दी गयी किसी और ठौर
माँ और आँगन की मिट्टी।






Tuesday, September 18, 2012

यूं विलुप्त हो जाने देना...



http://lalitdotcom.blogspot.in/2012/09/blog-post_17.html?showComment=1347968550352#क८८६१५१९९४७९१३८६६१९०
ललित शर्मा जी का ये आलेख पढ़ कर आज एक घटना याद आ गयी.स्कूल में महिलाओं का पसंदीदा विषय होता है साड़ियाँ..हंसिये मत ये बहुत संजीदा विषय है और इसकी संजीदगी आपको ये घटना पढ़ कर समझ आएगी.
तो हुआ ये की मेरी एक साड़ी जिसमे बहुत ही खूब सूरत कढ़ाई थी उसका कपडा ख़राब हो गाया.लेकिन उसकी कढाई का कुछ नहीं बिगड़ा .इतना सुन्दर हाथ का काम उसे यूं ही फेंक देने की इच्छा ही नहीं हुई.कई साल तक उसे पेटी में रखे रही फिर एक आइडिया आया क्यों ना इसका काम किसी और साड़ी पर लगा कर इसे फिर नया कर दूं.बस फिर क्या था एक दो सहेलियों से इस बारे में सलाह  की और फिर उस के मेचिंग की साड़ी ढूँढने में लग गयी. जल्दी ही खोज पूरी हुई ओर उस पर काम शुरू हुआ.नया हो कर वह काम खिल उठा  और सबके आकर्षण का केंद्र भी बना.जो भी उसे देखता उस काम की साड़ी की तारीफ किये बिना नहीं रह पता और में भी गर्व से बताती की इसमें क्या समझदारी दिखाई है मैंने.
ऐसे ही एक दिन एक कलीग को जब अपनी कलाकारी बताई तो वह बोली ऐसी ही एक साड़ी मेरे पास भी है कश्मीरी कढ़ाई की . जो कम से कम ५० साल पुरानी है और उसका रेशमी कपडा अब सड चुका है लेकिन उसका कसीदाकारी का काम अब भी ज्यों का त्यों है .एक बार एक कश्मीरी साड़ी सूट बेचने वाले को मैंने वह साडी दिखाई जिससे उसके मेचिंग की कोई साड़ी ले कर उस पर वह काम करवा लूं .साड़ी हाथ में लेते ही वह बोला आप ये साड़ी मुझे दे दो में आपको इसके १०.००० रुपये दे दूंगा.१०,००० सुनते ही मैंने झट से उसके हाथ से वह साड़ी वापस ले ली और पूछा ऐसा क्यों??वह साड़ी बिलकुल गल चुकी थी.उसकी इतनी कीमत भरोसा ही नहीं हुआ.
तो वह बोला हाँ १०,००० क्योंकि ये कश्मीरी काम करने वाले पूरे कश्मीर में सिर्फ दो ही कारीगर थे जिनमे से एक की मृत्यु हो चुकी है और दूसरे इतने बुजुर्ग है की अब वो ये काम नहीं कर सकते है.
आप समझ सकते है कैसे एक बेहतरीन कला यूं ही विलुप्त हो गयी और क्यों उस कला के जानकारों ने इसे अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में नहीं दिया.संभव है उन्हें अपनी कारीगरी से वह संसाधन  नहीं मिले होंगे जिनकी उन्हें दरकार थी इसलिए उन्होंने उसे अगली पीढ़ी को सौप देने के बजाय यूं ही गुम हो जाने देना बेहतर समझा. 

Wednesday, September 12, 2012

सूखी रेत के निशान

उठ कर चल दिए
 मुझे छोड़ कर यूँ 
बिना अलविदा कहे 
दूर तक दिखता रहा 
तुम्हारा धुंधलाता अक्स 
सोचती रही क्या होंगे 
उन आँखों में आंसूं 
या एक खुश्क ख़ामोशी 
जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

बिखरी पड़ी यादों को 
अकेले संभालना है मुश्किल
 एक गठरी में बाँध 
लोटना चाहती हूँ तुम्हे 
कि ये शिकवा ना कर सको 
चुपके से रख लीं मैंने 

रास्ते पर ढूँढती हूँ 
तुम्हारे कदमों के निशान 
लेकिन मिलते है 
सूखे पानी के रेले रेत पर 

आंसुओं के निशान पर चल कर 
यादों कि गठरी लौटाई नहीं जाती 
अब भी सहेजे हुए हूँ उसे 
उस दिन के इंतजार में 
जब तुम आ कर ले जाओगे अपनी यादें 
ओर कौन जाने मेरी यादें 
तुम भी सहेजे रखे  हो अब तक.

Wednesday, September 5, 2012

मन का क्लेश

 ये कविता मेरे भाई योगेश वर्मा ने अपने कौलेज के दिनों में लिखी थी


मन का क्लेश 
समाप्त हुआ अब वह अध्याय
नित-सौरभ-संचन औ' काव्य व्यवसाय 
नूतन से विषयों ने आज किया है मन व्यथित
और प्रिय यायावरी से भी हुआ अब तन थकित 

तब लेखनी में भी हुआ करती थी एक पावन रसधार 
और हम स्वप्नों को बुनते थे लेकर मन के तार| 
क्या कविता महज तुकबंदी थी और गीतों में शेष तान ही था?
 शब्दों का वह खेल भावुक मन का गान नहीं था?

अब भुला चला वो प्रेम स्मृतियाँ -घुटनों पर है सिर रखा 
पर्वत हिलाने में सक्षम मनुष्य हिय बोझ से है थका
अनुभूति गयी,आल्हाद गया,अब अश्रु रह गए शेष!
स्नेह क्षणिक तड़ित था मन में,स्थाई है क्लेश!
 

Saturday, August 4, 2012

असंवेदनशील आस्था

आज एक न्यूज़ चेनल पर शनि को प्रसन्न करने का एक उपाय बताया जा रहा था.१०८ मदार या आंकड़े के पत्तों कि माला बना कर हनुमानजी को चढ़ाई जाये जिससे शनि कि शांति होती है साथ ही हनुमानजी प्रसन्न होते हैं. हमारे देश में भगवान को प्रसन्न करके अपना काम निकलवाने कि मानसिकता बहुत आम है ओर इसके लिए भगवान को चढ़ावे के रूप में रूप में फल फूल,मिठाई मेवे पूजा कि अन्य सामग्री चढाने का आम रिवाज़ है.पता नहीं इस चढ़ावे से भगवान कितने खुश होते है लेकिन इस तरह के कर्मकांडों से प्रकृति को जो नुकसान होता है उसकी पूर्ति सालों में भी संभव नहीं हो पाती. 
समय समय पर इस तरह के नए नए कर्म काण्ड कि हवा चलती है ओर लोग बिना सोचे विचारे उन पर अमल करने लगते हैं फिर चाहे वह गणेशजी को दूध पिलाने कि बात हो या मदार के पत्तों कि माला बनाना ,श्री कृष्ण जी पर १००८ तुलसी पत्र चढ़ाना.
तुलसी के १०८ या १००८ पत्ते रोज़ श्रीकृष्ण जी को चढाने से मनोकामना पूरी होती हो या ना होती हो लेकिन ये तय है कि अगर एक मोहल्ले के ५-७ लोग इस तरह का संकल्प ले लें तो उस मोहल्ले या कालोनी के सभी तुलसी के पौधे उजड़ जाते हैं.क्योंकि पूजा के नाम पर या संबंधों के नाम पर कोई तुलसी तोड़ने को मना नहीं कर पाता .
आजकल जबसे लोग अपनी सेहत के लिए जागरूक हुए हैं और सुबह कि सैर पर जाने लगे हैं तब से फूलों कि तो जैसे शामत आ गयी है. लोग सैर कम करते हैं फूलों कि चोरी ज्यादा करते हैं ओर ये चोरी भी कोई ऐसी वैसी नहीं पूरा डाका डाला जाता है. जहाँ तक हाथ पहुंचे वहां तक से सारे फूल तोड़ लिए जाते हैं बेचारे पेड़ मालिक के भगवान के लिए एक दो भी नहीं छोड़े जाते.सैर के बाद सेहत पता नहीं कितनी बढ़ती है लेकिन थैली में फूलों का वजन लगातार बढ़ता जाता है.सैर के लिए उस रास्ते नहीं जाया जाता जहाँ शुद्ध हवा मिले बल्कि उस रास्ते जाया जाता है जहाँ ज्यादा फूल मिलें. फूलों पर जितना हक आपके भगवान का है उतना ही पक्षियों, तितलियों का भी है.जरा सोच कर देखिये कब से आपने अपने आसपास तितलियों को उड़ते नहीं देखा?ये तितलियाँ फूलों के पराग पर जीवित रहती हैं मधुमक्खियाँ इन्ही से पराग ले कर शहद बनाती हैं फूलों के उजड़ जाने से इनकी संख्या में चिंतनीय कमी आयी है.तितलियाँ तो आजकल देखने को भी नहीं मिलती मधुमक्खियाँ भी लगातार कम होती जा रही हैं.

मालवी में एक कहावत है एक शेत पाडो ना एक गाम उजाडो अर्थात अगर एक मधुमक्खी का छत्ता तोडा जाता है उससे फसलों के परागण में जो कमी आती है वह गाँव कि जरूरत जितने अनाज कि उपज कम कर देती है.   
अभी सावन के महिने में आक या मदार के फूल धतूरे जिस बेरहमी से तोड़े जाते हैं कि इनके फूलों से नए बीज बनने कि प्रक्रिया ही रुक जाती है.पेड़ पौधों पर फूल रहेंगे तब तो उनसे फल और बीज बनेंगे ओर इन बीजों के विकिरण से नए पौधे बनेंगे जिस तेज़ी से स्थानीय वनस्पति कम हो रही है इससे इनपर निर्भर छोटे छोटे जीव जंतु विलुप्त होते जा रहे हैं वो चिंता का विषय है. 
यहाँ तक कि पहले कहीं भी जड़ जमा लेने वाली बेशरम कि झाड़ियाँ (उनका नाम ही बेशर्म शायद इसलिए था कि वो हर जगह उग जाती थीं) भटकटैया,धतूरे,बेलपत्र,लटजीरा, प्याड के पीले फूल यहाँ तक कि बारीक वाली दूब आज दिखाई ही नहीं देते.बेशरम कि झाड़ियों से जो जलावन मिलता था वह अब मिलना बंद हो गया है नतीजा लोग पेड़ ज्यादा काट रहे हैं.
सावन के महिने में लाखों लीटर जल दूध अभिषेक के नाम पर पानी में बहा दिया जाता है ,बेल पत्र के पेड़ उजाड़ दिए जाते हैं. 
हमारे यहाँ धर्म के नाम पर जो ना हो सो कम है . धार्मिक रीती रिवाजों को प्रकृति से जोड़ने का आशय ही प्रकृति के प्रति लोगो को संवेदनशील बनाना था.लेकिन अब ज्यादा धर्म कर्म करने ज्यादा पुण्य पाने कि होड़ में ये संवेदनशीलता कहीं गुम हो गयी है .व्यावसायिकता आस्था पर भारी पड़ती जा रही है लोग ज्यादा पुण्य पाने के लिए ज्यादा चढ़ावे ज्यादा दिखावे कि मानसिकता ले कर पूजा अर्चना करते हैं जबकि भगवान तो भावना के भूखे हैं पूरी श्रद्धा से चढ़ाया गया एक फूल टोकनी भर फूल से कहीं ज्यादा है .तो जरा सोचिये कहीं आप भी तो धर्म के नाम पर प्रकृति के साथ जीव जंतुओं के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं??   


Tuesday, July 17, 2012

प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित दोहन जरूरी है.

आज समाचार पत्र में दो ख़बरें पढ़ीं .दोनों ही ख़बरें अगर सोचा जाये तो बहुत गंभीर चेतावनी देती हैं नहीं तो सिर्फ ख़बरें हैं. 
पहली खबर है नॅशनल जियोग्राफिक सोसायटी के एक सर्वे के बारे में है जो बताती है कि हमारी सनातनी परंपरा के चलते हम भारतीय पर्यावरण को होने वाले नुकसान के लिए खुद को जिम्मेदार मानते हैं ओर अपराधबोध से ग्रस्त होते हैं.१७ देशों में करवाए गए सर्वेक्षण में भारतीय सबसे ऊपर थे.लेकिन इसका दुखद पहलू ये है कि इसके बावजूद भी हम लोगों को इस बात का सबसे कम यकीन है कि व्यक्तिगत प्रयासों से पर्यावरण को सुधारने में मदद मिल सकती है. 

दूसरी खबर ये है कि मध्यप्रदेश कि जीवन दायनी रेखा नर्मदा नदी में रेत कि मात्रा लगातार खनन के चलते कम हो रही है. इसका कारण नर्मदा नदी कि सहायक नदियों पर बनने वाले बाँध कि वजह से नर्मदा के प्रवाह में लगातार कमी आयी है जिससे बलुआ पत्थरों से बनने वाली रेत में कमी आयी है ओर रही सही कसर रेत के अति दोहन से नर्मदा का रेत का भंडार ज्यादा से ज्यादा दो साल ओर चलेगा. ये कहना है खनिज अधिकारी श्री खेतडिया  का.
हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों का अथाह भंडार है.ये संसाधन हैं जल जमीन वन,वनस्पति,खनिज,पेट्रोलियम,सूर्य उर्जा,पवन उर्जा आदि आदि.इनमे से कुछ संसाधन पुन प्राप्त किये जा सकते है जैसे पवन उर्जा ओर सोर उर्जा. लेकिन कुछ संसाधन जैसे खनिज पेट्रोलियम पुन प्राप्त नहीं किये जा सकते. 
आज हम  विकास की  राह पर अग्रसर है .लेकिन इस विकास कि राह पर हम संसाधनों के उपयोग के साथ किस कदर उनका दुरूपयोग कर रहे हैं इस बारे में सोचने कि किसी को फुर्सत ही नहीं है.विकास के नाम पर बेतरतीब कार्ययोजना के चलते संसाधनों का बेतहाशा दोहन किया जा रहा है. आइये नज़र डालें कुछ कार्यों पर ..

सबसे पहले बात करें सीमेंट की .इन्फ्रा स्ट्रक्चर में तेज़ी के चलते पूरे देश में सडकों, पुलों, बहुमंजिला इमारतों का निर्माण कार्य प्रगति पर है जिसमे सीमेंट का उपयोग निरंतर हो रहा है. सीमेंट कंपनियों ने इसके चलते सीमेंट के दामों में वृध्धि भी की है.लेकिन इसके बावजूद भी सीमेंट के संयमित उपयोग की बात कोई नहीं सोचता. इंदौर के बाय को ही लीजिये इसका निर्माण आगामी २५ सालों के लिए हुआ था लेकिन महज ११ सालों में ही इसे उखाड़ कर इसे सिक्स लेन किया जा रहा है.इसमें उपयोग की गयी कांक्रीट उखाड़ने के बाद सिर्फ बर्बाद ही हुई है. इसके साथ ही इसमें इस्तेमाल हुई लाखों टन रेत गिट्टी ओर पानी की बर्बादी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया. क्या हमारे नीति नियंता आगामी २५ सालों के लिए भी कोई योजना नहीं बना सकते?? 
इसी प्रकार बी आर टी एस में बनने वाली सडकों को पहले पूरा बनाया गया ओर अब उन्हें उखाड़ कर उनमे रेलिंग लगाई जा रही है. रेलिंग लगाने के लिए फिर कंक्रीट का इस्तेमाल किया जा रहा है. 

इस तरह लाखों टन सीमेंट का उपयोग कर उसे मिटटी बना कर फेंक दिया जाता है. सीमेंट बनाने में उपयोग होने वाले कच्चेमाल में चूने का पत्थर जिप्सम ओर रेत का इस्तेमाल होता है जो प्रकृति से प्राप्त किये जाते हैं. इस तरह हम आवश्यकता से अधिक खनिज का दोहन कर रहे हैं. सीमेंट कम्पनियाँ जोरशोर से उत्पादन में लगी हैं जैसे सब ख़त्म होने से पहले जितना बन पड़े उपयोग कर लिया जाये. विडम्बना ये है की हमारे यहाँ एक बार खदान लीज पर दे देने के बाद उसके दोहन के लिए कोई रेगुलारिटी एक्ट नहीं है ओर अगर है भी तो मृतप्राय.
बहुमंजिला इमारतों यहाँ तक की व्यक्तिगत स्तर पर बनने वाले मकानों में भी सीमेंट रेत ओर पानी की बर्बादी पर कोई नियंत्रण नहीं है. हमारे यहाँ कोई भी सेल्फ ट्रेनिंग करके मिस्त्री ठेकेदार बन जाता है.इन लोगों को कभी ये सिखाया ही नहीं जाता की ये हमारे संसाधन हैं ओर इनका समझदारी से उपयोग किया जाना चाहिए. अब इनकी कौन कहे हमारे सिविल इंजिनियर तक इस बारे में नहीं सोचते ना ही जिम्मेदार पदों पर बैठे अफसर या नेता. 

इसी तरह निर्माण में काम आने वाली मुरम का बेतहाशा खनन किया जा रहा है जिसके चलते कई पहाड़ियों का तो अस्तित्व ही ख़त्म हो गया है.उनकी जगह या तो सपाट मैदान बचे हैं या गढ्ढे.  

जब भी बड़ी बड़ी मल्टी के लिए नींव की खुदाई होती है उसमे से निकलने वाली मिटटी यहाँ वहां डाल दी जाती है ये मिटटी सड़क पर बिखरती है कचरे के साथ मिला दी जाती है रौंदी जाती है जिससे अंततः मिटटी धूल बन जाती है इसकी जीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है ओर फिर ये किसी काम की नहीं रह जाती. ऐसा लगता है की पूरी पृथ्वी की सतह ही उलट पलट कर दी गयी है.कल तक जहाँ पहाड़ थे आज वहां गढ्ढे है ओर जहाँ मैदान   थे आज वहां मिटटी या कचरे के ढेर. 
मकान के निर्माण में इंटों की बर्बादी में मिटटी की बर्बादी ,कांक्रीट  मिक्स़र  में पानी ओर बचे हुए मॉल की बर्बादी किसी के पास भी इनके न्यायोचित उपयोग के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है. हमारी सड़कों के किनारे उबड़ खाबड़ है अगर उनमे ये बचा हुआ कांक्रीट डाल दिया जाये तो इसका बेहतर उपयोग हो सकता है. लेकिन इतनी सामाजिक जिम्मेदारी उठाये कौन?
भवन निर्माण में बचे हुए फर्शी के टुकडे,पेंट लकड़ी के बुरादे, इंटों के टुकडे ,लोहा लंगड़, पाइप ऐसी ही कुछ चीज़ें है जिनका पुनरुपयोग सुनिश्चित होना चाहिए. 

एक ओर बात जो काफी चिंताजनक है की बड़े बड़े निर्माण कार्यों में बड़ी बड़ी कम्पनियाँ शामिल होती हैं जिनके लिए कार्यस्थल पर बचे छोटे मोटे थोड़े बहुत सामान के लिए कोई परवाह ही नहीं है. अब अगर ये कार्य स्थल किसी गाँव के पास हैं तो गाँव वाले इन्हें उठा कर अपने काम में ले लेते हैं लेकिन अगर किसी शहरी इलाके में हैं तो ये यूं ही सड़क के किनारे पड़े रहते बेकार हो जाते हैं. अगर निर्माण के बाद बचे हुए मटेरियल की ही खैर खबर ली जाये तो उनसे कुछ मकान तो निश्चित ही बन जायेंगे. 

ऐसे ही एक मकान के निर्माण के बाद कुछ रेत बच गयी थी.किसी व्यक्ति ने घर मालिक से अपने मकान के लिए वह रेत ले जाने को पूछा .देख कर ऐसा लगा शायद ८-१० बोरी रेत होगी वहां.लेकिन वह व्यक्ति अपने पूरे परिवार के साथ रेत इकठ्ठी करने में लगातार ४ घंटे लगा रहा ओर उसने कम से कम ६०-७०  बोरी रेत इकठ्ठा की. अब अगर वह नहीं ले जाता तो उतनी रेत जो शायद २-३ कमरे के प्लास्टर के लिए काफी थी वह तो बेकार ही चली जाती. उसने अपने प्राकृतिक संसाधन को बचाने में कितना बड़ा योगदान दिया ये तो सोचेंगे तो समझेंगे. 

कहीं पढ़ा था की ऑस्ट्रेलिया में प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार का नियंत्रण होता है. वहां जमीन का पानी ,जंगल हवा सभी सबके हैं इसलिए कोई भी उन्हें बेवजह इस्तेमाल भी नहीं कर सकता बर्बाद करना तो दूर की बात है. हमारे यहाँ पता नहीं कभी ऐसा कोई कानून बन भी पायेगा या नहीं?खैर कानून बन भी गया तो दूसरे सैकड़ों कानूनों की तरह उसका क्या हश्र होगा ये तो हम समझ ही सकते है. लेकिन क्या हम इतना नहीं समझ सकते की अगर हमने हमारे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग नियंत्रित नहीं किया तो इसका खामियाजा हमारी भावी पीढी भुगतेगी ओर वो भयावह ही होगा. ये हमारी भी नैतिक जिम्मेदारी है की हम हमारी  भावी पीढी के लिए प्राकृतिक संसाधन छोड़ कर जाएँ ओर वे सिर्फ बिजली पानी जंगल या पेट्रोलियम ही ना हों खनिज, वनस्पति,रेत, मिटटी, गिट्टी भी हों. जरा सोचिये.                   

Wednesday, June 13, 2012

ये भी तो जरूरी है



वैसे तो अभी तक स्कूल कि छुट्टियाँ चल रहीं थीं लेकिन स्कूल दिमाग से निकलता थोड़े ही है.बल्कि छुट्टियों में और ज्यादा समय मिलता है स्कूल कि बातें सोचने उन पर नए सिरे से विचार करने का. रोज़ कि पढाई के साथ एक अतिरिक्त जिम्मेदारी टीचर्स पर होती है और वह है किसी टीचर के अनुपस्थित होने पर उसकी क्लास लेना.वैसे तो इस पीरियड में पढाई ही होनी होती है लेकिन बच्चे सच पढ़ना नहीं चाहते.बड़ी मुश्किल से तो उन्हें कोई फ्री पीरियड मिलता है. तो जैसे ही क्लास में पहुँचो पहली ख़ुशी उनके चेहरे पर दिखती है कि चलो आज पढना नहीं है.लेकिन जल्दी ही ये ख़ुशी काफूर हो जाती है जब उन्हें पता चलता है कि ये फ्री पीरियड फ्री नहीं है बल्कि इसमें भी पढना ही है.और सच बताऊ मुझे इसमें बहुत तकलीफ होती है.बच्चों को इस फ्री पीरियड में अपने मन का काम करने की ,अपने दोस्तों से बात करने कि आज़ादी होना ही चाहिए.आखिर ये भी तो सीखने का एक तरीका हो सकता है.अपने दोस्तों से बात करना या उनके साथ बैठ कर अपनी पढाई कि मुश्किलों को हल करना या अपना अधूरा काम पूरा करना या फील्ड में जाना खेलना वगैरह.लेकिन स्कूल में खेलने और लायब्रेरी के पीरियड होते हैं इसलिए और एक्स्ट्रा पीरियड देना संभव नहीं होता. 

वैसे इन पीरियड में में बच्चों से बात करना चाहती हूँ.ये टीचिंग लर्निंग का सबसे अच्छा तरीका है.लेकिन अफ़सोस बच्चे इसमें आसानी से शामिल नहीं होते. उन्हें लगता है कि टीचर उनसे कुछ उगलवा कर उनके खिलाफ ही उपयोग कर सकती है.वैसे भी अविश्वास एक राष्ट्रीय बीमारी हो गयी है.खैर कभी कभी बच्चों को ये भी कहना पड़ता है कि बातचीत में शामिल होना उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा है इस तह मजबूरी में ही सही लेकिन जब बच्चे बातचीत में शामिल होते है तब बहुत आश्चर्यजनक ओर अद्भुत तथ्य सामने आते हैं.कभी बच्चों का डर तो कहीं उनके मन के संदेह सामने आते हैं तो कभी कभी लगता है कि बच्चे सच में बहुत छोटी छोटी साधारण सी बातें भी नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि ये बातें कभी उनके सामने हुई ही नहीं. 
एक दिन ऐसे ही किसी क्लास में हुई चर्चा यहाँ दे रही हूँ..आप खुद ही पढ़िए सोचिये और समझिये कि सच में इस पीढ़ी कि जरूरत क्या है?
टीचर  :  आप लोग दिन भर में इतनी बातें करते हैं कभी सोचते हैं कि इनमे से कितनी बातें ऐसी होती हैं जिनका कोई अर्थ  होता है?
बच्चे:    चुप्पी 
टीचर:   अच्छा कितने लोग हैं जो रात में सोचते हैं कि हमने दिन भर में कितनी और क्या क्या बातें कीं?
बच्चे:    (सिर्फ एक मुस्कान) 
टीचर:  देखिये अगर आपलोग बात नहीं करना कहते तो ठीक है में मेथ्स के सवाल दे देती हूँ.क्योंकि समय बर्बाद नहीं किया जा सकता कुछ तो करना ही है. 
बच्चे:  नहीं मैडम 
टीचर:   अच्छा आपमें से कितने बच्चों को लगता है कि आप अपनी किसी बात से अपने दोस्तों को या साथियों को हर्ट करते हैं?
बच्चे:  (इधर उधर देखते हुए) एक फिर दो फिर तीन चार बच्चे हाथ उठाते हैं?
टीचर:   अच्छा कितनों को हर्ट करने के तुरंत बाद  लगता है कि आपने हर्ट किया है?
         फिर ८- १० हाथ उठाते हैं.
टीचर:   अच्छा कितनों को लगता है कि हमें अपने दोस्त या साथी से माफ़ी मांगनी चाहिए?
           (संकोच से इधर उधर देखते ६ -७  हाथ उठाते हैं)
टीचर :   कितने लोग सच में माफ़ी माँगते हैं?
बच्चे:    एक दूसरे से आँख चुराते हुए २-३ बच्चे हाथ उठाते हैं. 
टीचर:    ये बताइए जब आपको लगता है कि आपने किसी को हर्ट किया लेकिन उससे माफ़ी नहीं मांगी,तो ये बात आपको परेशान करती        है??
बच्चे:   जी मैडम ,परेशान करती है बार बार वो बात ध्यान आती है. 
टीचर:   क्या बात ध्यान आती है और क्या लगता है?
बच्चे:    वो बात याद आती है कि हमने किसी को हर्ट किया या बुरा किया.
टीचर:    तो कितने लोग है जो इस बात को महसूस करने के बाद दूसरे दिन या उसके बाद भी माफ़ी माँगते हैं?
बच्चे:     १-२ बच्चे हाथ उठाते हैं.
टीचर:    चलिए कोई बात नहीं लेकिन इस बात को लेकर उस दोस्त के सामने आने में शर्म आती है या आप उससे बात नहीं करते ऐसा कितनों को लगता है? 
            ( अब तक बच्चों को शायद ये विश्वास होने लगा था कि ये बातचीत हानिकारक नहीं है और मैडम इसका कोई रिकॉर्ड नहीं रख रही हैं. तो वे खुलने लगे)
बच्चे:    लगभग १२-१५ बच्चे हाथ उठाते हैं. 
टीचर:    अच्छा कितनो को लगता है कि अगर तुरंत माफ़ी मांग ली होती तो ज्यादा अच्छा  होता?दोस्ती भी बच जाती और यूं परेशान भी नहीं होना पड़ता?
बच्चे:    हाथ उठाते हैं साथ ही अब एक दूसरे को देखते भी हैं. अभी तक कुछ बच्चे एक दूसरे से आँखे चुरा रहे थे. 
टीचर:   क्या आपको लगता है कि माफ़ी मांगना इतना मुश्किल है?? 
बच्चे:     मैडम शर्म आती है. 
            लगता है मेरा दोस्त क्या सोचेगा? 
टीचर :   अच्छा कितनो  को लगता है कि अगर मेरा दोस्त एक बार सॉरी कह देता तो अच्छा होता.( कई बच्चे हाथ उठाते हैं )
टीचर:    अगर किसी बहुत पुरानी बात के लिए अगर कोई अभी सॉरी कहेगा तो क्या आप माफ़ कर देंगे और फिर से दोस्त हो जायेंगे?
बच्चे:     यस मैडम 
टीचर:    अच्छा ठीक है आप लोग जिसे भी सॉरी कहना चाहते हैं उसे सॉरी कह दीजिये .( ४-५ बच्चे एक दूसरे को आँखों आँखों में सॉरी कहते हैं कुछ अभी भी चुप चाप बैठे टीचर को देख रहे हैं .उनमे अभी भी झिझक है )
टीचर:    ठीक है में आँखे बंद करती हूँ आप अगर किसी से सॉरी कहना कहते हैं तो आपके पास ३ मिनिट का समय है. ( टीचर आँखें बंद करती है और पूरी क्लास में हलचल शुरू हो जाती है.आँखे खोलने के बाद बच्चों के प्रफुल्लित चहरे दिखते हैं.)
टीचर:   आप लोगो को कैसा  महसूस हो रहा है? 
बच्चे:     बहुत अच्छा ,हल्का महसूस हो रहा है.ख़ुशी हो रही है. 
टीचर:    अच्छा क्या सॉरी कहना वाकई इतना मुश्किल था??
बच्चे:     नहीं मुश्किल नहीं था, कुछ ने कहा थोडा मुश्किल था , तो कुछ ने कहा कि मुश्किल तो है लेकिन कह सकते हैं. 
टीचर:     क्या आपको लगता है कि अगर हम तुरंत सॉरी कह दें तो हमारा टेंशन कम हो जाता?
बच्चे:    जी मैडम सॉरी तुरंत कह देने से सच में कम टेंशन होता.
टीचर:   तो क्या अब से आप लोग तुरंत सॉरी कहना अपनी आदत बनायेंगे? लेकिन हाँ किसी को जानबूझ कर हर्ट नहीं करना है कि बाद में सॉरी कह देंगे. 
बच्चे:    यस मैडम अब से हम गलती करते ही तुरंत माफ़ी मांग लेंगे. 

पीरियड ख़त्म होने को है. अब बच्चे बचे समय में एक दूसरे से बात कर रहे हैं वो खुश हैं और मुझे ख़ुशी है कि में उन्हें वह ख़ुशी दे पाई .एक फ्री पीरियड एक सार्थक चर्चा के साथ ख़त्म हुआ.  बच्चों ने कुछ सीखा जो शायद पढाई से ज्यादा जरूरी भी था. 
kavita   वर्मा  


Monday, May 21, 2012

अलीबाग यात्रा २

baiking 
आज सोमवार है सुबह शांत थी जब हम बीच पर पहुंचे ज्यादा भीड़ भाड़ वहां नहीं थी.रविवार सुबह एक अलग नज़ारा वहां देखा था,जो समुद्र में जाने के उत्साह में ध्यान में कम रहा.सुबह सुबह करीब २०-२५ लोगों की टोली हाथ में बेलचे फावड़े लिए झाड़ियों में अटके कागज़ पुलिथीं निकल कर जला रहे थे. ये यहाँ के स्थानीय निवासी थे जो इस बीच से आने वाली पीढ़ी के लिए ना सिर्फ रोज़गार की सम्भावना देख रहे थे बल्कि अपनी प्राकृतिक विरासत को सहेज रहे थे. देख कर अच्छा लगा लेकिन एक विचार ये भी मन में आया की इस काम के लिए हमारे यहाँ सुविकसित तंत्र कब होगा? इतना टेक्स देने के बावजूद भी अगर हर काम हमें ही हाथ में लेना है .क्या सरकारी मशीनरी काम के हिसाब से स्टाफ की नियुक्ति नहीं कर सकती? या नियुक्त लोगो को काम के लिए जरूरी सुविधा मुहैया करवा कर काम की सुनिश्तित्ता नहीं करवा सकती? ये तो अच्छा है की स्थानीय लोग शुरू से जागरूक है अन्यथा यह बीच जल्दी ही मुंबई के जुहू जैसे गंदे बीच में बदल जायेगा. वैसे भी यहाँ का मुख्य बीच अलीबाग बीच की गन्दगी का आलम देख कर उसमे जाने का मन नहीं हुआ था. अलीबाग बीच से अलीबाग फोर्ट ओर जंजीरा किला जाया जा सकता है. 
खैर आज का मुख्य आकर्षण वाटर स्पोर्ट्स थे. लेकिन आज बिटिया का आग्रह था गीली रेत में दूर तक टहलने का. अब इसका आनंद शब्दों में तो नहीं बता पाउंगी ये तो गूंगे का गुड है खा कर ही महसूस किया जा सकता है. घूमते हुए दूर तक निकल गए जब पलट के देखा तब इसका एहसास हुआ. बच्चे लहरों का आना ओर उसके वापस लौटने पर रेत में बनने वाले पैटर्न देख रहे थे .वैसे शायद इस बात पर कुछ विवाद हो लेकिन मुझे तो १००% यही लगता है की लड़कियां ज्यादा सृजनात्मक होती हैं. बस रेत में से सीपियाँ इकठ्ठी करने में लग गयी की इससे कितनी सुन्दर ज्वेलरी बनाई जा सकती है .फिर क्या था वापसी में हमने ढेर सारी सीपियाँ इकठ्ठी कर लीं. 
आज समुन्द्र का मिजाज़ पिछले दिन से कुछ अलग था. लगा लहरें आज की शांति में ज्यादा शोर कर रहीं हैं. बच्चे तो आज की ऊँची लहरों का मज़ा लेने लगे में कहती रह गयी की पहले राइड्स कर लो .सारी राइड्स के लिए बात करके पहले बाइकिंग की गयी. तेज़ गति से पानी में बैक चलाना ओर उठती लहरों से बचते हुए उसे मोड़ना बहुत रोमांचक था. इसके बाद आयी वेलोसिटी जिसमे एक सोफा सा बना था आगे तीन लोगों के बैठने की व्यवस्था ओर पीछे एक के.इस राइड में सबसे ज्यादा मज़ा आया क्योंकि सब एक साथ थे. हाँ पानी में जाने से पहले सबने लाइफ जेकेट पहनी थीं .इसके बाद जब बनाना राइड पर गए तो बीच समुद्र में जाकर वह रुक गयी ओर नाविक ने कहा कूदो. 
क्ययायाया?????बस यही निकाला मेरे मुंह से. अथाह समुद्र, लहराता पानी उसमे कूद पड़ना. 
पानी कितना गहरा है? 
५-१० फीट .(अब ५ या १० इसमें कोई फर्क तो है नहीं.)
मैडम डरो नहीं साथ में लाइफ गार्ड हैं. मैंने पीछे देखा दो लाइफ गार्ड पानी में उतर रहे थे.तब तक धम्म की आवाज़ आयी ओर छोटी बिटिया पानी में. वह लहरों के साथ खेल रही थी.उसे पानी में देख कर पिताजी कैसे रुक सकते थे वह भी तुरंत पानी में कूद गए. ओर फिर बड़ी बिटिया भी. ओर हमारी नाव आगे बढ़ गयी .में तो मुड़ मुड़ कर सबको देखती ही रह गयी. एक चक्कर लगा कर हमने सबको वापस नाव पर चढ़ाया तब जान में जान आयी. जब वापस आये एक बहुत बहुत अद्भुत आनंद  से सब भरे हुए थे. इतने बड़े समुद्र में अथाह पानी के बीच खुद को पाना रोमांचित करने वाला तो था ही बहुत कुछ सोचने ओर समझने वाला अनुभव भी था. ऐसे में अगर कोई बड़ी लहर आ जाती  ?कोई भंवर  पानी में खींच लेती या कोई बहुत छोटा सा ही लेकिन जहरीला समुद्री जीव ही..खैर विचार तो विचार ही है इन्हें  कोई रोक तो नहीं सकता .लेकिन ये तय है की इन्सान अभी भी प्रकृति की विशालता के आगे बहुत तुच्छ है फिर चाहे  वह कितना ही बड़ा  होने  का दंभ भरे. 
हमारे कुछ ही दूर पर एक ओर परिवार था मेरी उस लेडी से कई  बार नज़रें  मिलीं  ओर लगा की वह भी मुझसे  बात करना  चाहती  है .
थोडा  पास  आने पर उन्होंने  पूछा  आप  कहाँ  से आये हैं? 
इंदौर से .
इंदौर  से??इतनी दूर से आप यहाँ समुद्र में नहाने आये हैं?
हाँ क्या करें हमारे इंदौर में समुद्र नहीं है ना.मैंने हँसते  हुए कहा. 
हाँ मेरी आंटी भी कहती है आप  लोगो के लिए कितना बढ़िया  है ना पास  में कभी भी आ  जाओ  
वे लोग पूना से आये थे .
उस दिन भी करीब ३ घंटे  हम वहां    रहे. सच  कहें  जाने का बिलकुल  भी मन नहीं था,लेकिन आज हमें वापस निकलना था .
पूना  हमारा  अगला पड़ाव  था जो यहाँ से करीब १९०  किलोमीटर  दूर है .
तय  हुआ नाश्ता  करके जल्दी निकला  जाये  ओर  खाना कहीं रास्ते में खाया जाये. 
poona expres high way 
अभी  तक गाड़ी पतिदेव ही चला रहे थे. अभी तक के सफर में समय कम था ओर मंजिल दूर इसलिए मैंने भी जिद नहीं की .लेकिन आज तो समय भरपूर था. हम पूना जाने के लिए एक्सप्रेस हाई वे पर पहुंचे ओर गाड़ी मैंने ले ली. इस हाई वे पर गाड़ी की एवरेज स्पीड ८० किलोमीटर /अवर है. थोड़े आगे गए ही थे की लोनावाला घाट प्रारंभ हो गया. घुमावदार रास्ते एकदम खडी चढ़ाई बीच में पड़ने वाली ३ टनल बहुत रोमांचक अनुभव था. करीब ५२ किलोमीटर का घाट चढ़ कर हमने खाना खाया ओर फिर...हाँ जी गाड़ी रोकते समय ही मुझे पता था अब गाड़ी मुझे नहीं मिलेगी लेकिन क्या करें बच्चों को भूख लग रही थी इसलिए गाड़ी तो रोकना ही थी. रास्ते में नया बन रहा सुब्रतो राय स्टेडियम दिखा .हम करीब ४ बजे पूना पहुंचे.दीदी के यहाँ का रास्ता ढूँढने में पसीना छूट गया. पूना इतनी बड़ी सिटी है जहाँ एक ही नाम की कई जगहें है.वो तो भला हो सेल फोन का की हम जीजाजी से लगातार संपर्क में रहे .यहाँ भी हमें कई लोगो से उनकी बात करवानी पड़ी रास्ता समझने के लिए.एक तो वहां सारे रोड वन वे हैं इसलिए एक मोड़ चुके तो आप यूं टर्न के लिए करीब २-३ किलोमीटर आगे पहुँच जाते हैं. 
मुंबई शौपिंग कैंसिल करवाने के बदले बच्चों को पूना में शोपिंग करवाना थी सो शाम को फिर निकल गए. पूना में वैसे तो गर्मी बहुत है लेकिन यहाँ शामे बहुत ठंडी होती हैं.हर सडक के किनारे हरियाली है.शहर की प्लानिंग बहुत अच्छी है ट्राफिक फास्ट है. 
दूसरे दिन सुबह हमें फिर नासिक जाना था त्रयम्बकेश्वर दर्शन करते हुए वापसी. दिन के समय नासिक शहर भी साफ सुथरा दिखा. त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग है यहाँ करीब २५ साल पहले आयी थी तब से अब तक काफी कुछ बदल गया है.हा लोगो की घूमने की इच्छा ,खर्च करने की शक्ति भक्ति सब कुछ .कुछ एक प्रबंधों के साथ मंदिर वही है लेकिन भगवान शासन  तंत्र के आगे बेबस. ये कहें की भगवान तंत्र के बंदी हैं तो भी गलत नहीं होगा.वैसे हमारे सरकारी तंत्र जिस अंग्रेज मानसिकता के साथ जी रहे हैं ओर भारतियों को जिस तरह दोयम दर्जे का समझते है वह कहीं अधिक शोचनीय है शाहरुख़ या आई पी एल के किसी खिलाडी के व्यवहार की चिंता करने से. मुझे तो लगता है हर धार्मिक या दर्शनीय स्थल पर तैनात सुरक्षा कर्मी या स्वयं सेवक को कम से कम एक सामान्य  नागरिक के अधिकार बता कर एक सामान्य  व्यवहार  करने की ट्रेनिंग तो दी ही जानी चाहिए. खैर दर्शन करने के बाद चिलचिलाती धूप में जलते पैरों के साथ गाड़ी में बैठे .बस अब खाना खा कर अगला पड़ाव था वापस अपना घर. 
 मंजिल दूर थी  रास्ते में खाना खाते हुए हम रात २ बजे घर वापस पहुंचे .एक छोटी सी लेकिन सुकून भरी आनंददायी यात्रा पूरी करके. अलीबाग यात्रा २ 

Sunday, May 20, 2012

अलीबाग यात्रा

इस साल छुट्टियों में घूमने जाने का कार्यक्रम बना अलीबाग का .वही समय की कमी इसलिए ज्यादा दूर जा नहीं सकते.अचानक के प्रोग्राम में रिजर्वेशन  नहीं मिलता इसलिए कार से ही जाना तय हुआ.(वैसे भी न रिजर्वेशन की कोशिश की न ट्रेन से जाने का सोचा).बस तय हुआ की शनिवार की शाम निकलेंगे रात नाशिक में रुकेंगे .फिर आगे का कार्यक्रम..
बच्चों ने ट्रेवल xp पर नासिक में सुला वाइनरी देखी थी और उन्हें वहां जाना था. रोमांच इस बात का की हम वो जगह देखेंगे जो ट्रेवल xp पर देखी है .वैसे तो वहा उनका रेसोर्ट भी है लेकिन वहां रुकना बहुत महंगा था. इसलिए नेट पर रुकने के लिए होटल्स ढूँढना शुरू हुआ.और जल्दी ही एक होटल मिल भी गया. फिर अलीबाग की व्यवस्था के लिए ट्रेवल एजेंट के पास गए उसने जो रेसोर्ट बताये वो बहुत ही महंगे थे .लौटते में पूना जाना था वहां कजिन सिस्टर रहती हैं और जिस दिन हमारा कार्यक्रम बना उसी दिन वो लोग भी अलीबाग में थे. जीजाजी ने कहा अरे आप लोगो की आराम से रुकने की व्यवस्था हो जाएगी में एक दो नंबर देता हूँ . बस फिर क्या था बात बन गयी.
तो शुक्रवार शाम हमने अपनी यात्रा शुरू की.नासिक ४३० किलोमीटर था सोचा था रात १२ बजे तक पहुँच जायेंगे. लेकिन AB रोड पर इतना ट्राफिक की गाड़ी की स्पीड  ही नहीं बन पा रही थी. एक तो वीक एंड का ट्राफिक भी था. बिना रुके चलते रहे तब भी रात के २ बज गए. अब होटल ढूंढना बड़ी टेढ़ी खीर थी इतनी रात कोई सड़क पर था भी नहीं .होटल में लगातार बात हो रही थी लेकिन न कोई साइन बोर्ड था न रास्ता सूझ रहा था.एक बार तो लगा की आज रात तो होटल मिलने से रहा. एक तो मराठी नाम इतने मुश्किल थे याद करना ,की बात करते समय हा हूँ कर देते और फिर सड़क गली के नाम भूल जाते.भगवन को याद किया ही था की लूना से एक आदमी आता दिखा. उसे  रोक कर होटल में बात करवाई और फिर उसके पीछे पीछे होटल पहुंचे.उस समय वह व्यक्ति सच में भगवन का भेजा दूत ही लगा.होटल में सब हमारा ही इंतजार कर रहे थे. रात १० बजे से बात हो रही थी और हम पहुंचे रात २:३० पर. लेकिन साफ सुथरा होटल देख कर तबियत खुश हो गयी. बस सामान रखा हाथ मुह धोया और लम्ब लेट हो गए. 
सुला  वाइनरी दिन के ११:३० बजे खुलती है शहर से दूर इस गर्मी में दूर दूर तक फैले अंगूर के बगीचों की हरियाली ने मन मोह लिया. साफ सुथरी क्यारियां तरतीब से फैली बेलें .सुला में पर पर्सन टूर का चार्ज था १५० रुपये जिसमे ४ किस्म की वाइन को टेस्ट करना शामिल था. यहाँ जनवरी  से मार्च के बीच हार्वेस्टिंग सीजन रहता है अभी तो खेत खाली थे.पूरे टूर में हमारे गाइड ने अंगूर तोड़ने उसके संग्रहण से लेकर विभिन्न तरह की वाइन  बनाने की पूरी प्रक्रिया हमें समझाई. उसके स्वाद और रंग के लिए किये जाने वाले ट्रीटमेंट से लेकर बोटलिंग तक सब हमने देखा. फिर हम पहुंचे टेस्टिंग रूम. वहां से बिना परमिट के २ लीटर और परमिट पर ९ लीटर वाइन खरीद सकते थे.जब सुला से बाहर निकले एक नयी जगह नयी चीज़ देखने की संतुष्टि थी. 
आगे का सफर था अलीबाग का जो यहाँ से करीब ३०० किलोमीटर था. खाना खा कर सफ़र शुरू हुआ. हालाँकि रास्ता अच्छा था लेकिन बिना डिवाइडर ओर वीक एंड के ट्राफिक में गाड़ी चलाना वाकई मुश्किल था.बहुत कोशिश करके भी एवरेज स्पीड ५५-६० से ज्यादा नहीं आ पा रही थी. रास्ते में होटल से फ़ोन आया की हम आ रहे है या नहीं?या हमारा रूम किसी को दे दिया जाये. हमने भरोसा दिलाया की नहीं हम आ रहे है और ९ बजे तक पहुंचेंगे. दरअसल अभी तक सिर्फ फोन पर बात हुई थी और हमने कोई डिपोसिट  नहीं दिया था.सारा काम विश्वास पर चल रहा था.वहां भी भाषा की समस्या सामने  आयी. रास्ते  में किसी और से फ़ोन पर बात करवाई तब ढूँढते हुए हम अपने रेसोर्ट पहुंचे. 
अलीबाग पुरानी बस्ती है और वहां के बीच अभी नए नए डेवेलप हो रहे है वहां के  रहवासी अपने पुराने घरों के ही एक हिस्से को तुडवा कर या रिनोवेट करवा कर उसे रेसोर्ट का रूप दे रहे है. ये लोग बहुत प्रोफेशनल नहीं हैं .उन्ही के किचन  में खाना बनता है, जब  हम पहुंचे तो वहां रेसोर्ट के मेनेजर के नानाजी आये हुए थे. वो कहने लगे आपने बहुत देर कर दी. आप लोगों ने कोई डिपोजिट भी नहीं किया था ऐसे कैसे भरोसे पर सामने आये कस्टमर को लौटा दें वगैरह वगैरह. हमारे दो रूम तो बुक थे लेकिन वो अगल बगल में न हो कर अलग अलग मंजिल पर लेकिन आमने सामने थे. खैर वहां का पूरा माहौल घरेलू था इसलिए चिंता नहीं हुई. बेटियों ने झट फर्स्ट फ्लोर  का रूम ले लिया . बस नहा के फ्रेश हुए तब तक खाना लग गया ओर खाना खा कर हम  अगले दिन की प्लानिंग के साथ सो गए . 
देर  रात तक गाड़ियों के शोर सुनाई देते रहे ओर सुबह चार बजे से फिर गाड़ियाँ. आखिर ६ बजे सब उठ ही गए बीच पर जाने को तैयार.समुद्र तो बच्चों ने पहले भी देखा था लेकिन इस बार तय्यारी  लहरों के साथ खेलने की थी. बच्चे तो तुरंत पानी में पहुँच गए और में किनारे पर खड़ी समुद्र की विशालता और उसके सामने इन्सान की...खैर विचार कहाँ पीछा छोड़ते है .
 नागांव बीच अलीबाग का नया विकसित हो रहा बीच है .साफ सुथरा रेतीला किनारा दूर दूर तक फैला है .यहाँ वाटर स्पोर्ट्स भी है तेज़ रफ़्तार से पानी में चलने वाली बाइक, बनाना राइड,वेलोसिटी राइड .अथाह पानी में इतनी तेज़ गति से जाना रोमांचक भी था और डराने वाला भी .थोड़ी देर तो में दूर खड़ी लहरों को देखती रही बच्चों के फोटो लेती रही लेकिन फिर सबने मिल कर मुझे भी पानी में खींच ही लिया. बड़ी छोटी लहरें उनमे डूबना उतराना.लहर आने पर जम्प लगाना .धूप तेज़ थी लेकिन पानी में महसूस नहीं हो रही थी. हम करीब दो घंटे पानी में रहे लेकिन ठण्ड भी नहीं लगी. इसकी बजाय अगर दो घंटे किसी नदी में रहते  तो सब ठिठुरने लगते. उस दिन बच्चों ने बाइकिंग  की जब तक वो पानी में रहे एक पल को नज़रें उन पर से नहीं हातीं.हालाँकि वो इतनी दूर थे की न तो उन तक आवाज़ पहुँच सकती थी न ही कोई मदद. 
nagao beech 
जब समय को पकड़ने की कोशिश न की जाये या उसे किसी सीमा में बांधा न जाये तो वह भी अपने पूरे विस्तार के साथ आपके साथ होता है. हमने जितना भी समय वहां गुजारा वह अपने पूरे विस्तार के साथ हमें मिला न कहीं जाने की हड़बड़ी न कोई काम ख़त्म करने की चिंता. इन २-३ घंटों में जैसे सिर्फ समुद्र का विस्तार लहरों की मौज हमारे साथ थी.जिसके सामने चिंता फिक्र काम सब लहरों के साथ रेत से बह गए थे. मन प्रफुल्लित था इसलिए कोई थकावट नहीं थी .
रेसोर्ट पहुँच कर नहाया नाश्ता किया उसके बाद क्या किया जाये? तभी याद आया आज तो सत्य मेव जयते आने वाला है .बहुत सालों बाद ऐसा लगा जैसे रामायण के युग में ( धारावाहिक ) पहुँच गए हैं. जब ९ बजते ही सब काम धाम छोड़ कर टीवी के सामने बैठ जाते थे. ब्रेक में दिन की प्लानिंग होने लगी. आते हुए हम कल्याण से निकले थे.वहां के मार्केट में खरीदी की बहुत इच्छा थी लेकिन अंजान जगह समय से पहुंचना ही ठीक है ये सोच कर नहीं रुके थे. इसलिए बच्चों का मन था मुंबई जा कर शौपिंग की जाये. लेकिन वहा से ४० कम दूर से फेरी मिलती और वहां तक जाना वो भी सन्डे के ट्राफिक में मन नहीं हुआ. जैसे तैसे उन्हें समझाया की पापा कब से ड्राइव कर रहे है आज उन्हें आराम करने दो  अभी पुणे जाना है वहां देखते हैं.

थकान कोई खास नहीं थी इसलिए ३ बजते बजते सब उठ गए.अब भूख लगी थी रेसोर्ट का मेस तो बंद हो गया था .अलीबाग के एक रेस्टारेंट में खाना खाया और वही से वर्सोली बीच चले गए सन सेट देखने .देर तक रेत में टहलते रहे ओर सन सेट के बाद भी देर तक वहीँ बैठे रहे. भूख कोई खास नहीं थी इसलिए मार्केट से कुछ हल्का फुल्का बेकरी आइटम ले लिया ताकि रात में जरूरत हो तो खाया जा सके. सन्डे  की रात रेसोर्ट पूरा खाली हो चूका था. सड़क बिलकुल शांत थी.थोड़ी देर गपशप करके टी वी देखा फिर अगले दिन किस किस राइड पर जाना है ये प्लानिंग करके सो गए. (क्रमश ) छुट्टी,अलीबाग,यात्रा ,समुद्र  

Thursday, April 26, 2012

खुशियों का खज़ाना.

आज एक शादी में अपनी एक कलीग की बेटी से मिली. नाम सुनते ही वह पहचान गयी अरे आप वही है ना जो ब्लॉग लिखती है.में आपको पढ़ती हूँ .सच कहूँ अभी कुछ समय से लेखन से खास कर ब्लॉग लेखन से एक दूरी सी बन गयी थी.वैसे लेखन जारी है .आजकल कुछ कहानियों पर काम कर रही हूँ.सोचती हु उन्हें ही धारावाहिक के रूप में ब्लॉग पर डालूँ लेकिन खैर ये सब समय की बात है .आज सच में मन हुआ की कुछ लिखू.पता नहीं ऐसा सबके साथ होता है या सिर्फ मेरे साथ .जब भी लेखन की एक विधा छोड़ दूसरे पर जाती हूँ पहली विधा कहीं पीछे छूट जाती है. बहुत दिनों से कोई संस्मरण लिखने की सोच रही थी लेकिन क्या ??
कल अलमारी जमाते हुए एक पुरानी डिब्बी खोल के देखी तो उसमे एक छल्ला निकला.उसे उंगली में डालते मन २५ साल पीछे पहुँच गया .ये छल्ला मेरी बुआ की बेटी का था.बस यूं ही बात करते करते उसकी उंगली से निकाल लिया ओर कह दिया मुझे बहुत पसंद है उसने भी कह दिया तो आप रख लो. जिस प्यार ओर अपनेपन से उसने दे दिया था उसे उतने ही प्यार ओर सम्हाल के साथ मैंने बरसों उंगली में डाले रखा. यहाँ तक की जब उतार कर रखा तब भी उसे अपने प्यार में लपेट कर रख दिया. कल उसे उंगली में डालते हुए मन भीग सा गया. हमने अपनी बहुत सारी बातें एक दूसरे से शेयर की हैं.एक दूसरे को लम्बे लम्बे पत्र लिखते थे जिसमे अपने मन की सारी बाते उंडेल देते थे.मुझे याद है वह हमेशा लिखती थी "ह्रदय की अंतरिम गहराइयों से प्यार"उस समय तो उसे कभी नहीं कहा लेकिनये शब्द सच ह्रदय की उसी गहराई में जाकर उसके प्यार का एहसास करवाते थे.

कभी  कभी चीज़ें छोटी होते हुए भी उनका असर बहुत गहरा होता है. ऐसे ही एक बहुत पुराने डब्बे में एक छोटे से लाल कागज़ में लिपटी रखी है शमी की दो पत्तियां जिन्हें हायड्रोजन पर oxaid में सुनहरा बनाया था .ये मेरी उस सहेली की प्यार की निशानी है जिसके साथ लगभग हर शाम गुजरती थी.बस साथ साथ कहीं घूमना ओर ढेर सारी बाते करना उस साल दशहरे पर में शहर के बाहर थी जब लौटी उसने कहा ये ले तेरा सोना कब से संभाल के रखा है .आजकल के बच्चे जो बाते समस या चाट पर करते है हम वो बाते रूबरू करते थे .उन बातों का असर देखते थे.ओर क्या कहना है क्या नहीं ये सीख जाते थे.समस की बातों से बाते तो होती है लेकिन उससे किसी की भावनाओ को समझने में उतनी मदद नहीं मिलती है ऐसा मुझे लगता है. 
जब में १० वीं में थी मेरे छोटे भाई ने मुझे एक पेन गिफ्ट किया था .सालों लिखते लिखते उसकी निब घिस कर इतनी चिकनी हो गयी थी ओर उससे राइटिंग बहुत बढ़िया आती थी. कई बरसों वह पेन मेरे पास रहा फिर जाने कहाँ गुम हो गया. लेकिन अभी भी जब एक पेन लेने की सोचती हूँ ओर दुकान पर देखती हूँ हर पेन में वही ग्रिप ओर वही स्मूथ्नेस ढूंढती हूँ लेकिन नहीं मिलती तो पेन छोड़ कर बाहर आ जाती हूँ. लेकिन वह पेन मन से नहीं निकल पता ओर उसकी याद पर किसी ओर पेन को हावी नहीं होने देना चाहती. 
ऐसा ही एक तोहफा दिया था पति देव ने. शादी के बाद के वो दिन जब जेब खाली थी एक दिन ऐसे ही कह दिया था मैंने, मेरे पास नेल कटर नहीं है .पता नहीं कैसे जबकि मुझे पता था की एक एक पैसा हिसाब से खर्च करना जरूरी है एक शाम घर लौटते मेरे हाथ पर नेल कटर रख दिया था उन्होंने. कहने को जरूरत की एक छोटी सी चीज़ लेकिन कैसे किया होगा नहीं जानती.आज वो नेल कटर काम नहीं करता लेकिन अगर अपनी तय जगह से जरा इधर उधर हो जाये तो ऐसा लगता है मानों सब कुछ खो गया. इसके बाद अनगिनत उपहार उन्होंने दिए लेकिन वह एक नेल कटर आज भी हाथ में आते मन को भिगो देता है .

ऐसे ही कुछ उपहार बहुत भावनात्मक होते है जो ऐसे संभाल के नहीं रखे जाते लेकिन उनका एहसास कभी मरता नहीं. फिर वो चाहे पहली बार हाथों में हाथ लेना हो या फिर चेहरे पर आये बालों को पीछे कर माथे पर प्यार की मोहर अंकित करना एक छोटा सा हग हो या प्यार भरी पहली नज़र.
जिंदगी की आपाधापी में जब आप थक जाये या सब होते हुए भी मन कहीं उदासी की गलियों में पहुँच जाये एक छोटा सा छल्ला ,एक साड़ी पिन ,किसी के कहे कोई शब्द कोई स्पर्श घर का कोई एक खास कोना या मन के किसी खास कोने में जमा बहुत खास पल ,आपको उन उदासी की गलियों से खींच कर बाहर ले आते है ओर खुशियों की गलियों में मुस्कुराने को विवश कर देते हैं. 

खुशियों का खज़ाना. 

Thursday, April 12, 2012

आफरीन



में आई इस जहाँ में 
बिना तुम्हारी इच्छा या मर्जी के 
अपनी जिजीविषा के दम पर 

सहा तुम्हारा हर जुल्म निशब्द 
पर तोड़ नहीं पाए तुम मुझे 
ये तुम्हारी हार थी.

अपनी हार पर संवेदनाओं का मलहम लगाते तुम 
हंसती रही में तुम्हारी बचकानी मानसिकता पर 
दर्द दे कर कन्धा देने से शायद मिलता हो 
बल तुम्हारे पौरुष को 

माँ के आंसुओं ने विवश किया मुझे 
ओर में कर बैठी विद्रोह 
की क्यों दूं में अपनी मुस्कान तुम्हे 
क्यों रोशन करूँ तुम्हारी जिंदगी 
जो ना कम हो सकी सदियों में 
क्या इससे कम होगी तुम्हारी दरिंदगी 

में अस्वीकार करती हूँ तुम्हे 
धिक्कारती हूँ तुम्हारी हर कोशिश को 
मेरे जाने के बाद 
शायद तुम महसूस कर सको 
कितने आदिम हो तुम 

ओर रखो हमेशा याद 
आई थी में अपने दम पर ओर 
जा रही हूँ अपनी इच्छा से 
तुम जीवित रहोगे जब तक 
मुझे याद रखना तुम्हारी मजबूरी होगी 
पर में तुम्हारी नहीं 
अपनी माँ की स्मृतियों को ले जा रही हूँ 
ओर मेरे साथ हैं माँ के आंसू 
बेहतरीन तोहफे की तरह .


दोस्ती


  आजकल इंडियन आइडल का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमे एक कालेज का लड़का खुद शर्त लगा कर हारता है किसी ओर लडके की आर्थिक मदद के लिए. वैसे तो टी वी पर कई विज्ञापन रोज़ ही आते है लेकिन कुछ विज्ञापन दिल को छू जाते है.खास कर दोस्ती वाले विज्ञापन.अभी कुछ दिनों पहले एक मोबाईल कम्पनी का जिंगल हर एक फ्रेंड जरूरी होता है सबकी जुबान पर था. 
दोस्ती दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता है एक ऐसा रिश्ता जिसमे एक दोस्त दूसरे दोस्त की भावनाओ को, मन की बातों को बिना कहे जान लेता है. जब दोस्त कहे मुझे अकेला छोड़ दो तब उसके कंधे से कन्धा मिला कर खड़ा हो जाता है.ओर जब दोस्त कहे सब ठीक है तब बता ना क्या बात है पूछ पूछ कर सब उगलवा लेता है.
 जब भी इस विज्ञापन को देखती हूँ मन २३ साल पीछे अपने कोलेज की लैब में पहुँच जाता है जब फ्री पीरियड में हम समोसे खाने का प्रोग्राम बनाते थे अब उस समय कोई भी इतना धन्ना सेठ तो था नहीं की सिर्फ अपनी अकेले की जेब से सबको खिला सके .इसलिए पैसे इकठ्ठे होते थे.हमारा एक साथी हमेशा दो लोगो के पैसे मिलता था एक खुद के ओर दुसरे उसके दोस्त जग्गू के .मजे की बात ये थी की हम में से कोई भी जग्गू से पैसे नहीं मांगता था.ओर विपिन के अलावा जग्गू के पैसे देने का किसी ओर को जैसे कोई अधिकार भी नहीं था.जग्गू के पिताजी नहीं थे वह अपनी माँ के साथ रहता था.गाँव में शायद कुछ खेती बारी थी.लेकिन कमाई का कोई ओर जरिया क्या था किसी को नहीं मालूम था. वैसे भी सब कुछ जैसे पहले से तय था.ओर सब इतनी सहजता से होता था की ना हममे से किसी को कुछ कहना होता ना कुछ पूछना. 
लेकिन दोस्ती तो जग्गू ओर विपिन की थी इस तरह की कोई बात उनके बीच नहीं आती थी ओर वो हमेशा बहुत सामान्य रहते थे. ना कभी जग्गू इसके कारण संकोच में रहता ना विपिन में  कोई गर्व की अनुभूति दिखाती.एक गहरी समझ दोनों के बीच थी. 
एक बार हमसे रहा ना गया.उस दिन जग्गू शायद कालेज नहीं आया था .हमने विपिन से पूछा तुम हमेशा जग्गू के लिए इतना करते हो तुम्हारे पास इतने पैसे कहाँ से आते है.ओर वह जोर से हंसा मुझे पता है मेरे पेड़ पर कितने पैसे लगते है बस उतने ही तोड़ता हूँ. 
आज इतने सालों बाद साथ पढ़ने वाले अधिकतर साथी कहीं गुम हो गए हैं लेकिन जग्गू ओर विपिन की वह दोस्ती आज भी मन के किसी कोने में शीतल बयार जैसी है.दोस्ती की ऐसी निश्छल  भावना इतने सालों बाद भी अब तक याद है.आज ये विज्ञापन देख कर उस दोस्ती की याद आ गयी..  

Tuesday, April 10, 2012

मुस्कान से मुस्कान तक

गुलाब की पंखुरियों से होंठों पर
नन्ही किरण सी वह मुस्कान 
आई थी जन्म के साथ 
जन्म भर साथ रहने को.

अपनी मासूमियत के साथ 
बढ़ती रही वह मुस्कान 
पल पल खिलखिलाते इठलाती रही 
होंठों से आँखों तक 
ओर पहुंचती रही दिल तक.

समय के उतार चढ़ावों में 
सिमटती रही करती रही संघर्ष 
किसी तरह बचाने अपना अस्तित्व 

उम्र के तमाम पड़ावों पर 
यूं तो कभी ना छोड़ा साथ 
लेकिन भूली बिसरी किसी सखी ने 
याद किया कुछ इस तरह 
'वह 'जो बहुत हंसती थी 
अब वही चहरे ओर नाम के साथ 
पहचान नहीं आती. 

 पोपले मुंह ओर बिसरती याददाश्त के साथ 
फिर आ बैठी है अपने पुराने ठिकाने पर 
अपने उसी मासूमियत को पाने में 
तमाम उम्र गंवाकर. 

Wednesday, March 28, 2012

एहसास

उस पुरानी पेटी के तले में 
बिछे अख़बार के नीचे 
पीला पड़ चुका वह लिफाफा.

हर बरस अख़बार बदला 
लेकिन बरसों बरस
 वहीँ छुपा रखा रहा वह लिफाफा.

कभी जब मन होता है 
बहुत उदास 
कपड़ों कि तहों के नीचे 
उंगलियाँ टटोलती हैं उसे 

उसके होने का एहसास पा 
मुंद जाती है आँखे 
काँधे पर महसूस होता है 
एक कोमल स्पर्श
 कानों में गूंजती है एक आवाज़ 
में हूँ हमेशा तुम्हारे साथ 

बंद कर पेटी 
फिर छुपा दिया जाता है उसे 
दिल कि अतल गहराइयों में 
फिर कभी ना खोलने के लिए 
उसमे लिखा रखा है 
नाम पहले प्यार का. 

Sunday, March 18, 2012

यूं मन का बागी हो जाना...



आज सुबह स्कूल में टी टाइम में एक कलीग आये ओर कहने लगे मैडम प्रसार भारती तीन दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम कर रहा है वासांसि के नाम से जिसमे कई नामी साहित्यकार आ रहे है.अगर हो सके तो आप भी आइये.कई अच्छे रचनाकारों को सुनने का मौका मिलेगा. अभी दो दिन पहले ही तो मैंने अपनी एक कविता उन्हें सुनाई थी.स्कूल में काम के बीच में अपनी रची दो पंक्तियाँ कभी में कभी वो एक दूसरे को सुना देते है जिससे दिन भर काम के बाद सृजन का उत्साह बाकी बच रहता है. कहने लगे उसके पास तो में आज नहीं लाया लेकिन कल ला दूंगा पर आप आज भी जाइये .इंदौर में साहित्यिक कार्यक्रम होते रहते है जिनमे जाने कि इच्छा कभी अकेले होने के संकोच में तो कभी दूर ,रात का समय या किन्ही ओर कारणों से टल जाता है.फिर भी मैंने कहा जी सर में जरूर जाउंगी. हालाँकि ये भी पूछने का समय नहीं मिला कि कार्यक्रम का स्वरुप होगा कैसा?? बस यूंही कह दिया कि जाउंगी लेकिन तब भी ये ना मालूम था कि चली ही जाउंगी.   

शाम साढ़े छ बजे उन्हें फ़ोन करके पूछा कार्यक्रम कितने बजे से है?जवाब मिला ठीक सात बजे से ओर प्रसार भारती के कार्यक्रम समय से शुरू होते है तो आप ठीक टाइम से पहुँच जाइये.जल्दी से बच्चों को कुछ बना कर खिलाया ओर घर से रवानगी की.गाड़ी स्टार्ट करते ही समझ आ गया की कुछ तो प्रॉब्लम है सामने डेश बोर्ड पर बेटरी ,हैण्ड ब्रेक ,फ्यूल सभी के  सिग्नल आ रहे थे .सात बजने में सिर्फ ५ मिनिट बाकी थे ओर रास्ता लगभग आधा घंटे का था. इसलिए बाकी सब को नज़र अंदाज़ कर गाड़ी आगे बढा दी लेकिन ये क्या जाने कैसी कैसी आवाजें आ रही है हेंडल टाईट चल रहा है ओर कम स्पीड पर गाड़ी बार बार बंद हो रही है. कुछ समझ नहीं आया बस कार्यक्रम में पहुंचना है यही ख्याल दिमाग में था इसलिए ना तो गाड़ी रोकी ना जाने का इरादा टाला. ये अलग बात है की मेन रोड पर गाड़ी खुद ही कई बार रुकी आगे पीछे गाड़ियों के शोर के बीच भी बस एक ही बात कार्यक्रम में पहुंचना है. 
मन में जब कोई छवि अंकित होती है तो उसकी छाप कितनी गहरी होती है ये तो घर आ कर सोचने पर समझ आया. आज से लगभग ३० साल पहले आकाशवाणी इंदौर के एक हास्य कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था. हमारे पडोसी आकाशवाणी  में थे उन्होंने ही निमंत्रित किया था.उस कार्यक्रम के कुछ अंश आज भी दिमाग में अटके पड़े हैं. शायद ये भी एक कारण था की दिमाग जिद्द पर था की जाना ही है. इंदौर की भीड़ भरी सडकों पर शाम के समय यूं एक बिगड़ी हुई गाड़ी चलाना ओर ये भी ना पता हो की उसमे खराबी क्या है या कितनी दूर इससे जा पाउंगी ,मन का बागी हो जाना ही तो था.जो हर तत्पर परिस्थिति को नज़र अंदाज़ कर बस अपने मन की किये जा रहा था जबकि ये भी नहीं पता था की वहां क्या मिलना है या पाना है. बस एक नाम आकाशवाणी ओर सपना किसी साहित्यिक कार्यक्रम में अच्छे वक्ताओं को रचनाकारों को सुनने का मौका. दोनों ही मन के कोने में दबे सपने के सामान है जिन्हें आज पूरा करना था. 
बहुत ज्यादा देर तो नहीं हुई होगी इंदौर के प्रसिध्ध चित्रकार रचनाकार प्रभु जोशी जी का संबोधन चल रहा था .फिर बारी आयी प्रसिध्ध लेखक आयजी की जिन्होंने अपनी कहानी पढ़ी ग्लोब्लाइज़ेशन .एक डायरी के पन्नो को पढ़ते हुए कहानी किस तरह अपने परिवेश तक पहुंची ओर फिर किस तरह अपने सरोकारों को परे झटकती मानसिकता को प्रकट कर गयी.सुनना बहुत अद्भुत अनुभव था. 
प्रसिध्ध कहानीकार महेश कटारे जी का उदबोधन बहुत प्रेरक था जिसमे नयी कहानी से उठते हुए सवाल ओर उन सवालों के जवाबों की ओर सोचने को बाध्य करती सोच की ओर अग्रसर करने की क्षमता होने की बात कही गयी. बहुत सरल शब्दों में उन्होंने कहा की भारतीय कहानी का इतिहास जो मात्र सवा सौ साल पुराना है वो इसका अर्जित  इतिहास है ओर इसके  पहले का इतिहास इसका संचित इतिहास है. जो सूत की कथाओं से शुरू होता है जिसमे कहानी के साथ सोच की वृत्ति को उकेरा गया है .इसीलिए सूत जी ना सिर्फ कहानी कहते हैं बल्कि सामने वाले के मन में प्रश्न भी जगाते है ओर उसका उत्तर ढूँढने को विवश भी करते है.मालवी में कहानी को बात कहते है उन्होंने बहुत खूबसूरत कहावत कही "बात वो जिसमे रात कटे".इसकी व्याख्या करते उन्होंने कहा की जिस बात को कहते सुनते अंधकार छट जाये ओर पो फट जाये उजाले की किरण दिखाई देने लगे वही बात है. उन्होंने कहानी में सही शब्दों के इस्तेमाल पर जोर दिया साथ ही भाषा की सरलता को भी एक आवश्यक अंग बताया. 
सुधा अरोराजी ने अपनी एक बहुत पुरानी कहानी पढ़ी सात सौ का कोट जो कभी धर्मयुग में छपी भी ओर काफी चर्चित रही थी. सुधा अरोराजी की कहानियां पोडकास्ट पर यदा कदा सुनती रहती हूँ ,आज पहली बार उनके मुंह से सुनी. 
फिर बारी आयी समीक्षक राकेश बिहारीजी की उन्होंने कुछ कहानियों का सन्दर्भ लेकर जिस तरह उनकी व्याख्या की कहानियों को पढ़ने समझने का एक नया नजरिया जैसे मिल गया हो. सत्यनारायण पटेलजी की लुगड़े का सपना ,जया जी की खारा पानी ,इन कहानियों में छुपे यथार्थ के साथ एक कसक जो मन में उठती है उसकी चर्चा करते हुए उन्होंने आधुनिक कहानियों में यथार्थ के चित्रण ओर विखंडन को चिन्हित करते हुए इस विखंडन को नयी सोच नयी पहचान का पर्याय बताया. एक कहानी सात फेरे का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपनी बात बहुत खूबसूरती से समझाई. सुधाजी ने अपने उदबोधन में उन्हें दूसरा प्रभु जोशी करार दिया था .उनकी भाषा विचारों पर पकड़ ओर उनका संयोजन अद्भुत है. 

अंत में प्रसिध्ध कहानीकार गोविन्द मिश्रजी ने अपने उदबोधन में कहानी में यथार्थ के साथ सुन्दरता की बात कही.उन्होंने कहा की वीभत्स यथार्थ की बजाय एक आवरण के साथ यथार्थ का चित्रण ज्यादा प्रभावशाली होता है क्योंकि कहानी पाठक के अंतःकरण से जुड़ती है.अपनी बात के समर्थन में उन्होंने मदर  टेरेसा से अपनी बातचीत का जिक्र करते हुए कहा की मदर ने कहा था की आम आदमी इसलिए जीता है क्योंकि वो अपने आसपास सुन्दरता को देखता है.
कुल मिला कर आज के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाती अगर आज जरा भी किन्तु परन्तु सोचे गए होते.ओर अफ़सोस इस बात का रहता की क्या खोया इसका अफ़सोस भी नहीं कर पाती.कल इसी क्रम में उपन्यास पर चर्चा होने वाली है.उम्मीद है कल भी इसमें शामिल हो पाउंगी.ओर हो सका तो उसके बारे में आपको बताउंगी भी. 

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...