मम्मी ,बाल दिवस पर हमें सेवाधाम आश्रम जाना है ,बेटी ने जब आ कर कहा तो मन में एक ख्याल आया,ये स्कूल वाले न पता नहीं क्या क्या फितूर करते रहते है। अब रविवार को सुबह जल्दी उठो टिफिन बनाओ।
जाना जरूरी है क्या?? अपनी सुहानी सुबह को बचाने की एक अंतिम कोशिश करते हुए मैंने पूछा?
हाँ ,हमारा एक टेस्ट इसी पर आधारित होगा,इसलिए जाना जरूरी है।
ठीक है और कोई चारा भी न था,अब तो मार्क्स का सवाल था।
मम्मी ,पता है लोगो के साथ कैसे कैसे होता है। वहा हमें एक १०५ साल की एक बुजुर्ग महिला मिली,जब वो वहा ई थी तब ऐसा लग रहा था की अब बचेगी नहीं,और एक एक औरत और उसका बच्चा तो सूअरों के बीच मिला था।
बेटी ने अपनी यात्रा वृतांत सुनते हुए कहा। वो हतप्रभ थी ,ये जान कर की लोगो के साथ क्या क्या होता है।
और में सोच रही थी अच्छा हुआ स्कूल से उन्हें ले जाया गया ,
ये सिद्धार्थ अब बुद्ध बनने की राह देख चुके है ।
जाना जरूरी है क्या?? अपनी सुहानी सुबह को बचाने की एक अंतिम कोशिश करते हुए मैंने पूछा?
हाँ ,हमारा एक टेस्ट इसी पर आधारित होगा,इसलिए जाना जरूरी है।
ठीक है और कोई चारा भी न था,अब तो मार्क्स का सवाल था।
मम्मी ,पता है लोगो के साथ कैसे कैसे होता है। वहा हमें एक १०५ साल की एक बुजुर्ग महिला मिली,जब वो वहा ई थी तब ऐसा लग रहा था की अब बचेगी नहीं,और एक एक औरत और उसका बच्चा तो सूअरों के बीच मिला था।
बेटी ने अपनी यात्रा वृतांत सुनते हुए कहा। वो हतप्रभ थी ,ये जान कर की लोगो के साथ क्या क्या होता है।
और में सोच रही थी अच्छा हुआ स्कूल से उन्हें ले जाया गया ,
ये सिद्धार्थ अब बुद्ध बनने की राह देख चुके है ।
सार्थक पोस्ट ....बच्चों को इन बातों से भी अवगत होना ही चाहिए .
ReplyDeleteरोचक और सार्थक पोस्ट. 'सिद्दार्थ से बुद्ध बनने ' वाली बाट अच्छी लगी...
ReplyDeleteकविता वर्मा की रचनाएं, विशेषत: लघुकथाएं पढने के बाद यह पहला मत बनता है कि वे मूलत: सकारात्मक सोच में यकीन रखने वाली रचनाकार हैं। यह एक तरह से मौजूदा ढर्रे से हटकर सोचने जैसा काम है। जिस कालखंड में समूचा साहित्यिक जगत मूल्यों के पतन पर चिंता में डूबा है, कविता वर्मा उन मूल्यों को रोजमर्रा जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में ढूंढकर सामने ला रख देती हैं- अरे, मो को कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में- वाली शैली में। दरअसल यह वैसी ही विडंबना है जैसे ऊर्जा के जटिल सूत्र के जनक वैज्ञानिक अपनी बच्ची के गणित का सवाल हल नहीं कर पाते....हम सब कुछ जटिल देखने-सुनने-समझने के आदी हो चले हैं, सामान्य और साधारण बातें हमें कहीं प्रेरित नहीं करतीं। हम उन बातों का शायद नोटिस भी नहीं लेते कि यातायात पुलिस का एक सिपाही किसी भारी ठेले वाले की मदद कर मानवीय मूल्यों को बचा रहा है। केले का छिलका बीच सड़क से उठाकर किनारे कर देने वाले शख्स में हमें कोई संभावना नजर नहीं आती, हम केवल सब कुछ बदल डालने में यकीन करते हैं या कि पूरी तरह व्यवस्था में डूबने में...इसके अलावा कोई अन्य मार्ग भी है, इस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती।
ReplyDeleteकविता वर्मा इन बिखरे कणों में समग्र स्वरूप देख पाती हैं, यह उनकी दृष्टि की सफलता है।
aaj lagbhag 6 saal baad aapki ye tippani fir padhna bahut achchha laga ...bahut bahut abhar
Deleteबहुत अच्छी लगी सिद्धार्थ से बुध बनने की ये छोटी सी यात्रा, बडे मुकाम की ओर बढते हुये। शुभकामनायें
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति !
ReplyDeleteबच्चों को जिन्दगी के जितने करीब रख सकें उतना अच्छा है।
ReplyDelete... saarthak abhivyakti !!!
ReplyDeleteसार्थक रचना. ऐसी घटनाएँ बच्चों को बहुत कुछ सिखा जाती हैं . शुभकामना .
ReplyDeleteबोध चहुँ ओर है। कविता जी, यह चित्र कहाँ का है?
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