Monday, January 23, 2012

एवज़

रोज़ की तरह चंपा ने उठकर खाना बनाया ओर डब्बा साइकल पर टांग दिया नौ बजे उसे काम पर पहुंचना था .माथे पर चमकीली बिंदी ,आँखों में काजल,तेल लगा कर संवारे बाल ओर धुली हुई साडी पहने वह काम पर जाने को तैयार थी. उसके पति भूरा ने एक भरपूर नज़र उस पर डाली तो चंपा लजा गयी. 
ठेकेदार ने भीड़ में खड़े मजदूरों को काम के हिसाब से तौला ओर ज्यादातर ओरतों  को अलग खड़ा कर लिया .बाकियों से कह दिया आज ज्यादा काम नहीं है.  चंपा झट से भूरा के साथ खडी हो गयी ओर ठेकेदार से बोली ये काम पर नहीं होगा तो में भी काम  नहीं करूंगी .
ठेकेदार ने एक नज़र गदराई चंपा पर डाली ओर फिर काम न होने की बात दोहरा दी. चंपा ने काम करने से साफ इंकार  कर दिया तो ठेकेदार ने अनिच्छा से भूरा को काम पर ले लिया.
ईंट उठाती ,माल बनाती,फावड़ा चलाती चंपा पर ठेकेदार की कामुक दृष्टी को भूरा ने भी महसूस किया .तभी ठेकेदार ने चंपा को देख कर अश्लील टिपण्णी कर दी .चंपा ने भूरा की ओर इस उम्मीद से देखा की वह कुछ कहेगा लेकिन भूरा ने तुरंत नज़र फेर ली ओर जल्दी जल्दी फावड़ा चलाने लगा. 
उसे पता था इसी नज़र सिंकाई के एवाज़ में उसे काम मिला है ओर उसे काम की सख्त जरूरत है.


मजबूरी 
आरती ने जैसे ही ऑफिस में प्रवेश किया उसका  बॉस से सामना हो गया. नमस्ते करके वह उनकी नज़रों के सामने से हट जाना चाहती थी लेकिन उन्होंने एक फ़ाइल ले कर तुरंत उनके केबिन  में आने का कह दिया. 
मन ही मन झुंझलाते हुए उसने साड़ी के पल्लू को ठीक होने के बावजूद भी संवारा ओर फ़ाइल ले कर बॉस के केबिन में पहुँच गयी. 
फ़ाइल एक ओर रख कर बॉस करीब आधा घंटे तक उससे अनावश्यक बातें करते रहे.वह उनकी बातों हंसी मजाक में छिपे अर्थों को समझते हुए भी अनजान सी बनी उनकी कामुक दृष्टी को अपने उभारों पर सहती रही. जब बाहर निकली तो तो मन खिन्न था .बॉस से ज्यादा खुद पर गुस्सा आ रहा था वह कुछ कहती क्यों नहीं क्यों चुप चाप सहती है? 
मन में भरे गुबार के साथ घर पहुंची तो बाथरूम में जाकर चेहरे पर लगे धूल पसीने के साथ उस गुबार को भी बहा आयी .
रात में पति के सीने से लग कर उसकी इच्छा हुई की दिल का बोझ हल्का कर ले लेकिन करवट बदल कर उसने इस इच्छा को दबा दिया .
वह जानती थी इस महंगाई में घर की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए उसकी नौकरी कितनी जरूरी है. 

Thursday, January 19, 2012

याद


गली के मुहाने पर
 बंद सा एक मकान 
अपनी खामोश उदासियों 
में भीगा सा 
जाने क्यूँ पुकारता रहा मुझे 
बरसों पहले 
उसके बंद कपाटों से 
आती महक 
तेरा जिक्र होते ही 
फिर छा गयी .

Sunday, January 15, 2012

मकरसंक्रांति

सुबह उठते ही याद आया आज तो मकर संक्रांति है .चलो अब से दिन थोड़े बड़े होंगे ओर इस हाड़ कपाऊ सर्दी से थोड़ी राहत मिलेगी.सबसे पहला ख्याल तो यही आया.सन्डे  की छुट्टी ढेर सारा काम ओर त्यौहार ओर सबसे बड़ी बात काम वाली बाई की छुट्टी.सब काम से निबटते दोपहर हो गयी. वैसे तो आज भी ठण्ड काफी थी तो सोचा चलो थोड़ी देर छत पर धूप सेक ली जाये. रेडियो विविध भारती पर बड़े अच्छे पुराने गाने आ रहे थे उन्हें छोड़ कर छत पर जाने का मन नहीं हुआ ,तो झट मोबाइल में रेडियो लगाया ओर गुनगुनी धूप में ऊपर पहुँच गए. सच कहूँ तो छत पर जाते हुए इस नीरस सी निकलने वाली संक्रांति पर बड़ी निराशा हुई. कहाँ गए वो बचपन के तीज त्यौहार ,उन्हें मनाने के वो तौर तरीके. दादी सुबह से तिल पीस कर उबटन बनाती थी धूप में बैठ कर उबटन लगाते फिर नहा कर भगवान को तिल गुड का भोग लगाते तब कुछ खाने को मिलता था.लेकिन छोटी बिटिया जिसे त्यौहार मनाने का सबसे ज्यादा शौक है वो तो सुबह सुबह ही कोचिंग चली गयी. जब तक लौटी दोपहर हो चुकी थी.फिर काहे का उबटन | 
 छत पर हम तो बातों में मगन हो गए तभी एक कोने में पतंग नज़र आयी |शायद कहीं से कट कर आ गिरी थी| उसके साथ एक छोटी सी डोर भी थी. मन में कुछ खटक गया.डोर तो बहुत लम्बी रही होगी लेकिन मुसीबत में सिर्फ एक छोटी सी डोर ही साथ आयी.वैसे ही जैसे मुसीबत में कुछ ही लोग साथ निभाते है .शेष तो मुसीबत देखते ही दूर हो जाते है. 
अब जब पतंग हाथ आ गयी तो उसे उड़ाने की कोशिश भी शुरू हो गयी.लेकिन कट के आयी पतंग शायद अपने ही ग़मों में इस कदर डूबी थी या दहशत में थी की फिर आसमान की उचाईयों को छूने की हिम्मत न जुटा सकी. थोड़ी देर कोशिश के बाद उसे छोड़ देने में ही भलाई समझी. एक नयी पतंग ओर डोर लाई गयी| आज हवा की तेज़ी ओर रुख अच्छा था.कल तक जो पुरवैया चल रही थी आज पिछुआ चलने लगी .धूप की तरफ पीठ होने से पतंग उड़ना आसान हो गया. पतंग आसमान की उचाईयों को छू रही थी.बहुत देर तक हम पतंग उड़ाते रहे .सब खुश थे पतंग की डोर इस हाथ से उस हाथ जाती रही.
ये क्या एक ओर पतंग हमारी पतंग के पास आ रही है  शायद पेंच लड़ाने,पतंग उड़ रही है ये देख कर ख़ुशी हो रही है.किसी की पतंग काटने ओर पेंच लड़ाने की तो इच्छा ही नहीं है. वैसे भी हर जगह गला काट ही तो मची है.यहाँ तो कम से कम निर्मल आनंद  मिले. 
आसमान की उचाईयों में पतंग कभी कभी खो जाती .लेकिन थी वहीँ डोर से बंधी  हमारे हाथ में. कभी कभी ये भ्रम भी होता की शायद पतंग है ही नहीं. 
बचपन में दोनों भाई दोपहर में सरेस ओर कांच का चूरा ले कर धागे को माँझा करते थे जिससे डोर मजबूत हो ओर पेंच लड़ाने पर दूसरों  की पतंग आसानी से काटी  जा सके. कितनी लगन से ये काम होता था.शायद ये एक ट्रेनिंग थी जो उन्हें जिंदगी में हर काम को धीरज से करना सिखा गयी. आज कल के बच्चों में इतना धैर्य  ओर लगन कम ही देखने को मिलती है. उन्हें तो हर चीज़ तैयार मिलती है. ओर एक दो बार करने पर जो काम नहीं होता उसे छोड़ दिया जाता है. 
अरे ये क्या पतंग के पास से हो कर कई पक्षी ओर चीलें उड़ रही है.डर भी लगा कहीं डोर  की चपेट में न आ जाएँ. कितने ही पक्षियों को डोर  के बिलकुल करीब आ कर रास्ता बदलते देखा. पेड़ ओर जमीन तो हमने हड़प ही लिए है अब आसमान पर भी अतिक्रमण. 
कहीं पढ़ा था अगर आप आसमान पर उड़ते पंछियों को देखें तो मन का अवसाद कम होता है.मुझे याद है पहले शाम छत पर अपने बसेरों को जाते पंछियों के झुण्ड को देखते बीतती थी.लगभग हर घर की छत पर लोग होते थे खास कर लड़कियों के लिए छत से बढ़ कर कोई अन्य सुरक्षित स्थान न था.फिर चाहे बतियाना हो या लंगड़ी,टप्पू या रस्सी कूद हो. आज आसमान पर उड़ती पतंगों को देखते पंछियों को उड़ते देखते मन भी हल्का हो कर आकाश के नीले विस्तार में खो सा गया. कुछ देर को लगा की मन की सारी चिंता ,परेशानी जैसे बहुत ऊंचाई पर उड़ती पतंग से गायब हो गए. 
शाम हो चली थी त्योहार ख़त्म होने को था हमने भी पतंग ओर डोर समेटी .आज का पतंग उड़ाने का ये अनुभव हमेशा याद रहेगा. 
आप सभी को मकरसंक्रांति की शुभकामनायें !!!   

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...