ललित शर्मा जी का ये आलेख पढ़ कर आज एक घटना याद आ गयी.स्कूल में महिलाओं का पसंदीदा विषय होता है साड़ियाँ..हंसिये मत ये बहुत संजीदा विषय है और इसकी संजीदगी आपको ये घटना पढ़ कर समझ आएगी.
तो हुआ ये की मेरी एक साड़ी जिसमे बहुत ही खूब सूरत कढ़ाई थी उसका कपडा ख़राब हो गाया.लेकिन उसकी कढाई का कुछ नहीं बिगड़ा .इतना सुन्दर हाथ का काम उसे यूं ही फेंक देने की इच्छा ही नहीं हुई.कई साल तक उसे पेटी में रखे रही फिर एक आइडिया आया क्यों ना इसका काम किसी और साड़ी पर लगा कर इसे फिर नया कर दूं.बस फिर क्या था एक दो सहेलियों से इस बारे में सलाह की और फिर उस के मेचिंग की साड़ी ढूँढने में लग गयी. जल्दी ही खोज पूरी हुई ओर उस पर काम शुरू हुआ.नया हो कर वह काम खिल उठा और सबके आकर्षण का केंद्र भी बना.जो भी उसे देखता उस काम की साड़ी की तारीफ किये बिना नहीं रह पता और में भी गर्व से बताती की इसमें क्या समझदारी दिखाई है मैंने.
ऐसे ही एक दिन एक कलीग को जब अपनी कलाकारी बताई तो वह बोली ऐसी ही एक साड़ी मेरे पास भी है कश्मीरी कढ़ाई की . जो कम से कम ५० साल पुरानी है और उसका रेशमी कपडा अब सड चुका है लेकिन उसका कसीदाकारी का काम अब भी ज्यों का त्यों है .एक बार एक कश्मीरी साड़ी सूट बेचने वाले को मैंने वह साडी दिखाई जिससे उसके मेचिंग की कोई साड़ी ले कर उस पर वह काम करवा लूं .साड़ी हाथ में लेते ही वह बोला आप ये साड़ी मुझे दे दो में आपको इसके १०.००० रुपये दे दूंगा.१०,००० सुनते ही मैंने झट से उसके हाथ से वह साड़ी वापस ले ली और पूछा ऐसा क्यों??वह साड़ी बिलकुल गल चुकी थी.उसकी इतनी कीमत भरोसा ही नहीं हुआ.
तो वह बोला हाँ १०,००० क्योंकि ये कश्मीरी काम करने वाले पूरे कश्मीर में सिर्फ दो ही कारीगर थे जिनमे से एक की मृत्यु हो चुकी है और दूसरे इतने बुजुर्ग है की अब वो ये काम नहीं कर सकते है.
आप समझ सकते है कैसे एक बेहतरीन कला यूं ही विलुप्त हो गयी और क्यों उस कला के जानकारों ने इसे अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में नहीं दिया.संभव है उन्हें अपनी कारीगरी से वह संसाधन नहीं मिले होंगे जिनकी उन्हें दरकार थी इसलिए उन्होंने उसे अगली पीढ़ी को सौप देने के बजाय यूं ही गुम हो जाने देना बेहतर समझा.