Wednesday, July 26, 2017

दो लघुकथाएँ

जिम्मेदारी 
"मम्मी जी यह लीजिये आपका दूध निधि ने अपने सास के कमरे में आते हुए कहा तो सुमित्रा का दिल जोर जोर से धकधक करने लगा। आज वे पूरी तरह अक्षम हैं कल रात ही खाना खाने के बाद चक्कर आया और वे गश खाकर गिर पड़ीं तो खुद से उठ ही नहीं पाईं। डॉक्टर ने बताया आधे शरीर में लकवा का अटैक हुआ है और वह बिस्तर पर लग गईं। 
पाँच साल पहले बड़े अरमानों से अपने बेटे की शादी की थी और बहू को घर गृहस्थी सौंप कर निश्चिन्त हुई भी नहीं थीं कि निधि ने घर में हंगामा कर दिया था। उसने साफ़ साफ़ कह दिया कि वह अकेले सुबह से शाम तक घर के कामों में नहीं खटेगी। मम्मी को भी बराबरी से काम में हाथ बंटाना होगा। सास बनकर राज करने आराम करने के उनके अरमान धरे ही रह गए। सब्जी काटना बघारना कोई स्पेशल डिश बनाना अचार डालना सब उनके जिम्मे था। निधि हाथ बंटाती थी लेकिन सुमित्रा देवी अपनी किस्मत को कोसती ही रहतीं। और अब तो वे असहाय बिस्तर पर पड़ी हैं पता नहीं क्या क्या दुःख देखने पड़ेंगे ? आज तो पहला दिन है इसलिए बहू दूध लेकर आई है जब वो घर के काम में कोई मदद नहीं कर पाएँगी तब जाने क्या होगा ? कहीं उन्हें घर से बाहर ही तो  ... इसके आगे वे सोच ही नहीं पाईं। 
तब तक निधि ने सहारा दे कर उन्हें बैठा दिया था और उन्हें दवाईयाँ देकर उन्हें अपने हाथों से दूध पिलाने लगी। 
"अब मैं घर के कामों में तुम्हारी मदद नहीं कर आऊँगी आँखों से छलक आये आँसुओं को रोकने की कोशिश करते सुमित्रा ने टूटे फूटे शब्दों में कहा। हाथ जोड़ने की कोशिश की लेकिन दूसरा हाथ उठा ही नहीं। 
"ये क्या कह रही हैं मम्मी ?" आपकी देखभाल करना मेरा फ़र्ज़ है। अगर आप घर के कामों में मदद की बात सोच कर चिंता कर रही हैं तो निश्चिंत रहिये। यह उस समय की बात है जब आप स्वस्थ थीं एकदम सारे काम छोड़ कर निष्क्रिय हो जाना आपके स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा नहीं था और बिना अनुभव के गृहस्थी संभालना मेरे लिये भी मुश्किल । लेकिन अब आपके सिखाये तौर तरीके से मैं सब ठीक से संभाल सकती हूँ। आप बस आराम कीजिये अब वर्तमान के आखेट की जिम्मेदारी मेरी। 
कविता वर्मा   

मेरे नाम 
"भैया इस पेपर पर यहाँ दस्तखत कर दीजिए।" छोटे ने कहा तो सुरेश ने डबडबाई आंखों से धुँधलाती ऊँगली को देखा और अपना नाम लिख दिया। इसके बाद वह खुद पर नियंत्रण नहीं कर सके और फूट फूट कर रो पड़े।
दो दिन पहले की ही तो बात है जब फोन की घंटी बजी सुरेश ने स्क्रीन पर चमकता नाम पड़ा छोटे। नाम पढते ही उसके चेहरे का रंग उड गया। वह तो फोन उठाना भी नहीं चाहते थे लेकिन लगातार बजती घंटी ने मजबूर कर दिया।
"पांय लागी बडके भैया।"
"हाँ हाँ खुश रहो छोटे कैसे हो?"
"हम अच्छे हैं भैया कल दोपहर की गाड़ी से पहुँच रहे हैं। आपकी बहू और बच्चे भी आ रहे हैं। बस यही खबर देने के लिये फोन किया था। कल मिलते हैं। पाय लागी।"
दिल के किसी कोने में छोटे भाई के आने की खुशी ने उछाह भरा लेकिन मकान जमीन के बँटवारे के संदेह ने उसे कुचल दिया। कुर्सी पर निढाल होते सुरेश ने आवाज लगाई "अरे सुनती हो कल छोटे आ रहा है बहू बच्चे भी आ रहे हैं जरा रुकने का इंतजाम कर लेना।"
"अब क्या होगा क्या मकान जमीन का हिस्सा दे दोगे? आधी जमीन तो बाबूजी पहले ही बेच चुके हैं। फिर अपना गुजारा कैसे होगा? निर्मला ने चिंता जताते हुए कहा।
"अब आने तो दो फिर देखते हैं क्या होता है? "
" और कब तक देखते रहोगे तुम्हें उन्हें आने से ही मना कर देना था। रामदीन काका का बेटा शहर गया था तब छोटे भैया ने साफ साफ तो कहा था कि अगली बार आएंगे तो मकान जमीन का फैसला करेंगे। अगर छोटे भैया ने अपनी जमीन बेचने का कहा या तुमसे पैसे मांगे तो कहां से लायेंगे अपना ही गुजारा मुश्किल है।" कहते कहते निर्मला रुंआसी हो गई।
छोटे के आने से घर में रौनक तो आ गई लेकिन संशय का बादल घुमडता रहा। और आज जब छोटे वकील के साथ घर आया और कागज पर दस्तखत करवाये तब भी सुरेश कुछ कह नहीं पाये। छोटे ने कहा "भैया मैं तो नौकरी के कारण कभी गाँव में नहीं रहूँगा इसलिए यह जमीन मकान सब आपके नाम कर दिया है बस आपके दिल में मेरी जगह को मेरे ही नाम रहने देना।"
कविता वर्मा  

Friday, July 21, 2017

बिना मेकअप की सेल्फियाँ


फेसबुक पर दो दिनों से महिलाओं की बिना मेकअप की सेल्फियों का दौर चल रहा है। यह तो पता नहीं यह ट्रेंड कब और किसने शुरू किया लेकिन दो दिनों में कई महिलाओं ने बिना काजल बिंदी लिपिस्टिक के अपनी फोटो खूब शेयर की। इनमे से कुछ ने इसमें कुछ लॉजिक सोचा होगा या शायद कुछ विचार किया होगा लेकिन अधिकतर ने सिर्फ खुद को टैग किये जाने के कारण ही ऐसा किया। सोशल मीडिया में लोगों ने आभासी दुनिया के परे भी बेहतरीन संबंध बनाये हैं जहाँ कुछ बातों और अभियानों में बहुत सोच विचार विरोध तर्क वितर्क की आवश्यकता नहीं होती। चूँकि टैग किया गया है इसलिए कर दो क्या हर्ज है? आखिर हर बाल की खाल निकलना जरूरी भी तो नहीं। 

वहीँ कुछ लोगों ने इसे स्त्री स्वतंत्रता से जोड़ा इसे स्त्री सशक्ति करण की ओर एक कदम बताया। मानों मेकअप न करना बिंदी काजल लिपिस्टिक ना लगाने भर से कोई महिला सशक्त हो जाएगी। तो कुछ ने सौंदर्य प्रसाधन के करोड़ों रुपयों के बाजार पर ही खतरा महसूस कर लिया। कुछ ने खुद पर जीत बताया कि बिना मेकअप खुद की फोटो डालने की हिम्मत की और मेकअप को खुद की पहचान बनाने से बाहर निकल आये। हम जो हैं वो दिखें। शब्द कम और बात गहरी है। कितने लोग हैं जो है वो ही दिखते हैं। असली मुखौटा तो हम कभी उतार ही नहीं पाते थोड़ी देर के लिए बिंदी काजल भले उतार दें। किसी के कहने पर किसी को दिखाने के लिए उसके बाद फिर वापस। 

सुन्दर दिखने की चाह आदिम है फिर स्त्री हो या पुरुष सभी खुद को सदा से सुन्दर दिखने की चाह रखते हैं। ये बात अलग है कि स्त्री के श्रृंगार समय के साथ परिष्कृत होते गए जबकि पुरुषों के कुछ समय के लिए मिट गए थे। पहले पुरुष भी रोली टीका लगा कर घडी अंगूठी गले में चेन कान में इत्र का फाया रख कर ही घर से निकलते थे लेकिन तब भी उनके लिए यह आवश्यक नहीं था जैसा कि स्त्री के लिए। लड़कियों के लिए सूने माथे या सूनी कलाई रहना अच्छा नहीं माना जाता था और विवाहित महिलाओं के लिए तो सौभाग्य के और भी ढेरों प्रतीक थे जिन्हें पहनना अनिवार्य था। धीरे धीरे यह श्रृंगार बंधन बनने लगा। मौसम दिनचर्या रहनसहन के बदलाव तो कारण थे ही स्त्री स्वतंत्रता के पैराकारों ने भी इन्हें बंधन करार दिया। और फिर यह शारीरिक से ज्यादा मानसिक बंधन हो गया। यहाँ रेखांकित करने वाली बात यह है कि सुन्दर दिखने की खुद को सजाने की चाह ख़त्म नहीं हुई। वह तो बल्कि और ज्यादा बढ़ी हाँ उसके तरीके बदल गए। टेटू पियर्सिंग बालों को हाई लाइट करना ट्रेडिशनल या फंकी ज्वेलरी लम्बी सी मांग भरना या छोटा सा सिन्दूर कभी बिंदी के साथ कभी बिंदी के बिना। मतलब चाह तो वहीँ रही बस अब वह बाजार के रुख के अनुसार अपना रुख बदलने लगी। 

श्रृंगार उसमे भी सुहाग चिन्हों की अनिवार्यता जरूर ख़त्म हो गई लेकिन उनके प्रति ललक स्वाभाविक रूप से बनी रही। मार्किट में बिंदी कुमकुम के नए नए प्रकार आज भी आ रहे हैं चूड़ियों का मार्केट लाखों करोड़ों का हो गया है। चाँदी के पायल बिछुए का स्थान अन्य मेटल ने ले लिया है। त्यौहार और शादियों के सीजन में इनका करोड़ों का कारोबार होता है। यह बेहद स्वाभाविक है और खुद की मर्जी से ही तो है। असली हासिल तो यही है कि जो किया जाये वह अपनी मर्जी से हो किसी दबाव या जोर जबरजस्ती से नहीं।  

कामकाजी महिलाएं जरूर वक्त की कमी से सुविधा के चलते श्रृंगार से दूर हुई हैं लेकिन यह उनकी मर्जी है ना की किसी के कहने से या दबाव से वे ऐसा करती हैं। फिर भी खुद को व्यवस्थित सुरुचि पूर्ण तो वे भी रखती हैं। कभी कभी काम की आवश्यकता या खुद के शौक के लिए भी महिलाएँ श्रृंगार के लिए समय निकल लेती हैं। वहीँ पुरुष भी अब अपने रखरखाव सजने संवारने को पर्याप्त समय देने लगे हैं। पुरुष प्रसाधन की बड़ी रेंज मार्केट में है साथ ही एक्सेसरीज की भी कई वैरायटी हैं। क्रीम जेल परफ्यूम डीयो सभी श्रृंगार के साधन ही तो हैं। 

एक बात और भी है रोज़मर्रा के जीवन में हम कितना मेकअप करते हैं ? काजल बिंदी क्रीम बहुत ज्यादा तो लिपस्टिक वह भी बाहर आनेजाने पर। दो चार दिन के ऐसे अभियान के लिए फोटो खिंचाते दो पाँच मिनिट बिना मेकअप के कितना बाजार डाउन हो जायेगा ? जो इसे स्त्री सशक्तिकरण का बड़ा पड़ाव साबित किया जा रहा है। 

लब्बोलुआब यह है कि ऐसे अभियान क्या वाकई कुछ हासिल करते हैं या यह सोशल मीडिया के शिगूफे हैं जो लोगों को इस पर सक्रिय बने रहने के लिए उकसाते रहते हैं। याद करिये सोशल मीडिया पर थोड़े थोड़े समय अंतराल पर ऐसे अभियान चलते रहते हैं और हम उकताए लोग कुछ करने के लिए कर जाते हैं और दो दिन बाद वही हो जाते है जो वास्तव में हैं। 

खैर बगैर मेकअप की सेल्फियाँ भी दो तीन दिन धूम मचा कर समय के अंधकार में खो जाएँगी। कुछ लोग दिमागी कसरत करेंगे कुछ अपने तर्कों से जीत हार दर्ज करेंगे। लेकिन यह तथ्य तो रहेगा ही कि महिलाओं ने फोटो खिंचाने के लिए मेकअप किसी के कहने से छोड़ा अपनी मर्जी से नहीं। तो फिर कहाँ आ गए हम ?
कविता वर्मा 

Saturday, July 8, 2017

सहेजें इन पारंपरिक पद्धतियों को

अच्छी वर्षा की मौसम विभाग की भविष्यवाणी के बाद भी मध्यप्रदेश के पश्चिमी हिस्से में बारिश नदारद है। किसानों ने इसी भविष्वाणी के चलते और मानसून पूर्व की अच्छी बारिश को देखते हुए खेत में बीज बो दिए थे , नगर निगम ने तालाब खाली कर दिए थे और अब आसमान से बादल पूरी तरह नदारद हैं। 
पहले किसानों की हड़ताल फिर प्याज़ की खरीदी ना हो पाने से सड़ता हुआ प्याज़ और अब बीज का ख़राब हो जाना किसानों पर चौतरफा मार है। जिनके पास पानी है वे तो फिर भी किसी तरह अपनी फसलों को जीवित रखने की कोशिश में लगे हैं लेकिन जिनके पास पानी नहीं है वे दुबारा बीज खरीदने को विवश हैं। 
बीते कुछ वर्षों में बारिश तो ठीक ठाक हुई है लेकिन जब मौसम विभाग ने बताया उस समय नहीं। 
आज जबकि आधुनिक तकनीक सेटेलाइट के द्वारा अंतरिक्ष से मौसम पर नज़र रखी जा रही है ऐसे समय में ज्यादा सटीकता की उम्मीद करना चाहिए लेकिन लगातार नाउम्मीदी ही मिल रही है। ऐसे में क्या समझा जाये तकनीक गलत है या इन तकनीकों से मिलने वाले डाटा को सटीक तरह से पढ़ने उसका विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिक अधिकारी नहीं हैं ?

कुछ सालों पहले तक किसान मानसून के लिए गाँव के बड़े बुजुर्गों के द्वारा प्रकृति के सूक्ष्म निरिक्षण आधारित भविष्यवाणियों पर निर्भर रहते थे। टिटहरी का जमीन पर अंडे देना आसमान में भूरे बादलों का होना , पक्षियों का व्यवहार पढ़ना और समझना आदि। कालांतर में वह ज्ञान धीरे धीरे विलुप्त होता जा रहा है .नयी पीढ़ी में इसे ग्रहण करने की इच्छा नहीं है और पुरानी पीढ़ी का अपनी उपेक्षा के चलते उसे अपने तक सीमित रखना मुख्य कारण है। लेकिन इस सब में नुकसान तो सभी का है। 
कृषि अधिकारी जो आसानी से इन बुजुर्गों तक पहुँच सकते हैं उन्हें इन प्राकृतिक संकेतों को उनसे सीखने की जरूरत है। सेटेलाइट से मिले डाटा और इन प्राकृतिक संकेतों को सम्मिलित करके सटीक भविष्यवाणी कर देश और किसान हित में काम किया जाना चाहिए साथ ही भारत की प्राचीन तकनीक और ज्ञान को सहेजने की आवश्यकता है। 

अभी कुछ समय पहले एक आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास जाने की जरूरत पड़ी। डॉक्टर ने मौखिक रूप से लक्षण पूछे और दवाइयाँ लिख दीं। याद करिये पहले एलोपैथी डॉक्टर भी आपकी नब्ज देखते थे स्टेथोस्कोप से धड़कन सुनते थे आँखों की जीभ की जाँच करते थे। आयुर्वेद तो पूरी तरह नाड़ी परीक्षण पर निर्भर था और सुबह जल्दी खाली पेट वैद्य नाड़ी देखते थे और मरीज के बताने के पहले ही उसके शरीर की अनियमितता और उनकी जड़ को पकड़ लेते थे। अब यह कला और ज्ञान भी लुप्त होता जा रहा है। एक प्रसिद्द आयुर्वेदिक दवा की दुकान पर किसी अच्छे नाड़ी वैद्य के बारे में पूछा तो जवाब मिला आजकल नाड़ी परीक्षण करने वाले वैद्य तो नहीं के बराबर रह गए हैं हम तो लक्षण के अनुसार दवा दे देते हैं। तो क्या अब नाड़ी परीक्षण की यह प्राचीन भारतीय विद्या लुप्त होती जा रही है ? क्या इसे सहेजने की आवश्यकता नहीं है ? आयुर्वेदिक कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को क्या यह विधा नहीं सिखाई जा रही है या वे बाज़ारवाद का शिकार होकर इसे दरकिनार कर पैथोलॉजी टेस्ट करवाकर बीमारी को पकड़ कर खुद का कमीशन बनाने के लिए इसे छोड़ रहे हैं? 

आधुनिक तकनीक के साथ ही अपने समृद्ध ज्ञान और तकनीक को संरक्षित किये बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता। अपने आसपास देखेंगे तो पाएंगे कि भारत की समृद्ध परंपरा की कई ऐसी प्राचीन पद्धति विलुप्ति के कगार पर हैं। जरूरत है समय रहते इन्हें संरक्षित और प्रोत्साहित करने की। 
कविता वर्मा 


Friday, June 30, 2017

अवतरण 
नर्मदा पर बने बाँध के किनारे जल महोत्सव की खबर सुन कर रामधन ने वहाँ जाने का मन बना लिया। नर्मदा मैया के किनारे तो पीढ़ियाँ गुजर गईं यह मैया का नया अवतार है उनके दर्शन से कैसे चूके। लगे हाथ दो डुबकी भी लगा लेंगे पुण्य मिलेगा। जब से गाँव छोड़ कर शहर आये हैं तीज त्यौहार अमावस पूनो स्नान के पुण्य से वंचित हो गए। शहर के पाप संचित होते जा रहे हैं। इतवार को जाने का तय किया पत्नी ने कहा सब्जी पूरी बना कर रख लेते हैं तो रामधन ने झिड़क दिया। नरमदा जी के किनारे महोत्सव में खाने के भंडारे चल रहे होंगे उस प्रसादी को छोड़ कर तू घर की सब्जी पूरी खायेगी। बच्चे सुनकर खुश हो गए लेकिन पत्नी का मन नहीं माना उसने रात में ही पाँच सात रोटी बना कर रख ली कि सुबह चाय के साथ खा लेंगे। 
बच्चे सुबह बिना आवाज़ लगाए ही उठ गए फिर नहा कर जायें या नरमदा में ही डुबकी लगायें पर बहस छिड़ गई। जाने में देर हो रही थी तय हुआ आधे घंटे में जो नहा लें ठीक बाकी पुण्य कमा लेंगे। पत्नी और बेटी अच्छे दिखने की चाह में नहा लीं दोनों लड़के नदी में मस्ती करने और रामधन पुण्य के लालच में नहीं नहाये। 
सभी मोटर सायकल पर सवार हो गए कपड़ों के झोले में पत्नी में बासी रोटी कागज में लपेट कर छुपा दीं। बूंदी भजिये के नाश्ते के लालच में किसी का मन नहीं था खाने का। पक्की सड़क पर तो मन उमंग से चलता रहा पर टूटी फूटी सिंगल रोड ने पेट के चूहों को जगा दिया। बच्चों ने भूख राग शुरू कर दिया। रास्ते में धूल उड़ाती बड़ी बड़ी गाड़ियों को जाते देख रामधन आशंकित हो गया। गाँव में नर्मदा किनारे ऐसी बड़ी बड़ी गाड़ियाँ तो कभी नहीं आती थीं। शहर के लोगों के आने का मतलब बहुत ही बड़ा मेला या शहरों में पाप या पापियों का बढ़ जाना। इसका एक मतलब यह भी था कि जलमहोत्सव खूब महंगा होगा। 
रामधन ने सड़क किनारे ठेले पर गाड़ी रोक कर सबको पोहे जलेबी का नाश्ता करवा दिया रोटियाँ झोले में कसमसाती रहीं। गाड़ी बहुत दूर रोक कर धूल भरे रास्ते पर तेज़ धूप में पैदल चलते रामधन को कई  बार अंदेशा हुआ कि कहीं वे गलत जगह तो नहीं आ गए। नर्मदा किनारे की हरियाली बड़े बड़े पत्थर खेत कुछ भी तो नहीं था वहाँ। बैलगाड़ी वाले दस दस रुपये में ले जा रहे थे उसने दो छोटे बच्चों को बैठा दिया। बैलगाड़ी की सवारी के पचास रुपये देने को उसका गंवई मन तैयार नहीं हुआ। 
रास्ते में लगे छोटे छोटे तंबू ने फिर उसे ढाढस बंधाया कि यहाँ भी गाँव खेड़े के लोग आये हैं बेचारे तंबू में रात काट रहे हैं। सबकी टिकिट लेकर बड़े से दरवाजे से अंदर जाते हुए उसे अपने जैसा आदमी गेट पर दिखा तो उसने पूछ लिया ये एक जैसे तंबू गाँव वालों के लिए सरकार ने लगवाये हैं इनमे रुक सकते हैं ?
एक रात का किराया सुन उसकी साँस रुक गई और वह अपने जैसे दिखने वाले गार्ड की विद्रूप हंसी से खुद को बचाता अंदर घुस गया। मैया के विशाल अवतार को देख श्रद्धा से उसने सिर झुका लिया लेकिन हैरान था वहाँ कोई स्नान नहीं कर रहा था। नदी में बड़े बड़े जहाज खड़े थे जिनकी भव्यता उसे पानी का स्पर्श करने से रोक रही थी। 
छोटी बड़ी नावें जहाज की सवारी का टिकिट देख कर उसका महीने का बजट लहरों पर हिलोरे लेने लगा। उसने मायूसी से पत्नी की तरफ देखा। पत्नी ने इतने गहरे पानी और इतनी तेज़ नाव में बच्चों को बैठाने से मना करते हुए वहाँ से तुरंत चलने को कहा। बच्चे भुनभुनाये और रामधन उन्हें समझाता रहा कि पानी कितना गहरा है। 
ऊँची दिवार पर चढ़ना या मोटे मोटे पहियों वाली गाड़ी के तीन चक्कर चार सौ रुपये में लगाना उसके बस के बाहर था। वह लोगों को सब करते देखता रहा और मन ही मन उनकी कमाई का हिसाब लगाने की कोशिश करता रहा जो भूखे पेट असंभव लग रहा था। 
नाश्ते में कुछ चीज़े उसकी चादर पर रखा सकती थीं कुछ बच्चों की मायूसी देख पत्नी ने आँखों ही आँखों में पैरवी की। रामधन ने भी सोचा यह खर्चा तन से लगेगा। चार अलग अलग चीज़ों का आर्डर देकर वह रेस्टॉरेंट से बाहर निकल आया। एक बार चक्कर लगा कर वह भंडारे वाली जगह खोजना चाहता था। उसने और पत्नी ने आधा आधा डोसा खाया और देर होने का हवाला देकर बच्चों को लेकर बाहर आ गया। 
नर्मदा मैया के नए अवतरण से वह हैरान था उसने फिर भी तसल्ली की एक सांस ली मानों किसी आधुनिका को बहुत पास से देख लिया हो और गाड़ी सड़क किनारे गुमटी पर रोक चाय का आर्डर देते पत्नी से कहा झोले से रोटियाँ निकाल ले वापस ले जाकर क्या करेगी। 
कविता वर्मा 

Friday, June 9, 2017

संवेदना तो ठीक है पर जिम्मेदारी भी तो तय हो


इतिहास गवाह है कि जब भी कोई संघर्ष होता है हमारी संवेदना हमेशा उस पक्ष के लिए होती हैं जो कमजोर है ऐसा हमारे संस्कारों संस्कृति के कारण होता है जो करुणामय है और जो हमेशा कमजोर और शोषक के प्रति कोमल भाव रखती है। यहाँ मसला चाहे स्त्री पुरुष का हो या मजदूर जमींदार का , दलित स्वर्ण का हो या जनता और सत्ता। हमेशा सबल दोषी और निर्बल शोषित होता है ऐसा हम मानते हैं। 
समय के साथ जब कई वर्जनाएं टूट रही हैं तब क्या ऐसा नहीं लगता कि इन स्थितियों का भी दुबारा आकलन करने की जरूरत है ? आज जब भारत विकास के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ चला है तब भी गरीब शोषक की अपनी स्थिति को अपनी ढाल बनाना और अवसरवादियों को इस ढाल का अनुचित उपयोग करने देना आखिर किसके लिए फायदेमंद है ? 
मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन की शुरुआत तो हुई थी महाराष्ट्र के किसानों की कर्जमाफी की मांग को समर्थन देने से जो कब खुद के आंदोलन और खुद की कर्ज माफ़ी में बदल गईं पता ही नहीं चला। आज से तीस चालीस साल पहले जब किसानों को सशक्त बनाने के लिए बैंकों से लोन देने की शुरुआत हुई थी तब इसका मकसद उन्हें जमीदारों और साहूकारों के ब्याज के चुंगल से मुक्ति दिलाना था। उस समय किसानों की हालत वाकई बेहद दयनीय थी। साहूकारों से लिया गया कर्जा पीढ़ियों तक चुकाया नहीं जा पाता था क्योंकि किसानों का अनपढ़ होना ब्याज के चक्रव्यूह में फँसना और साहूकारों की दबंगई के कारण अपनी बात ना कह पाना मुख्य वजह थी। उस समय खेती पूरी तरह मौसमी बारिश पर निर्भर थी इसलिए एक फसल बिगड़ने का खामियाज़ा पीढ़ियाँ भुगतती थीं। 
बैंकों से लोन मिलने से किसान इस दबंगई से मुक्त हो सके लेकिन कर्ज तो कर्ज ही है। बैंक से कर्ज मिलने पर सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते ब्याज से तो मुक्ति मिली ही मौसम या अन्य किसी कारण से होने वाली फसलों की बर्बादी के समय सरकारों ने सदाशयता दिखते हुए किसानों का कर्ज माफ़ किया। कृषि विभाग के सतत प्रयासों सिंचाई उन्नत बीज खाद कीटनाशक की उपलब्धता और इस दिशा में होने वाले शोध के कारण प्रति एकड़ किसानों की आय में भी इजाफा हुआ। 
मध्यप्रदेश के मालवा अंचल में जहाँ अभी किसान आंदोलन अपने चरम पर है जो उग्र होकर हिंसक हो गया है वह खेती का सबसे समृद्ध इलाका कहलाता है। मंदसौर नीमच अफीम की उपज का इलाका है तो देवास अपनी काली मिट्टी के कारण सोयाबीन जैसी नकद फसल का इलाका है। यहाँ के किसानों की आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर मैंने खुद पिछले तीस सालों में देखा है। गाँवों में कुछ बहुत छोटे किसानों को छोड़ दें तो अधिकतर पक्के मकान हैं। हर पुरुष सदस्य के पास अपनी मोटर बाइक घर में एक कार या बड़ी गाड़ी और घर में टीवी फ्रिज जैसी आधारभूत जरूरतों के साथ ए सी कूलर भी लगभग हर घर में हैं। 
हाँ इन घरों से जो चीज़ें लुप्त हुई हैं वे चौंकाने वाली हैं। बड़े किसानों के यहाँ अब गाय भैंस बैल हल नहीं हैं। खेती के पूरक इन जानवरों को सुविधा के नाम पर घर से बेदखल कर दिया गया है। खेती के लिए ट्रेक्टर का उपयोग होता है इसलिए बैल अब सर्वथा अनुपयोगी हो गए हैं। स्वाभाविक है इससे खेत में बुआई की लागत में बढ़ोत्तरी हुई है। 
घर में जानवरों के ना रहने से घर में बनने वाली गोबर खाद का स्त्रोत ख़त्म हो गया है और किसान पूर्णतः रासायनिक खाद पर निर्भर हैं। रासायनिक खाद पर सरकार सब्सिड़ी देती है जिसका  छोटे बड़े सभी किसान फायदा उठाते हैं लेकिन फिर भी खाद खरीदना तो पड़ती ही है। इस तरह कृषि उपज की लागत बढ़ जाती है। 
फसल की कटाई ज्यादातर हार्वेस्टर से होती है जो पंजाब से मध्य प्रदेश आते हैं लिहाजा उनकी प्रति एकड़ कीमत भी ज्यादा होती है। 
पहले किसानों के घर छोटे होते थे लेकिन उनमे कृषि उपज रखने के कोठे जरूर होते थे जिनमें बीज और सही समय और सही कीमत मिलने तक फसल स्टोर की जाती थी। अब उपज खेत से सीधे मंडी पहुँचती है। एक ही समय में मंडी में ज्यादा उपज पहुँचने का फायदा बिचौलिये और व्यापारी उठाते हैं और समर्थन मूल्य से कम कीमत पर उपज खरीदते हैं। किसान चूँकि ट्रेक्टर या ट्रक का भाड़ा देकर मंडी पहुँचता है और उसके पास अपनी उपज रखने का कोई स्थान नहीं होता इसलिए जो भाव मिले उसी पर बेच कर जाना उसकी मजबूरी हो जाती है। 
किसान को तुरंत पैसे की जरूरत इसलिए भी होती है ताकि वह बैंक का कर्ज चुका सके। वह कर्ज जो उसने वह बीज खरीदने के लिए लिया जो उसके खेत में उपज रहा था। वह खाद खरीदने के लिए लिया जो वह घर में बिना लागत घर में बना सकता था। कीटनाशक का अंधाधुंध प्रयोग कर कृषि लागत बढ़ा कर कर्ज की राशि बढ़ाई जाती है क्योंकि इन पर सब्सिड़ी मिलती है। 
किसी वर्ष मानसून या मौसम की बदमिजाजी के कारण फसल ख़राब होती है इससे किसानों का नुक्सान होता है लेकिन हर वर्ष करोड़ों रुपये राहत के नाम पर बँटते हैं बैंक से कर्जे माफ़ होते हैं कुछ केस में वाकई फसल ख़राब होती है लेकिन फिर भी मंडी में पहुँचने वाली उपज की मात्रा में कितनी कमी आती है अगर इसके आंकड़े जुटाए जाएँ तो परिणाम हतप्रभ कर देंगे। 
मध्यप्रदेश में बिजली की उपलब्धता काफी अच्छी है। लगभग पच्चीस वर्ष पहले किसानों को सिर्फ रात में बिजली मिलती थी और कड़ाके की सर्दी में वह रात में सिंचाई करने को मजबूर था। लेकिन अब गाँव के किसान प्रतिनिधि से पूछ कर बिजली सप्लाय का समय सुनिश्चित किया जाता है और यह समय बदलता रहता है। किसान की फसल की जरूरत के अनुसार कम समय के लिए सिंचाई हेतु कनेक्शन मिल जाता है जो बिजली की लागत से कम दर पर होता है। 

यह सर्वविदित है कि कृषि आय पर इनकम टैक्स नहीं लगता। अर्थात किसानों की जो भी आय होती है वह पूरी तरह उनकी होती है। छोटे किसानों से लेकर बड़े बड़े किसानों तक की आय पर कोई टैक्स नहीं लगता और समान सब्सिडी या कर्ज माफ़ी भी मिल जाती है। जबकि आम मध्यम वर्ग उच्च वर्ग की आय पर टैक्स तो लगता ही है बैंक से लिए गए किसी भी कर्ज के लिए किसी भी हालत में कोई राहत नहीं मिलती। 
मान लीजिये किसी मध्यम वर्गीय नौकरी पेशा व्यक्ति ने बैंक से मकान बनवाने के लिए कर्जा लिया और उसी समय परिवार में किसी का स्वास्थ्य ख़राब हुआ और इलाज पर काफी खर्च हो गया या घर मालिक की मौत हो गई तो क्या उसका कर्जा माफ़ होता है ?
दरअसल हम आज भी अपने दिमाग में बनी दीन हीन किसान की छवि को अनावश्यक रूप से बनाये हुए हैं। हो सकता है सुदूर कहीं कुछ प्रतिशत किसान ऐसे होंगे और उनके उत्थान के लिए सरकार और किसान संगठनों को आगे आना भी चाहिए। उन्हें कर्ज और सब्सिड़ी मुहैया करवाना भी चाहिए लेकिन ऐसा किसान अपनी उपज को सडकों पर बर्बाद नहीं करता। ऐसा किसान अनावश्यक खुद को कर्जे में नहीं डुबोता। 
हम मानते हैं कि किसान हमारा अन्न दाता है। अपने भोजन के लिए हम उसपर निर्भर हैं और इसके लिए हमें उसका आभारी होना चाहिए। हम आभारी हैं भी लेकिन इसके बावजूद भी वह देश का नागरिक है और देश के प्रति, जिस प्रकृति से वह अपना जीवन यापन कर रहा है उसके प्रति उसका भी कर्तव्य है। क्या किसान अपना कर्तव्य निभा रहा है ? क्या हमने कभी किसान के कोई कर्तव्य निर्धारित भी किये हैं ? हम अनावश्यक करुणा उंडेल कर खुद को महान बनाने के चक्कर में देश के एक बड़े तबके को उनके कर्तव्य से परे रख कर देश का भला तो नहीं ही कर रहे हैं। 

देश में एम्प्लॉयमेंट के अवसर कृषि क्षेत्र से खिसक कर उद्योग की तरफ आ गए हैं। उद्योग फैक्ट्री फर्म जिनमे स्माल एंड मध्यम इंटरप्राइजेज (SME) और माइक्रो स्माल एंड मीडियम इंटरप्राइजेज (MSME) ९५% तक एम्प्लॉयमेंट दे रहे हैं। वहीँ कृषि क्षेत्र में एम्प्लॉयमेंट के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। जब उद्योगों को लीज पर जमीन और अन्य सुविधा उपलब्ध करवाई जाती हैं तब बहुत हल्ला होता है। सरकार को अमीरों की कठपुतली तक बताया जाता है जबकि इन्हीं सब्सिड़ी के साथ ये उद्योग नौकरी के अवसर देने के लिए बाध्य होते हैं। 
किसानों को भी सरकार कई सब्सिड़ी देती है लेकिन क्या उनके लिए एम्प्लॉयमेंट देने की कोई बाध्यता है ? किसान खेती के कामों से मानव श्रम को मशीनों से विस्थापित करते जा रहे हैं जिससे गाँवों में काम की कमी के चलते मजदूरों का शहरों में विस्थापन हो रहा है और कृषि उपज की लागत बढ़ रही है। 

सिंचाई के लिए नहर से पानी पहुँचाया जाता है। जहाँ नहर नहीं हैं वहाँ ट्यूब वेल हैं। प्रकृति का दोहन करने वाले छोटे बड़े किसान भी इस की पूर्ती करने के इच्छुक नहीं होते। क्या जल संवर्धन के लिए प्रति एकड़ कोई जमीन का हिस्सा तय किया गया है जिसमे जल संवर्धन आवश्यक किया जाये ? 

मशीनों से कटाई कर किसान खेतों में आग लगा देते हैं जो गंभीर पर्यावरण संकट खड़ा कर रहा है क्या आज तक किसी किसान के विरुद्ध कोई कार्यवाही हुई ? 

खेतों में आग के चलते भुसा महंगा हो रहा है जिससे अन्य पशुपालकों के लिए दूध उत्पादन महँगा हो रहा है जिसका असर दूध के दाम और आम आदमी पर पढ़ रहा है। क्या कोई इन्हें रोक पा रहा है ? 

किसानों में बड़े घर तो बना लिए लेकिन अपनी उपज रखने के लिए भंडार ख़त्म कर दिए। गर्मी बारिश में अनाज खुले में पड़ा रहता है और ख़राब होता है। किसान हंगामा कर आंदोलन कर मीडिया और राजनितिक संरक्षण के बल पर सरकार से उसका मुआवजा ले लेते हैं। दस क्विंटल अनाज सड़ता है तो बीस क्विंटल के मुआवजे का क्लैम करते हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि इतनी सारी सब्सिडी के साथ पैदा किये गए अनाज के भंडारण की व्यवस्था किसान का दायित्व नहीं होना चाहिए ? किसान को अपनी उपज के मान से भंडारण की व्यवस्था करने के लिए बाध्य क्यों नहीं किया जा सकता ? ज्यादा ही है तो इसके लिए कम ब्याज पर कर्ज उपलब्ध करवाया जाये लेकिन अगर अनाज ख़राब होता है इसके लिए किसान को दोषी बनाया जाये क्योंकि उस उपज में देश का पैसा लगा है हर टैक्स भरने वाले इंसान का पैसा लगा है। 

सब्जी फल फूल जैसी नकद फसलों के लिए पूरी तरह ऑनलाइन ट्रांजेक्शन होना चाहिए और एक तय सीमा के ऊपर टैक्स का प्रावधान भी। सिर्फ एक व्यवसाय के नाम से अनापशनाप पैसा कामना उस पर कोई टैक्स ना देना और सडकों पर फेंक कर उसे बर्बाद करने का हक़ किसी किसान को भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि उसकी उपज में उसकी मेहनत तो है लेकिन देश का हर आम आदमी का पैसा भी लगा है। 
अब समय आ गया है कि किसानों की असली स्थिति का पुनः और सही मूल्यांकन किया जाये और उन्हें देश के प्रति जिम्मेदार बनाया जाये। 
कविता वर्मा 



Monday, May 29, 2017

अथ भोजन मंथन


 वे गुरु हैं विचार मंथन के गुरु आज उनके घर के पास से गुजरते हुए बांके ने सोचा उनके दर्शन करते चलूँ। क्या पता आज कोई नया विचार नया नजरिया मिल जाये। जो मिलना ही है गुरु के यहाँ से खाली हाथ यानि खाली दिमाग तो लौटा नहीं जा सकता।
प्रणाम गुरूजी बांके ने साष्टांग करते हुए कहा।
गुरूजी गंभीर चिंतन में थे हलके से सिर हिला कर फिर चिंतन में डूब गए। यह सिर हिलना साष्टांग का जबाव और बैठने का इशारा दोनों ही थे। जो उनके सानिध्य में रहते रहते बांके समझने लगा था।
गुरूजी चिंतन करते हुए बांके को तिरछी चितवन से देखते रहे। जब देखा बांके बार बार पहलू बदल रहा है उस का धैर्य जवाब देने ही वाला है उन्होंने आँखें खोल दीं।
कहो बांके कैसे आना हुआ ?
गुरूजी इधर से गुजर रहा था सोचा दर्शन करते चलूँ। आज किसी विषय विशेष पर चिंतन चल रहा है बांके का धैर्य वाकई चुक गया था वह सीधा मुद्दे पर आ गया। आया है तो कोई नया विचार लेकर ही जाये ऑफिस ने सबको इम्प्रेस करने के काम आएगा।
तुमने रामायण पढ़ी है ?
बांके सिर खुजाने लगा सच कह नहीं सकता झूठ बोलने में शर्म लगी।
जी गुरूजी रामायण की कथा जानता हूँ। पूछने का मकसद जाने बिना गोलमोल जवाब देना ही ठीक है।
हम्म गुरूजी फिर गंभीर हुए। जानते हो कुम्भकर्ण गहरी नींद में था उसकी नींद की मियाद पूरी नहीं हुई और रावण को युद्ध के लिए उसकी जरूरत पड़ गई। ढोल नगाड़े भी उसकी नींद से उसे दूर नहीं कर सके। तब रावण ने सुस्वादु भोजन बनवाया जिसकी खुशबू ने कुम्भकर्ण की नींद खोल दी। वह खाने पर टूट पड़ा और भूल गया कि नींद उसके जीवन का लक्ष्य थी जिसके लिए उसने तपस्या की थी।
रामायण के इस प्रसंग ने बांके को सोच में डाल दिया। भोजन की महिमा तो उसने बचपन से सुनी और जानी ही थी। वो खुद भी कितनी ही बार अपने गुस्से और बढ़िया नींद को भोजन के लिए कुर्बान कर चुका था। बचपन में जब किसी बात पर गुस्सा होता था तो माँ उसके मनपसंद सेवइयों की खीर बनाती थी। शादी के बाद सास बहू के झगडे में उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए बीबी शाम की चाय के साथ गरमागरम पकोड़े तैयार करके रखती थी। उसके बाद वो कभी बीबी को गलत बता ही कहाँ पाया।
बांके अपना भोजन विमर्श करता रहा और आँखें मूंदे गुरु के ज्ञान चक्षु खुलते गए। वे कहने लगे देखो आधुनिक होते समय में भगवन के दरबार में अपनी अर्जी लेकर जब हजारों लाखों की संख्या में लोग जाने लगे और डिमांड और सप्लाई में बहुत बड़ा अंतर पैदा हो गया। इतनी उचित अनुचित मांगें आती थीं कि उनकी छंटनी करना ही मुश्किल था। बिना छंटनी के भी मांगें पूरी करें तो भी निबटारा होने में सालों लग सकते थे। तब भगवान् ने अपने एजेंटों के समक्ष अपनी चिंता जाहिर की। इस तरह से तो भक्तों का उन पर से विश्वास ही उठ जायेगा। एजेंट वह भी भारतीय और फिर धार्मिक अपने प्रभु को चिंता में कैसे डाल सकते थे ? उन्होंने तुरंत प्रसाद वितरण की योजना बनाई। देसी घी के सूखे मेवे युक्त लड्डू लेने के लिए भक्त टूट पड़ते और इस प्रसाद युद्ध में मात्र कुछ मुद्रा गँवा कर और विजयी हो कर जब बाहर आते घी और मेवे के स्वाद में ऐसे खो जाते कि खुद की अर्जी की बात खुद ही भूल जाते।
बांके को याद आया पिछले बरस वह भी पच्चीस रुपये का एक लड्डू लेने के लिए तीन घंटे लाइन में लगा था। वह गुरूजी के ज्ञान और निष्कर्ष से बहुत प्रभावित हुआ। उसके चेहरे पर यह भाव देख कर गुरु फिर शुरू हुए।
लगभग बीस साल पहले जब शिक्षा का प्रायवेटिकरण हुआ और सरकारी स्कूलों की नैया घोटालों भ्रष्टाचार के दलदल में धंसने लगी। देश के नौनिहालों का भविष्य खतरे में पड़ने लगा और शिक्षा खुद को इस दलदल से निकालने में खुद को असमर्थ पाने लगी उसने जनता का ध्यान मिड डे मील की तरफ कर दिया। स्कूल में मास्टर जी आये थे कि नहीं क्या पढ़ाया के बजाय माएँ क्या बना था क्या खाया किसने परसा पेट भर परोसा या नहीं पूछने लगीं। गाँव की गलियों में नंगधडंग घूमते बच्चों को माएँ समय से नहला धुला कर तैयार करतीं ताकि मास्टर सूरत पहचान लें और खाना खाने स्कूल भेज देतीं।
शिक्षा की नैया डुबोने के बाद और बच्चों और माता पिता को पतली दाल में ख़ुशी के गोते लगाते छोड़ अब नए सेक्टर तलाशे जाने लगे।
कौन से नए सेक्टर गुरु जी। बांके इस भोजन चिंतन से मुग्ध हो चुका था।
गुरु जी ने आवाज़ की श्रद्धा और कोमलता नापी और उनका चिंतन फिर पटरी पर आ गया। कहने लगे देखो देश का सबसे बड़ा नेटवर्क चाहे कितना ही कर लो कभी पटरी पर नहीं चल पाता था। भीड़ गन्दगी रिज़र्वेशन में एजेंटों की घुसपैठ घंटों की देरी जनता में आक्रोश भर रही थी। भगवन की तरह सरकार भी सोच में पड़ गई और फिर स्टेशन से लेकर चलती ट्रेन तक में भोजन की व्यवस्था की गई। कुछ गाड़ियों में फाइव स्टार भोजन नाश्ता परोसा गया। लोग खाने में व्यस्त रहे उन्हें कोच में घूमते चूहे कॉक्रोच बदबू मारते कंबल सामान बेचते उठाईगीर आउटर पर या क्रॉसिंग के लिए खड़ी लेट होती ट्रेन सब नज़रअंदाज़ होती गई। पैसेंजर अपने खाने में मस्त रहते और पाँच सात घंटे देर से पहुँचने के बाद भी बीवी को बताते प्रभु कृपा से इतना अच्छा खाना मिला कि मन तृप्त हो गया। आज ट्रैन में बैठे बैठे मैंने कम से कम दो ढाई हज़ार मैसेज डिलीट कर दिए।
बांके को अपनी पिछली ट्रैन यात्रा याद आ गई जब वह बीबी को लेने ससुराल गया था। चैन के दिन बीत जाने की बैचेनी से ट्रैन की कैटरिंग ने ही उसे उबारा था। और यह भी सच है कि एक महीने के उन अच्छे दिनों के प्रतीक कोई दस बारह नंबर और तीन हजार एक सौ चौदह मैसेज फोटो ऑडियो वीडियो भी उसने उसी समय में डिलीट किये थे। तो क्या गुरूजी भी ? मन में कुलबुलाते इस विचार को उसने आस्था रुपी टेबल नेपकिन से पोंछ डाला।
गुरूजी उसकी तन्मयता देख कर जोश में आ गए फिर कहने लगे। देखो आजकल शादियों में दूल्हा दुल्हन की जोड़ी कैसी है दहेज़ में क्या लिया दिया लड़के लड़की का बाप क्या करता है जैसी बातें कोई नहीं पूछता लेकिन खाने में क्या है सब पूछते हैं। कई अन्नपूर्णा के पुजारी लोग तो आशीर्वाद देने से पहले ही पानी पूरी दही भल्ले के स्टॉल पर पहुँच जाते हैं। कहते हुए गुरूजी ने अपनी तोंद पर हाथ फेरा और गहरी सांस लेकर किचेन से आती खुशबू से अंदाजा लगाने की कोशिश की कि क्या पक रहा है ?
बांके भी अब तक इस चिंतन से पर्याप्त परिपक्व हो चुका था। गुरूजी के संकेत भी वह बखूबी ग्रहण कर रहा था। उसने उठ कर फिर साष्टांग किया और आज्ञा माँगी। बांके के कूच करते ही गुरूजी किचन की तरफ लपके। लौकी के कोफ्ते की खुशबू ने आज फिर एक चिंतन वीर को उसका लक्ष्य भुला दिया था।
कविता वर्मा

Sunday, April 9, 2017

रौशनी के अँधेरे


"किंशुक पूरे घर को दिये और मोमबत्ती से सजाना" मयंक ने कहा तो किंशुक चिंहुक उठी। बहुत अच्छा आइडिया है मयंक एकदम अलग लगेगा। 
पूरा बंगला मोमबत्ती की झिलमिलाती रोशनी से जगमगा उठा और मयंक देर तक उनकी लौ को ताकता रहा। पहले तो किंशुक को लगा कि इस सजावट से अभिभूत हो कर मयंक उसमे खोया हुआ है। पर जब देर तक उसने मयंक को मोमबत्ती की लौ को ताकते देखा तो उसे अजीब सा लगा। 
"मयंक क्या हुआ है ऐसे क्या देख रहे हो ?" वह कई बार उसके आसपास से गुजरी उससे बातचीत करने की कोशिश की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला तो थक कर बैठ गई और खो गई। 
 मयंक के प्रमोशन की खबर सुनकर  किंशुक ख़ुशी से झूम उठी थी।  मयंक अब तो तुम्हे सरकारी बंगला मिलेगा ना ? 
हाँ बंगला गाड़ी ड्राइवर सभी मिलेगा। किंशुक की ख़ुशी से रोमांचित मयंक ने उसे बाँहों में लेते हुए कहा। 
"वाह अब हम अफसरी शान बान के साथ रहेंगे सरकारी गाड़ी ड्राइवर क्या ठाठ होंगे। रिश्तेदारों जान पहचान वालों में इज्जत कई गुना बढ़ जाएगी।" 
अचानक मयंक ने अपनी बाँहों का घेरा ढीला किया और फोन की तरफ बढ़ा। "हाँ अम्मा अब तुम्हार बिटवा बड़का अफसर हो गवा है। अब यहाँ से जाना पड़ेगा पर बड़े शहर में बड़ा बंगला मिलेगा तुम भी अब हमारे साथ शहर में रहना अपनी पोटली बाँध लो। " 
यह सुनते ही किंशुक का चेहरा उतर गया। "मयंक सुनो तो पहले हम लोग तो वहाँ सैटल हो जाएँ नया शहर नयी सोसायटी नए लोग कैसे होंगे उन्हें जान समझ लें फिर अम्मा बाबूजी को बुलवा लेंगे कुछ दिनों के लिए। " अंतिम चार अक्षर बोलते उसका स्वर धीमा हो गया और उसी तरह मयंक के चेहरे की ख़ुशी भी ढल गई। वह बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चला गया जिसे किंशुक ने अपनी बात की सहमति समझा। 
आज मयंक ने बंगला मोमबत्ती दिये से सजाने को कहा और कब से लौ को टकटकी लगाए देख रहा है। 
"मयंक कुछ तो बोलो क्या देख रहे हो ?" 
" देख रहा हूँ अम्मा कैसे जिंदगी भर तिल तिल जलती रही और आज मेरी जिंदगी रौशनी से भर कर खुद वहाँ गाँव के अँधेरे में अकेले पड़ी हैं जैसे इस लौ के नीचे अँधेरा है वैसे ही। और आँखें पोंछते मयंक झटके से उठ कर कमरे से बाहर चला गया। 
किंशुक सन्न रह गई और  रौशनी के बावजूद दिल के एक कोने को अँधेरे से भर देने के पश्चाताप से भर कर लौ को ताकती रह गई।  
कविता वर्मा 

Wednesday, March 1, 2017

वीरान महफ़िल

वीरान महफ़िल 
बहुत रौनक थी उस पार्टी में बहत्तर तरह के भोज्य पदार्थ सुरा की नदियाँ खिलखिलाते कीमती कपड़ों की नुमाइश करते बड़े बूढ़े और जवान खूबसूरत चेहरे बातों ठहाकों से गूंजता माहौल और नेपथ्य में मधुर संगीत की स्वर लहरियाँ। 
पार्टी के होस्ट शिवराज जी कीमती साड़ी और लकदक जेवरों से सजी अपनी खूबसूरत पत्नी शालू की कमर में हाथ डाले गर्मजोशी से मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। शालू भी तो अपनी मधुर मुस्कान और आत्मीयता से सबकी बधाइयाँ स्वीकार कर शादी के पच्चीसवीं सालगिरह की इस पार्टी को पूरी तरह सफल बनाने के लिए हर एक का ध्यान रख रही थीं। 
बहुत खुश थी शालू कि आज शिवराज उनके साथ हैं। सभी मेहमानों के सामने घुटनों के बल बैठ कर जब उन्होंने शालू से फिर शादी की रजामंदी मांगी तो वह किसी नवयौवना सी शर्मा गई। आज कोई भी उसकी किस्मत पर रश्क कर सकता था। 
खाने पीने के बाद मेहमान एक एक कर जाने लगे महफ़िल खाली होने लगी। शिवराज अब तक नशे में धुत्त हो चुके थे शालू बड़ी मुश्किल से उन्हें बैडरूम तक लाई। बिस्तर पर लिटा कर उनके जूते उतारने लगी तभी शिवराज नींद और नशे में बड़बड़ाये निशा डार्लिंग आय लव यू। 
कविता वर्मा

Friday, January 27, 2017

इंतज़ार


जब कहानियाँ लिखना शुरू किया था तब यह कहानी लिखी थी। समय के साथ लेखनी में कुछ परिपक्वता आई तो लगा इसे फिर से लिखना चाहिए। एक प्रयास किया है पढ़िए और बताइये कैसी लगी ?


युवा उम्र का आकर्षण कब प्रेम में बदल साथ जीने मरने की कसमे खाने लगता है बिना परिवार की राय जाने या अपनी जिम्मेदारियों को समझे। यथार्थ से सामना होते ही प्रेम के सामने एक अलग ही व्यक्तित्व नज़र आता है जिससे नज़रें मिलाना खुद के लिए ही मुश्किल होने लगता है। प्रेम में किसी को तो गहरी चोट लगती है और उसके निशान सारी जिंदगी के लिए सीने पर अंकित हो जाते हैं। उम्र के किसी पड़ाव पर जब बिछड़े प्रेम से सामना होता है तब अतीत किसी आईने की तरह असली चेहरा दिखा देता है और उसका सामना करना कठिन होता है। एक तरफ प्रायश्चित करने का बोध होता है तो दूसरी तरफ प्रेम पाने की ललक। तब क्या फैसला होता है युवा मन सा या उम्र को सम्मान देते हुए फिर परिस्थितियों के अनुसार। जानना दिलचस्प होगा मेरी कहानी इंतज़ार में।

http://hindi.pratilipi.com/kavita-verma/intezaar

Monday, January 23, 2017

मातृभारती कथा कड़ी आइना सच नहीं बोलता

मातृभारती पर हमारा साझा उपन्यास आइना सच नहीं बोलता प्रकाशित हुआ है जिसे 13 लेखिकाओं ने मिल कर लिखा है। दिल्ली पुस्तक मेले में इस का लोकार्पण किया गया जिसे बेहतरीन प्रासाद मिला। इसकी अब तक 20 कड़ी प्रकाशित हो चुकी हैं। मोबाइल पर मातृभारती एप डाउनलोड करके आप इसे पढ़ सकते हैं। यह पहला प्रयोग है जिसमे पूरा उपन्यास ई बुक के रूप में है और अलग अलग लेखिकाओं के द्वारा लिखा गया है।
http://matrubharti.com/book/6191/

http://matrubharti.com/book/6337/

http://matrubharti.com/book/6441/

http://matrubharti.com/book/6541/

मातृभारती ई बुक्स पोर्टल

दोस्तों मातृभारती ई बुक्स का एक पोर्टल है जिस पर मेरी कहानियाँ प्रकाशित की गई हैं। आप मोबाइल में मातृभारती एप डाउनलोड करके इन्हें पढ़ सकते हैं। मेरी कहानियों के अलावा भी हजारों लेखकों की लाखों कहानियाँ यहाँ मौजूद हैं। मेरी कहानी डर , यात्रा , दलित ग्रंथि , आसान राह की मुश्किल , हैण्ड ब्रेक , जंगल की सैर ( बाल कहानी ) और बेटी के नाम पत्र के लिंक नीचे दे रही हूँ। कृपया पढ़ें और अपनी राय जरूर दें।
http://matrubharti.com/book/4580/

http://matrubharti.com/book/4470/

http://matrubharti.com/book/4298/

http://matrubharti.com/book/6024/

http://matrubharti.com/book/5492/

http://matrubharti.com/book/4169/

मातृभारती के होम पेज पर आप जा सकते है http://matrubharti.com/#homepage  

Sunday, January 22, 2017

सुविधा

 
पार्क की उस बेंच पर वे दो लड़के हमेशा दिखते थे मोबाइल में सिर घुसाये दीन दुनिया से बेखबर। रमेश और कमल रोज पार्क में घूमने आते उन्हें देखते और मुंह बिचकाते ये नई पीढ़ी भी एकदम बर्बाद है। कभी-कभी उनका मन करता उन्हें समझायें कि इस तरह उनकी आंखें और दिमाग खराब हो जायेगा पर युवा पीढ़ी की बदमिजाजी झेले हुए थे इसलिए हिम्मत नहीं होती थी। 
उस दिन एक लड़के ने दूसरे को अपना मोबाइल दिखाते हुए कुछ पूछा तो रमेश जी के कान खड़े हो गए। उन्होंने मोबाइल में देखना चाहा पर देख न पाये। कमल बाबू की तरफ देखा वह भी अचरज में थे। रहा न गया तो उस लड़के से पूछ ही लिया 'आप लोग मोबाइल में क्या करते रहते हो और अभी आप किस बारे में बात कर रहे थे।
लड़के ने उन दोनों को देखा फिर एकदूसरे को देखते हुए बोले हम पावर ब्रेक के मैकेनिज्म को पढ कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। गरीब और स्वर्ण परिवार से होने के कारण कालेज में एडमिशन नहीं ले पाये पर हमारे दोस्त कालेज में हैं वे लेक्चर के वीडियो हमें भेज देते हैं जिन्हें देखकर हम सीखते हैं और एक गैराज में काम करते हुए प्रेक्टिस करते हैं। कभी-कभी इंटरनेट से भी लेक्चर डाउनलोड कर लेते हैं।
रमेश जी बहुत प्रभावित हुए फिर बोले लेकिन बिना डिग्री के तुम कहीं नौकरी तो नहीं पा सकते।
यह सुनकर वे दोनों मुस्कुराने लगे हां नौकरी तो नहीं पा सकते पर अपना गैरेज खोल कर दूसरों को नौकरी तो दे सकते हैं।
कविता वर्मा

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...