आज समाचार पत्र में दो ख़बरें पढ़ीं .दोनों ही ख़बरें अगर सोचा जाये तो बहुत गंभीर चेतावनी देती हैं नहीं तो सिर्फ ख़बरें हैं.
पहली खबर है नॅशनल जियोग्राफिक सोसायटी के एक सर्वे के बारे में है जो बताती है कि हमारी सनातनी परंपरा के चलते हम भारतीय पर्यावरण को होने वाले नुकसान के लिए खुद को जिम्मेदार मानते हैं ओर अपराधबोध से ग्रस्त होते हैं.१७ देशों में करवाए गए सर्वेक्षण में भारतीय सबसे ऊपर थे.लेकिन इसका दुखद पहलू ये है कि इसके बावजूद भी हम लोगों को इस बात का सबसे कम यकीन है कि व्यक्तिगत प्रयासों से पर्यावरण को सुधारने में मदद मिल सकती है.
दूसरी खबर ये है कि मध्यप्रदेश कि जीवन दायनी रेखा नर्मदा नदी में रेत कि मात्रा लगातार खनन के चलते कम हो रही है. इसका कारण नर्मदा नदी कि सहायक नदियों पर बनने वाले बाँध कि वजह से नर्मदा के प्रवाह में लगातार कमी आयी है जिससे बलुआ पत्थरों से बनने वाली रेत में कमी आयी है ओर रही सही कसर रेत के अति दोहन से नर्मदा का रेत का भंडार ज्यादा से ज्यादा दो साल ओर चलेगा. ये कहना है खनिज अधिकारी श्री खेतडिया का.
हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों का अथाह भंडार है.ये संसाधन हैं जल जमीन वन,वनस्पति,खनिज,पेट्रोलियम,सूर्य उर्जा,पवन उर्जा आदि आदि.इनमे से कुछ संसाधन पुन प्राप्त किये जा सकते है जैसे पवन उर्जा ओर सोर उर्जा. लेकिन कुछ संसाधन जैसे खनिज पेट्रोलियम पुन प्राप्त नहीं किये जा सकते.
आज हम विकास की राह पर अग्रसर है .लेकिन इस विकास कि राह पर हम संसाधनों के उपयोग के साथ किस कदर उनका दुरूपयोग कर रहे हैं इस बारे में सोचने कि किसी को फुर्सत ही नहीं है.विकास के नाम पर बेतरतीब कार्ययोजना के चलते संसाधनों का बेतहाशा दोहन किया जा रहा है. आइये नज़र डालें कुछ कार्यों पर ..
सबसे पहले बात करें सीमेंट की .इन्फ्रा स्ट्रक्चर में तेज़ी के चलते पूरे देश में सडकों, पुलों, बहुमंजिला इमारतों का निर्माण कार्य प्रगति पर है जिसमे सीमेंट का उपयोग निरंतर हो रहा है. सीमेंट कंपनियों ने इसके चलते सीमेंट के दामों में वृध्धि भी की है.लेकिन इसके बावजूद भी सीमेंट के संयमित उपयोग की बात कोई नहीं सोचता. इंदौर के बाय को ही लीजिये इसका निर्माण आगामी २५ सालों के लिए हुआ था लेकिन महज ११ सालों में ही इसे उखाड़ कर इसे सिक्स लेन किया जा रहा है.इसमें उपयोग की गयी कांक्रीट उखाड़ने के बाद सिर्फ बर्बाद ही हुई है. इसके साथ ही इसमें इस्तेमाल हुई लाखों टन रेत गिट्टी ओर पानी की बर्बादी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया. क्या हमारे नीति नियंता आगामी २५ सालों के लिए भी कोई योजना नहीं बना सकते??
इसी प्रकार बी आर टी एस में बनने वाली सडकों को पहले पूरा बनाया गया ओर अब उन्हें उखाड़ कर उनमे रेलिंग लगाई जा रही है. रेलिंग लगाने के लिए फिर कंक्रीट का इस्तेमाल किया जा रहा है.
इस तरह लाखों टन सीमेंट का उपयोग कर उसे मिटटी बना कर फेंक दिया जाता है. सीमेंट बनाने में उपयोग होने वाले कच्चेमाल में चूने का पत्थर जिप्सम ओर रेत का इस्तेमाल होता है जो प्रकृति से प्राप्त किये जाते हैं. इस तरह हम आवश्यकता से अधिक खनिज का दोहन कर रहे हैं. सीमेंट कम्पनियाँ जोरशोर से उत्पादन में लगी हैं जैसे सब ख़त्म होने से पहले जितना बन पड़े उपयोग कर लिया जाये. विडम्बना ये है की हमारे यहाँ एक बार खदान लीज पर दे देने के बाद उसके दोहन के लिए कोई रेगुलारिटी एक्ट नहीं है ओर अगर है भी तो मृतप्राय.
बहुमंजिला इमारतों यहाँ तक की व्यक्तिगत स्तर पर बनने वाले मकानों में भी सीमेंट रेत ओर पानी की बर्बादी पर कोई नियंत्रण नहीं है. हमारे यहाँ कोई भी सेल्फ ट्रेनिंग करके मिस्त्री ठेकेदार बन जाता है.इन लोगों को कभी ये सिखाया ही नहीं जाता की ये हमारे संसाधन हैं ओर इनका समझदारी से उपयोग किया जाना चाहिए. अब इनकी कौन कहे हमारे सिविल इंजिनियर तक इस बारे में नहीं सोचते ना ही जिम्मेदार पदों पर बैठे अफसर या नेता.
इसी तरह निर्माण में काम आने वाली मुरम का बेतहाशा खनन किया जा रहा है जिसके चलते कई पहाड़ियों का तो अस्तित्व ही ख़त्म हो गया है.उनकी जगह या तो सपाट मैदान बचे हैं या गढ्ढे.
जब भी बड़ी बड़ी मल्टी के लिए नींव की खुदाई होती है उसमे से निकलने वाली मिटटी यहाँ वहां डाल दी जाती है ये मिटटी सड़क पर बिखरती है कचरे के साथ मिला दी जाती है रौंदी जाती है जिससे अंततः मिटटी धूल बन जाती है इसकी जीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है ओर फिर ये किसी काम की नहीं रह जाती. ऐसा लगता है की पूरी पृथ्वी की सतह ही उलट पलट कर दी गयी है.कल तक जहाँ पहाड़ थे आज वहां गढ्ढे है ओर जहाँ मैदान थे आज वहां मिटटी या कचरे के ढेर.
मकान के निर्माण में इंटों की बर्बादी में मिटटी की बर्बादी ,कांक्रीट मिक्स़र में पानी ओर बचे हुए मॉल की बर्बादी किसी के पास भी इनके न्यायोचित उपयोग के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है. हमारी सड़कों के किनारे उबड़ खाबड़ है अगर उनमे ये बचा हुआ कांक्रीट डाल दिया जाये तो इसका बेहतर उपयोग हो सकता है. लेकिन इतनी सामाजिक जिम्मेदारी उठाये कौन?
भवन निर्माण में बचे हुए फर्शी के टुकडे,पेंट लकड़ी के बुरादे, इंटों के टुकडे ,लोहा लंगड़, पाइप ऐसी ही कुछ चीज़ें है जिनका पुनरुपयोग सुनिश्चित होना चाहिए.
एक ओर बात जो काफी चिंताजनक है की बड़े बड़े निर्माण कार्यों में बड़ी बड़ी कम्पनियाँ शामिल होती हैं जिनके लिए कार्यस्थल पर बचे छोटे मोटे थोड़े बहुत सामान के लिए कोई परवाह ही नहीं है. अब अगर ये कार्य स्थल किसी गाँव के पास हैं तो गाँव वाले इन्हें उठा कर अपने काम में ले लेते हैं लेकिन अगर किसी शहरी इलाके में हैं तो ये यूं ही सड़क के किनारे पड़े रहते बेकार हो जाते हैं. अगर निर्माण के बाद बचे हुए मटेरियल की ही खैर खबर ली जाये तो उनसे कुछ मकान तो निश्चित ही बन जायेंगे.
ऐसे ही एक मकान के निर्माण के बाद कुछ रेत बच गयी थी.किसी व्यक्ति ने घर मालिक से अपने मकान के लिए वह रेत ले जाने को पूछा .देख कर ऐसा लगा शायद ८-१० बोरी रेत होगी वहां.लेकिन वह व्यक्ति अपने पूरे परिवार के साथ रेत इकठ्ठी करने में लगातार ४ घंटे लगा रहा ओर उसने कम से कम ६०-७० बोरी रेत इकठ्ठा की. अब अगर वह नहीं ले जाता तो उतनी रेत जो शायद २-३ कमरे के प्लास्टर के लिए काफी थी वह तो बेकार ही चली जाती. उसने अपने प्राकृतिक संसाधन को बचाने में कितना बड़ा योगदान दिया ये तो सोचेंगे तो समझेंगे.
कहीं पढ़ा था की ऑस्ट्रेलिया में प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार का नियंत्रण होता है. वहां जमीन का पानी ,जंगल हवा सभी सबके हैं इसलिए कोई भी उन्हें बेवजह इस्तेमाल भी नहीं कर सकता बर्बाद करना तो दूर की बात है. हमारे यहाँ पता नहीं कभी ऐसा कोई कानून बन भी पायेगा या नहीं?खैर कानून बन भी गया तो दूसरे सैकड़ों कानूनों की तरह उसका क्या हश्र होगा ये तो हम समझ ही सकते है. लेकिन क्या हम इतना नहीं समझ सकते की अगर हमने हमारे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग नियंत्रित नहीं किया तो इसका खामियाजा हमारी भावी पीढी भुगतेगी ओर वो भयावह ही होगा. ये हमारी भी नैतिक जिम्मेदारी है की हम हमारी भावी पीढी के लिए प्राकृतिक संसाधन छोड़ कर जाएँ ओर वे सिर्फ बिजली पानी जंगल या पेट्रोलियम ही ना हों खनिज, वनस्पति,रेत, मिटटी, गिट्टी भी हों. जरा सोचिये.
सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteपर्यावरण असंतुलन के खतरे से हम सभी वाकिफ हैं, फिर भी इसके प्रति कत्तई गंभीर नहीं है। हालाकि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए कानून मे सख्त प्रावधान हैं, पर ये मसला कानून से हल होने वाला नहीं है, इसके लिए सामाजिक चेतना जरूरी है, क्योंकि कहीं ना कहीं हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं..
ReplyDeleteआपकी चिंता से मैं बिल्कुल सहमत हूं
सार्थक पोस्ट,
आपकी चिंता जायज है ..
ReplyDeleteप्राकृतिक संपदा पर आने वाली पीढी का भी हक होता है ..
इसे हमें समझना होगा ..
एक नजर समग्र गत्यात्मक ज्योतिष पर भी डालें !!
सार्थक एवं विचारणीय पोस्ट से सहमत हूँ,,,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....
हमारी संकुचित द्रष्टि , हमारे बच्चों के भविष्य के लिए सबसे अधिक आवश्यक संसाधनों के बारे में सोंचने की ज़हमत ही नहीं उठाती !
ReplyDeleteसिर्फ अपने पेट की चिंता में जीते हम लोग , अपनी मृत्यु के बाद , अपने बच्चों का क्या होगा , कभी नहीं परवाह करते !
हाँ,अपने बुढापे की परवाह हमेशा रहती है, हम स्वार्थियों को...
आभार अच्छी पोस्ट के लिए !
जानकारी भरी विचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteबहुत उपयोगी जानकारी
ReplyDeleteहम तो उन साधनों का भोगन करते हैं न की दोहन ... पता नहीं क्या हो रहा इंसान को ...
ReplyDeleteविचारात्मक प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteशSSSSSSSSSS कोई है
Bahut hi acchi jaankari di hai aapne .kaash esko log samjhe ....
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