कुछ सीली नम सी
माँ के हाथों के कोमल स्पर्श सी
बरसों देती रही सोंधी महक
जैसे घर में बसी माँ की खुशबू
माँ और आँगन की मिट्टी
जानती है
जिनकी जगह न ले सके कोई और
लेकिन फिर भी रहती चुपचाप
अपने में गुम
शिव गौरा की मूर्ति से तुलसी विवाह तक
गुमनाम सी उपस्थित
एक आदत सी जीवन की
माँ और आँगन की मिट्टी
कभी खिलोनों में ढलती
कभी माथा सहलाती
छत पर फैली बेल पोसती
कभी नींद में सपने सजाती
कभी जीवन की धुरी कभी उपेक्षित
माँ और आँगन की मिट्टी
उड़ गए आँगन के पखेरू
बन गए नए नीड़
अब न रही जरूरी
बेकार, बंजर, बेमोल
फिंकवा दी गयी किसी और ठौर
माँ और आँगन की मिट्टी।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या कहने, बढिया भाव
कभी खिलोनों में ढलती
कभी माथा सहलाती
छत पर फैली बेल पोसती
कभी नींद में सपने सजाती
कभी जीवन की धुरी कभी उपेक्षित
माँ और आँगन की मिट्टी
वाह बेहद खूबसूरत और भावनात्मक प्रस्तुति बहुत सुन्दर रचना |
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteइससे ज्यादा कहने के लिए शब्द ही नहीं मिल रहे।
सुन्दर कविता.
ReplyDeleteसमय के साथ सबकुछ बदल जाता है, माँ हो, आँगन की मिट्टी या कुछ भी. माँ होने के नाते कह सकती हूँ की बदलाव के लिए तैयार रहना होगा न कि उपेक्षा की प्रतीक्षा करनी चाहिए.
घुघूतीबासूती
हो रहे बदलाव के लिए तैयार रहना चाहिए,,,,
ReplyDeleteभावनात्मक उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,,,
RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
अंत में मिट्टी में मिल जाती है मिट्टी- सीता की तरह
ReplyDeleteउड़ गए आँगन के पखेरू
ReplyDeleteबन गए नए नीड़
अब न रही जरूरी
बेकार, बंजर, बेमोल
फिंकवा दी गयी किसी और ठौर
माँ और आँगन की मिट्टी।
BEAUTIFUL LINES
मर्मस्पर्शी रचना ....वाकई माँ और आँगन की मट्टी ..वात्सल्य और अपनेपन की मिसाल ..कभी ध्यान नहीं गया इस समानता पर ..अद्भुत !!!
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