आज एक न्यूज़ चेनल पर शनि को प्रसन्न करने का एक उपाय बताया जा रहा था.१०८ मदार या आंकड़े के पत्तों कि माला बना कर हनुमानजी को चढ़ाई जाये जिससे शनि कि शांति होती है साथ ही हनुमानजी प्रसन्न होते हैं. हमारे देश में भगवान को प्रसन्न करके अपना काम निकलवाने कि मानसिकता बहुत आम है ओर इसके लिए भगवान को चढ़ावे के रूप में रूप में फल फूल,मिठाई मेवे पूजा कि अन्य सामग्री चढाने का आम रिवाज़ है.पता नहीं इस चढ़ावे से भगवान कितने खुश होते है लेकिन इस तरह के कर्मकांडों से प्रकृति को जो नुकसान होता है उसकी पूर्ति सालों में भी संभव नहीं हो पाती.
समय समय पर इस तरह के नए नए कर्म काण्ड कि हवा चलती है ओर लोग बिना सोचे विचारे उन पर अमल करने लगते हैं फिर चाहे वह गणेशजी को दूध पिलाने कि बात हो या मदार के पत्तों कि माला बनाना ,श्री कृष्ण जी पर १००८ तुलसी पत्र चढ़ाना.
तुलसी के १०८ या १००८ पत्ते रोज़ श्रीकृष्ण जी को चढाने से मनोकामना पूरी होती हो या ना होती हो लेकिन ये तय है कि अगर एक मोहल्ले के ५-७ लोग इस तरह का संकल्प ले लें तो उस मोहल्ले या कालोनी के सभी तुलसी के पौधे उजड़ जाते हैं.क्योंकि पूजा के नाम पर या संबंधों के नाम पर कोई तुलसी तोड़ने को मना नहीं कर पाता .
आजकल जबसे लोग अपनी सेहत के लिए जागरूक हुए हैं और सुबह कि सैर पर जाने लगे हैं तब से फूलों कि तो जैसे शामत आ गयी है. लोग सैर कम करते हैं फूलों कि चोरी ज्यादा करते हैं ओर ये चोरी भी कोई ऐसी वैसी नहीं पूरा डाका डाला जाता है. जहाँ तक हाथ पहुंचे वहां तक से सारे फूल तोड़ लिए जाते हैं बेचारे पेड़ मालिक के भगवान के लिए एक दो भी नहीं छोड़े जाते.सैर के बाद सेहत पता नहीं कितनी बढ़ती है लेकिन थैली में फूलों का वजन लगातार बढ़ता जाता है.सैर के लिए उस रास्ते नहीं जाया जाता जहाँ शुद्ध हवा मिले बल्कि उस रास्ते जाया जाता है जहाँ ज्यादा फूल मिलें. फूलों पर जितना हक आपके भगवान का है उतना ही पक्षियों, तितलियों का भी है.जरा सोच कर देखिये कब से आपने अपने आसपास तितलियों को उड़ते नहीं देखा?ये तितलियाँ फूलों के पराग पर जीवित रहती हैं मधुमक्खियाँ इन्ही से पराग ले कर शहद बनाती हैं फूलों के उजड़ जाने से इनकी संख्या में चिंतनीय कमी आयी है.तितलियाँ तो आजकल देखने को भी नहीं मिलती मधुमक्खियाँ भी लगातार कम होती जा रही हैं.
मालवी में एक कहावत है एक शेत पाडो ना एक गाम उजाडो अर्थात अगर एक मधुमक्खी का छत्ता तोडा जाता है उससे फसलों के परागण में जो कमी आती है वह गाँव कि जरूरत जितने अनाज कि उपज कम कर देती है.
अभी सावन के महिने में आक या मदार के फूल धतूरे जिस बेरहमी से तोड़े जाते हैं कि इनके फूलों से नए बीज बनने कि प्रक्रिया ही रुक जाती है.पेड़ पौधों पर फूल रहेंगे तब तो उनसे फल और बीज बनेंगे ओर इन बीजों के विकिरण से नए पौधे बनेंगे जिस तेज़ी से स्थानीय वनस्पति कम हो रही है इससे इनपर निर्भर छोटे छोटे जीव जंतु विलुप्त होते जा रहे हैं वो चिंता का विषय है.
यहाँ तक कि पहले कहीं भी जड़ जमा लेने वाली बेशरम कि झाड़ियाँ (उनका नाम ही बेशर्म शायद इसलिए था कि वो हर जगह उग जाती थीं) भटकटैया,धतूरे,बेलपत्र,लटजीरा, प्याड के पीले फूल यहाँ तक कि बारीक वाली दूब आज दिखाई ही नहीं देते.बेशरम कि झाड़ियों से जो जलावन मिलता था वह अब मिलना बंद हो गया है नतीजा लोग पेड़ ज्यादा काट रहे हैं.
सावन के महिने में लाखों लीटर जल दूध अभिषेक के नाम पर पानी में बहा दिया जाता है ,बेल पत्र के पेड़ उजाड़ दिए जाते हैं.
हमारे यहाँ धर्म के नाम पर जो ना हो सो कम है . धार्मिक रीती रिवाजों को प्रकृति से जोड़ने का आशय ही प्रकृति के प्रति लोगो को संवेदनशील बनाना था.लेकिन अब ज्यादा धर्म कर्म करने ज्यादा पुण्य पाने कि होड़ में ये संवेदनशीलता कहीं गुम हो गयी है .व्यावसायिकता आस्था पर भारी पड़ती जा रही है लोग ज्यादा पुण्य पाने के लिए ज्यादा चढ़ावे ज्यादा दिखावे कि मानसिकता ले कर पूजा अर्चना करते हैं जबकि भगवान तो भावना के भूखे हैं पूरी श्रद्धा से चढ़ाया गया एक फूल टोकनी भर फूल से कहीं ज्यादा है .तो जरा सोचिये कहीं आप भी तो धर्म के नाम पर प्रकृति के साथ जीव जंतुओं के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं??
आपकी बात सही है। ऐसी असम्वेदनशील आस्था ने राष्ट्र और मानवता का बहुत अहित किया है। दूसरा पहलू यह भी है कि जिस देश में प्रशासन और व्यवस्था स्थाई रूप से ठप्प रहती है, जुगाड़ या पहचान के बिना कोई काम सीधे तरीके से नहीं होता वहाँ के निराश मन को चलाते (या घिसटते) रहने के लिये कोई तो साधन चाहिये ...
ReplyDeleteइस नैराश्य को दूर करने के नाम पर ही पाखंड बढ़ता जा रहा है.लेकिन प्रकृति का संतुलन बनाये रखना बहुत जरूरी है वर्ना हमारी अगली पीढ़ी तो शायद इन उपायों को भी नहीं अपना पायेगी.
Deleteआपने निश्चय ही पढे-लिखे लोगों की मूर्खता पर प्रश्न उठा कर भला कार्य किया है मेरे ब्लाग मे इस ढोंग-पाखंड पर प्रहार हमेशा होता रहता है। लेकिन जड़-बुद्धि लोग समझने को तैयार नहीं हैं। यह सब 'धर्म' नहीं आडंबर है। 'शनि' को शांत करना है तो हवन वैज्ञानिक पद्धति है। साधारण तौर पर 'ॐ शम श्नेश्चराय नमः' का 108 या कम से कम 27 बार नियमित जाप करने से भी ध्वनि-तरंगों के माध्यम से कुछ लाभ होता है। कोई भी पूजा पश्चिम की ओर मुख कर तथा धरती से इंसुलेशन बना कर ही करनी चाहिए। मंदिरों मे ठीक उल्टा होता है-लकड़ी की खड़ाऊँ चलते नहीं सारी ऊर्जा पैरों के जरिये earth होती है फूल सद कर प्रदूषण बढ़ाते है,'दान' सबको सब चीज़ का करना ही नहीं चाहिए। इस विषय पर विस्तृत लेख 'क्रांतिस्वर' मे उपलब्ध है।
ReplyDeleteहमारे धर्म के ठेकेदारों ने लोगो की सोच को भ्रष्ट किया है.आप मंदिरों में ही देखिये कितने पुजारी सही उच्चारण से मंत्र बोलते हैं ?उनका जोर बस फूल पत्ते चढाने पर होता है क्योंकि उनकी कीमत में से उन्हें कमीशन मिलाता है.इस पर एक पोस्ट अलग से लिखूंगी .आभार.
Deleteनिश्चय ही आप एक पुनीत कार्य करेंगी। वस्तुतः मंदिर,मस्जिद,मजार,गिरिजा,गुरुद्वारा कोई 'धार्मिक-स्थल' हैं ही नहीं । ये तो व्यापारिक दुकाने हैं। धर्म=जो शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक हो=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का समुच्चय ही 'धर्म' है और इसका पालन करने हेतु कहीं भटकने की आवश्यकता ही नहीं है। जो नहीं समझते या नहीं समझना चाहते वे अपने व्यापारिक हितों के कारण ही ऐसा करते हैं।
Deleteअसम्वेदनशील आस्था ने राष्ट्र और मानवता का बहुत अहित किया है। हमारे यहाँ धर्म के नाम पर जो हो रहा है क्या कम है
ReplyDeleteRECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,
ji dheerendraji abhar.
Deleteज्वलंत पर्यावरण की समस्या पर सीधी चेतावनी पूर्ण पोस्ट सादर नमन
ReplyDeleteस्मार्ट इन्डियन भैया जी की बातों से पूर्ण सहमत
प्रकृति के चक्र में पूरा संतुलन बनाये रखना भी सभी के लिये जरुरी है. मैं कुछ समय पहले पढ रही थी कि तिलचट्टा या कोकरोच जिसे सब घिन की दृष्टी से देखते है बह भी मिटटी में नत्रजन सयोजन में मदद करता है. कहने का मतलब बस यही है कि प्रकृति की सारी संरचनाओं का अपना अपना महत्व है और एक को भी छेदने से बह संतुलन गडबडाता है.
ReplyDeleteji rachna ji darasal ham school se vigyan padhte hai lekin ise apne jeevan me nahi utarte...ham kaha ja rahe hain khud hi nahi jante.
Deleteabhar
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ReplyDeleteमहेंद्र जी आपने 'हवन' का उल्लेख कर मुझ पर हमला बोला है अतः जवाब देना मेरा फर्ज बन जाता है। यदि आप ज़रा सा भी 'पदार्थ विज्ञान'=मेटेरियल साइंस से वाकिफ होते तो हवन को कुतर्क नहीं बताते ,पूरी जानकारी आपको मेरे ब्लाग मे मिलेगी। किन्तु आलोचना के लिए आलोचना करना उचित नहीं है। आप ने अपने ब्लाग मे आर्यसमाज के गलत नियम भी दिये थे तो मैंने असभ्य तरीके से वार नहीं किया था। जिनको आप परंपरा कह रहे हैं वे शोषकों के उत्पीड़न का ढोंग हैं। आप उनको पूजते हैं तो पूजें सबको क्यों पोंगा-पंथी बनाए रखना चाहते हैं?
Deleteकल 06/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
ये फूल तोड़ने की समस्या मै कानपुर की ही समझता था...पर ये तो देशव्यापी समस्या लग रही है...एक पेड़ कोई घर में नहीं लगता...इस देश के भगवान भी शायद चोरी के ही फूल पसंद करते हों...बहुत ही सहज ढंग से आपने मूल समस्या को उजागर कर दिया...बेशरम की झाड़ी देखे तो अरसा हो गया...
ReplyDeleteji ye samsya deshvyapi hi hai...blog par aane ke liye abhar..
Deleteमैं यहां बेवजह की बहस में नहीं पड़ना चाहता... इसलिए मैने अपने विचार वापस कर लिए...
ReplyDeleteन्युज चैनल तो भांडो को भी ्शरमा रहे हैं इनकी बात क्या कीजै।
ReplyDeleteजागरूक करने वाला लेख .... धर्म और आडंबर में लोग कब अंतर करना सीखेंगे ?
ReplyDeleteहमारे रीति रिवाज़ शुरू से प्राकृति के अनुकूल रहे हैं न की प्रतिकूल .... पे समय समय पे आने वाले आडम्बर रिवाजों पे भी प्रश्न खडा करते हैं ...
ReplyDeleteमन चंगा तो कठौती में गंगा , फिर ये व्यावसायिकता और दिखावापन किसके लिए ? सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteअरे हमारी दुखती रग पर हाथ धर दिया आपने....सुबह सुबह की चोरनियों से तंग हूँ....गुठनो में दर्द है.मगर बाउंड्री वाल पर चढ़ जाती हैं...मेरे लगाए जो पेड़ बाहर हैं उनमे एक फूल नहीं बचता...मैंने तो एक तख्ती भी लटकाई थी..."दूसरों के लगाये फूल से भगवान प्रसन्न नहीं होते"..मगर कोई फायेदा नहीं उलटे मेरा कोलेस्ट्रोल लेवल बढ़ गया...
ReplyDelete:-(
अनु
अंधविश्वासों का कोई आधार नहीं होता...बहुत सार्थक आलेख...
ReplyDeleteजैव विविधता का नाश मनुष्य ही करता जा रहा है -बहुत तेजी से ...यह दुर्भाग्यपूर्ण है !
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