Saturday, July 18, 2015

कहाँ से चले कहाँ पहुँचे ?


साथ साथ रहने का फैसला उन दोनों का था बालिग थे आत्मनिर्भर थे। अपनी समझ से दुनिया के सबसे समझदार इंसान। अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने का युवा जूनून भी था और रीति रिवाजों को बेकार रवायत कह ठोकर मारने की आधुनिकता भी। 
माता पिता क्या कहते , कह भी क्या सकते थे ? 
साथ रहते जिंदगी रंगीन हो गई नित नए रंग भरते गए प्रेमी से सह जीवन साथी एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखते एक दूसरों का काम करते करते कब बिन ब्याहे पति पत्नी हो गए पता ही नहीं चला। प्यार भी कब तक एक रंगी रहता विविध रंग भरने को दो बच्चे भी हो गए उनकी खिलखिलाहट से घर गूँजता लेकिन जल्दी ही एक के लिये वह शोर में तब्दील होने लगा।
सारी आधुनिकता और सहजीवन के बावजूद भी राहें उसी परंपरागत मंजिल तक ही पहुँची जहाँ घर का मालिक तो था मालकिन नहीं। 
जीवन में रंग भरते उसने अपने जीवन को बेरंग कर लिया था अब उसके पास ना अपना करियर था ना ही आत्मविश्वास पूर्ण व्यक्तित्व। 
आखिर एक दिन मेरा घर मेरी शांति मेरी निजता के नाम से राहें अलग अलग हो गईं। बच्चों से गर्भनाल से लगा ममता का नाता था इसलिए बच्चे उसके हिस्से में आये और मकान पुरुष के हिस्से में। 
कविता वर्मा 

5 comments:

  1. यह जीवन भी अजीब है. एक अकुलाहट सी भर देते है मन में.

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  2. samaz ke niyam bebat to bane nahi the....yese bhi hr khamiyaza auraton ko hi bhugtna padta hai...

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  3. जिंदगी क्या है शायद ऐसे पलों में सोचना ठीक नहीं होता .... पर जीना तो होता है फिर भी ...

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  4. कुछ निर्णय इन्सान को दो रास्तो पर ला कर खड़ा कर देते है ।

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