मुंबई इंदौर से होते हुए देश के अनेक शहरों में फैले गणपति उत्सव को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस उद्देश्य से शुरू किया था कि धार्मिक माहौल में इस तरीके से लोगों को एकजुट किया जा सकता है। ये परंपरा मुख्य रूप से आज़ादी की लड़ाई के लिए लोगों को संगठित करने और उसकी विभिन्न गतिविधियों से लोगो को परिचित करवाने के लिए थी। कालांतर में यह जन जन का उत्सव तो बना लेकिन इसका मूल उद्देश्य ही इसमें से गायब हो गया जो था एकजुटता। पहले जहाँ एक गाँव या शहर में एक गणपति विराजते थे वहीँ आज हर गली मोहल्ले में दो तीन गणपति की स्थापना होने लगी है। और तो और एक कुटुंब के हर परिवार में गणपति स्थापना होने लगी। कहीं कहीं तो घर के अंदर पूजा के लिए एक और बाहर झाँकी के लिये एक गणपति होते है जो बच्चों की जिद या बड़ों की शान का प्रतीक होते हैं।
बड़ी संख्या में गणपति स्थापना ने मिट्टी के बजाय पी ओ पी से बनी मूर्तियों के बाज़ार को बढ़ावा दिया। कई बरस ये मूर्तियाँ नदियों तालाबों में विसर्जित की जाती रहीं और इन्हे प्रदूषित करती रहीं। अब जब पर्यावरणविदों का ध्यान इस ओर गया और इन पर रोक लगाने की माँग उठने लगी तब तक ये मूर्तिकार संगठित हो कर किसी भी बात को समझने से इंकार करने लगे। साथ ही इनकी अपेक्षाकृत कम कीमत के चलते लोग भी इन्हे खरीदने के आदि हो गए। इन मूर्तियों का विसर्जन नदी तालाब में हो या पानी की बाल्टी में पी ओ पी और रंग भूमि प्रदूषण तो करते ही हैं।
गणपति के जन्म से दस दिन चलने वाला ये उत्सव घर में स्थापित गणपति की मूर्तियों की पूजा अर्चना के साथ भी तो मनाया जा सकता है। मूल भाव तो आराधना है। इस तरह घर घर में स्थापित पी ओ पी की मूर्तियों में कमी आएगी जिससे उनके विसर्जन से होने वाले भूमि जल प्रदूषण को भी रोका जा सकेगा।
कविता वर्मा
बहुत सुंदर
ReplyDeleteगणपति उत्सव की तैय्यारियां शुरू.
ReplyDeleteबहुत सार्थक सोच...
ReplyDeleteजी आपने सही कहा है यदि हम घर के गणेश जी की पूजा करते है तो पीओपी के इतने सारी मूर्ती बनाने की जरूरत नहीं होगी ।
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना ..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
बधाई हो मित्र ।Seetamni. blogspot. in
ReplyDelete