वैसे तो लिखने की आदत समय के साथ पनपी लेकिन धीरे धीरे इसमें मज़ा आने लगा। लेकिन ये लेखन कुछ छोटे मोटे लेखो तक ही सीमित था। गुणी जनो के संपर्क में आकर और कुछ गोष्ठियों में शामिल होते रहने से इसका फलक विस्तृत होता गया और कविता कहानियां लघुकथाओं तक जा पहुँचा। कभी सोचा न था अपना कहानी संग्रह छपेगा बस लिखने का सिलसिला थोड़ा सुचारू गति से चल निकला फिर एक ख्याल सपना बन कर जेहन पर छा गया और धीरे धीरे लगा कि एक सपना आकार ले रहा है।
अपने प्रथम कहानी संग्रह 'परछाइयों के उजाले 'पर लोगों की प्रतिक्रिया जानने की उत्सुकता किसे नहीं रहती। जान पहचान वालों की प्रतिक्रियाओं में एक अौपचारिकता भी छुपी रहती है। हालांकि अधिकतर प्रतिक्रियाएं सकारात्मक ही रहीं। कई मित्रों ने जिनमे कैलाश शर्मा जी राहुल वर्मा जी ने खुद हो कर पुस्तक समीक्षा भी लिखी जिसे समय समय पर ब्लॉग पर डालती भी रही हूँ।
फिर भी कई बार लगता था कुछ और सटीक कुछ और ईमानदार प्रतिक्रिया मिले तो खुद का सटीक आकलन कर पाऊँ। इसी सिलसिले में मेरी पुस्तक बुरहानपुर गई वहाँ डॉक्टर वीरेंद्र निर्झर जी ने समीक्षा लिखी जिनसे आज तक नहीं मिली। बस समीक्षा आने के बाद एक बार फोन पर बात हुई थी।
दिल्ली एक कथा कार्यशाला में जा रही थी तब ट्रेन में एक सहयात्री से काफी अच्छी बात चीत हुई और उन्हें अपनी एक पुस्तक भेंट की इस अनुग्रह के साथ की कैसी लगी पढ़ कर जरूर बताएं। लगभग ५ /६ महिने बाद एक मेल मिला। जिसे पढ़ कर लगा सच में जमीन से दो फुट ऊपर उड़ने लगी हूँ मैं। वह मेल यहाँ जस का तस कॉपी करके वह ख़ुशी आपके साथ शेयर करना चाहती हूँ।
प्रिय बहिन कविता जी,
नमस्ते!
नव वर्ष की शुभकमनाओं के साथ आपका सहर्ष अभिवादन। आपको इस पत्र की आशा अब न रही होगी। आपकी कथा सन्ग्रह को पूरा पढ़ने के बाद ही मै आप को पत्र लिख रहा हूं। चिकित्सा व्यवसाय की व्यस्तता से समाय चुरा कर आपकी कहानियोंका आनंद लिया। वैसे तो छोठी सी पुस्तक को एक ही दिन में पढ़ा जा सकता था।परंतु एक कहानी को पढ़ कर हफ़्तों उसका स्वाद लेने के बाद ही दूसरी को देखना उचित समझा।
आपने कहानियों में एकदम अनूठे विषयों का चयन किया है। कहानियों के पात्र अत्यंत सजीव हैं तथा अनायास ही पाठक उनके साथ जीने लगता है। फिर कहानियों के नायक नायिकाएं चाहे आधुनिक नवयुवती हो या गाँव की असहाय बहू, एक साधारण गृहणी हो या घर का झाड़ू पोंछा करने वाली, पात्रों के मनोभाव उनका विचार मंथन अपना सा लगने लगता है। उनसे पूर्णतः एकमत हो पूर्ण सहानुभूति के साथ उनके साथ साथ हो लेता है। पात्रों की छोटी छोटी बातों का भी हृदय को छूने वाला चित्रण मुंशी प्रेम चंद्र की कहानियों जैसा है। किसी भी कहानी मेँ ऐसा नहीं हुआ कि मुझे मुंशी प्रेम चंद्र की याद न आई हो। सारी कहानियाँ एक सकारात्मक मोड़ पर कुछ अच्छा करने और हार न मानने की सीख देती हुई समाप्त होती हैँ।
अब कुछ त्रुटियों की जोर इंगित करना भी आवश्यक समझता हूँ। या त्रुटि न कह कर ऐसी दो तीन चीज़े जो मुझे अटपटी सी लगीं। पहली है भूमिका मे 'ठंडियों' शब्द और आगे कहीं 'समझावट' शब्द का प्रयोग असाहित्यिक सा है। पृष्ठ 119, पंक्ति 7 पर शायद 'महिना' के स्थान पर 'महीना' होना चहिये था।
एक और चीज़ जो अनूठी और अच्छी लगी वह थी कथा संग्रह का सासू जी को समर्पित किया जाना।
आप साहित्य के जगत मेँ आगे बढ़ते हुए नई ऊंचाइयों को छुएं ऐसी शुभकामनाओं के साथ, आपका एक सहयात्री!
अरविन्द पाल तोमर
अभी इस ख़ुशी को समाहित कर ही नहीं पाई थी कि एक दिन अचानक एक मेल प्राप्त हुआ। एक पाठक का जिन्हे न जानती थी न पहचानती थी। न ही कभी उनकी कोई टिप्पणी अपनी किसी ब्लॉग पोस्ट पर देखी थी। उनका ये मेल यहाँ जस का तस दे रही हूँ।
From: Mahmud Alam
Date: Tue, Jan 27, 2015 at 1:55 PM
Subject: abhar prastvna
To: kvtverma27@gmail.com
Adarniya kavita jee, saadar pranam! Vigat ek saptah pahle sahitya ki khoj me apki ek laghu katha padhne ka soubhagya mila, padh to main samay wyatit karne ke liye tha parantu 1 ke baad 2 aur phir teesri kahani padhte hi meri khoj puri ho gaye. Vastutah do dashak pahle adhyan kaal me mujhe munshi premchand Jee ki rachnaon ka adhyan kiya aur phir munshi Jee ki sabhi sahitya sangrah Ko padh dala.taduprant maine unke samkalin anekon sahityakaron ki rachnaon ka adhyan kiya parantu premchand Jee ki rachnaon ka koi jod nahi mila man me yehi vichar ata ki kaash vê kuchh saal we yadi aur jiveet hote to na jane kitni amulya sahityik sampada hame prapt ho sakti thi. Kaalanter me Bhoutik vyastatao ke karan evang aisi kaaljayee, yatharth, shiksha parak evang anandonmukhi lekh ka sandhan na milna v ées kshetra se door rahne ka ek karan raha. Parantu jaise hi maine apki 3 kahaniya padhi, maine usi pal barambar 65 kahaniyan padh dali, apki rachnaon me v badi saralta se gudh tatwon ka yatharth chitran mila jo mere jaisa pathak ke liye badi prasannta ki baat hai. Apke lekh kisi bhi aayuwarg ke pathak Ko aakarshit, prasannachit evang sakaratmak soch Ko aage le jane me saksham hai.aap jaise veedushi mahan wyaktitwa ki swamini ka batour shikshika hona v Un lakhon bachhon ke liye soubhagya ki baat hai jinhe aapne vidya daan se sushobhit kiya.meri aapse ye vinamra aagraha hai ki aap lekhan jaari rakhen aaj samaj Ko sabse jyada sahityakar ki hi jarurat h, sahitya se susajjit wyakti nakaratmak karya se door rahne Ko pratibadhht hain, bahut bahut abhar,
नमस्ते!
नव वर्ष की शुभकमनाओं के साथ आपका सहर्ष अभिवादन। आपको इस पत्र की आशा अब न रही होगी। आपकी कथा सन्ग्रह को पूरा पढ़ने के बाद ही मै आप को पत्र लिख रहा हूं। चिकित्सा व्यवसाय की व्यस्तता से समाय चुरा कर आपकी कहानियोंका आनंद लिया। वैसे तो छोठी सी पुस्तक को एक ही दिन में पढ़ा जा सकता था।परंतु एक कहानी को पढ़ कर हफ़्तों उसका स्वाद लेने के बाद ही दूसरी को देखना उचित समझा।
आपने कहानियों में एकदम अनूठे विषयों का चयन किया है। कहानियों के पात्र अत्यंत सजीव हैं तथा अनायास ही पाठक उनके साथ जीने लगता है। फिर कहानियों के नायक नायिकाएं चाहे आधुनिक नवयुवती हो या गाँव की असहाय बहू, एक साधारण गृहणी हो या घर का झाड़ू पोंछा करने वाली, पात्रों के मनोभाव उनका विचार मंथन अपना सा लगने लगता है। उनसे पूर्णतः एकमत हो पूर्ण सहानुभूति के साथ उनके साथ साथ हो लेता है। पात्रों की छोटी छोटी बातों का भी हृदय को छूने वाला चित्रण मुंशी प्रेम चंद्र की कहानियों जैसा है। किसी भी कहानी मेँ ऐसा नहीं हुआ कि मुझे मुंशी प्रेम चंद्र की याद न आई हो। सारी कहानियाँ एक सकारात्मक मोड़ पर कुछ अच्छा करने और हार न मानने की सीख देती हुई समाप्त होती हैँ।
अब कुछ त्रुटियों की जोर इंगित करना भी आवश्यक समझता हूँ। या त्रुटि न कह कर ऐसी दो तीन चीज़े जो मुझे अटपटी सी लगीं। पहली है भूमिका मे 'ठंडियों' शब्द और आगे कहीं 'समझावट' शब्द का प्रयोग असाहित्यिक सा है। पृष्ठ 119, पंक्ति 7 पर शायद 'महिना' के स्थान पर 'महीना' होना चहिये था।
एक और चीज़ जो अनूठी और अच्छी लगी वह थी कथा संग्रह का सासू जी को समर्पित किया जाना।
आप साहित्य के जगत मेँ आगे बढ़ते हुए नई ऊंचाइयों को छुएं ऐसी शुभकामनाओं के साथ, आपका एक सहयात्री!
अरविन्द पाल तोमर
अभी इस ख़ुशी को समाहित कर ही नहीं पाई थी कि एक दिन अचानक एक मेल प्राप्त हुआ। एक पाठक का जिन्हे न जानती थी न पहचानती थी। न ही कभी उनकी कोई टिप्पणी अपनी किसी ब्लॉग पोस्ट पर देखी थी। उनका ये मेल यहाँ जस का तस दे रही हूँ।
From: Mahmud Alam
Date: Tue, Jan 27, 2015 at 1:55 PM
Subject: abhar prastvna
To: kvtverma27@gmail.com
Adarniya kavita jee, saadar pranam! Vigat ek saptah pahle sahitya ki khoj me apki ek laghu katha padhne ka soubhagya mila, padh to main samay wyatit karne ke liye tha parantu 1 ke baad 2 aur phir teesri kahani padhte hi meri khoj puri ho gaye. Vastutah do dashak pahle adhyan kaal me mujhe munshi premchand Jee ki rachnaon ka adhyan kiya aur phir munshi Jee ki sabhi sahitya sangrah Ko padh dala.taduprant maine unke samkalin anekon sahityakaron ki rachnaon ka adhyan kiya parantu premchand Jee ki rachnaon ka koi jod nahi mila man me yehi vichar ata ki kaash vê kuchh saal we yadi aur jiveet hote to na jane kitni amulya sahityik sampada hame prapt ho sakti thi. Kaalanter me Bhoutik vyastatao ke karan evang aisi kaaljayee, yatharth, shiksha parak evang anandonmukhi lekh ka sandhan na milna v ées kshetra se door rahne ka ek karan raha. Parantu jaise hi maine apki 3 kahaniya padhi, maine usi pal barambar 65 kahaniyan padh dali, apki rachnaon me v badi saralta se gudh tatwon ka yatharth chitran mila jo mere jaisa pathak ke liye badi prasannta ki baat hai. Apke lekh kisi bhi aayuwarg ke pathak Ko aakarshit, prasannachit evang sakaratmak soch Ko aage le jane me saksham hai.aap jaise veedushi mahan wyaktitwa ki swamini ka batour shikshika hona v Un lakhon bachhon ke liye soubhagya ki baat hai jinhe aapne vidya daan se sushobhit kiya.meri aapse ye vinamra aagraha hai ki aap lekhan jaari rakhen aaj samaj Ko sabse jyada sahityakar ki hi jarurat h, sahitya se susajjit wyakti nakaratmak karya se door rahne Ko pratibadhht hain, bahut bahut abhar,
अभी अभी मेरी एक कहानी उज्जैन से निकलने वाली समावर्तन पत्रिका में प्रकाशित हुई। उस कहानी को मेल द्वारा डॉक्टर गरिमा को भेजा जिनसे यूं तो कोई पहचान नहीं है न ही कभी कोई अनौपचारिक बात चीत हुई है ,हम व्हाट्स अप के एक ग्रुप में हैं बस। कहानी पढ़ कर उनका जो कमेंट आया उसे शेयर कर रही हूँ।
कविता जी की कहानी ने शरणदाता की याद दिला दी।कविता जी में अच्छा गद्य लिखने की ताक़त है।मन की बात कह पाना अल्ताफ के लिए आसान न था ,लेकिन सबके लिए मुमकिन नहीं,कहानी का अंत प्रेमचंद के आदर्शवादी अंत की याद दिलाता है।हम जिस समय में जी रहे हैं वहां आत्मीयता की जगह स्वार्थ और तटस्थता ले रहे हैं।ऐसी कहानियां इस प्रक्रिया में सकारात्मक हस्तक्षेप करती हैं।सम्मान नीय कविता जी आप इसे अच्छी जगह छपने भेजिए।
सृजन एक मानसिक संतोष देता है। लेकिन परचित और अपरिचित लोगों से मिली टिप्पणियां उत्साह बढ़ा देती हैं।
कविता वर्मा
कविता जी सर्वप्रथम तो मेरी बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteआपके इन सुखद पलों कि सहभागी बनना चाहती हूँ
सादर
aapki khushi ko mahsus kr rahi hun..badhai khoob dher sari aapko..
ReplyDeleteअपने लेखन के मर्म को जब कोई समझ पाता है और सराहना करता है तो निश्चय ही एक खुशी होती है. बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं!
ReplyDeleteशुभकामनाऐं :)
ReplyDeleteशुभकामनाऐं :)
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
लेखनी को नमन
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