Monday, August 3, 2015

क्या समय के साथ बदलना जरूरी नहीं है ?


आज राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त के जन्मदिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला।  कार्यक्रम हिंदी साहित्य समिति में हिंदी परिवार और मैथलीशरण गुप्त स्मारक एवम पारमार्थिक ट्रस्ट द्वारा आयोजित था। इसी कार्यक्रम में शहर के पाँच वरिष्ठ साहित्यकारों का सम्मान भी किया गया। कार्यक्रम में बैठे हुए कुछ बातों पर ध्यान गया जो आपके साथ साझा करना चाहती हूँ। 
 जयंती और सम्मान कार्यक्रम के आयोजक का स्टेज पर बड़ा सा बैनर लगा था मैथलीशरण गुप्त (गहोई वैश्य समाज ) स्मारक एवम पारमार्थिक ट्रस्ट। स्वाभाविक है मैथली शरण जी गहोई वैश्य समाज के रहे होंगे समाज उनके नाम को अपने गौरव के रूप में प्रचारित करना चाहता था इसलिए उनके नाम के आगे गहोई वैश्य समाज लिख कर दर्शाना चाह रहा था। लेकिन मुझे लगा ऐसा करके राष्ट्र कवि की छवि को सिर्फ एक समाज जो असल में जाति का द्दोतक थी में बाँध दिया गया। राष्ट्र कवि पूरे देश के होते हैं क्या उनके नाम के आगे गहोई वैश्य समाज लिखा जाना जरूरी था ? क्या इसके कोई और मायने थे जो मैं समझ नहीं पा रही हूँ ? 

मुझे आश्चर्य होता है साहित्यकारों के समारोह में इस तरह की सोच प्रकट की जा रही थी। क्या किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया या लोग देख कर भी अनदेखी कर देते हैं।

कार्यक्रम का समय शाम साढ़े पाँच बजे का था जिसे शुरू होते लगभग ६ :१५ हो गये इसके बाद शुरू हुआ साहित्यकारों का सम्मान जिसमे एक एक साहित्यकार को स्टेज पर बुलाया गया उनका शाल श्रीफल फूलमाला से स्वागत किया गया जिसके लिये गहोई वैश्य समाज के सम्माननीय पदाधिकारी स्टेज पर आये। यही चलन है सम्मान तो बाकायदा विधि विधान से होना चाहिये।  फिर सभी सम्माननीय साहित्यकारों को फोटो खिंचवाने के लिये एक साथ स्टेज पर बुलवाया गया इसमे फिर आधा घंटा लग गया। अब कार्यक्रम शुरू ही होने वाला था इसलिए सोचा बस थोड़ी देर और। 

कार्यक्रम के प्रथम वक्ता मंच पर आये और उन्होंने मंचासीन अतिथियों सम्मानित अतिथियों को सम्बोधित करने के साथ साथ सभा बैठे उनके परिचित एक एक व्यक्ति का नाम लेकर उनका आभार व्यक्त करना शुरू किया। लगभग एक घंटा हो चुका था कार्यक्रम शुरू हुए लेकिन कार्यक्रम तो अब तक शुरू ही नहीं हुआ था। सभागृह में नज़र दौड़ाई तो देखा वहाँ 95 फ़ीसदी अतिथि बुजुर्ग और रिटायर लोग थे। मैं यह नहीं कहती कि उनके पास टाइम ही टाइम होता है लेकिन फिर भी वहाँ युवा लोगों की संख्या ना के बराबर थी।  जो इक्का दुक्का लोग थे भी वे गहोई वैश्य समाज के पदाधिकारी थे।  महिलायें भी बहुत कम थी। कुछ नौकरी पेशा महिलाये थीं लेकिन इतनी लम्बी औपचारिकता से उकता कर और अपनी अन्य जिम्मेदारियों का ख्याल कर वे उठ कर चल दीं। 


इतने लम्बे और उबाऊ अौपचारिक कार्यक्रम में बैठना वाकई मुश्किल था इसलिए मैं भी वापस आ गई। एक अच्छा कार्यक्रम एक विद्वान अतिथि को सुनने की इच्छा सदियों पुरानी स्वागत परंपरा और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ गया। 
कविता वर्मा  





  

4 comments:

  1. आजकल चर्चा के विषय को छोड़ कर सभी चीज़ों की चर्चा हो जाती है.

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  2. wyakti puja to aaj ke khel ho gaye hain.sarthak lekh hai ispr to charcha honi chahiye..

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  3. बहुत दिनों बाद आपका पोस्ट पढ कर अभिभूत हुआ। शुभकामनाएं ।

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