पहले किसानों की हड़ताल फिर प्याज़ की खरीदी ना हो पाने से सड़ता हुआ प्याज़ और अब बीज का ख़राब हो जाना किसानों पर चौतरफा मार है। जिनके पास पानी है वे तो फिर भी किसी तरह अपनी फसलों को जीवित रखने की कोशिश में लगे हैं लेकिन जिनके पास पानी नहीं है वे दुबारा बीज खरीदने को विवश हैं।
बीते कुछ वर्षों में बारिश तो ठीक ठाक हुई है लेकिन जब मौसम विभाग ने बताया उस समय नहीं।
आज जबकि आधुनिक तकनीक सेटेलाइट के द्वारा अंतरिक्ष से मौसम पर नज़र रखी जा रही है ऐसे समय में ज्यादा सटीकता की उम्मीद करना चाहिए लेकिन लगातार नाउम्मीदी ही मिल रही है। ऐसे में क्या समझा जाये तकनीक गलत है या इन तकनीकों से मिलने वाले डाटा को सटीक तरह से पढ़ने उसका विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिक अधिकारी नहीं हैं ?
कुछ सालों पहले तक किसान मानसून के लिए गाँव के बड़े बुजुर्गों के द्वारा प्रकृति के सूक्ष्म निरिक्षण आधारित भविष्यवाणियों पर निर्भर रहते थे। टिटहरी का जमीन पर अंडे देना आसमान में भूरे बादलों का होना , पक्षियों का व्यवहार पढ़ना और समझना आदि। कालांतर में वह ज्ञान धीरे धीरे विलुप्त होता जा रहा है .नयी पीढ़ी में इसे ग्रहण करने की इच्छा नहीं है और पुरानी पीढ़ी का अपनी उपेक्षा के चलते उसे अपने तक सीमित रखना मुख्य कारण है। लेकिन इस सब में नुकसान तो सभी का है।
कृषि अधिकारी जो आसानी से इन बुजुर्गों तक पहुँच सकते हैं उन्हें इन प्राकृतिक संकेतों को उनसे सीखने की जरूरत है। सेटेलाइट से मिले डाटा और इन प्राकृतिक संकेतों को सम्मिलित करके सटीक भविष्यवाणी कर देश और किसान हित में काम किया जाना चाहिए साथ ही भारत की प्राचीन तकनीक और ज्ञान को सहेजने की आवश्यकता है।
अभी कुछ समय पहले एक आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास जाने की जरूरत पड़ी। डॉक्टर ने मौखिक रूप से लक्षण पूछे और दवाइयाँ लिख दीं। याद करिये पहले एलोपैथी डॉक्टर भी आपकी नब्ज देखते थे स्टेथोस्कोप से धड़कन सुनते थे आँखों की जीभ की जाँच करते थे। आयुर्वेद तो पूरी तरह नाड़ी परीक्षण पर निर्भर था और सुबह जल्दी खाली पेट वैद्य नाड़ी देखते थे और मरीज के बताने के पहले ही उसके शरीर की अनियमितता और उनकी जड़ को पकड़ लेते थे। अब यह कला और ज्ञान भी लुप्त होता जा रहा है। एक प्रसिद्द आयुर्वेदिक दवा की दुकान पर किसी अच्छे नाड़ी वैद्य के बारे में पूछा तो जवाब मिला आजकल नाड़ी परीक्षण करने वाले वैद्य तो नहीं के बराबर रह गए हैं हम तो लक्षण के अनुसार दवा दे देते हैं। तो क्या अब नाड़ी परीक्षण की यह प्राचीन भारतीय विद्या लुप्त होती जा रही है ? क्या इसे सहेजने की आवश्यकता नहीं है ? आयुर्वेदिक कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को क्या यह विधा नहीं सिखाई जा रही है या वे बाज़ारवाद का शिकार होकर इसे दरकिनार कर पैथोलॉजी टेस्ट करवाकर बीमारी को पकड़ कर खुद का कमीशन बनाने के लिए इसे छोड़ रहे हैं?
आधुनिक तकनीक के साथ ही अपने समृद्ध ज्ञान और तकनीक को संरक्षित किये बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता। अपने आसपास देखेंगे तो पाएंगे कि भारत की समृद्ध परंपरा की कई ऐसी प्राचीन पद्धति विलुप्ति के कगार पर हैं। जरूरत है समय रहते इन्हें संरक्षित और प्रोत्साहित करने की।
कविता वर्मा
सार्थक लेख .भारत की समृद्ध परम्परा और ज्ञान संरक्षित होना ही चाहिए .
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने, अपने विशुद्ध ज्ञान की अनदेखी कर हम पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं। हम अपने ज्ञान को बचाकर उसे और भी परिष्कृत करने की आवश्यकता है।
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लागिंग
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-07-2017) को "एक देश एक टैक्स" (चर्चा अंक-2662) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कविता जी,
ReplyDeleteविडंबना ही समझिए यदि आज कोई नाड़ी देख कर निदान करेगा तो लोग उस पर विश्वास ही नहीं करेंगे ! उल्टे कुछ तथाकथित मॉडर्न लोग उसे बदनाम ही कर के धर देंगे !
सही कह रही हैं आप । मौसम का अनुमान और आयुर्वेद का नाड़ी परीक्षण से रोग निदान जैसी पारंपरिक पद्धतियां को हम तब की वैज्ञानिक पद्धतियां कह सकते हैं क्योंकि ये ‘बार.बार अवलोकन, निरीक्षण , विश्लेषण और फिर अंत में निष्कर्ष प्राप्त करना’ जैसे वैज्ञानिक अध्ययन की पद्धति पर आधारित होते थे ।
ReplyDeleteसचमुच इन्हें सहेजने की ज़रूरत है ।