इतिहास गवाह है कि जब भी कोई संघर्ष होता है हमारी संवेदना हमेशा उस पक्ष के लिए होती हैं जो कमजोर है ऐसा हमारे संस्कारों संस्कृति के कारण होता है जो करुणामय है और जो हमेशा कमजोर और शोषक के प्रति कोमल भाव रखती है। यहाँ मसला चाहे स्त्री पुरुष का हो या मजदूर जमींदार का , दलित स्वर्ण का हो या जनता और सत्ता। हमेशा सबल दोषी और निर्बल शोषित होता है ऐसा हम मानते हैं।
समय के साथ जब कई वर्जनाएं टूट रही हैं तब क्या ऐसा नहीं लगता कि इन स्थितियों का भी दुबारा आकलन करने की जरूरत है ? आज जब भारत विकास के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ चला है तब भी गरीब शोषक की अपनी स्थिति को अपनी ढाल बनाना और अवसरवादियों को इस ढाल का अनुचित उपयोग करने देना आखिर किसके लिए फायदेमंद है ?
मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन की शुरुआत तो हुई थी महाराष्ट्र के किसानों की कर्जमाफी की मांग को समर्थन देने से जो कब खुद के आंदोलन और खुद की कर्ज माफ़ी में बदल गईं पता ही नहीं चला। आज से तीस चालीस साल पहले जब किसानों को सशक्त बनाने के लिए बैंकों से लोन देने की शुरुआत हुई थी तब इसका मकसद उन्हें जमीदारों और साहूकारों के ब्याज के चुंगल से मुक्ति दिलाना था। उस समय किसानों की हालत वाकई बेहद दयनीय थी। साहूकारों से लिया गया कर्जा पीढ़ियों तक चुकाया नहीं जा पाता था क्योंकि किसानों का अनपढ़ होना ब्याज के चक्रव्यूह में फँसना और साहूकारों की दबंगई के कारण अपनी बात ना कह पाना मुख्य वजह थी। उस समय खेती पूरी तरह मौसमी बारिश पर निर्भर थी इसलिए एक फसल बिगड़ने का खामियाज़ा पीढ़ियाँ भुगतती थीं।
बैंकों से लोन मिलने से किसान इस दबंगई से मुक्त हो सके लेकिन कर्ज तो कर्ज ही है। बैंक से कर्ज मिलने पर सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते ब्याज से तो मुक्ति मिली ही मौसम या अन्य किसी कारण से होने वाली फसलों की बर्बादी के समय सरकारों ने सदाशयता दिखते हुए किसानों का कर्ज माफ़ किया। कृषि विभाग के सतत प्रयासों सिंचाई उन्नत बीज खाद कीटनाशक की उपलब्धता और इस दिशा में होने वाले शोध के कारण प्रति एकड़ किसानों की आय में भी इजाफा हुआ।
मध्यप्रदेश के मालवा अंचल में जहाँ अभी किसान आंदोलन अपने चरम पर है जो उग्र होकर हिंसक हो गया है वह खेती का सबसे समृद्ध इलाका कहलाता है। मंदसौर नीमच अफीम की उपज का इलाका है तो देवास अपनी काली मिट्टी के कारण सोयाबीन जैसी नकद फसल का इलाका है। यहाँ के किसानों की आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर मैंने खुद पिछले तीस सालों में देखा है। गाँवों में कुछ बहुत छोटे किसानों को छोड़ दें तो अधिकतर पक्के मकान हैं। हर पुरुष सदस्य के पास अपनी मोटर बाइक घर में एक कार या बड़ी गाड़ी और घर में टीवी फ्रिज जैसी आधारभूत जरूरतों के साथ ए सी कूलर भी लगभग हर घर में हैं।
हाँ इन घरों से जो चीज़ें लुप्त हुई हैं वे चौंकाने वाली हैं। बड़े किसानों के यहाँ अब गाय भैंस बैल हल नहीं हैं। खेती के पूरक इन जानवरों को सुविधा के नाम पर घर से बेदखल कर दिया गया है। खेती के लिए ट्रेक्टर का उपयोग होता है इसलिए बैल अब सर्वथा अनुपयोगी हो गए हैं। स्वाभाविक है इससे खेत में बुआई की लागत में बढ़ोत्तरी हुई है।
घर में जानवरों के ना रहने से घर में बनने वाली गोबर खाद का स्त्रोत ख़त्म हो गया है और किसान पूर्णतः रासायनिक खाद पर निर्भर हैं। रासायनिक खाद पर सरकार सब्सिड़ी देती है जिसका छोटे बड़े सभी किसान फायदा उठाते हैं लेकिन फिर भी खाद खरीदना तो पड़ती ही है। इस तरह कृषि उपज की लागत बढ़ जाती है।
फसल की कटाई ज्यादातर हार्वेस्टर से होती है जो पंजाब से मध्य प्रदेश आते हैं लिहाजा उनकी प्रति एकड़ कीमत भी ज्यादा होती है।
पहले किसानों के घर छोटे होते थे लेकिन उनमे कृषि उपज रखने के कोठे जरूर होते थे जिनमें बीज और सही समय और सही कीमत मिलने तक फसल स्टोर की जाती थी। अब उपज खेत से सीधे मंडी पहुँचती है। एक ही समय में मंडी में ज्यादा उपज पहुँचने का फायदा बिचौलिये और व्यापारी उठाते हैं और समर्थन मूल्य से कम कीमत पर उपज खरीदते हैं। किसान चूँकि ट्रेक्टर या ट्रक का भाड़ा देकर मंडी पहुँचता है और उसके पास अपनी उपज रखने का कोई स्थान नहीं होता इसलिए जो भाव मिले उसी पर बेच कर जाना उसकी मजबूरी हो जाती है।
किसान को तुरंत पैसे की जरूरत इसलिए भी होती है ताकि वह बैंक का कर्ज चुका सके। वह कर्ज जो उसने वह बीज खरीदने के लिए लिया जो उसके खेत में उपज रहा था। वह खाद खरीदने के लिए लिया जो वह घर में बिना लागत घर में बना सकता था। कीटनाशक का अंधाधुंध प्रयोग कर कृषि लागत बढ़ा कर कर्ज की राशि बढ़ाई जाती है क्योंकि इन पर सब्सिड़ी मिलती है।
किसी वर्ष मानसून या मौसम की बदमिजाजी के कारण फसल ख़राब होती है इससे किसानों का नुक्सान होता है लेकिन हर वर्ष करोड़ों रुपये राहत के नाम पर बँटते हैं बैंक से कर्जे माफ़ होते हैं कुछ केस में वाकई फसल ख़राब होती है लेकिन फिर भी मंडी में पहुँचने वाली उपज की मात्रा में कितनी कमी आती है अगर इसके आंकड़े जुटाए जाएँ तो परिणाम हतप्रभ कर देंगे।
मध्यप्रदेश में बिजली की उपलब्धता काफी अच्छी है। लगभग पच्चीस वर्ष पहले किसानों को सिर्फ रात में बिजली मिलती थी और कड़ाके की सर्दी में वह रात में सिंचाई करने को मजबूर था। लेकिन अब गाँव के किसान प्रतिनिधि से पूछ कर बिजली सप्लाय का समय सुनिश्चित किया जाता है और यह समय बदलता रहता है। किसान की फसल की जरूरत के अनुसार कम समय के लिए सिंचाई हेतु कनेक्शन मिल जाता है जो बिजली की लागत से कम दर पर होता है।
यह सर्वविदित है कि कृषि आय पर इनकम टैक्स नहीं लगता। अर्थात किसानों की जो भी आय होती है वह पूरी तरह उनकी होती है। छोटे किसानों से लेकर बड़े बड़े किसानों तक की आय पर कोई टैक्स नहीं लगता और समान सब्सिडी या कर्ज माफ़ी भी मिल जाती है। जबकि आम मध्यम वर्ग उच्च वर्ग की आय पर टैक्स तो लगता ही है बैंक से लिए गए किसी भी कर्ज के लिए किसी भी हालत में कोई राहत नहीं मिलती।
मान लीजिये किसी मध्यम वर्गीय नौकरी पेशा व्यक्ति ने बैंक से मकान बनवाने के लिए कर्जा लिया और उसी समय परिवार में किसी का स्वास्थ्य ख़राब हुआ और इलाज पर काफी खर्च हो गया या घर मालिक की मौत हो गई तो क्या उसका कर्जा माफ़ होता है ?
दरअसल हम आज भी अपने दिमाग में बनी दीन हीन किसान की छवि को अनावश्यक रूप से बनाये हुए हैं। हो सकता है सुदूर कहीं कुछ प्रतिशत किसान ऐसे होंगे और उनके उत्थान के लिए सरकार और किसान संगठनों को आगे आना भी चाहिए। उन्हें कर्ज और सब्सिड़ी मुहैया करवाना भी चाहिए लेकिन ऐसा किसान अपनी उपज को सडकों पर बर्बाद नहीं करता। ऐसा किसान अनावश्यक खुद को कर्जे में नहीं डुबोता।
हम मानते हैं कि किसान हमारा अन्न दाता है। अपने भोजन के लिए हम उसपर निर्भर हैं और इसके लिए हमें उसका आभारी होना चाहिए। हम आभारी हैं भी लेकिन इसके बावजूद भी वह देश का नागरिक है और देश के प्रति, जिस प्रकृति से वह अपना जीवन यापन कर रहा है उसके प्रति उसका भी कर्तव्य है। क्या किसान अपना कर्तव्य निभा रहा है ? क्या हमने कभी किसान के कोई कर्तव्य निर्धारित भी किये हैं ? हम अनावश्यक करुणा उंडेल कर खुद को महान बनाने के चक्कर में देश के एक बड़े तबके को उनके कर्तव्य से परे रख कर देश का भला तो नहीं ही कर रहे हैं।
देश में एम्प्लॉयमेंट के अवसर कृषि क्षेत्र से खिसक कर उद्योग की तरफ आ गए हैं। उद्योग फैक्ट्री फर्म जिनमे स्माल एंड मध्यम इंटरप्राइजेज (SME) और माइक्रो स्माल एंड मीडियम इंटरप्राइजेज (MSME) ९५% तक एम्प्लॉयमेंट दे रहे हैं। वहीँ कृषि क्षेत्र में एम्प्लॉयमेंट के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। जब उद्योगों को लीज पर जमीन और अन्य सुविधा उपलब्ध करवाई जाती हैं तब बहुत हल्ला होता है। सरकार को अमीरों की कठपुतली तक बताया जाता है जबकि इन्हीं सब्सिड़ी के साथ ये उद्योग नौकरी के अवसर देने के लिए बाध्य होते हैं।
किसानों को भी सरकार कई सब्सिड़ी देती है लेकिन क्या उनके लिए एम्प्लॉयमेंट देने की कोई बाध्यता है ? किसान खेती के कामों से मानव श्रम को मशीनों से विस्थापित करते जा रहे हैं जिससे गाँवों में काम की कमी के चलते मजदूरों का शहरों में विस्थापन हो रहा है और कृषि उपज की लागत बढ़ रही है।
सिंचाई के लिए नहर से पानी पहुँचाया जाता है। जहाँ नहर नहीं हैं वहाँ ट्यूब वेल हैं। प्रकृति का दोहन करने वाले छोटे बड़े किसान भी इस की पूर्ती करने के इच्छुक नहीं होते। क्या जल संवर्धन के लिए प्रति एकड़ कोई जमीन का हिस्सा तय किया गया है जिसमे जल संवर्धन आवश्यक किया जाये ?
मशीनों से कटाई कर किसान खेतों में आग लगा देते हैं जो गंभीर पर्यावरण संकट खड़ा कर रहा है क्या आज तक किसी किसान के विरुद्ध कोई कार्यवाही हुई ?
खेतों में आग के चलते भुसा महंगा हो रहा है जिससे अन्य पशुपालकों के लिए दूध उत्पादन महँगा हो रहा है जिसका असर दूध के दाम और आम आदमी पर पढ़ रहा है। क्या कोई इन्हें रोक पा रहा है ?
किसानों में बड़े घर तो बना लिए लेकिन अपनी उपज रखने के लिए भंडार ख़त्म कर दिए। गर्मी बारिश में अनाज खुले में पड़ा रहता है और ख़राब होता है। किसान हंगामा कर आंदोलन कर मीडिया और राजनितिक संरक्षण के बल पर सरकार से उसका मुआवजा ले लेते हैं। दस क्विंटल अनाज सड़ता है तो बीस क्विंटल के मुआवजे का क्लैम करते हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि इतनी सारी सब्सिडी के साथ पैदा किये गए अनाज के भंडारण की व्यवस्था किसान का दायित्व नहीं होना चाहिए ? किसान को अपनी उपज के मान से भंडारण की व्यवस्था करने के लिए बाध्य क्यों नहीं किया जा सकता ? ज्यादा ही है तो इसके लिए कम ब्याज पर कर्ज उपलब्ध करवाया जाये लेकिन अगर अनाज ख़राब होता है इसके लिए किसान को दोषी बनाया जाये क्योंकि उस उपज में देश का पैसा लगा है हर टैक्स भरने वाले इंसान का पैसा लगा है।
सब्जी फल फूल जैसी नकद फसलों के लिए पूरी तरह ऑनलाइन ट्रांजेक्शन होना चाहिए और एक तय सीमा के ऊपर टैक्स का प्रावधान भी। सिर्फ एक व्यवसाय के नाम से अनापशनाप पैसा कामना उस पर कोई टैक्स ना देना और सडकों पर फेंक कर उसे बर्बाद करने का हक़ किसी किसान को भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि उसकी उपज में उसकी मेहनत तो है लेकिन देश का हर आम आदमी का पैसा भी लगा है।
अब समय आ गया है कि किसानों की असली स्थिति का पुनः और सही मूल्यांकन किया जाये और उन्हें देश के प्रति जिम्मेदार बनाया जाये।
कविता वर्मा
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