हर न्यूज़ चैनल पर अन्ना हजारे के अनशन की खबर थी. पूरा देश आंदोलित हो उठा था नेहा ने घडी पर नज़र डाली .११ बज गए विवेक अभी तक नहीं लौटे .बच्चे खाना खा कर सो गए .नेहा ने टी. वी बंद कर दिया और अखबार खोल कर बैठ गयी .अखबार में भी वही खबरें .एक बुजुर्ग का यूं आवाज़ उठाना ..वह अभिभूत हो उठी .सच है आवाज़ तो उठानी ही होगी .
नेहा के मन में कुछ कुलबुला गया .आज विवेक से बात करूंगी .ये रोज़ रोज़ ऑफिस के बाद यार -दोस्तों के साथ बैठना ,खाना -पीना और देर से घर आना,बच्चों से तो मिलना ही नहीं होता.घर के लिए भी तो उनकी जवाबदारियाँ है .
विवेक के आने पर वह चुप ही थी ,पर मन में विचार उबल रहे थे .उसकी चुप्पी को भांपते ,बिस्तर पर बैठते विवेक ने उसके हाथ पर दस हजार रुपये रखे और कहा -तुम बहुत दिनों से शोपिंग पर जाने का कह रही थीं न.ऐसा करो कल सन्डे है तुम बच्चों को लेकर चली जाओ ,में छोड़ दूंगा मॉल में .तुम कहो तो में भी चलूँ ,पर तुम्हे पता है में बोर हो जाता हूँ.२-३ घंटे सो लूँगा में तब तक. और हाँ अपने लिए दो -तीन बढ़िया साड़ियाँ ले लेना .पैसों की चिंता मत करना और लगे तो में दे दूंगा .
और नेहा बिना कुछ कहे भाव-विभोर हो कर विवेक के आगोश में समा गयी.
नईदुनिया( इन्दोर) नायिका में २५ मई २०११ को प्रकाशित .
आज के सच को बखूबी बयां कर दिया आपने।
ReplyDelete---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्या दोगे प्यार की परिभाषा?
बहुत सटीक प्रस्तुति...जब तक अपने अंतर्मन में ईमानदारी की आवाज़ पैदा नहीं होगी, तब तक केवल भ्रष्टाचार को सोच कर भावुक होने या कोसने से कुछ नहीं होगा..बहुत सार्थक और सुन्दर लघुकथा..
ReplyDeletehahaha... yahi nanga satya hai
ReplyDeleteरोज़ ऑफिस के बाद यार -दोस्तों के साथ बैठना ,खाना -पीना और देर से घर आना,बच्चों से तो मिलना ही नहीं होता.घर के लिए भी तो उनकी जवाबदारियाँ है। लेकिन शापिंग से बढकर कुछ नही महिलाओं के लिए .. हाहाहहाहहाहाहाहा
ReplyDeleteबडा कडवा सत्य प्रस्तुत किया है।
ReplyDeleteये बीमारी घर-घर की कहानी बन गयी है...कोई ये नहीं पूछता की...पिसे आय कहाँ से...अच्छी कहानी...
ReplyDeletebitter truth.... commonest of all.
ReplyDeleteलक्ष्मी जी के आते ही सब इंतज़ार ऐसे ही काफूर हो जाते है ! कवीताजी अच्छी चुनाव एवंग पोस्ट
ReplyDeleteसटीक! एकदम सटीक!
ReplyDeleteऔर यह हर घर, हर भारतीय की कहानी है...
बहुत सार्थक और सुन्दर लघुकथा| धन्यवाद|
ReplyDeleteफिर बताओ भ्रष्टाचार कैसे दूर हो ? सटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteभ्रष्टाचार यानि भ्रष्ट + आचार कितना स्वादिष्ट ?अब बेचारा अन्ना क्या करे ? सार्थक पोस्ट , आभार
ReplyDeleteवर्तमान का यही सच है.
ReplyDeleteचोरो से सावधान
ReplyDeleteचोरो से सावधान
ReplyDeleteचोरी की खबर मिली, तो देखने आये हैं...
ReplyDelete@ Kasu kahun.
ReplyDelete@ श्री ललित शर्मा सा.,
@ Shri Arunesh C. Dzwe
@ सूश्री रश्मि प्रभाजी
आपका यह आरोप शब्दशः सही है कि जिन्दगी के रंग ब्लाग पर प्रसारित प्रसंग रिश्वत का दौर नईदुनिया में प्रकाशित हो चुकी कथा रही है । किन्तु मेरा निवेदन मात्र इतना ही है कि इस ब्लाग पर मेरी अधिकांश सामग्री कहीं न कहीं से पढी हुई ही आप पाएँगे । मुझे दुःख है कि सूश्री कविताजी का सन्दर्भ मेरी जानकारी में नहीं आ पाया और इसी कारण लेखक के रुप में उनके नाम का इजहार यहाँ होना छूट गया जबकि पूर्व की कई पोस्ट में आप इस प्रकार की अधिकांश पोस्ट के अन्त में सन्दर्भ नाम देख सकते हैं । क्षमायाचना के साथ मैं इस पोस्ट को इस ब्लाग पर से तत्काल हटा रहा हूँ । इस सन्दर्भ में किसी भी ब्लागर के मानसिक संताप के लिये मैं विनम्रतापूर्वक पुनः क्षमा चाहता हूँ ।
सुशील जी , स्वरचित रचना ब्लॉग पर डालें तो सार्थक लेखन कहलायेगा । कहीं से टीप कर देना है तो पूरा क्रेडिट मूल लेखक को ही देना चाहिए ।
ReplyDeleteसुशील जी
ReplyDeleteबिना नाम लिखे रचना को लिखना तो चोरी ही कहलाएगा... किसी और का लेख लिखने समय उसको सूचित किया जाना भी ज़रुरी है... और अगर लेखक को एतराज़ हो तो लिखा नहीं जाना चाहिए... क्योंकि वाहन कविता जी का नाम नहीं लिखा था, इसलिए मुझे भी लगा कि आपने ही लिखा है... चलिए अभी वही टिपण्णी यहाँ कविता जी को भी लिख देता हूँ, क्योंकि इस टिप्पणी पर उनका हक है.
"हा हा हा... बहुत ही करार मारा आपने... बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है, ज़रूरत उस पर अमल करने की है."
प्रेम रस
aaj ke samaj ke dogale pan ko prastut kati huee jabardast kahani.
ReplyDeleteसुशील जी का स्पस्टीकरण गले से उतरता नहीं...शर्मनाक स्तिथि..
ReplyDeleteयही तो...जब तक महैलायें अपने पति-बच्चों व स्वयं को अधिक धन-मोह से अलग नहीं करतीं ...कुछ नहीं होगा...
ReplyDelete