Monday, May 21, 2012

अलीबाग यात्रा २

baiking 
आज सोमवार है सुबह शांत थी जब हम बीच पर पहुंचे ज्यादा भीड़ भाड़ वहां नहीं थी.रविवार सुबह एक अलग नज़ारा वहां देखा था,जो समुद्र में जाने के उत्साह में ध्यान में कम रहा.सुबह सुबह करीब २०-२५ लोगों की टोली हाथ में बेलचे फावड़े लिए झाड़ियों में अटके कागज़ पुलिथीं निकल कर जला रहे थे. ये यहाँ के स्थानीय निवासी थे जो इस बीच से आने वाली पीढ़ी के लिए ना सिर्फ रोज़गार की सम्भावना देख रहे थे बल्कि अपनी प्राकृतिक विरासत को सहेज रहे थे. देख कर अच्छा लगा लेकिन एक विचार ये भी मन में आया की इस काम के लिए हमारे यहाँ सुविकसित तंत्र कब होगा? इतना टेक्स देने के बावजूद भी अगर हर काम हमें ही हाथ में लेना है .क्या सरकारी मशीनरी काम के हिसाब से स्टाफ की नियुक्ति नहीं कर सकती? या नियुक्त लोगो को काम के लिए जरूरी सुविधा मुहैया करवा कर काम की सुनिश्तित्ता नहीं करवा सकती? ये तो अच्छा है की स्थानीय लोग शुरू से जागरूक है अन्यथा यह बीच जल्दी ही मुंबई के जुहू जैसे गंदे बीच में बदल जायेगा. वैसे भी यहाँ का मुख्य बीच अलीबाग बीच की गन्दगी का आलम देख कर उसमे जाने का मन नहीं हुआ था. अलीबाग बीच से अलीबाग फोर्ट ओर जंजीरा किला जाया जा सकता है. 
खैर आज का मुख्य आकर्षण वाटर स्पोर्ट्स थे. लेकिन आज बिटिया का आग्रह था गीली रेत में दूर तक टहलने का. अब इसका आनंद शब्दों में तो नहीं बता पाउंगी ये तो गूंगे का गुड है खा कर ही महसूस किया जा सकता है. घूमते हुए दूर तक निकल गए जब पलट के देखा तब इसका एहसास हुआ. बच्चे लहरों का आना ओर उसके वापस लौटने पर रेत में बनने वाले पैटर्न देख रहे थे .वैसे शायद इस बात पर कुछ विवाद हो लेकिन मुझे तो १००% यही लगता है की लड़कियां ज्यादा सृजनात्मक होती हैं. बस रेत में से सीपियाँ इकठ्ठी करने में लग गयी की इससे कितनी सुन्दर ज्वेलरी बनाई जा सकती है .फिर क्या था वापसी में हमने ढेर सारी सीपियाँ इकठ्ठी कर लीं. 
आज समुन्द्र का मिजाज़ पिछले दिन से कुछ अलग था. लगा लहरें आज की शांति में ज्यादा शोर कर रहीं हैं. बच्चे तो आज की ऊँची लहरों का मज़ा लेने लगे में कहती रह गयी की पहले राइड्स कर लो .सारी राइड्स के लिए बात करके पहले बाइकिंग की गयी. तेज़ गति से पानी में बैक चलाना ओर उठती लहरों से बचते हुए उसे मोड़ना बहुत रोमांचक था. इसके बाद आयी वेलोसिटी जिसमे एक सोफा सा बना था आगे तीन लोगों के बैठने की व्यवस्था ओर पीछे एक के.इस राइड में सबसे ज्यादा मज़ा आया क्योंकि सब एक साथ थे. हाँ पानी में जाने से पहले सबने लाइफ जेकेट पहनी थीं .इसके बाद जब बनाना राइड पर गए तो बीच समुद्र में जाकर वह रुक गयी ओर नाविक ने कहा कूदो. 
क्ययायाया?????बस यही निकाला मेरे मुंह से. अथाह समुद्र, लहराता पानी उसमे कूद पड़ना. 
पानी कितना गहरा है? 
५-१० फीट .(अब ५ या १० इसमें कोई फर्क तो है नहीं.)
मैडम डरो नहीं साथ में लाइफ गार्ड हैं. मैंने पीछे देखा दो लाइफ गार्ड पानी में उतर रहे थे.तब तक धम्म की आवाज़ आयी ओर छोटी बिटिया पानी में. वह लहरों के साथ खेल रही थी.उसे पानी में देख कर पिताजी कैसे रुक सकते थे वह भी तुरंत पानी में कूद गए. ओर फिर बड़ी बिटिया भी. ओर हमारी नाव आगे बढ़ गयी .में तो मुड़ मुड़ कर सबको देखती ही रह गयी. एक चक्कर लगा कर हमने सबको वापस नाव पर चढ़ाया तब जान में जान आयी. जब वापस आये एक बहुत बहुत अद्भुत आनंद  से सब भरे हुए थे. इतने बड़े समुद्र में अथाह पानी के बीच खुद को पाना रोमांचित करने वाला तो था ही बहुत कुछ सोचने ओर समझने वाला अनुभव भी था. ऐसे में अगर कोई बड़ी लहर आ जाती  ?कोई भंवर  पानी में खींच लेती या कोई बहुत छोटा सा ही लेकिन जहरीला समुद्री जीव ही..खैर विचार तो विचार ही है इन्हें  कोई रोक तो नहीं सकता .लेकिन ये तय है की इन्सान अभी भी प्रकृति की विशालता के आगे बहुत तुच्छ है फिर चाहे  वह कितना ही बड़ा  होने  का दंभ भरे. 
हमारे कुछ ही दूर पर एक ओर परिवार था मेरी उस लेडी से कई  बार नज़रें  मिलीं  ओर लगा की वह भी मुझसे  बात करना  चाहती  है .
थोडा  पास  आने पर उन्होंने  पूछा  आप  कहाँ  से आये हैं? 
इंदौर से .
इंदौर  से??इतनी दूर से आप यहाँ समुद्र में नहाने आये हैं?
हाँ क्या करें हमारे इंदौर में समुद्र नहीं है ना.मैंने हँसते  हुए कहा. 
हाँ मेरी आंटी भी कहती है आप  लोगो के लिए कितना बढ़िया  है ना पास  में कभी भी आ  जाओ  
वे लोग पूना से आये थे .
उस दिन भी करीब ३ घंटे  हम वहां    रहे. सच  कहें  जाने का बिलकुल  भी मन नहीं था,लेकिन आज हमें वापस निकलना था .
पूना  हमारा  अगला पड़ाव  था जो यहाँ से करीब १९०  किलोमीटर  दूर है .
तय  हुआ नाश्ता  करके जल्दी निकला  जाये  ओर  खाना कहीं रास्ते में खाया जाये. 
poona expres high way 
अभी  तक गाड़ी पतिदेव ही चला रहे थे. अभी तक के सफर में समय कम था ओर मंजिल दूर इसलिए मैंने भी जिद नहीं की .लेकिन आज तो समय भरपूर था. हम पूना जाने के लिए एक्सप्रेस हाई वे पर पहुंचे ओर गाड़ी मैंने ले ली. इस हाई वे पर गाड़ी की एवरेज स्पीड ८० किलोमीटर /अवर है. थोड़े आगे गए ही थे की लोनावाला घाट प्रारंभ हो गया. घुमावदार रास्ते एकदम खडी चढ़ाई बीच में पड़ने वाली ३ टनल बहुत रोमांचक अनुभव था. करीब ५२ किलोमीटर का घाट चढ़ कर हमने खाना खाया ओर फिर...हाँ जी गाड़ी रोकते समय ही मुझे पता था अब गाड़ी मुझे नहीं मिलेगी लेकिन क्या करें बच्चों को भूख लग रही थी इसलिए गाड़ी तो रोकना ही थी. रास्ते में नया बन रहा सुब्रतो राय स्टेडियम दिखा .हम करीब ४ बजे पूना पहुंचे.दीदी के यहाँ का रास्ता ढूँढने में पसीना छूट गया. पूना इतनी बड़ी सिटी है जहाँ एक ही नाम की कई जगहें है.वो तो भला हो सेल फोन का की हम जीजाजी से लगातार संपर्क में रहे .यहाँ भी हमें कई लोगो से उनकी बात करवानी पड़ी रास्ता समझने के लिए.एक तो वहां सारे रोड वन वे हैं इसलिए एक मोड़ चुके तो आप यूं टर्न के लिए करीब २-३ किलोमीटर आगे पहुँच जाते हैं. 
मुंबई शौपिंग कैंसिल करवाने के बदले बच्चों को पूना में शोपिंग करवाना थी सो शाम को फिर निकल गए. पूना में वैसे तो गर्मी बहुत है लेकिन यहाँ शामे बहुत ठंडी होती हैं.हर सडक के किनारे हरियाली है.शहर की प्लानिंग बहुत अच्छी है ट्राफिक फास्ट है. 
दूसरे दिन सुबह हमें फिर नासिक जाना था त्रयम्बकेश्वर दर्शन करते हुए वापसी. दिन के समय नासिक शहर भी साफ सुथरा दिखा. त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग है यहाँ करीब २५ साल पहले आयी थी तब से अब तक काफी कुछ बदल गया है.हा लोगो की घूमने की इच्छा ,खर्च करने की शक्ति भक्ति सब कुछ .कुछ एक प्रबंधों के साथ मंदिर वही है लेकिन भगवान शासन  तंत्र के आगे बेबस. ये कहें की भगवान तंत्र के बंदी हैं तो भी गलत नहीं होगा.वैसे हमारे सरकारी तंत्र जिस अंग्रेज मानसिकता के साथ जी रहे हैं ओर भारतियों को जिस तरह दोयम दर्जे का समझते है वह कहीं अधिक शोचनीय है शाहरुख़ या आई पी एल के किसी खिलाडी के व्यवहार की चिंता करने से. मुझे तो लगता है हर धार्मिक या दर्शनीय स्थल पर तैनात सुरक्षा कर्मी या स्वयं सेवक को कम से कम एक सामान्य  नागरिक के अधिकार बता कर एक सामान्य  व्यवहार  करने की ट्रेनिंग तो दी ही जानी चाहिए. खैर दर्शन करने के बाद चिलचिलाती धूप में जलते पैरों के साथ गाड़ी में बैठे .बस अब खाना खा कर अगला पड़ाव था वापस अपना घर. 
 मंजिल दूर थी  रास्ते में खाना खाते हुए हम रात २ बजे घर वापस पहुंचे .एक छोटी सी लेकिन सुकून भरी आनंददायी यात्रा पूरी करके. अलीबाग यात्रा २ 

Sunday, May 20, 2012

अलीबाग यात्रा

इस साल छुट्टियों में घूमने जाने का कार्यक्रम बना अलीबाग का .वही समय की कमी इसलिए ज्यादा दूर जा नहीं सकते.अचानक के प्रोग्राम में रिजर्वेशन  नहीं मिलता इसलिए कार से ही जाना तय हुआ.(वैसे भी न रिजर्वेशन की कोशिश की न ट्रेन से जाने का सोचा).बस तय हुआ की शनिवार की शाम निकलेंगे रात नाशिक में रुकेंगे .फिर आगे का कार्यक्रम..
बच्चों ने ट्रेवल xp पर नासिक में सुला वाइनरी देखी थी और उन्हें वहां जाना था. रोमांच इस बात का की हम वो जगह देखेंगे जो ट्रेवल xp पर देखी है .वैसे तो वहा उनका रेसोर्ट भी है लेकिन वहां रुकना बहुत महंगा था. इसलिए नेट पर रुकने के लिए होटल्स ढूँढना शुरू हुआ.और जल्दी ही एक होटल मिल भी गया. फिर अलीबाग की व्यवस्था के लिए ट्रेवल एजेंट के पास गए उसने जो रेसोर्ट बताये वो बहुत ही महंगे थे .लौटते में पूना जाना था वहां कजिन सिस्टर रहती हैं और जिस दिन हमारा कार्यक्रम बना उसी दिन वो लोग भी अलीबाग में थे. जीजाजी ने कहा अरे आप लोगो की आराम से रुकने की व्यवस्था हो जाएगी में एक दो नंबर देता हूँ . बस फिर क्या था बात बन गयी.
तो शुक्रवार शाम हमने अपनी यात्रा शुरू की.नासिक ४३० किलोमीटर था सोचा था रात १२ बजे तक पहुँच जायेंगे. लेकिन AB रोड पर इतना ट्राफिक की गाड़ी की स्पीड  ही नहीं बन पा रही थी. एक तो वीक एंड का ट्राफिक भी था. बिना रुके चलते रहे तब भी रात के २ बज गए. अब होटल ढूंढना बड़ी टेढ़ी खीर थी इतनी रात कोई सड़क पर था भी नहीं .होटल में लगातार बात हो रही थी लेकिन न कोई साइन बोर्ड था न रास्ता सूझ रहा था.एक बार तो लगा की आज रात तो होटल मिलने से रहा. एक तो मराठी नाम इतने मुश्किल थे याद करना ,की बात करते समय हा हूँ कर देते और फिर सड़क गली के नाम भूल जाते.भगवन को याद किया ही था की लूना से एक आदमी आता दिखा. उसे  रोक कर होटल में बात करवाई और फिर उसके पीछे पीछे होटल पहुंचे.उस समय वह व्यक्ति सच में भगवन का भेजा दूत ही लगा.होटल में सब हमारा ही इंतजार कर रहे थे. रात १० बजे से बात हो रही थी और हम पहुंचे रात २:३० पर. लेकिन साफ सुथरा होटल देख कर तबियत खुश हो गयी. बस सामान रखा हाथ मुह धोया और लम्ब लेट हो गए. 
सुला  वाइनरी दिन के ११:३० बजे खुलती है शहर से दूर इस गर्मी में दूर दूर तक फैले अंगूर के बगीचों की हरियाली ने मन मोह लिया. साफ सुथरी क्यारियां तरतीब से फैली बेलें .सुला में पर पर्सन टूर का चार्ज था १५० रुपये जिसमे ४ किस्म की वाइन को टेस्ट करना शामिल था. यहाँ जनवरी  से मार्च के बीच हार्वेस्टिंग सीजन रहता है अभी तो खेत खाली थे.पूरे टूर में हमारे गाइड ने अंगूर तोड़ने उसके संग्रहण से लेकर विभिन्न तरह की वाइन  बनाने की पूरी प्रक्रिया हमें समझाई. उसके स्वाद और रंग के लिए किये जाने वाले ट्रीटमेंट से लेकर बोटलिंग तक सब हमने देखा. फिर हम पहुंचे टेस्टिंग रूम. वहां से बिना परमिट के २ लीटर और परमिट पर ९ लीटर वाइन खरीद सकते थे.जब सुला से बाहर निकले एक नयी जगह नयी चीज़ देखने की संतुष्टि थी. 
आगे का सफर था अलीबाग का जो यहाँ से करीब ३०० किलोमीटर था. खाना खा कर सफ़र शुरू हुआ. हालाँकि रास्ता अच्छा था लेकिन बिना डिवाइडर ओर वीक एंड के ट्राफिक में गाड़ी चलाना वाकई मुश्किल था.बहुत कोशिश करके भी एवरेज स्पीड ५५-६० से ज्यादा नहीं आ पा रही थी. रास्ते में होटल से फ़ोन आया की हम आ रहे है या नहीं?या हमारा रूम किसी को दे दिया जाये. हमने भरोसा दिलाया की नहीं हम आ रहे है और ९ बजे तक पहुंचेंगे. दरअसल अभी तक सिर्फ फोन पर बात हुई थी और हमने कोई डिपोसिट  नहीं दिया था.सारा काम विश्वास पर चल रहा था.वहां भी भाषा की समस्या सामने  आयी. रास्ते  में किसी और से फ़ोन पर बात करवाई तब ढूँढते हुए हम अपने रेसोर्ट पहुंचे. 
अलीबाग पुरानी बस्ती है और वहां के बीच अभी नए नए डेवेलप हो रहे है वहां के  रहवासी अपने पुराने घरों के ही एक हिस्से को तुडवा कर या रिनोवेट करवा कर उसे रेसोर्ट का रूप दे रहे है. ये लोग बहुत प्रोफेशनल नहीं हैं .उन्ही के किचन  में खाना बनता है, जब  हम पहुंचे तो वहां रेसोर्ट के मेनेजर के नानाजी आये हुए थे. वो कहने लगे आपने बहुत देर कर दी. आप लोगों ने कोई डिपोजिट भी नहीं किया था ऐसे कैसे भरोसे पर सामने आये कस्टमर को लौटा दें वगैरह वगैरह. हमारे दो रूम तो बुक थे लेकिन वो अगल बगल में न हो कर अलग अलग मंजिल पर लेकिन आमने सामने थे. खैर वहां का पूरा माहौल घरेलू था इसलिए चिंता नहीं हुई. बेटियों ने झट फर्स्ट फ्लोर  का रूम ले लिया . बस नहा के फ्रेश हुए तब तक खाना लग गया ओर खाना खा कर हम  अगले दिन की प्लानिंग के साथ सो गए . 
देर  रात तक गाड़ियों के शोर सुनाई देते रहे ओर सुबह चार बजे से फिर गाड़ियाँ. आखिर ६ बजे सब उठ ही गए बीच पर जाने को तैयार.समुद्र तो बच्चों ने पहले भी देखा था लेकिन इस बार तय्यारी  लहरों के साथ खेलने की थी. बच्चे तो तुरंत पानी में पहुँच गए और में किनारे पर खड़ी समुद्र की विशालता और उसके सामने इन्सान की...खैर विचार कहाँ पीछा छोड़ते है .
 नागांव बीच अलीबाग का नया विकसित हो रहा बीच है .साफ सुथरा रेतीला किनारा दूर दूर तक फैला है .यहाँ वाटर स्पोर्ट्स भी है तेज़ रफ़्तार से पानी में चलने वाली बाइक, बनाना राइड,वेलोसिटी राइड .अथाह पानी में इतनी तेज़ गति से जाना रोमांचक भी था और डराने वाला भी .थोड़ी देर तो में दूर खड़ी लहरों को देखती रही बच्चों के फोटो लेती रही लेकिन फिर सबने मिल कर मुझे भी पानी में खींच ही लिया. बड़ी छोटी लहरें उनमे डूबना उतराना.लहर आने पर जम्प लगाना .धूप तेज़ थी लेकिन पानी में महसूस नहीं हो रही थी. हम करीब दो घंटे पानी में रहे लेकिन ठण्ड भी नहीं लगी. इसकी बजाय अगर दो घंटे किसी नदी में रहते  तो सब ठिठुरने लगते. उस दिन बच्चों ने बाइकिंग  की जब तक वो पानी में रहे एक पल को नज़रें उन पर से नहीं हातीं.हालाँकि वो इतनी दूर थे की न तो उन तक आवाज़ पहुँच सकती थी न ही कोई मदद. 
nagao beech 
जब समय को पकड़ने की कोशिश न की जाये या उसे किसी सीमा में बांधा न जाये तो वह भी अपने पूरे विस्तार के साथ आपके साथ होता है. हमने जितना भी समय वहां गुजारा वह अपने पूरे विस्तार के साथ हमें मिला न कहीं जाने की हड़बड़ी न कोई काम ख़त्म करने की चिंता. इन २-३ घंटों में जैसे सिर्फ समुद्र का विस्तार लहरों की मौज हमारे साथ थी.जिसके सामने चिंता फिक्र काम सब लहरों के साथ रेत से बह गए थे. मन प्रफुल्लित था इसलिए कोई थकावट नहीं थी .
रेसोर्ट पहुँच कर नहाया नाश्ता किया उसके बाद क्या किया जाये? तभी याद आया आज तो सत्य मेव जयते आने वाला है .बहुत सालों बाद ऐसा लगा जैसे रामायण के युग में ( धारावाहिक ) पहुँच गए हैं. जब ९ बजते ही सब काम धाम छोड़ कर टीवी के सामने बैठ जाते थे. ब्रेक में दिन की प्लानिंग होने लगी. आते हुए हम कल्याण से निकले थे.वहां के मार्केट में खरीदी की बहुत इच्छा थी लेकिन अंजान जगह समय से पहुंचना ही ठीक है ये सोच कर नहीं रुके थे. इसलिए बच्चों का मन था मुंबई जा कर शौपिंग की जाये. लेकिन वहा से ४० कम दूर से फेरी मिलती और वहां तक जाना वो भी सन्डे के ट्राफिक में मन नहीं हुआ. जैसे तैसे उन्हें समझाया की पापा कब से ड्राइव कर रहे है आज उन्हें आराम करने दो  अभी पुणे जाना है वहां देखते हैं.

थकान कोई खास नहीं थी इसलिए ३ बजते बजते सब उठ गए.अब भूख लगी थी रेसोर्ट का मेस तो बंद हो गया था .अलीबाग के एक रेस्टारेंट में खाना खाया और वही से वर्सोली बीच चले गए सन सेट देखने .देर तक रेत में टहलते रहे ओर सन सेट के बाद भी देर तक वहीँ बैठे रहे. भूख कोई खास नहीं थी इसलिए मार्केट से कुछ हल्का फुल्का बेकरी आइटम ले लिया ताकि रात में जरूरत हो तो खाया जा सके. सन्डे  की रात रेसोर्ट पूरा खाली हो चूका था. सड़क बिलकुल शांत थी.थोड़ी देर गपशप करके टी वी देखा फिर अगले दिन किस किस राइड पर जाना है ये प्लानिंग करके सो गए. (क्रमश ) छुट्टी,अलीबाग,यात्रा ,समुद्र  

Thursday, April 26, 2012

खुशियों का खज़ाना.

आज एक शादी में अपनी एक कलीग की बेटी से मिली. नाम सुनते ही वह पहचान गयी अरे आप वही है ना जो ब्लॉग लिखती है.में आपको पढ़ती हूँ .सच कहूँ अभी कुछ समय से लेखन से खास कर ब्लॉग लेखन से एक दूरी सी बन गयी थी.वैसे लेखन जारी है .आजकल कुछ कहानियों पर काम कर रही हूँ.सोचती हु उन्हें ही धारावाहिक के रूप में ब्लॉग पर डालूँ लेकिन खैर ये सब समय की बात है .आज सच में मन हुआ की कुछ लिखू.पता नहीं ऐसा सबके साथ होता है या सिर्फ मेरे साथ .जब भी लेखन की एक विधा छोड़ दूसरे पर जाती हूँ पहली विधा कहीं पीछे छूट जाती है. बहुत दिनों से कोई संस्मरण लिखने की सोच रही थी लेकिन क्या ??
कल अलमारी जमाते हुए एक पुरानी डिब्बी खोल के देखी तो उसमे एक छल्ला निकला.उसे उंगली में डालते मन २५ साल पीछे पहुँच गया .ये छल्ला मेरी बुआ की बेटी का था.बस यूं ही बात करते करते उसकी उंगली से निकाल लिया ओर कह दिया मुझे बहुत पसंद है उसने भी कह दिया तो आप रख लो. जिस प्यार ओर अपनेपन से उसने दे दिया था उसे उतने ही प्यार ओर सम्हाल के साथ मैंने बरसों उंगली में डाले रखा. यहाँ तक की जब उतार कर रखा तब भी उसे अपने प्यार में लपेट कर रख दिया. कल उसे उंगली में डालते हुए मन भीग सा गया. हमने अपनी बहुत सारी बातें एक दूसरे से शेयर की हैं.एक दूसरे को लम्बे लम्बे पत्र लिखते थे जिसमे अपने मन की सारी बाते उंडेल देते थे.मुझे याद है वह हमेशा लिखती थी "ह्रदय की अंतरिम गहराइयों से प्यार"उस समय तो उसे कभी नहीं कहा लेकिनये शब्द सच ह्रदय की उसी गहराई में जाकर उसके प्यार का एहसास करवाते थे.

कभी  कभी चीज़ें छोटी होते हुए भी उनका असर बहुत गहरा होता है. ऐसे ही एक बहुत पुराने डब्बे में एक छोटे से लाल कागज़ में लिपटी रखी है शमी की दो पत्तियां जिन्हें हायड्रोजन पर oxaid में सुनहरा बनाया था .ये मेरी उस सहेली की प्यार की निशानी है जिसके साथ लगभग हर शाम गुजरती थी.बस साथ साथ कहीं घूमना ओर ढेर सारी बाते करना उस साल दशहरे पर में शहर के बाहर थी जब लौटी उसने कहा ये ले तेरा सोना कब से संभाल के रखा है .आजकल के बच्चे जो बाते समस या चाट पर करते है हम वो बाते रूबरू करते थे .उन बातों का असर देखते थे.ओर क्या कहना है क्या नहीं ये सीख जाते थे.समस की बातों से बाते तो होती है लेकिन उससे किसी की भावनाओ को समझने में उतनी मदद नहीं मिलती है ऐसा मुझे लगता है. 
जब में १० वीं में थी मेरे छोटे भाई ने मुझे एक पेन गिफ्ट किया था .सालों लिखते लिखते उसकी निब घिस कर इतनी चिकनी हो गयी थी ओर उससे राइटिंग बहुत बढ़िया आती थी. कई बरसों वह पेन मेरे पास रहा फिर जाने कहाँ गुम हो गया. लेकिन अभी भी जब एक पेन लेने की सोचती हूँ ओर दुकान पर देखती हूँ हर पेन में वही ग्रिप ओर वही स्मूथ्नेस ढूंढती हूँ लेकिन नहीं मिलती तो पेन छोड़ कर बाहर आ जाती हूँ. लेकिन वह पेन मन से नहीं निकल पता ओर उसकी याद पर किसी ओर पेन को हावी नहीं होने देना चाहती. 
ऐसा ही एक तोहफा दिया था पति देव ने. शादी के बाद के वो दिन जब जेब खाली थी एक दिन ऐसे ही कह दिया था मैंने, मेरे पास नेल कटर नहीं है .पता नहीं कैसे जबकि मुझे पता था की एक एक पैसा हिसाब से खर्च करना जरूरी है एक शाम घर लौटते मेरे हाथ पर नेल कटर रख दिया था उन्होंने. कहने को जरूरत की एक छोटी सी चीज़ लेकिन कैसे किया होगा नहीं जानती.आज वो नेल कटर काम नहीं करता लेकिन अगर अपनी तय जगह से जरा इधर उधर हो जाये तो ऐसा लगता है मानों सब कुछ खो गया. इसके बाद अनगिनत उपहार उन्होंने दिए लेकिन वह एक नेल कटर आज भी हाथ में आते मन को भिगो देता है .

ऐसे ही कुछ उपहार बहुत भावनात्मक होते है जो ऐसे संभाल के नहीं रखे जाते लेकिन उनका एहसास कभी मरता नहीं. फिर वो चाहे पहली बार हाथों में हाथ लेना हो या फिर चेहरे पर आये बालों को पीछे कर माथे पर प्यार की मोहर अंकित करना एक छोटा सा हग हो या प्यार भरी पहली नज़र.
जिंदगी की आपाधापी में जब आप थक जाये या सब होते हुए भी मन कहीं उदासी की गलियों में पहुँच जाये एक छोटा सा छल्ला ,एक साड़ी पिन ,किसी के कहे कोई शब्द कोई स्पर्श घर का कोई एक खास कोना या मन के किसी खास कोने में जमा बहुत खास पल ,आपको उन उदासी की गलियों से खींच कर बाहर ले आते है ओर खुशियों की गलियों में मुस्कुराने को विवश कर देते हैं. 

खुशियों का खज़ाना. 

Thursday, April 12, 2012

आफरीन



में आई इस जहाँ में 
बिना तुम्हारी इच्छा या मर्जी के 
अपनी जिजीविषा के दम पर 

सहा तुम्हारा हर जुल्म निशब्द 
पर तोड़ नहीं पाए तुम मुझे 
ये तुम्हारी हार थी.

अपनी हार पर संवेदनाओं का मलहम लगाते तुम 
हंसती रही में तुम्हारी बचकानी मानसिकता पर 
दर्द दे कर कन्धा देने से शायद मिलता हो 
बल तुम्हारे पौरुष को 

माँ के आंसुओं ने विवश किया मुझे 
ओर में कर बैठी विद्रोह 
की क्यों दूं में अपनी मुस्कान तुम्हे 
क्यों रोशन करूँ तुम्हारी जिंदगी 
जो ना कम हो सकी सदियों में 
क्या इससे कम होगी तुम्हारी दरिंदगी 

में अस्वीकार करती हूँ तुम्हे 
धिक्कारती हूँ तुम्हारी हर कोशिश को 
मेरे जाने के बाद 
शायद तुम महसूस कर सको 
कितने आदिम हो तुम 

ओर रखो हमेशा याद 
आई थी में अपने दम पर ओर 
जा रही हूँ अपनी इच्छा से 
तुम जीवित रहोगे जब तक 
मुझे याद रखना तुम्हारी मजबूरी होगी 
पर में तुम्हारी नहीं 
अपनी माँ की स्मृतियों को ले जा रही हूँ 
ओर मेरे साथ हैं माँ के आंसू 
बेहतरीन तोहफे की तरह .


दोस्ती


  आजकल इंडियन आइडल का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमे एक कालेज का लड़का खुद शर्त लगा कर हारता है किसी ओर लडके की आर्थिक मदद के लिए. वैसे तो टी वी पर कई विज्ञापन रोज़ ही आते है लेकिन कुछ विज्ञापन दिल को छू जाते है.खास कर दोस्ती वाले विज्ञापन.अभी कुछ दिनों पहले एक मोबाईल कम्पनी का जिंगल हर एक फ्रेंड जरूरी होता है सबकी जुबान पर था. 
दोस्ती दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता है एक ऐसा रिश्ता जिसमे एक दोस्त दूसरे दोस्त की भावनाओ को, मन की बातों को बिना कहे जान लेता है. जब दोस्त कहे मुझे अकेला छोड़ दो तब उसके कंधे से कन्धा मिला कर खड़ा हो जाता है.ओर जब दोस्त कहे सब ठीक है तब बता ना क्या बात है पूछ पूछ कर सब उगलवा लेता है.
 जब भी इस विज्ञापन को देखती हूँ मन २३ साल पीछे अपने कोलेज की लैब में पहुँच जाता है जब फ्री पीरियड में हम समोसे खाने का प्रोग्राम बनाते थे अब उस समय कोई भी इतना धन्ना सेठ तो था नहीं की सिर्फ अपनी अकेले की जेब से सबको खिला सके .इसलिए पैसे इकठ्ठे होते थे.हमारा एक साथी हमेशा दो लोगो के पैसे मिलता था एक खुद के ओर दुसरे उसके दोस्त जग्गू के .मजे की बात ये थी की हम में से कोई भी जग्गू से पैसे नहीं मांगता था.ओर विपिन के अलावा जग्गू के पैसे देने का किसी ओर को जैसे कोई अधिकार भी नहीं था.जग्गू के पिताजी नहीं थे वह अपनी माँ के साथ रहता था.गाँव में शायद कुछ खेती बारी थी.लेकिन कमाई का कोई ओर जरिया क्या था किसी को नहीं मालूम था. वैसे भी सब कुछ जैसे पहले से तय था.ओर सब इतनी सहजता से होता था की ना हममे से किसी को कुछ कहना होता ना कुछ पूछना. 
लेकिन दोस्ती तो जग्गू ओर विपिन की थी इस तरह की कोई बात उनके बीच नहीं आती थी ओर वो हमेशा बहुत सामान्य रहते थे. ना कभी जग्गू इसके कारण संकोच में रहता ना विपिन में  कोई गर्व की अनुभूति दिखाती.एक गहरी समझ दोनों के बीच थी. 
एक बार हमसे रहा ना गया.उस दिन जग्गू शायद कालेज नहीं आया था .हमने विपिन से पूछा तुम हमेशा जग्गू के लिए इतना करते हो तुम्हारे पास इतने पैसे कहाँ से आते है.ओर वह जोर से हंसा मुझे पता है मेरे पेड़ पर कितने पैसे लगते है बस उतने ही तोड़ता हूँ. 
आज इतने सालों बाद साथ पढ़ने वाले अधिकतर साथी कहीं गुम हो गए हैं लेकिन जग्गू ओर विपिन की वह दोस्ती आज भी मन के किसी कोने में शीतल बयार जैसी है.दोस्ती की ऐसी निश्छल  भावना इतने सालों बाद भी अब तक याद है.आज ये विज्ञापन देख कर उस दोस्ती की याद आ गयी..  

Tuesday, April 10, 2012

मुस्कान से मुस्कान तक

गुलाब की पंखुरियों से होंठों पर
नन्ही किरण सी वह मुस्कान 
आई थी जन्म के साथ 
जन्म भर साथ रहने को.

अपनी मासूमियत के साथ 
बढ़ती रही वह मुस्कान 
पल पल खिलखिलाते इठलाती रही 
होंठों से आँखों तक 
ओर पहुंचती रही दिल तक.

समय के उतार चढ़ावों में 
सिमटती रही करती रही संघर्ष 
किसी तरह बचाने अपना अस्तित्व 

उम्र के तमाम पड़ावों पर 
यूं तो कभी ना छोड़ा साथ 
लेकिन भूली बिसरी किसी सखी ने 
याद किया कुछ इस तरह 
'वह 'जो बहुत हंसती थी 
अब वही चहरे ओर नाम के साथ 
पहचान नहीं आती. 

 पोपले मुंह ओर बिसरती याददाश्त के साथ 
फिर आ बैठी है अपने पुराने ठिकाने पर 
अपने उसी मासूमियत को पाने में 
तमाम उम्र गंवाकर. 

Wednesday, March 28, 2012

एहसास

उस पुरानी पेटी के तले में 
बिछे अख़बार के नीचे 
पीला पड़ चुका वह लिफाफा.

हर बरस अख़बार बदला 
लेकिन बरसों बरस
 वहीँ छुपा रखा रहा वह लिफाफा.

कभी जब मन होता है 
बहुत उदास 
कपड़ों कि तहों के नीचे 
उंगलियाँ टटोलती हैं उसे 

उसके होने का एहसास पा 
मुंद जाती है आँखे 
काँधे पर महसूस होता है 
एक कोमल स्पर्श
 कानों में गूंजती है एक आवाज़ 
में हूँ हमेशा तुम्हारे साथ 

बंद कर पेटी 
फिर छुपा दिया जाता है उसे 
दिल कि अतल गहराइयों में 
फिर कभी ना खोलने के लिए 
उसमे लिखा रखा है 
नाम पहले प्यार का. 

जिंदगी इक सफर है सुहाना

  खरगोन इंदौर के रास्ते में कुछ न कुछ ऐसा दिखता या होता ही है जो कभी मजेदार विचारणीय तो कभी हास्यापद होता है लेकिन एक ही ट्रिप में तीन चार ऐ...