Thursday, November 10, 2016

आपको पता है जंगल में भूत है।


सिक्किम यात्रा ( वो जो हमारी मदद करते रहे )

वैसे तो यात्रा के दौरान बहुत लोगों से साबका पड़ता है ये लोग ख़ामोशी से हमारे आस पास बने रहते हैं जिन्हें हम देख कर भी नज़र अंदाज कर देते हैं या एक व्यावसायिक सा भाव होता है कि उनकी सेवाओं के बदले पैसा तो दिया है। सभी पैसों के लिए काम करते है ये भी कर रहे हैं तो इसमें क्या खास है? अगर कभी जितना पैसा दिया उसके बदले कितनी मेह्नत कितनी ईमानदारी और मुस्तैदी दिखी इसका आकलन किया जाये काम करने की परिस्थियों पर ध्यान दिया जाये तो दिल उन सेवाओं का मोल समझ उनके सामने कृतज्ञ हो जाता है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम सेवाओं से संतुष्ट नहीं होते या लगता है पैसे का पूरा मोल नहीं वसूल हुआ लेकिन उसके कारण अच्छे  ईमानदार और मेहनती लोगों का जिक्र ना किया जाये यह भी ठीक नहीं। 

उत्तरी सिक्किम जिला मंगन जाते हुए रास्ते में गाड़ी रुकी नामोक में। दो मंजिला पक्का मकान पहली मंजिल की बालकनी और मुख्य प्रवेश द्वार पर लगे फूलों के गमले। अंदर एक बड़ा सा हाल जिसमें टेबल कुर्सी लगी थीं। हाल के बीच से एक दरवाजा जिसके एक तरफ किचन और दूसरी तरफ एक कमरा जिसमे कई बोरे कनस्तर रखे थे। वहाँ भी एक दो बेंच लगी थीं। भूख जोर से लगी थी मैं सीधे किचन में चली गई। अंदर मध्यम वय की एक महिला और 20 /22 साल की एक लड़की थी। एक तरफ चूल्हा जल रहा था जो थोड़ा ऊँचा था और एक दिवार से अलग किया गया था जिस पर एक देगची रखी थी। बगल में मोरी में जूठे बर्तनों का ढेर लगा था। शेष दो तरफ टेबल और प्लेटफार्म पर बरतन प्लेट्स रखे थे। एक पारंपरिक रसोई का नज़ारा जो कई सालों बाद देखा। 
"हैलो क्या बनाया है जोर से भूख लगी है ?"मैंने कहा। 
"चिकन राईस " जवाब आया और मेरा मुँह खुला रह गया। 
"ओ लेकिन हम तो वेज हैं " धड़कते दिल से मैंने कहा आसपास और कोई होटल दुकान नहीं थी यह आते हुए देख चुकी थी। 
"आपको वेज मिल जायेगा दाल चावल और आलू की सब्जी " अब तक वो लोग भी अचानक हुई इस घुसपैठ से सहज हो चुकी थीं। 
मैंने राहत की साँस ली शुक्र है अब भूखे नहीं रहना पड़ेगा। "फिर ठीक है पर हम बहुत सारा खाने वाले हैं। "
"आप पेट भर कर खाइये बहुत सारा बना है। " 
"मैं कुछ मदद करूँ ?" उन दोनों के सिवाय वहाँ और कोई नहीं था हम दस पर्यटक और ड्राइवर कुल ग्यारह लोग और वे दो। 
"बस सब हो गया खाना लगा ही रहे हैं। "
मैं बाहर आ गई हर टेबल पर एक एक पानी की बोतल और अचार रखा था। सबसे पहले उन्होंने हमें प्लेट्स दीं हम ही दो वेज वाले थे। नॉन वेज के साथ शायद चम्मच नहीं दी जाती हमारी प्लेट्स में भी चम्मच नहीं थीं। मैं फिर अंदर गई चम्मच लेने। दोनों माँ बेटी एकदम शांति से अपने काम में लगी थीं। दाल चावल आलू की सब्जी और एक लोकल फली की सब्जी। खाना सादा और स्वादिष्ट था और वो पूछ पूछ कर परोसती रहीं। खाना खा कर मैंने सभी प्लेट्स कटोरियाँ एक दूसरे में रख कर इकठ्ठे कर दीं। पानी के लिए बोतल थीं गिलास नहीं थे। अनावश्यक बरतन नहीं निकाले जाते। जब मैं थैंक्यू कहने वापस अंदर गई बेटी बरतन साफ कर रही थी और माँ सामान समेट रही थी। मैंने पूछा रोज़ कितनी गाड़ियाँ आती हैं आपके यहाँ। 
चालीस पचास जवाब मिला। 
मतलब चार पाँच सौ लोगों का खाना रोज़ और सारा काम हाथ से। तब तक एक छोटी लड़की स्कूल से वापस आ गई मैंने एक दो फोटो खींचे और बाहर आ गई। आसपास एक दो मकान और थे ऊपरी मंजिल पर रुकने के लिए कमरे थे। ड्राइवर से पूछा खाने की जगह फिक्स रहती हैं ? उसने कहा हाँ सुबह फोन पर बता देते हैं। 

***
उत्तरी सिक्किम के लाचुंग में एक अति साधारण होटल था हम पहुंचे भी काफी रात में थे और ठण्ड भी बहुत थी। पैकेज टूर था और बुकिंग करने वाले गंगटोक में थे इसलिए कुछ कहने सुनने का कोई फायदा भी नहीं था। इतने सघन जंगल में सुदूर पहाड़ों के बीच इतने लोग रहते हैं यही अचरज वाली बात थी। चलने के पहले ही बोल दिया गया था सामान्य सुविधा होंगी इसलिए मानसिक रूप से भी सब तैयार थे। यहाँ भी खाने में चिकन राईस था। होटल के दूसरे कमरों में और लोग भी ठहरे थे। काम करने वाला सोलह सत्रह साल का  एक लड़का ही दिखा। वही दौड़ दौड़ कर खाना परोस रहा था किसी को पानी दे रहा था जूठे बर्तन उठा रहा था टेबल साफ कर रहा था। हमारे कमरे में पलंग की एक पाटी खिसक गई बड़ी समस्या कि सोयेंगे कैसे ? उससे कहा तो बोला सर और कोई रूम खाली नहीं है मैं सबको खाना खिला दूँ फिर आकर देखता हूँ। हमने थोड़ी देर इंतज़ार किया फिर गद्दे को हटा कर देखा और पाटी ठीक से बैठा दी। ठण्ड बहुत थी हम तो खाना खा कर सो गये वैसे भी दिन भर सफर में थक गए थे और सुबह जल्दी उठना था। वह रात में एक बार चक्कर लगा कर हर कमरे में पूछ कर गया सबने खाना खा लिया न ?
दूसरे दिन सुबह नलों में पानी नहीं आ रहा था फिर उसकी पुकार हुई। अब वह सबको चाय बना कर दे रहा था तो किसी को गर्म पानी की बाल्टी भर के दे रहा था चाय के कप धो रहा था तो लोगों की बातें सुन उनका समाधान भी कर रहा था। थोड़ी ही देर में सब चले जाने वाले थे उसके बाद उसे खाना बनाना था। जीरो पॉइंट से वापस आकर जब हम खाना खा रहे थे वह परसने आया तब मैंने कहा "कल रात में तुम आये नहीं पलंग देखने ?"
पता नहीं उसके भरे मन को किस भाव  ने छू लिया वह ऐसे बोल पड़ा जैसे सुनने वाला बड़ा संबल मिल गया हो। "मैडम मैं अकेला हूँ यहाँ काम करने वाला खाना बनाना परसना बरतन साफ करना सब अकेले करता हूँ। कल रात में भी बहुत देर हो गई और मैं भूल गया।"
"कोई बात नहीं पलंग की पाटी खिसक गई थी हमने ठीक कर ली थी। "मैंने सहानुभूति पूर्वक कहा तो वह अपनी बात कहने से खुद को रोक नहीं पाया। 
"मैडम अभी आप लोग जाओगे फिर मुझे सारे कमरे साफ करना है। अभी शाम को फिर तीन चार गाड़ियाँ आ रही हैं। फिर तीस चालीस लोगों का खाना बनाना है। मैडम मैं तो तीस तारीख का इंतज़ार कर रहा हूँ जिस दिन ये लोग मेरा हिसाब करेंगे। जिस दिन पैसे मिलेंगे यहाँ से भाग जाऊँगा। "
" मैंने उसे समझाने की कोशिश करते नरमी से कहा "काम में कभी कम ज्यादा होता रहता है क्या कर सकते हैं ?" 
"मैडम गाड़ी भेजते हैं तो काम करने वाले लोग भी तो भेजें मैं अकेले काम कर करके परेशान हो गया हूँ मेरा मन भी नहीं लगता शरीर भी आधा हो गया। अब यहाँ नहीं रुकूँगा पैसा मिलते ही भाग जाऊँगा। "
"कहाँ के रहने वाले हो ?"
"न्यू जलपाई गुड़ी का, मैडम अब घर की याद आती है।"
"चलो अब थोड़े ही दिन की बात है तीस तारीख आने ही वाली है तब तक मन मत ख़राब करो ये समय भी निकल जायेगा। " और क्या कहती उससे इतना बड़ा समझदार भी तो नहीं था बच्चा ही था पता नहीं क्या मजबूरी रही होगी जो इतनी दूर जंगल में पड़ा था काम के लिए। 
उसके बाद और कुछ नहीं खाया गया। जाते जाते उसके हाथ पर कुछ रुपये रखे लेकिन मन उसकी उदासी में अटक गया। 

लाचुंग से जीरो पॉइंट जाते हुए लगभग 26 किलोमीटर दूर युमथुंग में नाश्ते के लिए रुके। दो बहनें दुकान चला रही थीं। सबकी पसंद का नाश्ता पूछना नाश्ता बनाना सर्व करना साथ ही बूट्स हैण्ड ग्लव्स किराये पर देना किसी को कुछ खरीदना हो तो देना पैसों का हिसाब किताब रखना। लौटते हुए बूट्स वापस करने के लिए रुके तब छोटी बहन पीमा (palmu ) थोड़ी फुरसत में थी। उससे बात करने लगी उसने बताया दुकान का मालिक कोई और है वो वहाँ काम करती है छह हजार रुपये महीने की तनख्वा पर। मालिक तो ठीक है उसकी पत्नी थोड़ी टेड़ी है। सामान किराये पर नहीं जाता तो गुस्सा करती है तुम लोग ठीक से बताते नहीं हो। अब क्या हम जबरजस्ती किसी को सामान देगा। ये काम सिर्फ सीजन तक है उसके बाद हम नीचे चले जाते हैं। मालिक उसी समय हिसाब करके पैसे लेकर गया था जो लगभग पाँच हजार रुपये थे अब वह फुरसत में थी। बहुत देर तक उससे बात होती रही। वह बच्चो के बारे में हमारे प्रदेश के बारे में पूछती रही। 

नाथुला पास ले जाने वाला ड्राइवर था रुस्तम खवासी और लाचेन लाचुंग (उत्तर सिक्किम ) के टूर पर ले जाने वाला Tsong Rinsing .दोनों ही बौद्ध थे बड़े शांत काम से काम रखने वाले पर हर जिज्ञासा का बड़े चाव से जवाब देने वाले। सोंग रिन्ज़िंग तो लाचेन का ही रहने वाला था उसके घर के सामने से निकले तो उसकी पत्नी और बेटा बाहर खड़े उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसने बताया तीन दिन के टूर में एक दिन घर आने को मिलता है। बर्फ गिरने के बाद टूरिस्ट नहीं आते रास्ते बंद हो जाते हैं तब तीन महीने सिर्फ खाना टीवी देखना और मोटे होना होता है। 

***
लाचेन में होटल का रूम बहुत अच्छा था। गुरदुम्बर लेक के लिए रात तीन बजे निकलना था जिसका हमारा मन नहीं हुआ। होटल के मालिक तोशी को बताया तो कहने लगा अगर आप नहीं जा रहे हैं तो मुझे रात में ही बता दें मैं सुबह जल्दी आ जाऊँगा आपके चाय नाश्ते का इंतज़ाम करने। नहीं तो हम दिन में बारह एक बजे तक होटल आते हैं। सुबह तो यहाँ कोई नहीं होता है। जब उसे पता चला कि हम लोग ज्यादा चावल नहीं खाते हमारा मुख्य भोजन रोटी है तो कहने लगा मैं आपके लिए रोटी बनवा लाऊंगा। और सच में सुबह आठ बजे वह सब्जी रोटी के नाश्ते और चाय के साथ हाजिर था। हमें भी करीब एक हफ्ते बाद रोटी मिली थी इसलिए हमने भी टाइम देखे बिना गर्मा गर्म खा ली। 

गंगटोक के होटल में हम चार दिन रुके लेकिन बीच में उत्तर सिक्किम घूमने भी गए तो सामान कमरे तक लाना ले जाना होता रहा। वहाँ एक लड़का था प्रवेश थापा दार्जिलिंग का। बड़ा क्यूट सा हर काम को तत्पर हर वक्त चेहरे पर मुस्कराहट। आखरी दिन हम थके हुए होटल पहुंचे तो उसने पूछा मैडम खाना ? मैंने कहा क्या खिलाओगे ?
आप जो खाना चाहें। 
सब्जी रोटी बना दूँ ? उसे भी पता था हम रोटी खाने वाले लोग हैं। 
मैंने पहले दिन की रोटी याद करते हुए कहा तुम इतनी छोटी छोटी रोटी बनाते हो कि पेट ही नहीं भरता। तो मुस्कुरा के कहने लगा बड़ी रोटी बना देंगे मैडम। 
ठीक है तो बस दाल रोटी खिला दो। ( हरी सब्जी वहाँ बहुत कम मिलती है ) वह बढ़िया गरमा गरम दाल रोटी रूम के साथ लगी बालकनी में टेबल पर लगा गया। 
मैंने उससे पूछा कल सुबह होटल का दरवाजा कौन खोलेगा हमें सुबह जल्दी जाना है?
मैं उठ जाऊँगा मैडम आप मेरा नंबर भी ले लीजिये सुबह एक मिस काल कर दीजियेगा मैं आपके लिए चाय बना दूँगा आपका सामान ले चलूँगा। 
मैंने पूछा प्रवेश कहाँ तक पढ़े हो तो कहने लगा मैडम 12th में बेक आ गई थी तब पढाई छोड़ दी। 
अब आगे नहीं पढ़ना है ?
पढ़ना है मैडम अब यहाँ आने के बाद लगता है पढ़ना चाहिये। 
हम्म पढ़ना तो चाहिए तुम बहुत अच्छे लड़के हो पढ़ो आगे बढ़ो तुम्हे ज्यादा अच्छा काम मिलेगा। 
जाते हुए ऐसा लगा काश कुछ और समय प्रवेश से बात की होती। 

***
लाचेन से लौटते समय रास्ते में रुके सूर्यास्त हो चुका था अँधेरा होने ही वाला था। तीन दिन के इस सफर में कहीं अकेले पैदल चलने का मौका नहीं मिला था अब ये आखरी मौका था सो तुरंत लपक लिया। पति देव को बताया उनकी इच्छा नहीं थी सो अकेले निकल पड़ी। कोई सौ मीटर चली होऊँगी कि सामने से आती सात आठ बरस की एक बच्ची ने रोका ,कोठार जाइबे ? 

मैं अचकचा गई मुझे झिझकता देख उसे तुरंत समझ आया कि मुझे बांगला नहीं आती। तुम कहाँ जाते हो ?उसने मेरी मुश्किल आसान की। 
"घर "
" तुम्हारा घर तो बहुत दूर है इतनी दूर पैदल कैसे जाओगे ?"
"तुम भी तो अपने घर पैदल जा रही हो ना वैसे मैं भी चली जाऊँगी। "
"मेरा घर तो यहीं है वो सामने " उसने इशारे से बताया। 
"हाँ तो ठीक है न जैसे तुम पैदल जा रही हो वैसे मैं भी धीरे धीरे चली जाऊँगी। "
उसे समझ आ गया ये ढीठ प्राणी है आसानी से नहीं समझेंगी अब उसने तुरुप का पत्ता चलाया 'तुमको पता है जंगल में भूत है आत्मा है। "उसके साथ  आँखें और हाथ भूत की भयावहता बखान कर रहे थे। 
बात तो बड़ी डरावनी थी मैंने दो मिनिट सोचा उसकी चिंता का ध्यान भी तो रखना था " ठीक है हम उस को भी साथ ले लेंगे वो हमारा कुछ काम करवा देगा। "
"उलटा वो आपसे अपना काम करवाएगा। " वह भी हार मानने वाली नहीं थी। 
"ओह्ह ऐसा चलो ठीक है हम सबका काम करते है उसका भी कर देंगे। "
सच में ये मेरी दुष्टता थी वह छोटी सी अनजान बच्ची मेरी शुभचिंतक और मैं , मुझे तो पैदल चलने की पड़ी थी। अँधेरा घिरता जा रहा था रुक जाती फिर पतिदेव ही न जाने देते और हसरत दिल में रह जाती। 
"अच्छा देखो वो अंकल खड़े हैं न वो पीछे से गाड़ी लेकर आयेंगे और मुझे लेकर जायेंगे ठीक है अब हम जाएँ ? बाय " 
इतनी बड़ी लंबी बात तो उसे समझ नहीं आई पर ये समझ आ गया कि इन अंकल से बात करना चाहिए उन्हें बताना चाहिए कि ये उन्होंने क्या किया। वह पतिदेव के पास पहुंची और बोली "ये जो बेबी हैं वो पैदल क्यों जा रही हैं ?"
"क्योंकि उन्हें पैदल चलना अच्छा लगता है। "
"पर उनका घर तो बहुत दूर है आपने उन्हें क्यों जाने दिया ?"
"वो नहीं मानती कहती हैं पैदल जाएँगी। "
"आपको पता है जंगल में भूत है आत्मा है आपको उन्हें पैदल नहीं जाने देना चाहिए था। "
"क्या करें वो मानती ही नहीं हैं अब हम जायेंगे तो उन्हें गाड़ी में बैठा लेंगे। "
थोड़ी संतुष्ट थोड़ी असंतुष्ट वह चली गई। 
मैं थोड़े आगे बड़ी थी एक गाड़ी मेरे पास आकर रुकी ड्राइवर ने पूछा "मैडम आपका गाड़ी पीछे आ रहा है ना ?" 
"हाँ हाँ मेरा गाड़ी आ रहा है। "
ऐसे चिंता करने वाले ऐसी मदद करने वाले लोग जहाँ हों वहाँ घूमना कितना भला लगा होगा आप सोचिये। उस समय तो मैं यह सोच रही थी कि अभी एक हफ्ता तो भाषा सुधरने में लगेगा। 
क्रमशः 
कविता वर्मा 

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "'बंगाल के निर्माता' - सुरेन्द्रनाथ बनर्जी - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. अच्छा यात्रा विवरण

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