Sunday, January 10, 2010

चिठ्ठियाँ.....४

बस इसी तरह ठीक इसी तरह चिठ्ठियाँ लिखने का सिलसिला टूट जाया करता था सहेलियों के साथ भी, तब बहुत सारे शिकवे शिकायतों के साथ कभी बहुत बड़ा सा ख़त या कभी बहुत छोटा सा पत्र अपनी नाराजगी बताने के लिए लिखा जाता था.बैतूल में मेरी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी आया,मेरी सगाई तय हो गयी.इसकी खबर सहेलियों को लिखने से पहले न जाने कितने ही सूत्र पिरोये,कितनी ही बार खुद से ही शरमाई,मन था की बल्लियों उछल रहा था,लिखते भी नहीं बन रहा था,लिखे बिना रहा भी नहीं जा रहा था.उस पत्र के जवाब का इन्तजार सदियों सा भारी लगा.फिर एक दिन एक और पत्र आया धड़कते दिल से उसे खोला, वह पत्र था 'उनका".हाँ यही संबोधन होता था 'उनके 'लिए,जिस पर मेरी सहेलियां अच्छा उनका,वो कौन, अभी से "उनका"कह-कह कर मुझे परेशान कर देतीं थी,इस एक संबोधन से ही गाल लाल हो जाते थे,बहुत सादगी और शराफत से लिखा गया पत्र था, पर मुझे तो एक-एक शब्द मोती लग रहा था .पत्र मिलते ही जल्दी से सहेलियों से मिलने घर से निकल पड़ी,उन्हें बताये बिना चैन भी तो नहीं पड़ता था। पहले उन्हें बोल कर सब बताया क्या-क्या लिखा है,फिर न-नुकुर करते हुए पूरा पत्र पढ़ा दिया। आखिर में भी तो यही चाहती थी.इस पत्र की एक लाइन ने तो दिल को छू ही लिया,न-न ऐसा-वैसा कुछ मत सोचिये,वो लाइन थी "तुम पत्र का जवाब देने से पहले अपने मम्मी- पापा से पूछ लो उन्हें कोई एतराज़ तो नहीं है."जब से होश सम्हाला था पत्र लिख रही थी,ये पहला मौका था जब पत्र का जवाब देने से पहले मम्मी से पूछा गया,वो भी पशोपेश में थी,फिर पापा से पूछ कर बतायेंगी ,कह कर बात ख़त्म हो गयी.दूसरे दिन पत्र सिरहाने रख कर सो रही थी,की ऐसा लगा कोई पास आ कर बैठा,मैंने आँखे मूंदे राखी ,फिर एक हाथ धीरे से बड़ा और पत्र उठाया,थोड़ी देर बाद उसे वापस रख दिया,मैं अभी भी सोने का नाटक करती रही। थोड़ी देर बाद मम्मी ने आवाज़ लगाई,बेटा उठो चाय पी लो, चाय पीते हुए मम्मी ने कहा,हमने पापा से बात की थी उन्होंने ने कहा है,पत्र का जवाब दे दो इसमे तो कोई हर्ज़ नहीं है.आज अचानक चिठ्ठियों -चिठ्ठियों में कितना बड़ा फर्क हो गया.पर मन तो तुरंत जवाब देने को बैचैन था.लिखने बैठ भी गयी,पर ये क्या,आज कुछ लिखते क्यों नहीं बन रहा है,मैं तो कितने सालों से चिठ्ठियाँ लिख रही हूँ.................

3 comments:

  1. बहुत प्यारी सी पोस्ट है।

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  2. सिलसिलेवार सभी चिट्ठियों को पढ गया हूं । कमाल है कि चिट्ठों को पढते पढते चिट्ठियों का स्वाद तो जैसे भूल ही गया था आज आपने फ़िर याद दिलाया , बहुत ही सुंदर लेखन और शैली भी । नियमित लिखें

    अजय कुमार झा

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  3. dhanyavaad ajayji,is utsahvardhan ke liye.

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