(फेसबुक और साहित्य जगत में सीमा भाटिया गंभीर और औचित्य पूर्ण लेखन में जाना पहचाना नाम है। मेरा उपन्यास 'छूटी गलियाँ ' उनकी नजरों से।
आजकल लेखन के साथ साथ पुस्तकें पढ़ने का क्रम भी जारी है। पिछले दिनों "क्षितिज अखिल भारतीय लघुकथा समारोह" में Kavita Verma जी से मिलने का सुअवसर मिला और उनके द्वारा लिखित पहला उपन्यास "छूटी गलियाँ" भी। पढ़ने से पहले तक इसी संशय में थी कि कोई रूमानी उपन्यास होगा। पर कल जो हाथ में लिया, तो पहले अध्याय से ही एकदम नए और अछूते कथानक के साथ ऐसा तारतम्य बना कि समाप्त कर के ही उठी इसे। विदेश में धन कमाने की लालसा एक इंसान को अपने परिवार से कैसे दूर कर देती है, और वहां की चकाचौंध और बच्चों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में वह सब पीछे छूट जाता है जिसे पारिवारिक खुशी कहते हैं। ऐसे हालात में पत्नी और बच्चों की मनोव्यथा और बाद में सब कुछ छूट जाने की पीड़ा एक अनचाहे पश्चाताप से भर देती है नायक के मन को और वह उसी परिस्थिति में जी रहे एक मासूम को वह खुशी देने की कोशिश करता है जिसके अभाव में उसका अपना बेटा मानसिक तनाव में जूझता हुआ संघर्ष कर रहा बाहर आने के लिए। खून के रिश्तों के अतिरिक्त भी स्नेह के रिश्ते होते और कई बार उनसे भी ज्यादा मजबूत सिद्ध होते हैं। बहुत ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के बाद लेखिका ने पूरा तानाबाना बुना है उपन्यास का और इस क्षेत्र में वह पूरी तरह सक्षम प्रतीत होती हैं।
हर पात्र के चरित्र को उसके अंतर्द्वंद्व के माध्यम से और भी सशक्त रूप से उकेरने में सफल रही हैं कविता जी। अंत के एकाध अध्याय में कुछ जगह नेहा और मिस्टर सहाय के अंतरद्वंद्व में confusion महसूस होती पाठक के तौर पर, पर यह कमी ज्यादा नहीं खलती पूरे उपन्यास को देखते हुए। सारा उपन्यास एक अनूठी शैली में लिखा गया है और शुरुआत से अंत तक रोचकता बनाए रखता है। पारिवारिक रिश्तों में जरूरी संवाद की कमी और आपाधापी के इस युग में सिर्फ धनार्जन के लिए परिवार की उपेक्षा करने के दुष्परिणाम की ओर सचेत करता यह उपन्यास लेखिका का पहला प्रयास होने के बावजूद एक बहुत बड़ी सफलता है। आशा है कि आगे भी ऐसी और भी कृतियों को पढ़ने का सौभाग्य मिलता रहेगा।
सीमा भाटिया
आजकल लेखन के साथ साथ पुस्तकें पढ़ने का क्रम भी जारी है। पिछले दिनों "क्षितिज अखिल भारतीय लघुकथा समारोह" में Kavita Verma जी से मिलने का सुअवसर मिला और उनके द्वारा लिखित पहला उपन्यास "छूटी गलियाँ" भी। पढ़ने से पहले तक इसी संशय में थी कि कोई रूमानी उपन्यास होगा। पर कल जो हाथ में लिया, तो पहले अध्याय से ही एकदम नए और अछूते कथानक के साथ ऐसा तारतम्य बना कि समाप्त कर के ही उठी इसे। विदेश में धन कमाने की लालसा एक इंसान को अपने परिवार से कैसे दूर कर देती है, और वहां की चकाचौंध और बच्चों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में वह सब पीछे छूट जाता है जिसे पारिवारिक खुशी कहते हैं। ऐसे हालात में पत्नी और बच्चों की मनोव्यथा और बाद में सब कुछ छूट जाने की पीड़ा एक अनचाहे पश्चाताप से भर देती है नायक के मन को और वह उसी परिस्थिति में जी रहे एक मासूम को वह खुशी देने की कोशिश करता है जिसके अभाव में उसका अपना बेटा मानसिक तनाव में जूझता हुआ संघर्ष कर रहा बाहर आने के लिए। खून के रिश्तों के अतिरिक्त भी स्नेह के रिश्ते होते और कई बार उनसे भी ज्यादा मजबूत सिद्ध होते हैं। बहुत ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के बाद लेखिका ने पूरा तानाबाना बुना है उपन्यास का और इस क्षेत्र में वह पूरी तरह सक्षम प्रतीत होती हैं।
हर पात्र के चरित्र को उसके अंतर्द्वंद्व के माध्यम से और भी सशक्त रूप से उकेरने में सफल रही हैं कविता जी। अंत के एकाध अध्याय में कुछ जगह नेहा और मिस्टर सहाय के अंतरद्वंद्व में confusion महसूस होती पाठक के तौर पर, पर यह कमी ज्यादा नहीं खलती पूरे उपन्यास को देखते हुए। सारा उपन्यास एक अनूठी शैली में लिखा गया है और शुरुआत से अंत तक रोचकता बनाए रखता है। पारिवारिक रिश्तों में जरूरी संवाद की कमी और आपाधापी के इस युग में सिर्फ धनार्जन के लिए परिवार की उपेक्षा करने के दुष्परिणाम की ओर सचेत करता यह उपन्यास लेखिका का पहला प्रयास होने के बावजूद एक बहुत बड़ी सफलता है। आशा है कि आगे भी ऐसी और भी कृतियों को पढ़ने का सौभाग्य मिलता रहेगा।
सीमा भाटिया
आदरणीय कविता जी समीक्षा अच्छी है पर विस्तार नही दिया गया है,क्योकि उपन्यास की विषय वस्तु विस्तृत होती है | | सस्नेह शुभकामनायें
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