कुछ ढूंढती है
मेरी आँखें
मन चकित सा
देखता है
कुछ जो खो गया
कुछ जो ढूँढना है
कुछ जो रीत गया
कुछ जो अनजाना है
डोलती हूँ बौराई
टटोलती अलगनी
अलमारी किताबें
तकिये के नीचे टटोलते हुए
कहीं नहीं है
कुछ नहीं है
हताश सोचती हूँ
क्या ढूंढ रही हूँ में ?
क्यूँ हूँ अकेली ?
क्यूँ नहीं मिल रहा
वो तुम्हारे होने का एहसास
गुम सा है जब से
तुम रूठ गए हो !
रुठने से उपजे भाव गहरे हैं।
ReplyDeleteआभार
मन की उलझन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति ..!
ReplyDeleteउलझन को अच्छी तरह व्यक्त किया है आपने
ReplyDeleteबहुत खूब कहा है ।
ReplyDeleteबहुत खूब :)
ReplyDeleteमन की भावनाओं को अच्छी तरह शब्दों में पिरोया है .....धन्यवाद
ReplyDeleteएक अच्छी अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव...उससे सुन्दर वे शब्द जिनमें इन भावों को पिरोया गया है..सीधे दिल में उतारते हैं ...
ReplyDeleteवो तुम्हारे होने का एहसास
ReplyDeleteगुम सा है जब से
तुम रूठ गए हो !
बहुत ही सुन्दर शब्द हैं
आपका फोलोवर बन रहा हूँ ....
मन की उलझन की सुन्दर स्वाभाविक अभिव्यक्ति ..आभार..
ReplyDeleteक्यूँ नहीं मिल रहा
ReplyDeleteवो तुम्हारे होने का एहसास
गुम सा है जब से
तुम रूठ गए हो !
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
"डोलती हूँ बौराई
ReplyDeleteटटोलती अलगनी
अलमारी किताबें
तकिये के नीचे टटोलते हुए"
अपनों से अलगाव,चाहे क्षणिक ही क्यूँ न हो,बेचैनी का सबब बन जाती है क्योंकि इससे विचलित मन की उलझन बहुत बढ़ जाती है. "बौराना" और "टटोलना" जैसे शब्द उस बेचैनी ("विरह-भाव") को जीवंत कर दे रहे हैं.आधुनिक परिवेश में आपकी कविता कहीं-न-कहीं सूरदास के विरह-वर्णन की याद दिला रही है.कविता जी,मान की छूती रचना.
क्यूँ नहीं मिल रहा
ReplyDeleteवो तुम्हारे होने का एहसास
गुम सा है जब से
तुम रूठ गए हो !
बेहतरीन ।
सादर
mil jayenge ehsaas... ruko to sahi
ReplyDeleteहमारे सब के अहसासों को बडी खूबसूरती से व्यक्त किया है इस कविताने । कुछ ना कुछ हम सभी खोज रहे हैं ।
ReplyDeleteबहुत खूब कहा है
ReplyDeleteकुछ कविताएं मन में बस जाती है और अपनी सी लगती है .. आपकी इस कविता ने यही किया है .. मन में जा बसी है ..
ReplyDeleteबधाई
आभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html