Friday, July 1, 2011

उन दिनों तुम



 जब तुमने  
 किया था गृहप्रवेश  
 चूड़ियाँ खनकती थी  
 बजते थे बिछुए  
 घर भरा होता था
 नवझंकार  से     
 सर पर पल्लू संभालती  
 चौंकती  हर आहट पर 
 एक झिझक, एक ललक   
 वो ननद के साथ   
भरी दोपहर बाज़ार चले जाना    
देवर की चाह का पकवान बनाना   
बुजुर्गों के  पैर छू लेना  आशीष    
एक संतुष्टि की मुस्कान 
 तुम्हारी आँखों में     
 वो मेरे देखने पर   
लजा कर नज़रें झुकाना   
पास आने पर सिहर जाना   
तुम आज भी वही हो 
खुद में  संबंधों में और  
परिपक्व   
लेकिन तुम्हारा वह नयापन       
याद आता है मुझे    
उसे फिर लौटा लाना चाहता हूँ में            

18 comments:

  1. वो वक्त कहाँ लौटता है ..बहुत कोमल भाव से रची खूबसूरत रचना

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  2. कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...वो नयापन दोनों तरफ था...

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  3. chudiyan khankti thi...bajte the bichue.......bahoob bayani hai......bahoot sunder bhav

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  4. बहुत सुंदर भाव .... ना जाने समय के साथ क्यों खो जाता है वो नयापन .......

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  5. सुन्‍दर शब्‍दों के साथ नाजुक से अहसास समेटे बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  6. आपकी पोस्ट कल(3-7-11) यहाँ भी होगी
    नयी-पुरानी हलचल

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  7. कविता ji आप ने भारतीय नारी के उस पहलू को बड़े ही सजीव ढंग से उजागर करते हुए आज पर भी प्रकाश डाली है ! बेहद सजीव लगा !

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  8. sunder yadon ko hamesha jiya ja sakta hai.......bahut komal rachna.

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  9. काश! दिन लौट आते।
    भाव बनाए रखें
    आभार

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  10. क्या बात है कविता जी.
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
    खूबसूरत अहसास कराती हुई.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.आपका स्वागत है.

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  11. ये तो हर पति की चाहत होती है ... पर समय वापस नही आ पता .. लाजवाब रचना है ..

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  12. बद्लाव हर जगह अवश्यम्भव है.

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  13. पूरी रचना बहुत ही खूब...कुछ भी छोड़ दूं तो नाइंसाफी होगी.

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  14. एक नयी तरह की कविता .. एक नयापन.. कुछ अलग से अहसास है .. उम्र के इस मोड पर.. बधाई

    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

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