""कान्हा" मंडला जिले में जबलपुर से १६० किलो मीटर दूर टाइगर प्रोजेक्ट के तहत रिजर्व फोरेस्ट है डिस्कवरी चेनल पर टाइगर देखते देखते असल में देखने की इच्छा हो आयी. बस नेट से वहां के कान्हा रेसोर्ट में बुकिंग करवाई और चल पड़े.इंदौर से कार से .इंदौर से सुबह साढ़े पांच बजे निकल गए ९ बजे भोपाल और १२ बजे पिपरिया पहुँच गए. भोपाल में ही भरपेट ब्रंच किया ताकि बार बार रुकना न पड़े. लेकिन पिपरिया से पचमढ़ी का रास्ता बिना रुके आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा था.
रास्ते के दोनों और बड़े बड़े हरे भरे पेड़ ऐसा मनोरम दृश्य बना रहे थे की हम इंदौर वासी तो सच में अब ऐसे दृश्य को तरस जाते है.इंदौर में विकास के नाम पर पर्यावरण का जो विनाश हुआ है की दिल रो देता है. इंदौर शहर के लगभग ९० % पुराने पेड़ विकास की भेंट चढ़ गए है.शहर अब तो हालत ये है की कही छाँव के लिए ढूंढें से एक पेड़ नहीं मिलता .ऐसा लगता है शहर अनाथ हो गया सब बुजुर्गों का साया उठ गया. सारे रास्ते पेड़ों से आच्छादित सड़क की फोटो लेते रहे.कार रोक कर फोटो खींची. तभी तेज़ आंधी के साथ बारिश शुरू हो गयी ,बस फिर क्या था तड़ा तड कच्चे आम(केरियाँ) पेड़ों से गिरने लगीं.बस गाँव की याद आ गयी जब पत्थर मार कर अमराई से केरियाँ तोड़ते थे.और नमक के साथ खाते थे. ढेर सी केरियाँ बटोर ली.
रास्ते के दोनों और बड़े बड़े हरे भरे पेड़ ऐसा मनोरम दृश्य बना रहे थे की हम इंदौर वासी तो सच में अब ऐसे दृश्य को तरस जाते है.इंदौर में विकास के नाम पर पर्यावरण का जो विनाश हुआ है की दिल रो देता है. इंदौर शहर के लगभग ९० % पुराने पेड़ विकास की भेंट चढ़ गए है.शहर अब तो हालत ये है की कही छाँव के लिए ढूंढें से एक पेड़ नहीं मिलता .ऐसा लगता है शहर अनाथ हो गया सब बुजुर्गों का साया उठ गया. सारे रास्ते पेड़ों से आच्छादित सड़क की फोटो लेते रहे.कार रोक कर फोटो खींची. तभी तेज़ आंधी के साथ बारिश शुरू हो गयी ,बस फिर क्या था तड़ा तड कच्चे आम(केरियाँ) पेड़ों से गिरने लगीं.बस गाँव की याद आ गयी जब पत्थर मार कर अमराई से केरियाँ तोड़ते थे.और नमक के साथ खाते थे. ढेर सी केरियाँ बटोर ली.
शाम पांच बजे जबलपुर पहुंचे. जबलपुर में भेडा घाट और धुंआधार देखने का प्लान था. भेडा घाट में नर्मदा दोनों और से संगमरमर की चट्टानों की पहरेदारी में चलती है .कही कहीं ये चट्टानें इतने पास पास है की किसी ज़माने में बंदर भी आर पार कूद जाया करते थे. यहाँ शाम की सुनहरी धुप संगमरमर की चट्टानों को अपने रंग में रंग कर अनोखा ही दृश्य उत्पन्न कर रही थी. यहाँ से हम पहुंचे धुअधार जहाँ नर्मदा नहीं नीचे खाई में गिरती है पानी का वेग इतना है की पानी की बौछारे पलट कर ऊपर उठती है और धुए सा दृश्य उत्पन्न करती है. यहाँ अब रोप वे बन गया है जिसमे बैठ कर प्रपात को ऊपर से निहारा जा सकता है. रात हम जबलपुर में ही दीदी के यहाँ रुके.
सुबह जल्दी निकले तो दीदी ने घर का बना सत्तू हमारे साथ रख दिया .मंडला यहाँ से १६० किलोमीटर है रास्ते में में एक पेड़ के नीचे रुक कर हमने सत्तू घोला और नाश्ता किया..करीब १२ बजे हम कान्हा पहुँच गए.उस दिन हमने सिर्फ आराम किया और सफारी के बारे में जानकारी ली.कान्हा गाँव जंगले के लगभग किनारे बसा है यहाँ चरों और बिलकुल शांति है गाड़ियाँ चलती है लेकिन होर्न की आवाज़ नहीं सुनाई देती.रेसोर्ट है लेकिन तेज़ लाइट कहीं नहीं है सब कुछ बिलकुल शांत . कान्हा की भोगोलिक जानकारी तो नेट पार उपलब्ध है.में आपको वह बताना चाहती हु जो मैंने वहां महसूस किया .
अगले दिन सुबह साढ़े ४ बजे हम सफारी के लिए निकले .जंगल में प्रवेश के लिए एक गेट है वहा सभी वाहनों की एंट्री होती है और वहीँ से एक एक फोरेस्ट गार्ड अनिवार्य रूप से सभी गाड़ियों में सवार होता है.ये गार्ड एक गाइड का भी कम करता है साथ ही जंगल में अनुशाशन भी देखता है.रास्ते में स्पीड ३० किलोमीटर ,पहले जंगली जानवरों को रास्ता दे के बोर्ड लगे है. रोज़ यहाँ से लगभग १५० गाड़ियाँ जंगल में प्रवेश करती है .हर गाड़ी में ६ टूरिस्ट एक ड्राइवर और एक गाइड होता है. जंगल में भी गाड़ियों की गति पर नियंत्रण होता है .
साल के ऊँचे पेड़ लम्बे घास के मैदान कच्ची सड़क और चारों और शांति. शहर की आपाधापी के बाद ये पल बहुत सुकूनदायी लगते है . सूर्योदय का मनोहारी दृश्य. साल के पेड़ों के बीच से आती रवि रश्मियाँ सड़क के दोनों और दीमक के डूह.बेखोफ सड़क पर करते संभार चीतल ..और कहीं कहीं बारहसिंघा बीसों जिसे इंडियन गौर भी कहा जाता है और जंगली सूअर . इस जंगल में सभी कुछ रिज़र्व है यहाँ किसी पेड़ के टूटने या सूखने पर उसे हटाया नहीं जाता वही सड़ने के लिए पड़ा रहने दिया जाता है .साल के पेड़ का रोपा नहीं लगता वह अपने आप ही जमीन पर गिरे बीज से उगता है और बहुत धीरे धीरे बढ़ता है .घने जंगल में जाना बहुत रोमांचकारी था .यहाँ आ कर सिर्फ टाइगर के पीछे भागने का मन नहीं हुआ मैंने ड्राइवर से कहा आप तो आज हमें जंगल घुमाओ.फिर तो हमने खूब फोटोग्राफी की .
उस सुबह टाइगर नहीं दिखा तो थोडा उदास तो हुए लेकिन शाम को फिर आना था .गर्मियों में शाम को पानी पीने जरूर बाहर निकलता है इसलिए उम्मीद ज्यादा थी. शाम की सफारी ४ बजे से ७ बजे तक होती है.आपस की बात से टाइगर किस इलाके में है इसकी जानकारी गाइड लेता रहा और फिर वह दृश्य दिखा जिसके लिए कम से कम ७०-८० किलोमीटर घूम चुके थे .एक बाघिन पानी पी कर वापस लौट रही थी .करीब ३०-३५ जीप वहा खडी थी लेकिन उसे किसी की परवाह नहीं थी वह तो अपने रास्ते गाड़ियों के सामने से अपनी मस्ती भरी चाल से निकल गयी....तब लगा वाकई ये जंगल के राजा है इतने लोग इनके पीछे मारे -मारे फिर रहे है और ये मस्त है अपनी दुनिया में.अगले दिन फिर जंगल घूमे उस दिन कोई टाइगर नहीं दिखा लेकिन आज आखरी दिन है ये सोच कर मन उदास हो गया. मेरा तो मन था की एक दिन एक जीप कर के कही दूर जंगल में कोई पुस्तक लेकर जा बैठू .कितनी शांति है यहाँ .बातें तो निकलने से और भी निकलेंगी पर आज आप फोटो देखिये ...फिर कभी और कुछ बातें शेयर करूंगी.
कान्हा की सैर मनोरंजक और तथ्यपरक. सुंदर यात्रा वृतांत.
ReplyDeleteमनोरम दृश्य/सुन्दर चर्चा.
ReplyDeleteकान्हा का आपका यात्रा व्रतांत बहुत अछा लगा ... अच्छे चित्रों के साथ बदले हुवे माहॉल को बाखूबी लिखा है आपने ...
ReplyDeleteकान्हा की सैर का यह विस्तृत विवरण और चित्र बहुत ही अच्छे लगे ..बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
ReplyDeleteइतनी मेहनत के बाद जंगल के राजा से मुलाकात हो गयी। वरना कई बार तो लोगों को बिना देखे ही आना पड़ता है। वैसे कान्हा-किसली अच्छी जगह है।
ReplyDeleteसैर करते रहना चाहिए। "घुमक्कड़ी जिंदाबाद"
कविता जी बहुत ही अछी सैर करा दी आपने ! जबलपुर गया था ..भेडा घाट नहीं जा पाया क्योकि समय नहीं था ! सत्तू की याद लाजबाब ...वेटा कल गाँव जा रहा है , उससे कह कर मंगवाना पडेगा ! मम्मी तैयार कर दे देगीं ! बहुत सुन्दर लगा ! बधाई
ReplyDeleteकान्हा के दर्शन करने के लिए धन्यवाद...
ReplyDeleteI've heard and read a lot about this place. It seems great and by reading this post I want to visit it asap !!!
ReplyDeleteबाघ भी अभ्यस्त हो चले हैं.
ReplyDeleteरोचक दृष्टांत ,एवं कौतूहलपूर्ण यात्रा मोहक है /
ReplyDeleteबहुत ही रोचक यात्रा वृत्तांत है.
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कल 21/06/2011को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है-
आपके विचारों का स्वागत है .
धन्यवाद
नयी-पुरानी हलचल
बहुत बढ़िया यात्रा वर्णन,
ReplyDeleteआभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
yaaden taza ho aai...aabhar.
ReplyDeleteहम लोग लगभग २५ साल पहले कान्हा गये थे तब हांथी पर चढ़ कर टाईगर देखने गये थे। मालुम नहीं कि अब ऐसा होता है कि नहीं।
ReplyDeleteजंगल की शान्ति में मुक्त मन से पुस्तक पठन की बात अच्छी लगी ...
ReplyDeleteसुंदर यात्रा वृतांत....कान्हा के दर्शन करने के लिए धन्यवाद...!
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