त्रिभंग या बहुभंग
बहुत दिनों से सोशल मीडिया पर फिल्म त्रिभंग की चर्चा चल रही थी। कई बार इसका प्रोमो सामने आया लेकिन न जाने क्यों प्रोमो देखते हुए फिल्म देखने की इच्छा नहीं जागी इसलिए इसे स्थगित करती रही।
आज सोचा कि क्यों न इसे देख ही लिया जाये। अकसर बहुत ज्यादा तारीफ प्राप्त फिल्म या वेबसीरीज निराश ही करती हैं लेकिन हो सकता है कि यह इस धारणा को तोड दे। एक संवेदनशील लेखिका द्वारा लिखी कहानी पर नामी अभिनेत्रियों का अभिनय कुछ तो खास होगा। स्त्री जीवन और उसकी जिजीविषा को कोई अलग आयाम उठाया गया होगा इसमें।
फिल्म की शुरुआत में कांपते हाथों से लिफाफे पर नाम लिखती नायिका के साथ शुरू हुई कहानी नायिका की इस स्वीकारोक्ति के साथ कि उससे गलती हुई है। जीवन कई बार चुनाव के मौके देता है और उस चुनाव में गलती होना स्वाभाविक है लेकिन इस फिल्म में जो हुआ वह गलती नहीं ब्लंडर ज्यादा लगा।
एक लेखिका जो माँ भी है उसका अपने पति बच्चों जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ कर सिर्फ लेखन में लिप्त होना कई प्रश्न खड़े करता है।
लेखन इतना जरूरी था तो शादी करने घर गृहस्थी बसाने की क्या जरूरत थी? जिन बच्चों को जानते समझते पैदा किया उनकी जिम्मेदारी से बड़ा और क्या?
अब अगर नारीवादी यह कहें कि क्या घर बच्चों के काम सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी है तो वे ये बताएं कि फिर नायिका पैसे कमाने की ही जिम्मेदारी उठा लेती। पति नौकरी कर रहा है उसकी माँ घर बच्चे संभाल रही है और फिर भी पत्नी दुखी है और आँसू पोंछती कोसती बच्चों को लेकर घर से निकल जाती है और नारीवादी यह कहने पर गुस्सा और दुख जताते हैं कि सास ने कहा 'ये तो मैं मर जाऊंगी तब भी लिखेगी' या आफिस से थके हारे आये पति ने कहा कि 'खाना लगाओ '। उनकी नजरों में यह स्त्री के लिए सबसे बड़ी गाली है।
नायिका को अबला बताते हुए कहानी की लेखिका और डायरेक्टर यह भूल गईं कि वह बूढ़ी औरत जो इस उम्र में अपने पोते पोती और घर को संभाल रही है वास्तव में उस पर अत्याचार हो रहा है। एक तरफ स्त्री वादी नारेबाजी करते हैं कि महिलाओं को घर गृहस्थी से रिटायर्मेंट नहीं मिलता दूसरी ओर वे खुद एक बूढ़ी स्त्री को घर गृहस्थी में झोंक रहे हैं और उसकी थकान उसकी झल्लाहट को नजरअंदाज करके उसे सास रूपी अत्याचारी साबित करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उसके सामने बहू लोगों के साथ बैठकर शराब पिये लेकिन वह कुछ न बोले।
पति को शुक्र है कि बख्श दिया वह एक सफल पत्नी के तेवरों को झेलता आम आदमी है जो माँ बच्चों को हैरान परेशान देखता है लेकिन कुछ कर नहीं पाता।
पहले समय में जब स्त्री घर छोड़ती थी या घर से निकाली जाती थी उसके सामने आजीविका की समस्या उत्पन्न होती थी। त्रिभंग की नायिका इसका तोड़ निकालती है कि किसी अमीर आदमी से प्रेम करो उसके दिये आलीशान मकान में रहो एक फुलटाइम मेड रखो और अपना लेखन जारी रखो। जब एक से दिल भर जाये या उसका दिल भर जाये दूसरे को पकड लो। जिस नायिका के पास पति के घर आने पर उसके पास दो मिनट बैठने की उसका हालचाल पूछने की फुर्सत नहीं है उसे बाय फ्रेंड बनाने उससे प्रेम करने की फुर्सत कैसे मिल जाती है? तब भी प्रेम करने की ही फुर्सत मिलती है अपने बच्चों को जानने समझने उनसे बात करने की न वह जरूरत समझती है न कभी कोशिश करती है।
क्या लेखिकाएं इतनी असंवेदनशील होती हैं कि उन्हें अपने ही बच्चों की परेशानियाँ नहीं दिखतीं?
जिस लेखिका को पहले ही उपन्यास के लिये अकादमी पुरस्कार मिलता है वह न अपने बच्चों का व्यक्तित्व बना पाती है और न ही उनका मन पढ पाती है। उसके पात्र कैसे होंगे यह तो सोचने की जरूरत ही नहीं है।
काजोल जिसने एक ऐसी लड़की का रोल किया है जिसने बचपन में माँ बाप को अलग होते देखा है माँ की गैरजिम्मेदारी की शिकार हुई है माँ के बाय फ्रेंड के द्वारा यौन अत्याचार सहा है वह बेहद अकेली है लेकिन अकेले पन की पूर्ति बिना शादी किये लिव इन में रहते बार बार पार्टनर बदलते करती है। वह अपने को विद्रोही दिखाने के लिए धाराप्रवाह गालियाँ देती हैं और एक सफल नृत्यांगना पेज थ्री पर्सनालिटी होते हुए भी पत्रकारों को उन्हीं के मुँह पर गालियाँ देती है।
माँ के कोमा में जाने पर उसे लोकाचार निभाते हास्पिटल जाना पड़ता है। एक स्वतंत्र स्त्री गालियाँ देने वाली अपनी माँ को उसके नाम से पुकारने वाली समाज क्या कहेगा के डर से माँ को देखने जाती है उसके साथ हास्पिटल में रहती है। यह तो आम स्त्रियाँ भी करती हैं। देखा जाये तो वह फिल्म की मुख्य हीरोइन है पर्दे पर सबसे ज्यादा फुटेज उसे ही मिला है लेकिन सिवाय गालियों के कोई महत्वपूर्ण डायलॉग या चरित्रिक मजबूती वे प्रकट नहीं कर पाई हैं। पहले प्यार के साथ लिव इन में रहना जिसमें उनकी माँ उनकी मदद करती हैं उस प्रेमी से प्रेगनेंट होना उसकी मारपीट सहना फिर उसे घर से निकाल देना। माँ से नाराजगी बेटी होने के बाद फिर माँ से जुड़ाव नृत्य से जुड़ाव लेकिन फिर माँ से कब कैसे दूरी बनी इसका कोई जिक्र नहीं है। उसका घर कैसे चला बेटी को अकेले कैसे पाला ये संघर्ष तो आजकल की फिल्मों में वैसे भी नहीं होते हैं। यही माँ अपनी बेटी का रिश्ता एक पारंपरिक परिवार में करने जाती है तो वहाँ कहती है कि अगर आपको दहेज चाहिए तो मुझे एक अमीर बाय फ्रेंड पकड़ना पडे़गा क्योंकि अभी तो मेरे पास कुछ नहीं है। आश्चर्य कि ऐसी बात सुनकर भी वह पारंपरिक परिवार उनकी बेटी को अपनी बहू बना लेता है। हालाँकि शायद यही एक बात अच्छी और तसल्ली देने वाली है कि लड़की की माँ और नानी के अतीत की छाया उस लड़की के जीवन पर पड़ती नहीं दिखाई है।
फिल्म के अंतिम दृश्य में जब काजोल की बेटी अपनी सास से सिर पर पल्ला रखकर वीडियो काल पर बात करती है और उसकी माँ को सास की पूछताछ चिंता अखरती है। वह फोन लेकर खुद बात करती है। तभी वह अपनी बेटी से बात करती है और तब उसकी बेटी पहली बार अपनी माँ के सामने अपने दुख अपने अपमान बताती है जो उसे बचपन में माँ के व्यवहार के कारण मिले हैं। लब्बोलुआब यही रहा कि एक लड़की जिसे माँ की देखभाल नहीं मिली जिसके कारण वह अपनी माँ से नाराज रही वही अपनी बेटी की भावनाओं से इस कदर बेखबर है कि उसके प्रेगनेंट होने तक जान ही नहीं पाती कि बेटी कैसा महसूस कर रही है। यह माँ भी कलाकार है जो कि आम इंसानों से ज्यादा संवेदनशील माना जाता है।
अंततः सबसे युवा पीढ़ी की लड़की एक परंपरा वादी परिवार में इसलिए इतनी पाबंदियां सहती है कि उसे अपने बच्चे के लिए पिता का नाम चाहिए। वह ससुराल वालों को खुश करने के लिए भ्रूण परीक्षण तक करवाती है।
लब्बोलुआब यह है कि स्त्री स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी जिम्मेदारियों से मुँह चुराना उस पर सीनाजोरी करना शराब पीना देह की स्वतंत्रता का इस्तेमाल आर्थिक स्वतंत्रता लेने के लिए करना और बाय फ्रेंड कपड़े की तरह बदलना। जब यह भटकन पीढ़ी दर पीढ़ी चले तब फिर घूम फिर कर उसी सोलहवीं सदी में पहुँच जाना जहाँ सिर ढंकना बेटा पैदा करना जैसी चीजें स्त्री को घर से बांधे रखती हैं और उनके बच्चों को पिता का नाम दिलवा देती हैं।
अंत में एक प्रश्न जो मेरे दिमाग में कुलबुलाता रहा कि आज अच्छे-अच्छे लेखक भी अपने लेखन से चार लोगों को काफी नहीं पिला सकते वहीं फिल्म की नायिका अपने लेखन से न सिर्फ अपना उच्च स्तरीय जीवन चलाती हैं बल्कि शराब के गिलास पर गिलास खाली करती रहती हैं।
कविता वर्मा
#tribhang #kajol
मैंने देखी नहीं है । नेटफ्लिक्स नहीं है इसलिए । कुछ लोगों के लेखन से मन था कि किसी तरह देखा जाय लेकिन इस समीक्षा के बाद त्रिभंग से मोह भंग हो गया । वैसे भी आज कल की चाहे वेब सीरीज़ हो या मूवी देख कर दिमाग खराब करने लायक ही हैं । जो थोड़े बहुत संस्कार बच्चों में होंगे व्व भी खत्म होने की कगार पर हैं । बढ़िया समीक्षा की है ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार दीदी
Deleteप्रिय कविता जी, यह फिल्म अब तक मैंने देखी नही है, अब तक इसके बारे में जो पढ़ा उससे अलग विचार, समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा.
Deleteसही लिखा,यह साधारण परिवार की कहानी नहीं। सपनों के लिए परिवार छोड़नी पड़ी तो परिवार बनाया ही क्यों? मुझे तरस उसके पति पर अधिक आयी। उसने साथ दिया, आगे भी देता ही। बड़े की जरा सी बात से परिवार को बिखेर कर उसे क्या सन्तोष, क्या सफलता मिली, यह सोचने वाली बात है।
ReplyDeleteअच्छी और सटीक समीक्षा।
सपनों के लिए परिवार छोड़ा बच्चों को उपेक्षित किया और आखिर में सबकी सहानुभूति की चाह
Deleteयह फिल्म अब तक मैंने देखी नही है, अब तक इसके बारे में जो पढ़ा उससे अलग विचार, समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteफिल्म देखी नहीं है . पर आपकी समीक्षा पर यही कहूँगी कि एक व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता दूसरे की बाध्यता नहीं होनी चाहिए.
ReplyDeleteवाणी गीत जी सच कहा आखिर हम सामाजिक प्राणी हैं
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