पिछले कुछ दिनों में महिलाओं के धार्मिक स्थलों में प्रवेश को लेकर फिर बवाल मचा। रूढ़िवादी इसे धर्म और धार्मिक आस्था पर प्रहार मान रहे है तो प्रगतिशील इसे बदलाव का शुभ संकेत। इस बहस से एक बार फिर स्त्री पुरुष समानता की चर्चा जोरों पर है वहीँ स्त्रियों के अधिकारों की पुनः पड़ताल की जा रही है। एक मौका था केरल के सबरीमला तीर्थ में महिलाओं के मासिक में होने का पता लगाने वाली मशीन लगाने का फैसला या शिंगणापुर में एक महिला भक्त का शनि चबूतरे पर चढ़ तेल चढाने की घटना। इसके बाद तो पूरे देश में मानों हड़कंप ही मच गया और महिला संगठनों सहित समाज के विभिन्न वर्गों में इस प्रतिबन्ध के अौचित्य और सही गलत को लेकर एक बहस शुरू हो गई।
समानता की अवधारणा में असमानता
वैसे तो सबरीमला ऐसा मंदिर है जहाँ हर जाति धर्म और आस्था के लोग प्रवेश कर सकते है। ब्राह्मण और दलित बिना किसी भेदभाव के दर्शन कर सकते हैं पर इस मंदिर में बारह से पचास वर्ष की उम्र की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है यानि जीवन का वह काल जब स्त्री एक प्राकृतिक चक्र के द्वारा मासिक धर्म से होती है। कहीं कोई महिला या बच्ची जो इस उम्र से पहले या बाद में इस अवस्था में तो नहीं है इसका पता लगाने के लिए वहाँ एक मशीन लगाने का निर्णय लिया गया था जिसका पुरजोर विरोध हुआ। इसके खिलाफ कोर्ट में केस दायर किया गया जिसका निर्णय आना शेष है। साथ ही उस निर्णय वो चाहे जो भी हो उस पर देश की क्या प्रतिक्रिया होगी ये भी जानना भी दिलचस्प होगा।
स्त्री के मासिक चक्र उससे उत्पन्न असहजता और दर्द से पुरुष वर्ग हमेशा चकित और भ्रमित रहा है। साथ ही स्त्री की गर्भधारण और संतानोत्पत्ति की क्षमता को पुरुष एक चमत्कारिक शक्ति के रूप में देखता आया है। एक ऐसी शक्ति जो शारीरिक रूप से स्त्री से ज्यादा शक्तिशाली होने के बावजूद भी पुरुष के पास नहीं है। वह कहीं न कहीं खुद को स्त्री से हीन पाता है। ये जानते हुए भी कि इस चमत्कार में उसका भी योगदान है पर वह प्रत्यक्ष नहीं है और अपनी संतति के लिए पुरुष को स्त्री पर निर्भर रहना ही पड़ता है। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव ये रहा कि वह स्त्री की इसी शक्ति को उसकी कमजोरी करार देने को उद्धत हुआ। एक डर की कहीं स्त्री उससे अधिक शक्तिशाली न हो जाये उसकी संप्रभुता को स्वीकार न करना पड़े इसलिए पुरुष वर्ग ने मासिक धर्म को स्त्री की अपवित्रता से जोड़ा। उसे उन दिनों में कमजोरी अधिक आराम जैसे भुलावे में रख कर दैनंदिन कार्यों से अलग रखा। पूजा पाठ धर्म कर्म के लिए अनुपयुक्त बता कर उस पर मानसिक वार किया जिससे वह स्त्री महीने के कुछ दिन स्वयं को कमजोर और अपवित्र मान कर पुरुष की हर आज्ञा सर माथे पर ले ले।
मासिक धर्म से जुडी भ्रान्तिया और वर्जनाएँ इसी का परिणाम है जो पुरुष समाज से होते हुए स्त्री समाज तक इस तरह फ़ैल गए कि अब वे सभी भ्रांतियां मानों स्त्रियों की ही धरोहर हो गई।
शक्ति को शक्ति से दूर करना
ईश्वर की उपासना एक और शक्ति और चमत्कार के सामने नतमस्तक होना था जिसे पुरुष ने मासिक के नाम पर या स्त्री होने के नाम पर बड़ी आसानी से स्त्री से छीन लिया। वह नहीं चाहता था कि एक शक्ति दूसरी शक्ति की निरंतर उपासना कर और शक्तिमान हो जाये।
तथाकथित धर्म के ठेकेदार धर्म की व्याख्या और उसके प्रचार प्रसार के माध्यम से स्वयं का रुतबा और प्रभाव ही बढ़ाते रहे हैं। इसकी आड़ में स्त्री शक्ति से जुड़ा उनका भय भी पोसाता रहा और नए नए धार्मिक नियमों के द्वारा स्त्री को कमजोर करने के तरीके अपनाते रहे हैं।
वेद जो हिन्दू धर्म के मान्य धर्म ग्रन्थ हैं उनमे स्त्री के साथ ऐसे किसी भेदभाव की कोई जानकारी नहीं है। सिर्फ वेद ही क्यों हर धर्म ग्रन्थ में स्त्री को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए हैं लेकिन धर्म की व्याख्या करने वालों ने अपनी शक्ति और संप्रभुता बढ़ाने के लिए स्त्रियों को हमेशा ही उनके अधिकारों से वंचित किया है।
वर्जित है मूर्ति का स्पर्श
पुरुषों ने जहाँ मासिक धर्म को स्त्री की कमजोरी निरूपित किया वहीँ ब्रह्मचर्य को पुरुषों की शक्ति। ब्रह्मचर्य स्वयं की इन्द्रियों पर अंकुश होना चाहिए था जिसे स्त्री से दूरी निरूपित कर दिया गया। दूर रह कर इन्द्रियों पर वश किया तो क्या किया? ब्रह्मचर्य तो समाज में रहते हुए स्वयं पर नियंत्रण करना होना था लेकिन पुरुष जानता था स्वयं पर नियंत्रण आसान नहीं है। हनुमान शनि महाराज भैरव बाबा और भी अन्य कई देवताओं के भक्त बन उनकी भक्ति से खुद को शक्तिशाली बनाने के लिए उनसे स्त्रियों को दूर रखने के नियम बनाये गए।
हनुमान मंदिर में स्त्रियां मूर्तियों को स्पर्श नहीं कर सकती शनि मंदिर या भैरव मंदिर में स्त्रियां पूजा नहीं कर सकती जैसे नियम अपना वर्चस्व बनाये रखने की कोशिशे मात्र हैं।
पवित्रतम का अपवित्र होना
कुछ दिनों पहले शनि शिंगणापुर में एक महिला सुरक्षा व्यवस्था को धता बता कर चबूतरे पर चढ़ गई और उसने शनि भगवान को तेल चढ़ा दिया। इस बात का बवाल पूरे देश में मचा। चार सुरक्षा कर्मी निलंबित कर दिए गए। दर्शन रोक कर शनि चबूतरे को दूध से धोया गया उसकी शुद्धि की गई। फिर चर्चा शुरू हो गई क्या महिलाओं का निषेध उचित है ? जिस भारतीय दर्शन में ईश्वर दर्शन से सभी पापों का नष्ट होना माना जाता है वही ईश्वर एक महिला के स्पर्श मात्र से अपवित्र कैसे हो सकता है? जिस ईश्वर की पवित्रता के लिए उसे स्त्री से दूर रखा जाता है पौराणिक गाथाओं के अनुसार वह ईश्वर भी स्त्री की कोख से जन्मा है अपनी जननी स्वरुप स्त्री के स्पर्श से कोई देवता अपवित्र कैसे हो सकता है? फिर उस देव स्थान को पवित्र करने के लिए उसे दूध से धोया जाता है वह दूध भी तो किसी मादा पशु का ही होता है। ऐसे में ये दोहरे मापदंड सिर्फ और सिर्फ स्त्री की सामाजिक धार्मिक शक्ति को घटाने के साधन मात्र बन कर रह जाते हैं।
हथकंडे और भी हैं
धर्म के नाम पर सारी वर्जनाएं महिलाओं के लिए ही हैं। यज्ञ हवन पिंडदान अंतिम संस्कार से महिलाओं को सदैव दूर रखा गया। लेकिन धीरे धीरे वर्जनाएं टूट रही हैं स्त्रियां खुद इन्हे तोड़ रही हैं। कई मामलों में थोड़े बहुत विरोध के बाद परिवार वाले भी समर्थन कर रहे हैं तो कई बार समाज का सहयोग भी मिल रहा है लेकिन ये बहुत व्यक्तिगत मसले रहे हैं जिनका असर एक छोटे से तबके में होता है। हालाँकि इन प्रयासों को वाहवाही मिलती है लेकिन इसका प्रभाव सीधे सीधे धर्म के ठेकेदारों के प्रभाव या रोजी रोटी पर नहीं पड़ता या वे वहाँ सीधे पहुँच नहीं पाते क्योंकि मामला भावनात्मक भी होता है। इसीलिए समाज में ऐसे बदलाव दिखाई दे रहे हैं सराहे जा रहे हैं और परंपरा में शामिल होने लगे हैं। इससे साफ़ है कि आम भारतीय मानस धार्मिक मान्यताओं और स्त्री की धार्मिक भागीदारी में बदलाव के लिए तैयार हो रहा है।
ईश्वर एक प्रावधान अनेक
रूढ़ियाँ समूह विशेष की दिमागी जड़ता की प्रतीक होती हैं ये उस समाज या क्षेत्र विशेष में ज्यादा मुखर होती हैं जिन्हे धर्म के ठेकेदारों ने अपने कब्जे में ले रखा है उनका वर्चस्व इतना अधिक है कि धार्मिक भावना के आहत होने के डर से कानून और प्रशासन कुछ नहीं कर पाते। ये स्थिति सिर्फ हिन्दू देव स्थानों की नहीं है बल्कि हर धर्म में महिलाओं के साथ ये भेदभाव होता है। ये जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि शिंगणापुर में स्त्रियाँ शनि चबूतरे पर नहीं चढ़ सकतीं लेकिन कई स्थानों पर शनि पूजा के लिए ऐसा कोई बंधन नहीं है वहाँ स्त्री पुरुष सामान रूप से दर्शन पूजन करते हैं बल्कि पीढ़ियों से महिला पुजारी ही मंदिर में पूजा और व्यवस्था का कार्यभार संभल रही हैं।
मानसिक बंधन फिर भी हैं
रेखा ने घर में पूजा की पूजा के अंत में नारियल फोड़ना था लेकिन उसके पति घर में नहीं थे। बेटी ने कहा मम्मी आप खुद ही नारियल फोड़ दो लेकिन बचपन से जमे संस्कार उसे ऐसा करने से रोकते रहे। नारियल बलि का प्रतीक है और महिला बलि कैसे दे सकती है ? वह पड़ोस से किसी को बुलाने चली गई तब तक उसकी बेटी ने नारियल फोड़ दिया। रेखा पहले तो हतप्रभ रह गई फिर सोचा चलो ठीक है आजकल बेटा बेटी बराबर हैं ये सोच कर चुप रह गई। धार्मिक बंधनों से कई बार निकलने का मन तो होता है लेकिन बरसों से दिमाग में जिन मान्यताओं को जमा दिया गया है उनसे उबरना आसान भी नहीं हैं लेकिन अब अगली पीढ़ी ये भेदभाव नहीं झेले इसके लिए खुद को तैयार किया जा रहा है।
अभी शनि शिंगणापुर ट्रस्ट की अध्यक्ष एक महिला बनी लेकिन उन्होंने भी बरसों से चली आ रही परंपरा को ही निभाने की बात कही। साफ है या तो ये मानसिक बेड़ी इतनी मजबूत है कि इसे तोड़ने का साहस नहीं है या फिर खुद को मिले रुतबे और अधिकार को खोने का डर कोई क्रन्तिकारी कदम उठाने की इजाजत नहीं देता।
दरअसल ये विडम्बना ही है कि देश में जितने भी धर्म हैं उनकी सही व्याख्या आम जनमानस तक कभी पहुंची ही नहीं इसके पहले ही साधू संतों पण्डे पुजारियों मुल्ला मौलवियों ने इसे अपने स्वार्थ और फायदे के लिए तोड़ मरोड़ कर पेश कर दिया। जिन लोगों ने स्वाध्याय से धर्म को जाना और रूढ़िवादिता का विरोध किया उन्हें नास्तिक ठहरा दिया गया उन पर जानलेवा हमले तक हुए। धार्मिक आयोजन का स्वरुप ही अब विकृत हो कर व्यापार बन गया है ऐसे में आम जन इस चकाचौंध से प्रभावित हो कर रूढ़ियों के भंवर में फँसता ही जा रहा है।
सबरीमला और शिंगणापुर में जो भी हुआ उसने देश में महिलाओं की स्थिति का एक ताज़ा चित्र खींच दिया साथ ही धर्म के ठेकेदारों के सामने धर्म और कानून की असहाय स्थिति को भी उजागर कर दिया। देश का कानून महिलाओं को चाहे बराबरी का अधिकार देता है धर्म ने भले स्त्री को देवी शक्ति निरूपित किया हो लेकिन जड़ मानसिकता के पुरुष इस स्थिति को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए अभी बहुत संघर्ष करना होगा आखिर हजारों बरसों की मानसिक गुलामी से मुक्त होना इतना आसान भी तो नहीं हैं।
कविता वर्मा
इंदौर
डेली न्यूज़ में प्रकाशित कवर स्टोरी
वर्जनाएं टूट रही हैं और इनका टूटना भी निश्चित है.... सटीक विश्लेषण। शुभकामनाएं
ReplyDeleteअंधविश्वासों और अतार्किक प्रथाओं पर आधारित प्रतिबंधों को एक दिन टूटना ही होगा। बहुत सारगर्भित आलेख..
ReplyDeleteअंधविश्वासों और अतार्किक प्रथाओं पर आधारित प्रतिबंधों को एक दिन टूटना ही होगा। बहुत सारगर्भित आलेख..
ReplyDeleteप्रासंगिक और समीचीन लेख. बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसार्थक चिंतनशील सामयिक लेख प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
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