Wednesday, October 10, 2012

आँगन की मिट्टी



कुछ सीली नम सी
माँ  के हाथों के  कोमल स्पर्श  सी
बरसों देती रही सोंधी महक
जैसे घर में बसी माँ की खुशबू
माँ और आँगन की मिट्टी

जानती है 
जिनकी जगह न ले सके कोई और
लेकिन फिर भी रहती चुपचाप
अपने में गुम
शिव गौरा की मूर्ति से तुलसी विवाह तक
गुमनाम सी उपस्थित
एक आदत सी जीवन की
माँ और आँगन की मिट्टी

कभी खिलोनों में ढलती
कभी माथा सहलाती
छत पर फैली बेल पोसती
कभी नींद में सपने सजाती
कभी जीवन की धुरी कभी उपेक्षित
माँ और आँगन की मिट्टी

उड़ गए आँगन के पखेरू
बन गए नए नीड़
अब न रही जरूरी
बेकार, बंजर, बेमोल
फिंकवा दी गयी किसी और ठौर
माँ और आँगन की मिट्टी।






8 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना
    क्या कहने, बढिया भाव


    कभी खिलोनों में ढलती
    कभी माथा सहलाती
    छत पर फैली बेल पोसती
    कभी नींद में सपने सजाती
    कभी जीवन की धुरी कभी उपेक्षित
    माँ और आँगन की मिट्टी

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  2. वाह बेहद खूबसूरत और भावनात्मक प्रस्तुति बहुत सुन्दर रचना |

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  3. बहुत सुंदर रचना।
    इससे ज्यादा कहने के लिए शब्द ही नहीं मिल रहे।

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  4. सुन्दर कविता.
    समय के साथ सबकुछ बदल जाता है, माँ हो, आँगन की मिट्टी या कुछ भी. माँ होने के नाते कह सकती हूँ की बदलाव के लिए तैयार रहना होगा न कि उपेक्षा की प्रतीक्षा करनी चाहिए.
    घुघूतीबासूती

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  5. हो रहे बदलाव के लिए तैयार रहना चाहिए,,,,
    भावनात्मक उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,,,

    RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

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  6. अंत में मिट्टी में मिल जाती है मिट्टी- सीता की तरह

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  7. उड़ गए आँगन के पखेरू
    बन गए नए नीड़
    अब न रही जरूरी
    बेकार, बंजर, बेमोल
    फिंकवा दी गयी किसी और ठौर
    माँ और आँगन की मिट्टी।
    BEAUTIFUL LINES

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  8. मर्मस्पर्शी रचना ....वाकई माँ और आँगन की मट्टी ..वात्सल्य और अपनेपन की मिसाल ..कभी ध्यान नहीं गया इस समानता पर ..अद्भुत !!!

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