आज सुबह का अखबार पढ़ते ही मन दुखी हो गया।मेडिकल फाइनल के एक छात्र ने इसलिए फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी प्रेमिका की सगाई कहीं और हो गयी थी।उस छात्र के जीजाजी जो की खुद मेडिकल ऑफिसर है ने एक दिन पहले उसे इसी बारे में समझाइश भी दी थी लेकिन रात वह होस्टल के कमरे में अकेला था और उसने इसी अवसाद में फांसी लगा ली। इसी के साथ एक और खबर थी की मेडिकल के जुड़ा के अध्यक्ष ने दो महीने पहले इसी कारण की उसकी प्रेमिका की किसी और के साथ शादी हो गयी आत्महत्या की कोशिश की थी और वह अभी तक कोमा में है। वैसे भी आजकल आये दिन अखबार में युवा लड़कों द्वारा आत्महत्या किये जाने की ख़बरें आम हो गयीं हैं।ये लड़के अवसाद की किस गंभीर स्थिति में होंगे की उनके लिए उनके माता पिता भाई बहन परिवार जिम्मेदारी कोई चीज़ मायने नहीं रखती और वे इस तरह का आत्म घाती कदम उठा लेते हैं।
अगर इस बारे में गंभीरता से सोचा जाये तो हमारे यहाँ का पारिवारिक सामाजिक ढांचा इस स्थिति के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। हमारे यहाँ लड़कों को बहुत ज्यादा संवेदनशील न समझा जाता है न उनका संवेदनशील होना प्रशंशनीय बात मानी जाती है। बचपन से ही उन्हें इस मानसिकता के साथ पाला जाता है की तुम लड़के हो तुम्हे बात बात पर भावुक होना या रोना शोभा नहीं देता। इस तरह से एक प्रकार से घर परिवार के लोगों के साथ वे अपनी भावनाएं शेयर कर सकें इस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। लड़के 10-11 साल के होते न होते अपनी बातें घर के लोगों से छुपाना शुरू कर देते हैं।अधिकतर माता पिता को पता ही नहीं होता की स्कूल में या अपने दोस्तों के बीच बच्चा किस मानसिक दबाव से गुजर रहा है। स्कूल में भी लड़कों पर कई तरह के दबाव होते हैं वहां भी कोई परेशानी होने पर उनकी बात उस सहानुभूति के साथ नहीं सुनी जाती जिस सहानुभूति के साथ लड़कियों की बातें सुनी जाती है। उसके साथी लड़के अगर उसे चिढाते है या उसके साथ उसे अच्छी न लगे ऐसी बातें करते है तो वह इस बारे में न घर पर न ही स्कूल में किसी से कह पाता है। इस उम्र में इतनी समझ भी विकसित नहीं होती की अपने दोस्त की सीक्रेट बातें अपने तक रखी जाएँ।इस तरह यदि कोई बच्चा अपने किसी दोस्त को अपने मन की बातें बताता भी है तो उसका हमउम्र दोस्त उन बातों को कभी भी सबके बीच उजागर कर के उसे शर्मिंदा कर देता है।और इस तरह लड़कों में अपनी बातें अपने दोस्तों को भी न बताने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। ( फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा इसका बहुत ही बढ़िया उदाहरण है ).
थोड़े बड़े होने पर हाई स्कूल तक आते आते जब की लड़कों में बहुत सारे परिवर्तन होने लगते है एडोलेसेंस या वयः संधि के परिवर्तन की जितनी जानकारी लड़कियों को दी जाती है लड़कों को वैसी जानकारी देने के इतने प्रयास नहीं किये जाते हैं। परिणाम स्वरुप वह आधी अधूरी जानकारी या हमउम्र साथियों द्वारा मिली गलत जानकारी के आधार पर इनसे जूझता है। यही वह उम्र होती है जब लड़कों में लड़कियों के प्रति आकर्षण बढ़ता है।ऐसे समय में जब उन्हें उनसे दोस्ती की चाह होती है ये चाह एक हमदर्द या संवेदनशील दोस्त की चाह ज्यादा होती है। ऐसे में अगर उन्हें एक लड़की की दोस्ती हासिल हो जाये जो वाकई दोस्ती रखना चाहती हो तो ठीक लेकिन अगर वह लड़की किसी कारणवश दोस्ती न करे या दोस्ती तोड़ दे तो उनपर खुद को एक वयस्क के रूप में साबित करने का दबाव रहता है और सिगरेट शराब पीना ,लड़ाई झगडा करके खुद को एक हेरोइटिक इमेज में दर्शाना, दाढ़ी बढ़ाना स्कूल में नियमों को तोडना,टीचर्स के साथ बदतंमीजी करना ,अनापशनाप गाड़ी चलाना आदि इसी के परिणाम होते हैं। असल में लड़के इस उम्र में खुद को एक वयस्क के रूप में स्थापित करने की जद्दोजहद में होते हैं।
किशोर उम्र की लड़कियों की जितनी जानकारी उनके घरवालों द्वारा रखी जाती है की वह कहाँ जा रही है किससे मिल रही है लड़कों के बारे में उतनी जानकारी रखना उनके घरवाले जरूरी नहीं समझते,ऐसे में उसकी किसी लड़की से दोस्ती या दोस्ती की हद समझाने के भी बहुत प्रयास नहीं किये जाते हैं। न ही उनकी दोस्ती टूटने की और उससे होने वाले अवसाद की कोई जानकारी परिवार वालों को होती है।ऐसे समय में लडके के बहुत ज्यादा घर से बाहर होने को दोस्तों की गलत संगत पढाई न करना कमरे में अकेले बैठे रहना कान में एयर फोन लगा कर खुद को सबसे दूर रखने की कोशिश को कोई भी उनके डिप्रेशन से जोड़ कर न देखता है न समझता है।ये मान लिया जाता है की इस उम्र में लड़के ऐसे ही हो जाते है और उम्र बढ़ने पर समझ आने पर संभल जायेंगे। पर कभी कभी बहुत देर हो जाती है।
परिवार की लड़कों से उनके करियर के बारे में भी बड़ी बड़ी उम्मीदें होती हैं।कई बार माता पिता अपनी उमीदें उन पर थोप देते हैं जिन्हें पूरा करना उनके लिए नामुमकिन दिखता है। लेकिन इस बारे में बात करने पर उन्हें माता पिता की नाराजगी ही मिलती है।उन्हें पढाई करो तो क्या नहीं कर सकते,दोस्तों को छोड़ने टी वी न देखने जैसी ढेरों हिदायतें मिल जाती हैं।
लड़कों का ये अकेलापन उनकी उम्र की हर स्टेज पर देखने को मिलता है।वे अपने दुःख,अपनी चिंताएं अपने घरवालों से आसानी से शेयर नहीं करते।यहाँ तक की अपनी पत्नी से भी वे कई बातें छुपा जाते हैं।लेकिन जब परेशानियाँ हद से बढ़ जाती हैं तब घर छोड़ कर चले जाना या आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं।आज आये दिन अख़बारों में वयस्क व्यक्तियों द्वारा कर्ज का बोझ बढ़ने या पारिवारिक समस्याओं से जूझने में असमर्थ रहने पर आत्महत्या कर लेने की ख़बरें बहुत आम हो गयीं हैं।
अब समय आ गया है जब की लड़कों को भी मजबूत भावनात्मक सहारे का एहसास करवाया जाये।
परिवार,स्कूल में उनकी बातें सहानुभूति के साथ सुनी और समझी जाएँ।
उनकी संगत ,दोस्ती लड़कियों के प्रति उनके आकर्षण को समय रहते समझा जाये और इस दिशा में उन्हें सही समय पर सही सलाह दी जाये।
उनके भावुक होने को मजाक में न लिया जाकर उन की परेशानियों को समझा जाये और उन्हें इससे उबरने के लिए उचित सलाह दीं जाएँ।
किशोरावस्था के परिवर्तनों को समझाने के लिए स्कूल में ,परिवार में उन्हें सही समय पर सही मार्गदर्शन दिया जाये।
बचपन से ही उन्हें सिर्फ दिखावटी मजबूत होने के बजाय वाकई ऐसा मजबूत बनाया जाये की वे अपनी परेशानियों को अपने परिवार के साथ शेयर करें उसमे झिझकें न .
लड़कों की परवरिश में थोडा सा परिवर्तन कर के हम उनपर पड़ने वाले दबावों को कम कर सकते हैं और ऐसी आत्मघाती प्रवृत्तियों से उन्हें बचा सकते हैं।
घर वाले चाहें तो इस प्रवृत्ति पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं
ReplyDeleteबिल्कुल, आपने एक ऐसे मुद्दे को उठाया जो वाकई आज गंभीर हो चुका है। मैं देखता हूं कि इस तरह कि दिक्कतें पढे लिखे लड़कों के साथ कुछ ज्यादा ही हो रही है।
ReplyDeleteज्वलंत मुद्दे पर गंभीर चर्चा
बहुत बढिया
चिंतनीय विषय छेड़ा है आपने। यह तो सच है कि लड़कों को भी परिजनो की ओर से भावनात्मक लगाव एवं स्नेह की जरुरत होती है। वह नही मिल पाता। बचपन से बाहर निकलते ही घर की समस्याओं मे शामिल होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में चिंता होना स्वाभाविक है।
ReplyDeletemudde ki gambhirta guardians samajh hi nahi paa rahe... aur iss karan jab koi baat ho jati hai, to sir peetne ke alaawe koi chara nahi rah jataaaa...
ReplyDeletesarahniya charcha...
एक सार्थक लेख .....जिसे हर माँ बाप पढ़ कर सीख ले सकते हैं
ReplyDelete1*अब समय आ गया है जब की लड़कों को भी मजबूत भावनात्मक सहारे का एहसास करवाया जाये।
ReplyDeleteपरिवार,स्कूल में उनकी बातें सहानुभूति के साथ सुनी और समझी जाएँ।
2*लड़कों की परवरिश में थोडा सा परिवर्तन कर के हम उनपर पड़ने वाले दबावों को कम कर सकते हैं और ऐसी आत्मघाती प्रवृत्तियों से उन्हें बचा सकते हैं।
एक सार्थक लेख .....जिसे हर माँ बाप पढ़ कर सीख ले सकते हैं
TOTALY AGREED WITH ANJU [ANU ]CHAUDHARY JI
मार्मिक ||
ReplyDeleteupyogi lekh ...mata pita ko dhiyaan rakhna hoga ...
ReplyDeleteबच्चों की देख रेख करना माँ-बाप का पहला दाइत्व होता है,अगर इस ओर ध्यान रखा जाय तो ऐसी घटनाओं में काफी हद तक काबू पाया जा सकता है,,,सार्थक आलेख,
ReplyDeleteRECENT POST LINK ...: विजयादशमी,,,
बहुत सार्थक विश्लेषण...माता पिता को बच्चों के साथ मित्रवत संबंध बनाने चाहिए जिससे वे अपने विचार और भावनाएं उनके साथ सहजता से साझा कर सकें...
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट...
ReplyDeleteबिल्कुल सही लिखा...किशोर वय के बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार ही उचित है|
ReplyDeleteवाकई ऐसे हादसे आजकल बहुत बढ़ गए है !
ReplyDeleteबहुत हद तक आधुनिक शिक्षा भी इसके लिए जिम्मेदार है !
आज की शिक्षा पैसे कमाना तो समझा रही है पर जीवन को कैसे जिया जाय
इसकी कोई जानकारी नहीं ! बच्चे बढ़ते समय के साथ अपने माँ के भावनात्मक करीब हो सब बातों के वे शेअर करे
उसके साथ तो ऐसे हादसों को बहुत हद तक रोका जा सकता है !
Peer pressure is too high in today’s life
ReplyDeleteकिशोर बच्चों का मन भी अपरिपक्व रहता है। उनके साथ अच्छा व्यवहार करना निहायत जरूरी है।
ReplyDeleteएक ने इस लिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी सत्य की खोज पूरी हो गयी थी... चारों ओर एक नकारात्मक माहौल बन रहा है...धैर्य बहुत जल्दी जवाब दे रहा है...
ReplyDeleteकाफी गंभीर विषय है....परिवार और समाज को इस विषय पर चिंतन करने की अत्यंत आवश्यकता है ...
ReplyDeleteअब समय आ गया है जब की लड़कों को भी मजबूत भावनात्मक सहारे का एहसास करवाया जाये।
ReplyDeleteपरिवार,स्कूल में उनकी बातें सहानुभूति के साथ सुनी और समझी जाएँ।
बिलकुल सही कहा आपने
बहुत गंभीर विषय उठाया है आपने. लड़कों को भी भावनात्मक सहरे की आवश्यकता है.
ReplyDeleteआज के जीवन में अकेलापन बहुत बढ़ता जा रहा है. परिवार में सब अलग-अलग अपने-अपने में, एक दूरी रह जाती है संबंधों में.ऊपर से कितने दबाव .सामाजिक संबंध कितने विरल. ऐसे में किसी से आत्मीयता मिलती है तो उस पर निर्भरता बहुत बढ़ जाती है.नहीं तो नकारात्मक बिचार घेर लेते हैं .
ReplyDeletemeri tippani hogi dekhiye ....
ReplyDeleteबच्चों की देख रेख करना माँ-बाप का पहला दाइत्व होता है,अगर इस ओर ध्यान रखा जाय तो ऐसी घटनाओं में काफी हद तक काबू पाया जा सकता है,,,सार्थक आलेख,
ReplyDeleteRECENT POST : समय की पुकार है,
गंभीर विषय उठाया है आपने इस विषय पर चिंतन करने की अत्यंत आवश्यकता है
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