Monday, December 13, 2010

समंदर के किनारे


समंदर के किनारे
एक आदमी को
चलते हुए रेत पर
मिल गयी एक सीपी
उठाया उसे
सहलाया उसे
अपने पास रखने को
साफ करने रेत कण
लहरों में डुबाया उसे
थाम न सका
लहरों के वेग में
छूट गयी हाथ से
गुम हो गयी
विस्तार में
अचकचा कर
देखा अपनी
खाली हथेलियों को
कुछ दूसरी सीपियाँ
उठाते हुए
अपनी को
पहचानने की कोशिश
न पा सका
और चल दिया
अपनी राह
छोड़ कर उसे वही

समंदर के किनारे
एक लड़की,
रेट पर पड़ा एक शंख
आकर्षित हो उस और
देखा संकोच से चहु और
हौले से उठाया उसे,
कानों से लगा
सुनी उसकी आवाज़
जो उतर गयी दिल तक
तभी एक लहर ने
खींच ली रेत
पैरों के नीचे से
छूट गया शंख
हाथ से
विलीन हो गया
अथाह समुन्द्र में
वह लड़की
अपनी खाली हथेलियाँ
देखती रही
मसलती रही
पर लहरों के बीच से
न उठा सकी
कोई और शंख

बरसों बाद
वह आदमी
चला जा रहा है
समुंदर की लहरों
और रेत को
रौंदता
बिना परवाह किये
इस बात की
कितनी ही सीपियों
पर छोड़ चूका है
वह अपने
क़दमों के निशान

बरसों बाद
वह लड़की
जो बन गयी है
औरत
समंदर के किनारे
लहरों के बीच
रेत पर
ढूंढ रही है
उसकी आँखे
वही शंख
और
मसलती जा रही है
अपनी खाली हथेलियाँ
आज भी।

13 comments:

  1. समंदर के किनारे
    एक लड़की,
    रेट पर पड़ा एक शंख
    आकर्षित हो उस और
    देखा संकोच से चहु और
    हौले से उठाया उसे,
    कानों से लगा
    सुनी उसकी आवाज़
    जो उतर गयी दिल तक... adbhut chitran , gahre bhaw

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  2. ब्लोग पर पूरा क्यों नहीं दिख रहा। रीडर में तो दिख रहा है।
    बहुत अच्छी लगी कविता, और उसका विन्यास।

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  3. bahut sundar kavita... jindgi me yet yo hi khinch jata hai pairon ke neeche se..

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  4. सुंदर चितंन है शब्दों के माध्यम से
    कविता जी -- आभार

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  5. सुन्दर अभिव्यक्ति। शुभकामनायें।

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  6. बरसों बाद
    वह लड़की
    जो बन गयी है
    औरत
    समंदर के किनारे
    लहरों के बीच
    रेत पर
    ढूंढ रही है
    उसकी आँखे
    वही शंख
    और
    मसलती जा रही है
    अपनी खाली हथेलियाँ
    आज भी।

    सुन्दर भावाभिव्यक्ति...

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  7. समय खींच लेता है पैरों के नीचे की जमीं और सारी उम्र हाथ मलने के सिवाय कुछ बचता नहीं . दार्शनिक अंदाज की रचना .

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  8. नारी कितनी संवेदनशील है ... और आदमी कितन खुदगर्ज़ ... सच लिख दिया है आईने की तरह .

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  9. This comment has been removed by the author.

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  10. "कितनी ही सीपियों
    पर छोड़ चूका है
    वह अपने
    क़दमों के निशान

    ढूंढ रही है
    उसकी आँखे
    वही शंख
    और
    मसलती जा रही है
    अपनी खाली हथेलियाँ
    आज भी।"


    कविता जी नमस्कार.आपकी रचना "समंदर के किनारे पढ़ी.जीवन-दर्शन से ओत-प्रोत इस रचना के सार से अभिभूत हूँ. पुरुष और नारी के मनोभाव का भेद बताती एक प्रभावी रचना है. अवसर के हाथ से निकल जाने और उसके परिणामी प्रभाव का बहुत ही सटीक चित्रण.समंदर का बिम्ब अर्थ को असीमित विस्तार दे इसके प्रभाव को बढ़ा रहा है.बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आ पाया हूँ.

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  11. बरसों बाद
    वह लड़की
    जो बन गयी है
    औरत
    समंदर के किनारे
    लहरों के बीच
    रेत पर
    ढूंढ रही है
    उसकी आँखे
    वही शंख
    और
    मसलती जा रही है
    अपनी खाली हथेलियाँ
    आज भी। '

    ha ha ha
    यही अंतर है एक पुरुष और एक औरत में. प्यार उसका जीवन है .दिल से सोचती है,दिल में उतार लेती है तभी तो लड़की औरत बन गई पर भूल नही पाई शंख को.उसकी आत्मा में बस गया था वो शंख ....बुढा जाने पर भी जब जब समंदर के किनारे आएगी उसकी आँखे उस शंख को ढूंढेगी.मुझ जैसी रही होगी वो लड़की.
    क्योकि ....बहुत कुछ मैं ऐसिच हूँ.सच्ची.
    मन की बात कही है तो कविता अच्छी तो लगेगी ही न?

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    Replies
    1. apni hi purani post padhna ..aur us par purane sathiyon ke comment padhna bahut achchha lagta hai ..shukriya aapka

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  12. बहुत सुन्दर रचना
    कथात्मकता ने इस रचना को आकर्षक बना दिया है.

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नर्मदे हर

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