कहते है इन्दौर दिल वालो का शहर है.यहाँ कि हवाओ मे अपनेपन की महक है.यहाँ हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की चिन्ता करता है,उसके लिये फ़िक्रमन्द है.अब ये ही लीजिये ,एक बार मे डाक्टर को दिखाने के लिये समय लेने गयी.समय मेरी सुविधा के अनुसार नही मिल रहा था तो मे बाहर आ गयी .मेरे पीछे पीछे एक सज्जन जो वही बैठे सारी बाते सुन रहे थे आये और कहने लगे "भाभीजी आज डाक्टर साहब जो समय दे रहे है वही ले लीजिये फ़िर अगर आप आ सके तो ठीक है नही तो मत आइयेगा".अब बताइये बिना जान-पहचान के इतनी फ़िक्र करते हुए लोग इन्दौर के अलावा कही मिलेगे?और जब ऐसे लोगो से आपका सम्पर्क होता है तो दूसरो की फ़िक्र करना आप का भी फ़र्ज़ बन जाता है.पर कभी-कभी ये फ़िक्र और चिन्ता इतनी हावी हो जाती है कि कब चिन्ता गुस्से मे बदल जाती है,और कब गुस्सा झिड्की से अधिक कठोर होकर फ़ूट पडता है पता ही नही चलता.
इन्दौर का मालवा उत्सव बहुत प्रसिद्ध है.बात करीब ४-५ वर्ष पुरानी है.पतिदेव की बहुत इच्छा थी मालवा उत्सव देखने जाने की.वैसे तो मॆ अपनी शान्त सी कालोनी की सुहानी शाम छोड कर कही जाना, खास कर भागते ट्राफ़िक,क्रत्रिम रोशनी और शहर की चिल्लपो मे जाना पसन्द नही करती .परन्तु उस दिन मैंने मन बना ही लिया.
मालवा उत्सव गाँधी हाल मे चल रहा था .कृष्णपुरा पुल पार करके आगे बडे ही थे कि नज़र आगे मोटर बाइक पर बैठी लडकी पर पडी.लाल रंग पर सुनहरी लाइनो वाला सूट और उस पर लाल सुनहरे काम वाली चुन्नी .अरे ये चुन्नी तो काफ़ी लम्बी है नीचे लटकती चुन्नी पर नज़रे फ़िसलती चली गयी और छोर तक पहुचते दिल धक से रह गया.चुन्नी का एक सिरा पिछ्ले पहिये की चेन के करीब बार-बार टकराता और दूर हट जाता.अरे अगर फंस गया तो? उसे बोलूं पर बोलूं कैसे?गाडी के कांच तो बन्द है .शहर की हवा मे धूल और धुँआ इतना है कि घर पर किये मेकअप पर धूल की एक परत चढ जाती है.ये तो चिढते भी है इतनी गर्मी मे भी तुम खिड़कियाँ बन्द रखती हो. पर थोडी गर्मी मुझे सुहाती है.
कार के कांच खोलते -खोलते वह मोटर बाईक आगे निकल गयी.लगता है नई -नई शादी हुई है,लडकी आगे को झुक कर बैठी है पीछे खुद का ही ध्यान नही है.दोनों बातो मे व्यस्त है या लड्की का ध्यान भी सडक पर है मे कुछ तय नही कर पायी.ध्यान आया जब हम मोटर बाइक पर चलते थे,मेरा पूरा ध्यान सडक पर होता था जैसे अगर नज़र हटाई तो कोई दुर्घट्ना हो जायेगी.
इन्दोर मे एम जी रोड पर शाम को साढे सात बजे एक दुपहिया वाहन का कार से पीछा करना आसान तो नही हॆ .मन मॆ अजीब से ख्याल उठे,दुपट्टे गाडी मे फंसने से हुए कई हादसे जेहन मे कौंध गये.नही-नही उसे तो बताना ही पडेगा,अरे चुन्नी कभी भी पहिये मे लिपट सकती है.पतिदेव भी अपनी जिम्मेदारी समझ कर गाडी की गति बढा कर बाईक का पीछा कर रहे थे.अचानक चौराहे पर उन्होने गाडी को जोरदार ब्रेक लगाये,साईड से एक गाडी अचानक कार के सामने आ गयी थी .विचारो ने तुरन्त करवट ली,क्या करते हो?ध्यान से चलो.
अब उस लडकी की फ़िक्र अपने ऊपर गुस्से मे बदल गयी.मुझे ही क्या पडी हैचिन्ता करने की?इतने लोग भी तो है जो आ जा रहे है.क्या इनमे से कोई भी उसे नही बता सकता?क्या उन्हे उसका दुपट्टा नही दिख रहा?मुझे भी परायी पीर मे जान हलकान करने की बुरी आदत है.अब इन्हे रोकना नामुमकिन है.अब तो ये उसे बता कर ही दम लेगे .अभी अगर एक्सीडेन्ट हो जाता तो?मर ही गये थे .पर अब इन्हे कैसे समझाउं ? कि उनकी छोडो अपनी सोचो, आखिर ये भी तो इसी इन्दोर के हवा पानी मे रहते है.
ये दिमाग भी अजीब चीज है एक सेकेन्ड से भी कम समय मे इसमे इतने विचार आ जाते है,अच्छे भी और बुरे भी .हो सकता है अगल-बगल मे चलने वाले सभी लोग इस व्यस्त सडक पर अपने को सुरक्षित पहुचाने मे ही लगे है.किसी का ध्यान उस ओर गया ही नही है.पर मेरा ध्यान तो जा चुका है ,अब भी अगर मे उसे आगाह नही करती और अगर यदि चुन्नी पहिये मे उलझ गयी तो? उस लड्की के गले मे फ़न्दा बन गयी तो? वो गिर गयी तो?इतना ट्राफ़िक ,तेज़ गति से चलती गाडिया,तेज़ गति से चलती गाडी से गिरना,और..............नही-नही मुझे उसे बताना ही पडेगा ,अब भी अगर मैने उसे नही बताया तो जिन्होने उसे नही देखा वो तो निर्दोष है पर मै मेरी अनदेखी से किसी की जान पर बन आये इस ख्याल ने ही मुझे बैचेन कर दिया.
आखिर एक और चौराहा पार कर थोडे आगे बढ्ते ही उस गाडी के समीप पहुँच गये .अब तक दिमाग मे विचारो का पुलाव पक गया था.ढेरो विचारो का घालमेल हो गया था.उनमे फ़िक्र थी,किसी का भला करने की इच्छा थी,तो भलाई के इस विचार पर खीझ भी थी.एक अच्छे नागरिक होने का भाव था,तो इस जिम्मेदारी से उपजे तनाव का गुस्सा भी था.पर उस लडकी को आगाह करने का विचार अब भी अन्य सभी विचारो पर हावी था. कार मोटर-बाईक के बगल मे पहुचते ही मैने जोर से आवाज़ लगायी,"हेलो मर जाओगे" और हाथ से चुन्नी कि और इशारा किया.लड्के ने तुरन्त बाईक को ब्रेक लगाया,और घूर कर मेरी और देखा.पतिदेव ने कार की रफ़्तार तेज़ कर दी,और भुनभुनाये,ऐस कहने की क्या जरूरत थी?सिर्फ़ चुन्नी का कह देना था.अब सारी फ़िक्र तनाव और गुस्सा पतिदेव पर फ़ूट पडा .अपनी चिन्ता किये बगैर कब से पीछाकर रहे हो अगर कुछ हो जाता तो?अब जो दिमाग मे चल रहा था वो ही जुबान से निकल गया,कोइ जान बूझ कर तो नही बोला ना .
अब तक गाडी गाँधी हाल तक पहुँच गयी थी.गाडी की गति धीमी हुई तभी वही बाईक ओवर टेक कर के आगे बढी,पीछे बैठी लडकी ने घूर कर मेरी और देखा.
मालवा उत्सव मे मेरे ही शब्द मेरे कानो मे गूंजते रहे,"हेलो मर जाओगे"जिस पर मुझे हंसी भी आती रही और गुस्सा भी.
कविता.
इन्दौर का मालवा उत्सव बहुत प्रसिद्ध है.बात करीब ४-५ वर्ष पुरानी है.पतिदेव की बहुत इच्छा थी मालवा उत्सव देखने जाने की.वैसे तो मॆ अपनी शान्त सी कालोनी की सुहानी शाम छोड कर कही जाना, खास कर भागते ट्राफ़िक,क्रत्रिम रोशनी और शहर की चिल्लपो मे जाना पसन्द नही करती .परन्तु उस दिन मैंने मन बना ही लिया.
मालवा उत्सव गाँधी हाल मे चल रहा था .कृष्णपुरा पुल पार करके आगे बडे ही थे कि नज़र आगे मोटर बाइक पर बैठी लडकी पर पडी.लाल रंग पर सुनहरी लाइनो वाला सूट और उस पर लाल सुनहरे काम वाली चुन्नी .अरे ये चुन्नी तो काफ़ी लम्बी है नीचे लटकती चुन्नी पर नज़रे फ़िसलती चली गयी और छोर तक पहुचते दिल धक से रह गया.चुन्नी का एक सिरा पिछ्ले पहिये की चेन के करीब बार-बार टकराता और दूर हट जाता.अरे अगर फंस गया तो? उसे बोलूं पर बोलूं कैसे?गाडी के कांच तो बन्द है .शहर की हवा मे धूल और धुँआ इतना है कि घर पर किये मेकअप पर धूल की एक परत चढ जाती है.ये तो चिढते भी है इतनी गर्मी मे भी तुम खिड़कियाँ बन्द रखती हो. पर थोडी गर्मी मुझे सुहाती है.
कार के कांच खोलते -खोलते वह मोटर बाईक आगे निकल गयी.लगता है नई -नई शादी हुई है,लडकी आगे को झुक कर बैठी है पीछे खुद का ही ध्यान नही है.दोनों बातो मे व्यस्त है या लड्की का ध्यान भी सडक पर है मे कुछ तय नही कर पायी.ध्यान आया जब हम मोटर बाइक पर चलते थे,मेरा पूरा ध्यान सडक पर होता था जैसे अगर नज़र हटाई तो कोई दुर्घट्ना हो जायेगी.
इन्दोर मे एम जी रोड पर शाम को साढे सात बजे एक दुपहिया वाहन का कार से पीछा करना आसान तो नही हॆ .मन मॆ अजीब से ख्याल उठे,दुपट्टे गाडी मे फंसने से हुए कई हादसे जेहन मे कौंध गये.नही-नही उसे तो बताना ही पडेगा,अरे चुन्नी कभी भी पहिये मे लिपट सकती है.पतिदेव भी अपनी जिम्मेदारी समझ कर गाडी की गति बढा कर बाईक का पीछा कर रहे थे.अचानक चौराहे पर उन्होने गाडी को जोरदार ब्रेक लगाये,साईड से एक गाडी अचानक कार के सामने आ गयी थी .विचारो ने तुरन्त करवट ली,क्या करते हो?ध्यान से चलो.
अब उस लडकी की फ़िक्र अपने ऊपर गुस्से मे बदल गयी.मुझे ही क्या पडी हैचिन्ता करने की?इतने लोग भी तो है जो आ जा रहे है.क्या इनमे से कोई भी उसे नही बता सकता?क्या उन्हे उसका दुपट्टा नही दिख रहा?मुझे भी परायी पीर मे जान हलकान करने की बुरी आदत है.अब इन्हे रोकना नामुमकिन है.अब तो ये उसे बता कर ही दम लेगे .अभी अगर एक्सीडेन्ट हो जाता तो?मर ही गये थे .पर अब इन्हे कैसे समझाउं ? कि उनकी छोडो अपनी सोचो, आखिर ये भी तो इसी इन्दोर के हवा पानी मे रहते है.
ये दिमाग भी अजीब चीज है एक सेकेन्ड से भी कम समय मे इसमे इतने विचार आ जाते है,अच्छे भी और बुरे भी .हो सकता है अगल-बगल मे चलने वाले सभी लोग इस व्यस्त सडक पर अपने को सुरक्षित पहुचाने मे ही लगे है.किसी का ध्यान उस ओर गया ही नही है.पर मेरा ध्यान तो जा चुका है ,अब भी अगर मे उसे आगाह नही करती और अगर यदि चुन्नी पहिये मे उलझ गयी तो? उस लड्की के गले मे फ़न्दा बन गयी तो? वो गिर गयी तो?इतना ट्राफ़िक ,तेज़ गति से चलती गाडिया,तेज़ गति से चलती गाडी से गिरना,और..............नही-नही मुझे उसे बताना ही पडेगा ,अब भी अगर मैने उसे नही बताया तो जिन्होने उसे नही देखा वो तो निर्दोष है पर मै मेरी अनदेखी से किसी की जान पर बन आये इस ख्याल ने ही मुझे बैचेन कर दिया.
आखिर एक और चौराहा पार कर थोडे आगे बढ्ते ही उस गाडी के समीप पहुँच गये .अब तक दिमाग मे विचारो का पुलाव पक गया था.ढेरो विचारो का घालमेल हो गया था.उनमे फ़िक्र थी,किसी का भला करने की इच्छा थी,तो भलाई के इस विचार पर खीझ भी थी.एक अच्छे नागरिक होने का भाव था,तो इस जिम्मेदारी से उपजे तनाव का गुस्सा भी था.पर उस लडकी को आगाह करने का विचार अब भी अन्य सभी विचारो पर हावी था. कार मोटर-बाईक के बगल मे पहुचते ही मैने जोर से आवाज़ लगायी,"हेलो मर जाओगे" और हाथ से चुन्नी कि और इशारा किया.लड्के ने तुरन्त बाईक को ब्रेक लगाया,और घूर कर मेरी और देखा.पतिदेव ने कार की रफ़्तार तेज़ कर दी,और भुनभुनाये,ऐस कहने की क्या जरूरत थी?सिर्फ़ चुन्नी का कह देना था.अब सारी फ़िक्र तनाव और गुस्सा पतिदेव पर फ़ूट पडा .अपनी चिन्ता किये बगैर कब से पीछाकर रहे हो अगर कुछ हो जाता तो?अब जो दिमाग मे चल रहा था वो ही जुबान से निकल गया,कोइ जान बूझ कर तो नही बोला ना .
अब तक गाडी गाँधी हाल तक पहुँच गयी थी.गाडी की गति धीमी हुई तभी वही बाईक ओवर टेक कर के आगे बढी,पीछे बैठी लडकी ने घूर कर मेरी और देखा.
मालवा उत्सव मे मेरे ही शब्द मेरे कानो मे गूंजते रहे,"हेलो मर जाओगे"जिस पर मुझे हंसी भी आती रही और गुस्सा भी.
कविता.
अच्छी और सच्ची ब्लॉगिंग कर रही हैं आप। बधाई।
ReplyDeleteपोस्ट की लम्बाई थोड़ी छोटी हो सकती थी। मैं खुद यह सोचता रहता हूँ और पोस्ट लम्बी हो जाती है। लेकिन छोटा होना अच्छा माना जाता है।
लम्बी है ... पर दिलचस्प है.
ReplyDeleteफिर क्या हुआ?
कविताजी , होता है ऐसा ये इंदौर की बीमारी है . यहाँ के लोगों की बामारी है भलमनसात की . कही भी दिखा ऐसा की लगे सलाह देने और मुफ्त चिंता करने की . भले ही सामने वाला उसको माने या न माने . आपने चिंता सही की किन्तु उसको तवज्जो देने वाला भी तो कोई हो. फिर जिसकी आपने चिंता की वो यदि इन्दोरी नहीं होगा तो वो कैसे आपकी मानता. फिर भी हम अपनी ऐसी अच्छी बीमारी को नहीं छोड़ सकते ये ही तो हमारे संस्कार है .
ReplyDeleteडॉ. कमल हेतावल
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 15 -09 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में ... आईनों के शहर का वो शख्स था
शुरू से लेकर अंत तक रोचकता बरकरार रही..बेहतरीन पोस्ट ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...आभार
ReplyDeleteसुन्दर और सहज भाव से लिखी प्रस्तुति ..आभार एवं शुभ शुभ कामनाएं !!!
ReplyDeleteyah ek massom sa sach hai...kayi bar ham aise hi kisi ki fikr me ulajh jate hain aur khud par hi kheez padte hain.
ReplyDeletebahut pakeezgi se aapne ye prasang hamare sath banta. aur ant me hontho par hansi la di.
dhanywad.
sundar prastuti
ReplyDeletehalanki ab blogging bahut kam ho gai hai lekin fir bhi aaj fir se aapka ye comment padh kar bahut achchha laga .Thank you meri blogging ke shuruaati samy me mujhe protsahit aur guide karne ke liye ..
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