रविवार की सुबह, हलकी गुलाबी ठण्ड एक बार तो सोचा एक झपकी और ले लूँ .लेकिन रविवार की सुबह जैसी सुकूनदाई सुबह नही होती ये सोच कर सारा आलस रजाई के साथ झटक के दूर फेंका और उठ खड़ी हुई.खिड़की से झाँका तो नव आदित्य को भी कुहासे के लिहाफ को परे खसका कर उठते देखा .मुझे देखते ही उसनेआँखे मिचका कर गुलाबी किरणों की मुस्कान मुझ पर फेंकी,और जैसे अपने साथ अठखेलियाँ करने का आमंत्रण दिया। अब भला इस आमंत्रण को मैं कैसे ठुकराती,धीरे से दरवाजा खोला और बहार आयी तब मुझे इस मुस्कराहट का राज़ समझ में आया.शरद ऋतू में ठंडी बयार की पिचकारी लेकर वो जैसे मेरे स्वागत में ही खड़ा था.बाहर आते ही सारोबार कर दिया.पर अब भीतर भागने से भी क्या होता,वैसे भी पीठ दिखाना मुझे पसंद नही है.मैंने भी सोचा ठीक है आज तुम ही खुश हो लो.मेरा हाल देख कर अब तक बाल भानु अट्टहास कर उठा .और उसकी हँसी तरुण कोपलोंपर मोतियों की तरह बिखर गयी. इतने सारे मोती कैसे चुनु,सोच ही रही थी कि चुनमुन गिलहरी ने चू चू कर मेरा धयान खीचा.मेरे ही किचेन कि तान पर घर बनाया है और मुझे ही आँख दिखाती है,पर फिर सोचा इसने कहाँ मैंने ही इसके आजाद परिवेश पर कब्जा कर लिया और बारह इंच जगह देने में भी इठलाती हूँ कितना अंहकार,छि-छि .पर अभी इतने विचारों के लिए फुरसत कहाँ थी गौरयों के झुंड ने आकर मुझे लताडा,रोज़ तो काम की जल्दी में भूल जाती हो कम से कम आज रविवार को तो समय से कुछ खाने को दो,रोज़ रोज़ इधर-उधर घूम कर खाना इकठ्ठा करने कि हमारी छुट्टी है.ठीक है बाबा ,चिल्लाओ मत,कहते हुए जल्दी से चावल और ज्वार के दाने उनके लिए डाले ,पानी भरा, और वो ,बिना मेरी और देखे अपनी सखिओं के साथ बतियाते हुए नाश्ते में मशगूल हो गयी. अब मेरा ध्यान फिर आसमान पर गया और देखो तो सूरज मुझे चिढा रहा था हा हा हा तुम तो फुरसत कि सुबह बिताना चाहती थी ना .मैंने मुस्कुरा कर उसकी तरफ़ देखा ,एक नज़र गपियाती चिडियों पर डाली नीम पर फुदकती गिल्हारिओं को देखा ,एक एक कर ओस कि बूंदों को चुनती किरणों पर नज़र डाली एक संतुष्टि कि साँस ली और चाय बनाने अन्दर चली गयी अब उसे कैसे समझाऊ जो सुकून इस काम में था उसके आगे तो सारे जहाँ कि फुरसत बेकार है.वैसे भी कई काम करने है ये सब समझाने का समय नही है मेरे पास.अब आप ये समझाना चाहे तो कल कि सुबह कोशिश कर लीजिये.
Sunday, November 1, 2009
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अनजान हमसफर
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कविताजी,
ReplyDeleteसच कहा इस व्यस्तता के आगे तो सारी फुरसत बेकार है। आप अगर फुरसत में होती तो एकाद फिल्म देखती या सास-बहू ब्राण्ड धारावाहिकों के रिपीट टेलिकास्ट(ना! आजकल उनका जमाना नहीं रहा शायद)
गिलहरियों की चूं- चूं गौरेया की लताड़ से जो सूकून मन को मिला होगा वह अवर्णनीय होगा।
सुन्दर आलेख! बधाई स्वीकार करें।
ये हुई ना कुछ बात,और बात कहने की अदा ... neither too strong, nor too subtle - just right.
ReplyDeleteThanks for sharing a perfect Sunday morning with us.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमन खुश हो गया आपको पढकर।