परकम्मा 1
एक दिन में कितने किलोमीटर चल सकते हैं के विचार के साथ हिम्मत जुटाई गई थी यात्रा की। यात्रा जो की जा रही हैं सदियों से नदियों के किनारे की जंगलों की तीर्थ स्थलों की। हमारे मन में था इसका मूल भाव। यात्रा प्रकृति को निहारने की उसका हिस्सा बन जाने की उसमें समा जाने की उसे खुद में समाहित कर लेने की।
वर्ष 2022 के दूसरे महिने में औचक शुरू हुई यात्रा ने इतना उत्साहित कर दिया कि वर्ष की समाप्ति के दो महीने पहले फिर निकल पड़े नर्मदा और उसके किनारे के जंगलों में खो जाने को।
जहाँ पहले एक बड़े समूह की योजना थी जो बहुत सारी व्यवस्थाओं और खर्च को देखते हुए सीमित साथियों के साथ शुरू की गई। पिछली यात्रा से इतर इस बार खूब योजना बनीं खूब रिसर्च किये और अंततः तय हुई यात्रा की तिथि।
सुबह अपने अपने साधन से एक स्थान पर मिलना तय हुआ और तय हुआ जीवन को तय मानकों से इतर कुछ दिन बिताना।
जंगल के रास्ते केवडेश्वर महादेव पहुंचे तो वहाँ से नर्मदा का खूबसूरत प्रवाह दिखा लेकिन यह समझते देर न लगी कि यहाँ से बाकी साथियों का आना असंभव है। मोबाइल नेटवर्क नहीं था बडवाह शहर से मात्र दस किलोमीटर दूर मोबाइल नेटवर्क नहीं था तो न संपर्क कर सकते थे न गूगल महाराज की सेवा ले सकते थे। तय किया कि सुरतीपुरा तालाब के किनारे नाग मंदिर में रुक कर साथियों का इंतजार किया जाये।
सुदूर जंगल में एक मंदिर सेवा करने वाले चार छह लोग और मंदिर भी सड़क से बारह फीट नीचे उतर कर तालाब किनारे। जंगल में लकड़ी लेने आईं लडकियाँ औरतें जो ऊपर सड़क किनारे बैठे सुस्ता रही थीं बतिया रही थीं । न कोई परिचित न नेटवर्क लेकिन मन में भय का कोई विचार ही नहीं।
नर्मदे हर के अभिवादन के साथ ही आप इस में प्रवेश करने सुस्ताने और चाय पाने के अधिकारी हो जाते हैं। नाग देवता आदिवासियों के ईष्ट देव हैं और उनके मंदिर में सभी सुरक्षित। मैंने वहाँ रुकना निश्चित किया पतिदेव को आफिस जाना था वे चले गए।
मंदिर के बगल में बना हुआ है बड़ा हाॅल जो परकम्मा वालों की विश्राम स्थली है। आओ अपनी चादर बिछाओ और सोओ लेटो। हाल से उतर कर जाती हैं सीढियाँ तालाब किनारे जो पानी काई कमल के पत्रों से ढंकी हैं। तालाब के ऊपर फैले कमल के पत्ते उन पर गिरे सागौन के सूखे पत्ते उनके बीच सिर उठाए खड़े कमल के फूल और उन तक जाने के लिए एक डोंगी आसपास चहकते पंछी। सच कहूँ अगर साथियों का इंतजार नहीं होता न तो वहाँ दिन भर बैठकर एक कहानी तो बुन ही लेती।
चाय बनकर आ गई समय न खाने का था न नाश्ते का लेकिन अतिथि को कुछ तो देना चाहिए इसलिये सेवादार दो सेब लेकर आया दीदी खा लीजिये। बहुत आग्रह किया मान तो रखना था फिर चाय बनकर आ गई कड़क मीठी निमाडी चाय।
इस नीरवता में बाहर से आती लड़कियों पंछियों की चहकती आवाजें सेवादारों की भोजन की तैयारी की बातचीत भी शामिल थीं। थोड़ी देर में गाड़ी की आवाज के साथ इंतजार खत्म हुआ। बाहर आई तो पता चला गाड़ी तो आई है लेकिन साथी आधा किलोमीटर जंगल में चलने का प्रलोभन छोड़ नहीं पाए तो पैदल आ रहे हैं।
आते ही सब जुट गये अपने अपने पसंदीदा चीजों की फोटो लेने किसी को जंगल भाया किसी को तालाब तो कोई लड़कियों के सिर पर लकड़ियों की भारी के बावजूद उनकी उत्फुल्लता से रीझ गया तो किसी को आगे जाते रास्ते ने मोहा। फिर लगा जयकारा नर्मदे हर शुरू हुई यात्रा।
कविता वर्मा
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