अभी कुछ दिनों में दो कहानियाँ पढीं जिनके बारे में कहने से खुद को रोक नहीं पा रही। इत्तेफाक से दोनों कहानियाँ सोनल की हैं। सोनल की लेखनी से परिचय उनकी कविताओं के माध्यम से था। ' देखन में छोटी लगें विचार दें गंभीर ' की तर्ज पर उनकी कविताएँ प्रभावित करती रही हैं। उनके गद्य से परिचय हुआ फिल्म बनती नहीं बनाती भी हैं से जो कालीचाट फिल्म के बनने की और इस दौरान गाँव के सीधे सादे सरल लोगों के बीच खुद को जानन समझने सीखने की संस्मरणात्मक कथा है। हाँ कथा ही है जो आगे क्या की उत्सुकता बनाए रखते चलती है। उनकी पुस्तक कोशिशों की डायरी को इस वर्ष म.प्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा कथेतर गद्य का वागीश्वरी पुरस्कार मिला है।
तो बात करते हैं कहानियों की।
पहली कहानी है परीकथा में प्रकाशित चस्का। सोनल की लेखनी में खास बात यह है कि वे अपने आसपास को बेहद सजगता से देखती और विवेचन करती हैं। वे जीवन के छोटे छोटे उल्लास को भी पकड़ती हैं और हँसी के पीछे छुपे दुख और तकलीफों को भी। वे इनमें शामिल होकर उनकी तीव्रता को जैसे महसूस करती हैं वैसे ही शब्दों में उतारती भी हैं और इतनी सरल सहज भाषा में कि आप उसमें रम जाते हैं। वे लोकजीवन के परिवर्तनों को सूक्ष्मता से देखती हैं और उसे उजागर करती हैं। चस्का कहानी ऐसे ही सरोकारों की कहानी है जो आम तौर पर लोगों की नजरों से चूक जाती है।
खजुराहो के मंदिरों के आसपास घूमने वाले गाइड जो पर्यटकों को घुमाने किताबें या सजावटी सामान बेचने दिन भर भटकते हैं और कभी झिड़के जाते हैं कभी नजरअंदाज किये जाते हैं। शायद ही कभी कोई इनसे व्यक्तिगत बातें करता होगा और जानकारी लेने की कोशिश करता होगा कि आखिर इनकी जिंदगी कैसी चल रही है। लेखिका के रूप में सोनल न सिर्फ एक ऐसे ही गाइड से बात करती हैं बल्कि विदेशी पर्यटकों द्वारा इन गरीब मजदूर वर्ग के युवाओं को दिये जाने वाले प्रलोभनों और खाने पीने के लगाए चस्के के कारण अन्य कोई कार्य न कर पाने की आदत को भी समझती हैं। वे देखती हैं कि काम न मिलने पर भी ये युवा अपने खुद के खेतों में काम नहीं करना चाहते। दरअसल कहानी उन पर्यटन स्थलों की एक बड़ी समस्या को इंगित करके सोचने पर मजबूर करती है जहाँ बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक आते हैं। वास्तव में पर्यटन स्थलों के विकास के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार के बारे में भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।
कहानी आत्मकथ्य रूप से चलती है लेकिन लेखिका कहीं भी हावी नहीं होतीं बल्कि उस गाइड की निजी जिंदगी उसकी तकलीफ विवशता और उसकी क्षुब्धता को मुख्य रूप से सामने लाती हैं। कभी उस पर क्रोध आता है तो कभी तरस । विदेशी पर्यटकों द्वारा गाँव के इन भोले भाले युवाओं को कुछ पैसों के बदले नकारा बनाए जाने की यह कहानी विकसित चमकीले स्थलों के स्याह पक्ष की कहानी है।
दूसरी कहानी जानकी पुल पर प्रकाशित कहानी है जात्रा। सोनल जिस तरह गाँवों जंगलों नदियों और लोक से जुड़ी हैं यह कहानी उसे बखूबी बताती है। विदेश से अपने मित्र के घर आये एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जो बरसों बाद अपने देश के गांवों को देख रहा है। जबकि उसका वह मित्र जो इन्हीं जंगल नदी के बीच काम करता है इन सब से अनभिज्ञ सिर्फ काम में व्यस्त है। वह अपने दोस्त के साथ जिस तरह धीरे-धीरे अपने परिवेश को देखते उसमें शामिल होता जाता है पाठकों को अद्भुत खुशी से भर देता है। ग्रामीण जीवन में जात्रा नदियों की परिक्रमा भंडारा तीज-त्यौहार खेल जीवन को गति देते हैं। इन्हें शहरों ने या तो छोड़ दिया है या भुला दिया है। धीरे-धीरे ही सही इनमें जीवन का रस पहचान कर जब दोनों दोस्त उसमें रमते हैं तो अपने तनावों को भूलकर नई जीवनी शक्ति से भर जाते हैं। गाँव के मजदूर जो दुगने पैसे मिलने पर भी अपने त्योहार छोड़कर काम पर नहीं आना चाहते वे अपने साहब के प्रेमभाव के कारण कम समय में काम पूरा करने के लिए राजी हो जाते हैं। यह प्रसंग ही बताता है कि पैसों से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता और छोटी छोटी बातों से बड़ी बड़ी खुशियाँ पाई जा सकती हैं।
दोनों ही कहानियाँ अपनी भाषा कथ्य और कहन में बेहद प्रभावित करती हैं।
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कविता वर्मा
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