पार्क में सन्नाटा भरता जा रहा था मैं अब अपनी समस्त शक्ति को श्रवणेन्द्रियों की ओर मोड़ कर उनकी बातचीत सुनने का प्रयत्न करने लगा। पार्क की लाइटें एक एक करके जलने लगी थीं। छोटे बच्चे धीरे धीरे जाने लगे पार्क में टहलने आने वाले बुजुर्ग भी अब बाहर की तरफ बढ़ने लगे कुछ युगल जोड़े अभी भी झाड़ियों के झुरमुट में थे लेकिन उनकी आवाज़ बमुश्किल एक दूसरे तक पहुँचती होगी इसलिए उनसे कोई शोर नहीं होता। चना जोर गरम वाला और मूंगफली गुब्बारे वाले भी अपने ग्राहकों के जाते ही दिन भर का हिसाब करने चल दिए थे। कुल मिला कर चारों ओर शांति ही शांति थी इसलिए थोड़ी कोशिश करके मैं उनकी बातें सुन सकता था।
दूसरी लड़की या कहें महिला पीली शिफ़ोन की साड़ी पहनी थी और नीली साड़ी वाली का हाथ थामे पूछ रही थी "क्या बात है ठीक से बता तो।"
मैं अपनी बेंच पर उनकी बेंच तरफ के किनारे तक खिसक आया। उन दो अनजान महिलाओं की बातें सुनने की स्वयं की उत्सुकता से मैं स्वयं ही चकित था। मुझे दूसरों की बातों में कभी भी ऐसा रस तो नहीं आता था। अब यह अकेलेपन की ऊब थी या उन दोनों या उनमे से किसी एक का आकर्षण जिसकी वजह से मैं जानना चाहता था कि वे क्या बातें कर रही हैं।
"तुझे तो मालूम है विजय पिछले दस सालों से दुबई में है। शादी के तीन सालों बाद ही वो वहाँ चले गए थे तब राहुल दो साल का था। शुरू शुरू में तो डेढ़ दो साल में एक बार इंडिया आते थे। तब मम्मी पापा दोनों ही थे। उनका आग्रह टाल नहीं पाते थे।
कहानी संग्रह परछाइयों के उजाले को आप सभी पाठकों मित्रों से मिले प्रतिसाद के बाद अब मैं अपने उपन्यास छूटी गलियाँ लेकर आपके सामने हाजिर हुई हूँ। पिता पुत्र के रिश्तों पर आधारित यह उपन्यास महत्वाकांक्षा दूरी जिम्मेदारी पश्चाताप और प्रायश्चित की मिलीजुली अनुभूति के साथ आपको इस रिश्ते के अनोखेपन में डुबो देगा ऐसा मेरा मानना है। उपन्यास की कीमत है 120 रुपये इसे आप बोधि प्रकाशन bodhiprakashan@gmail.com पर मेल या 98290 18087 पर फोन कर आर्डर कर सकते हैं।
कविता वर्मा
उपन्यास छूटी गलियाँ के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं!
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