शादी के आठ दिन बाद वह मायके चली गई थी जिसके बाद करीब डेढ़ महीने बाद वापस लौटी। सगाई और शादी के बीच डेढ़ साल का फैसला था ने इजाजत दी थी कि पोस्ट ग्रजुएट कर ले। प्रीवियस ईयर के बाद ही शादी हो गई। इन डेढ़ महीनों में यही जद्दोजहद चलती रही कि फाइनल कहाँ से करे ? इसके साथ ही एक अदृश्य दबाव सा बना रहा कि एक साल ड्राप ले ले लेकिन वह जानती थी ड्राप लेना मतलब ड्राप हो जाना। शादी में कॉलेज के प्रोफेसर भी आये थे और उनमे से एक ने स्टेज पर उसे आशीर्वाद देते हुए कहा था " फाइनल कर लेना ड्राप मत लेना। " जाने क्यों वे शब्द दिमाग में जम गए थे इसलिए उसने ड्राप लेने के आईडिया को दरकिनार कर उसी साल फ़ाइनल करने की जिद पकड़ ली थी।
वह तो गई थी कॉलेज में अड्मिशन लेने लेकिन उसी दिन कॉलेज में दो गुटों के बीच झगडे हो गए और यहाँ माहौल ख़राब है के नाम से आखिर ससुराल से ही फ़ाइनल करने का तय हुआ। आसान तो वह भी नहीं था क्योंकि सिर्फ कॉलेज नहीं बदलना था बल्कि यूनिवर्सिटी भी बदलना था माइग्रेशन सर्टिफिकेट लेना था फिर बड़े शहर के ढेर सरे कॉलेजों में से सही कॉलेज चुनना था।
इत्तफाक था कि उसी साल जेठ भी उसी विषय से पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे थे और फाइनल में थे। उन्हीं ने सुझाव दिया कि उनके कॉलेज में एडमीशन ले ले। प्रायवेट कॉलेज है रोज़ जाने की दिक्कत नहीं रहेगी। "रोज़ जाने की दिक्कत " या "ना जाने की आसानी" समझ ही कहाँ पाई वह जैसा जिसने किया कर लिया।
कहीं कुछ सुगबुगा रहा है यह भी तो नहीं समझ आया।
मायके से आकर जब उसने अपनी अटैची खोली थी उसमे सलवार सूट देख कर बड़े तल्ख़ लहजे में पूछा गया था "क्या वह सूट पहनेगी ?"
"कॉलेज जाना है तो सूट तो पहनना पड़ेगा " आश्चर्य में भर कर सहज ही जवाब दिया था उसने लेकिन बात फिर भी नहीं समझी थी।
वह अंदर के कमरे में थी तभी बाहर किसी पड़ोसन को बात करते सुना " तो क्या वह जेठ के साथ कॉलेज जाएगी ?"
"हाँ जेठ के साथ सलवार सूट पहन कर कॉलेज जाएगी "एक तल्ख़ स्वर उभरा।
शाम को जब पति वापस आये तो उन्हें फरमान सुनाया गया "उसे कॉलेज जाना हो तो जाये लेकिन सूट नहीं पहन सकती। " एक क्षीण प्रतिवाद भी हुआ लेकिन उनके घर में रहना है तो उनके अनुसार रहना होगा के फरमान के साथ ख़त्म हो गया। पति की नौकरी अभी पक्की नहीं हुई थी स्टायपेंड मिलता था एक दो महीने तो दिक्कत थी ही। हालाँकि पापा का मकान खाली था वह चाहती तो वहाँ रह सकती थी लेकिन घर में आते ही दो चूल्हे करने की उसकी सोच ही नहीं थी। एक भरे पूरे घर में शादी करना उसका सपना था इसलिए वह ऐसा कुछ नहीं चाहती थी।
दूसरे दिन सुबह आठ बजे नहा कर तैयार होकर पति के खाने का डब्बा बना कर वह साड़ी पहन कॉलेज जाने के लिए तैयार हो गई थी। रास्ता उसने देखा नहीं था वह तल्खी कानों के रस्ते थोड़ी तो दिल में भी उतरी थी इसलिए उसने कहा एक बार मुझे रास्ता दिखा दो फिर मैं चली जाऊँगी। रास्ते भर पति भुनभुनाते रहे। पापा से बात करने की बात करते रहे , मुझे कोई पायजामा कुरता पहन कर ऑफिस जाने को कहेगा तो कैसा लगेगा ? वह उन्हें शांत करने की कोशिश करती रही। बेकार में बुढ़ापे में उन्हें क्यों दुःख देना जैसी बातें उन्हें समझाती रही।
"कॉलेज में घुसते ही उसकी साड़ी के कारण सबका ध्यान अनायास ही उसकी तरफ चला गया। पीछे से आंटी जी की आवाज़ें आती रहीं। अभी तक पति को देती समझाइश पर यथार्थ का पत्थर पड़ा था उसके आँसू निकल पड़े। मात्र बीस साल की उम्र में अपने से बड़े डीलडौल वाले लड़कों के मुँह से आंटीजी सुनना सिर्फ इसलिए कि अब उसकी शादी हो गई थी उसके सूट पहन लेने से किसी को तकलीफ थी कि वह बेवजह भाइयों बीच मनमुटाव का कारण नहीं बनना चाहती थी इसलिए कि वह बड़े घर की बेटी थी और उसपर लांछन लगा कर उसे बुरा साबित करना आसान था और इसलिए कि घर बना कर रखने के संस्कार उसे घुट्टी में मिले थे।
कविता वर्मा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-02-2017) को "कूटनीति की बात" (चर्चा अंक-2883) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद
Deletesahi hai yah dursha bahut logon ko face karni padti hai yatharth ka kaccha chittha . badhai
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया शशि जी
ReplyDelete