Tuesday, December 13, 2016

कैसे प्रकृति प्रेमी थे वे लोग


बहुत दिनों बाद अपने सफर पर फिर निकली हूँ। मैं जानती हूँ आप लोग मेरे ब्लॉग पर नियमित आते हैं अगली पोस्ट के इंतज़ार में और यही कारण अगली क़िस्त लिखने की प्रेरणा भी देता है। 
आज हम चलेंगे दार्जिलिंग की सैर पर। 
न्यू जलपाई गुड़ी से सड़क मार्ग द्वारा ही दार्जिलिंग पहुँचा जा सकता है शेयरिंग टैक्सी में आठ दस लोगों के साथ पहाड़ी रास्ते का पहला सफर करना बहुत तनाव दे रहा था। फिर पता चला जो टैक्सी दार्जिलिंग से सवारी छोड़ने आती हैं वो वापसी में कुछ कम में न्यूजलपाईगुड़ी से सवारी ले जाती हैं। उसके लिए रेलवे स्टेशन पर टैक्सी ड्राइवर से संपर्क करके उन्हें अपना नंबर दे दिया जाये तो वे खुद संपर्क कर लेते हैं। सुबह जल्दी स्टेशन पर पहुँच कर भी ऐसी गाड़ियाँ मिल जाती हैं। हमें भी एक इनोवा मिल गई जिसमे गाड़ी का मालिक और ड्राइवर वापस दार्जिलिंग जा रहे थे। 
न्यूजलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी होते हुए रास्ता है। सिलीगुड़ी में छोटी रेल लाइन है इसलिए न्यूजलपाईगुड़ी ही अंतिम मुख्य स्टेशन है। सिलीगुड़ी  से दार्जिलिंग का रास्ता बेहद खूबसूरत है। सड़क के दोनों ओर ऊँचे ऊँचे कतार में लगे पेड़ जिनके नीचे फर्न और दूसरे छोटे पौधों का हरा गलीचा सा बिछा हुआ है। कुछ ठन्डे मौसम का असर कुछ जमीन तक धूप ना पहुँच पाने का और कुछ दो दिन पहले हुई तेज़ बारिश का सड़क किनारे किनारे पानी की नहर सी चल रही थी। यही नमी घने पेड़ों के नीचे छोटी वनस्पति को जीवन देती है। सिलीगुड़ी  सेवक मोड़ काली मंदिर और बंगाल सफारी का रास्ता पार करते ही मिलिट्री एरिया शुरू हो जाता है। साफ सुथरी छायादार सड़क दोनों किनारे सेना की अलग अलग बटालियन के हरी टीन से बने बैरक ऑफिस कुछ रिहायशी मकान और साफसुथरे कैंपस मन को एक अलग ही अनुशासित भाव से भर देते हैं। कहीं कहीं इक्का दुक्का जवान अपने काम में मगन तो कहीं सेना के ट्रक में लदे सैन्य सामान। वातावरण में अनुशासित ख़ामोशी मन को मोह रही थी। सेना के इलाके से बाहर निकलते ही पहाड़ी इलाका शुरू हो गया। कुछ किलोमीटर की दूरी पर कई कलकल छलछल करती पहाड़ी नदियाँ सफ़ेद गोल मटोल पत्थरों के बीच से बह रही थीं तो कहीं कहीं पानी के प्रवाह ने इन पत्थरों को सूक्षम तत्व ज्ञान युक्त कर सुनहरी रेत में बदल दिया था। रास्ते में तीस्ता नदी का पुल पार किया विशाल चौड़े पाट के साथ पानी की गहराई प्रवाह को गंभीरता प्रदान कर रही थी। नदी के किनारे मानव संक्रमण से अछूते नैसर्गिक सुवास से परिपूर्ण थे 
सुबह हम लोग बगैर नाश्ता किये चल पड़े थे पहाड़ी रास्ते खाली पेट मितली आती है ड्राइवर को कहा जरा जल्दी ही कहीं रोक देना। उसने एक छोटे से गाँव के छोटे से रेस्तरां पर गाड़ी रोकी। यहाँ नाश्ता पूरी आलू की सब्जी का होता है। गरमा गरम पूरी सब्जी के बाद एक एक चाय पी कर हम बाहर सड़क पर आ गए। ट्रैफिक  बहुत ज्यादा नहीं था ठंडी हवा धूप की गर्मी को कुनकुनाहट पर रोके हुए थी। छोटा सा गाँव छोटी छोटी रोजमर्रा के सामान से भरी दुकाने पैदल स्कूल जाते बच्चे। ना कोई शोर न अफरातफरी। कितना सुकून होता है ना छोटी जगह में?
आगे रास्ता सीधी चढ़ाई वाला था एक मोड़ मुडते ही पिछली सड़क से कम से कम पंद्रह बीस फ़ीट ऊपर। जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे दूर छूटता मैदान उसमे बहती तीस्ता नदी का नज़ारा और विस्तार पाता जा रहा था। सड़क के एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर खाई। पहाड़ों से बहता पानी जिसे व्यवस्थित नाली बना कर बहने का रास्ता बनाया हुआ था। कहीं भी पानी सड़क पर बहता नहीं मिला। चट्टान पर उग आई झाड़ियों और वनस्पति की कटाई की जा रही थी ताकि वे सड़क पर ना आएं और गाड़ी चलाने को पूरी जगह मिले। नाली की सफाई कर उसमे से सूखी पत्तियाँ पत्थर निकाल कर ढेर बनाया गया था जिसे वहाँ से उठाया भी जा रहा था और यह सब हो रहा था बीच जंगल में जहाँ से बस्ती मीलों दूर थी। सच अगर इच्छा शक्ति हो प्रशासनिक क्षमता हो तो सब संभव है। 
ज्यों ज्यों ऊपर चढ़ते जा रहे थे तीस्ता क्षितिज से मिलती जा रही थी और एक मोड़ के साथ तीस्ता ओझल हो गई और दूसरी ओर धवल पर्वत शिखर अपने भव्य रूप में प्रगट हो गया जिसे देख कर पलकें झपकना भूल गईं। दो तीन दिन पहले ही तेज़ बारिश हुई थी उसके बाद आसमान एक दम साफ चमकीला नीला था उस पर हिमाच्छादित कंचनजंघा एक अलौकिक नज़ारा था। फटाफट कैमरा निकाला और धड़ाधड़ फोटो  खींचना शुरू कर दीं। इसके बाद तो दो चार छह मोड़ के बाद भी कंचनजंघा के दर्शन होते रहे तब हमने कैमरा रख कर उसे निहारने में ही भलाई समझी। 
रास्ते में कुछ टी कंपनी की प्रोसेसिंग यूनिट्स थीं दार्जिलिंग से कुछ पहले एक थोड़ा बड़ा शहर जिसे क़स्बा कहेंगे तो बेहतर होगा मिला। सड़क के किनारे एक या दो मंजिल मकान 
दार्जिलिंग शहर में घुसने से पहले ही सड़क पर जाम मिलने लगा। सड़क के एक किनारे टॉय ट्रेन की पटरियाँ दोनों तरफ दुकानें बाकी सड़क पर दोनों तरफ का ट्रैफिक। सड़क पर पैदल चलने वालों की भीड़। दार्जिलिंग करीब बीस किलोमीटर दूर था जहाँ पहुँचने में डेढ़ दो घंटे लग गये। पहाड़ को काट कर बनाई गई दीवार पर कई रबर के पाइप लगे थे रस्सी या तार से बंधे थे। पता चला पहाड़ से गिरने वाले पानी के नीचे एक रिजरवायर कोई टब या टंकी रख दी जाती है उसमे से ये पाइप घरों तक पानी पहुँचाते हैं। मतलब सबकी अपनी अपनी पानी की पाइप लाइन। 
लगभग बारह साढ़े बारह बजे हम दार्जिलिंग पहुँचे। ड्राइवर ने टैक्सी स्टैंड पर हमारा सामान उतार कर कुली के लिये कहा तो पचास बावन की उम्र की स्थूल नाटी महिला आकर खड़ी हो गई। होटल का पता बताया उसने सामान देखा और ले चलने को तैयार हो गई। भाड़ा डेढ़ सौ रुपये जो कुछ ज्यादा लगे लेकिन इससे कम में कोई तैयार नहीं था। जब चलते चलते बहुत दूर पहुँच गये और खड़ी चढ़ाई आ गई तब वही भाड़ा मुझे कम लगने लगा। मैंने उससे पूछा दिन भर में कितने चक्कर लगा लेती हो तो कहने लगी दो तीन कभी चार। वो पंद्रह बीस कुली हैं सबके नंबर बंधे हैं। जिसका नंबर होता है वही सामान ले कर जाता। कितना अच्छा समाजवादी तरीका था जो स्थानीय लोगों ने खुद ही बना लिया था। अब सुबह से अपने नम्बर के लिए स्टैंड पर नहीं बैठना था अपना नम्बर आने वाला हो तब आओ और नंबर हो जाने के बाद वापस घर। मैंने पूछा दिन भर में कितना पैसा बना लेते हो हर चक्कर के १५०/२०० रुपये के अनुसार लगभग ४००/५०० रुपये रोज़ के कमा लेते हैं। बारिश के तीन चार महीने सीजन नहीं होता तब घर बैठना पड़ता है। 
दोपहर का वक्त था लेकिन ठण्ड बहुत तेज़ थी। घुमावदार रास्ते के चक्कर सिर चकरा रहे थे भूख जोरों से लग आई थी पानी गरम होने का इंतज़ार करना भी भारी लग रहा था। तब तक कमरे की खिड़की से दिखाई देती कंचनजंघा की चोटी निहारना बेहद भला लग रहा था। होटल में वेज खाना बनाने के अलग बर्तन नहीं थे इसलिए बाहर जाना ही तय किया। दोपहर हो चुकी थी उस दिन कहीं घूमने जाना संभव नहीं था इसलिए खाना खा कर हम लोग माल रोड पर घूमते हुए चौक पर पहुँच गए। यह माल रोड के आखिर में एक बड़ी खुली खुली जगह है जिसपर एक बड़ी स्क्रीन समेत ओपन थियेटर बना है। सैलानी यहाँ बैठते चाय पीते टूरिस्म विभाग की फिल्म देखते और फोटो खिंचवाते हैं। इस चौक से थोड़े आगे एक रास्ता नीचे की ओर जाता है जिस पर आगे राजभवन और एक बहुत पुराना चर्च है। यही रास्ता आगे ज़ू तक जाता है। चर्च के गार्डन में हम बहुत देर तक बैठे रहे एक अद्भुत शांति जो पीले रंग से पुती उन मोटी मोटी दीवारों से पूरे वातावरण में झर रही थी। चर्च का विशाल ऊँचा टॉवर नीले आसमान में सिर उठाये इस शांति को आत्मसात करने का आव्हान कर रहा था। हम लोग काफी देर तक उस तिलिस्म से भौचक बैठे रहे और सोचते रहे उन लोगों की हिम्मत के बारे में जिन्होंने कई दशक पहले इन घने जंगली इलाके में सफर कर यहाँ निर्माण करवाया होगा। कितने प्रकृति प्रेमी होंगे वो लोग और प्रकृति के सानिध्य में रहने की कैसी गहरी जिजीविषा होगी उनकी। अगर वो लोग नहीं होते तो क्या आज का दार्जिलिंग आज इस स्वरुप में होता ? क्या सच में हम भारतीय प्रकृति के इसी प्रेम के चलते इतने दूर आते हैं या महज अपने दैनिक जीवन की आपाधापी से छुटकारा पाने के लिए बस अपने स्थान से भाग आते हैं। सच तो यह है कि हम जहाँ बस्तियाँ बनाते हैं वहाँ के पेड़ नदी जंगल तालाब को ही सबसे पहले नुकसान पहुँचाते हैं। चर्च से उतर कर हम लोग ओपन थियेटर पर काफी देर बैठे रहे। ठण्ड बढ़ने लगी थी लोग जाने लगे हम लोग भी उठ खड़े हुए। माल रोड की दुकानों पर स्वेटर शाल देखते कुछ खरीदा और अगले दिन घूमने जाने के लिए टैक्सी की बुकिंग करवाते हुए वापस होटल आ गए। आठ बजे तक बाजार बंद हो गया था दिन भर दौड़ती भागती हॉर्न बजाती गाड़ियाँ थम चुकी थीं। हम लोग भी उस दिन नौ बजे तक सो गए। 
कविता वर्मा


1 comment:

  1. पोस्ट में चित्र भी लगाईए, यात्रा बढिया चल रही है।

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