विमलेश त्रिपाठी जी का उपन्यास 'कैनवास पर प्रेम ' के नाम ने ही मुझे आकर्षित किया था। नाम से कहानी का जो कुछ अंदाज़ा हुआ था वो ठीक ठीक होते हुए भी उससे बहुत अलग भी था।
कहानी अपने आप में ढेर सारी त्रासदियों घटनाओं दुविधाओं और दुश्चिंताओं को समेटे एक सम्मोहक माया जाल सा बुनती है जिसमे आप कभी कहीं खो जाते है तो कभी किसी पल पर ठिठक कर उसे महसूस करते रह जाते हैं।
कहीं एक बच्चे के दुःख से उपजते कलाकार को धीरे धीरे बड़ा होते देखते हैं तो कभी उस कलाकार को मौत की ओर कदम बढ़ाते देख काँप जाते हैं इस आशंका में कि ये कहानी पूरी होगी भी या नहीं। कई बार कहानी के अधूरा रह जाने की आशंका जल्दी जल्दी पढ़ कर तसल्ली कर लेना चाहती है लेकिन यकीन मानिये कि उस पल की कशिश आपको एक साथ कई पन्ने पलटने से रोक भी लेती है।
इसमें एक मासूम से प्यार की दास्ताँ है ,तो एक ऐसे दोस्त की कहानी जो बिना कहे सब समझ जाता है तो बिना पूछे सब कर भी जाता है। दोस्ती का ऐसा विश्वास है कि पढ़ते पढ़ते रुक कर आप अपने दोस्तों की फेहरिस्त पर एक नज़र डाल कर उनमे एक ऐसा दोस्त जरूर ढूंढेंगे।
वैसे जिंदगी में कई लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हे हम अपना दोस्त नहीं कहते हैं लेकिन वे हमारे दोस्त से शुभचिंतक होते हैं। ऐसे लोगों की मौजूदगी ने इस कहानी में मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया है।
प्यार की कशिश तो शायद इसके अधूरे रह जाने में ही है लेकिन अधूरे प्यार के बीते लम्हों के साथ एक पूरी जिंदगी जी जा सकती है।
कहानी उलझे पारिवारिक ताने बाने के साथ घरेलू क्रूरता असहायता और निस्पृहता के साथ एक आक्रोश , दया और लगाव पैदा करती है। सुदूर गाँव के खेतों में दौड़ते ,गाँव के बाहर किसी बूढ़े पेड़ के तले अचंभित कर देने वाले पलों को पीछे छोड़ अचानक कोलकाता जैसे बड़े शहर में आ जाती है और आप खेतों की मेढ़ पर ठिठके खड़े उसके वापस लौट आने की प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं।
कहानी में लेखक और उसके कथाकार का द्वंद कहानी की गति धीमी कर देता है जिसमे कभी कभी तो कहानी खो सी जाती है और उसके सिरे पकड़ने के लिए आपको संघर्ष करना पड़ता है। लेखक का एक घरेलू व्यक्तित्व होना और अपने लेखन को जिन्दा रखने के लिए उसकी सतत जिजीविषा भी कहीं कहीं कहानी पर हावी हुई है लेकिन उस पर भी लेखक का संवेदनाओ से भरा इंसान होना और इन संवेदनाओ को लेखन से ऊपर रखना दिल छू जाता है। लेखक के व्यक्तित्व की दृढ़ता कई जगह कई रूपों में सामने आई है।
कहीं कहीं हिंदी में भाषायी त्रुटियाँ खटकती हैं लेकिन बीच बीच में भावार्थ सहित सुन्दर बंगाली कविताओं की खनक इसे नगण्य कर देती है।
कुल मिला कर कैनवास पर प्रेम शब्दों के साथ धीमे धीमे आपके अंदर उतरता है और अपने गहरे रंगों के साथ आपके दिलो दिमाग पर चित्रित हो जाता है।
कविता वर्मा
behad suthre dhang se aapne wyakhya ki hai....puri padhne ki ichcha jaga di....
ReplyDeleteSARTHAK LEKHAN
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन लिखते हो आप, बहुत सार्थक ........ शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (29-11-2014) को "अच्छे दिन कैसे होते हैं?" (चर्चा-1812) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
विमलेश त्रिपाठी जी के उपन्यास 'कैनवास पर प्रेम" की बहुत बढ़िया सार्थक समीक्षा प्रस्तुति हेतु धन्यवाद !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सार्थक समीक्षा
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
आपको जन्मदिन की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें!
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