पढाई ख़त्म होते ही सोचा था कही अच्छी सी नौकरी कर के परिवार से रूठी खुशियों को वापस मना लाएगी लेकिन बिना अनुभव बिना सिफारिश कोई नौकरी आसानी से मिलती है क्या ?महीनो ठोकरे खाने के बाद आखिर उसने वह राह पकड़ी। कॉल सेंटर पर काम करने का कह कर शाम ढले घर से निकलती और पैर में घुँघरू बांधे अपने दुःख दरिद्र को पैरों से रौंदते अपने समय के बदलने की राह तकती। पैरों की हर थाप पर मन आशंकित रहता कहीं माँ बाबा को पता ना चल जाये नहीं तो वो जीते जी मर जायेंगे। मन खुद को ही समझाता कि वो जो कर रही है मज़बूरी में और परिवार के लिए ही कर रही है। लेकिन मन ही मानने को तैयार नहीं होता तो माँ बाबा कैसे समझेंगे यह आशंका सदा बनी रहती। मैं उन्हें कभी पता नहीं चलने दूँगी वह खुद से प्रण करती पर उनसे झूठ बोलने की कसक हमेशा बनी रहती।
ऐसे ही एक शाम खबर आई बाबा को कुछ हो गया है होश ही कहाँ रहा उसे जैसी थी वैसे ही दौड़ पड़ी घर को। यहाँ उसने घुँघरू बंधे पैरो से देहरी लांघी वहाँ बाबा ने आखिरी हिचकी ली। वह वहीं थम गई समझ नहीं पाई उसने अभी देहरी लांघी है या बाबा ने उसी दिन दम तोड़ दिया था जिस दिन उसने घुँघरू बांधे थे।
कविता वर्मा
samay aur bhagaya ki vidmbana darshati , marmsprshi kahani ...
ReplyDeleteभावुक पोस्ट !
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , मैं आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ ताकि नियमित रूपसे आपके ब्लॉग को पढ़ सकू ! आप मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रित हैं
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया कहानी
ReplyDeletelaghukatha ka anat sapast nahi ho pa raha hai. isse laghukatha par farak pad raha hai.........
ReplyDeleteविवशता शायद ऐसे हो व्यक्त कर जाती है जिंदगी को ...
ReplyDeleteभाव पूर्ण ...
बहुत ही भावुक रचना, और बहुत सी जिन्दगियों की सच्चाई भी
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