छोटे से गाँव की छोटी सी सीमा सी ही तो सोच थी उसके माता पिता की जब उन्होंने आठवी के बाद उसे आगे पढ़ाने से मना कर दिया था। किसी तरह खुद को बाल विवाह की त्रासदी से बचा कर वह शहर भाग गई थी। कितनी जद्दोजहद कितने संघर्ष के बाद वह अपनी पढ़ाई पूरी कर पाई। माँ बाबा का लाड पीछे खींचता ज्ञान की रोशनी आगे। पत्थर ही तो कर लिया था उसने अपने मन को जिसपर प्यार का कोई अंकुर न फूटने पाये सारे नाते तोड़ दिए ताकि उन पहाड़ों से , ताकि अपना सर ऊँचा उठा सके, लेकिन पहाड़ों से ऊँचे पत्थर हो सके है भला ?
आज पत्थरों को भी पहाड़ों की गोद याद आ गई मन दौड़ कर वहाँ पहुँचा लेकिन वक्त के थपेड़ों ने सब छितरा दिया। बचे है तो सिर्फ खंडहर वह अपनी रुलाई ना रोक पाई। समझ नहीं पा रही है ऊपर उठने की चाह गलत थी या आगे बढ़ने की। बेड़ियाँ तोड़ने की या नई मंजिल पाने की ?
सूनी आँखों से एक बार फिर देखा पत्थरों में भी कोपले फूटी हुई हैं। उसके होंठों पर एक मुस्कान आई एक नए संकल्प के साथ वह उठ खड़ी हुई।
कविता वर्मा
कुछ पाने के लिये कुछ खोना
ReplyDeleteसुंदर रचना ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (06-09-2014) को "एक दिन शिक्षक होने का अहसास" (चर्चा मंच 1728) पर भी होगी।
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सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन करते हुए,
चर्चा मंच के सभी पाठकों को शिक्षक दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति
ReplyDeleteSuper...se..upar!!!!!
ReplyDeleteआशा तो स्वयं ही जगानी होती है ...
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