बचपन में झाबुआ जिले में रहते थे वहाँ आदिवासी जंगल से टोकनी भर भर केरियाँ लाते थे और बहुत सस्ते में टोकरी का सौदा कर जाते थे। गाँव का बहुत लम्बा चौड़ा मकान था। एक कमरे में पापा घास का पुआल बिछा कर वो कच्ची केरियाँ उस में रख देते थे कमरा बिलकुल बंद रहता था वह कमरा बार बार खोलने की मनाही थी( उसे पाल कहते थे ) . दो चार दिन में केरियाँ पक कर आम बन जाती थीं। सुबह सुबह पापा उसमे से पके आम निकालते और आँगन में रख देते थे। मैं और दोनों भाई तालाब में तैरना सीखने जाते थे वहाँ से आ कर तेज़ भूख लगती थी तो आम खाने बैठ जाते थे, दादी आम का रस बनाती थीं ,खाने के लिए। उसके बाद जो आम बच जाते थे उसका रस थालियों में रख कर धूप में सुखा लिया जाता था आम पापड़ बनाने के लिए। उसमे कुछ आम उतर (ज्यादा पक कर स्वाद ख़राब हो जाना ) जाते थे।
उस समय एक आदिवासी नौकर पीने का पानी नदी किनारे बने कुँए से लाता था। मम्मी ने उससे कहा , ये आम किसी के यहाँ ढोर डंगर हों तो उनके यहाँ दे दो वो खा लेंगे।
उसने आम देखे और कहने लगा बाई साब ये तो अच्छे आम हैं मैं मामा लोगों (भील भीलाले ) को बेच दूँगा कुछ पैसे आ जाएँगे।
मम्मी हैरान , ये सड़े आम कौन खरीदेगा ?
वो बोला यहाँ दूर गाँव के जो गरीब आदिवासी आते हैं वो अच्छे आम तो खरीद नहीं पाते वो ऐसे ही आम खरीद के खाते हैं। यहाँ गाँव के बनिया लोग जो पाल लगाते हैं उसमे से निकले ख़राब आम बेच देते हैं। वाकई मैंने गाँव के बड़े बड़े साहूकारों के अौटले पर ऐसे ख़राब आम की ढेरी बिकते देखी है।
मम्मी ने कहा तुम ये आम ठेले पर रख लो और नदी पर जाते समय जो गरीब लोग मिले उन्हें बाँटते जाना। फिर ये रोज़ का क्रम बन गया था। ( सन १९७८/८० ) ( बिटिया के संग आम खाते पुरानी यादों का स्वाद .)
पुराने लोगों की बातों में दम था...वो गरीबों में बांटने की बात करते थे बेचने की नहीं...
ReplyDeleteअपने इस लेख से आप ने हमारी यादों को भी ताजा कर दिया! बहुत अच्छा लगा. शुक्रिया
ReplyDeleteपुराने दिनों की याद दिलाने के लिए शुक्रिया , आमों का मौसम , आमों की यादें और आमों के किस्से :)
ReplyDeleteआम की यादें मीठी हैं।
ReplyDeleteबहुत लोग आम के सड़े - गले की ख्याल नहीं रखते । आम जो रसीले होते है ।
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