Monday, December 23, 2013

ग्यारह बजे का अपॉइंटमेंट

बिटिया बहुत दिनों से शिकायत कर रही थी की उसके बाल बहुत झड़ रहे हैं। कई शैम्पू बदल लिए खाने पीने में सुधार तो माना नहीं जा सकता था दो दिन बादाम खाईं चार दिन की छुट्टी ,धुन तो ये सवार थी कि किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाया जा रहा है खैर उसकी तसल्ली के लिए एक स्किन स्पेशलिस्ट से आज सुबह ग्यारह बजे का अपॉइंटमेंट लिया गया और ग्यारह बज कर तीन मिनिट पर क्लिनिक में पहुँच भी गए। (अब तीन मिनिट की देरी तो हम भारतियों का हक़ है )खैर ,वहाँ जा कर अपना नाम बताया विज़िटर्स स्लिप भरी फीस जमा की और अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे। डॉक्टर के क्लिनिक में कोई पेशेंट था तो सोचा शायद हमसे पहले वाले का नंबर चल रहा होगा। 
थोड़ी देर इंतज़ार के बाद किसी और महिला को अंदर जाने का कहा गया ,मैंने रिसेप्शन पर बैठे लडके से पूछा "हमारा ग्यारह बजे का टाइम था" तो जवाब मिला "जी मेम उनका भी ग्यारह बजे का ही टाइम था। "
"आप एक टाइम कितने लोगो को देते है ?"
"चार लोगों को " बिना किसी झिझक के जवाब मिला। 
अब हमारा चौकना स्वाभाविक था। "ग्यारह से साढ़े ग्यारह तक का एक स्लॉट होता है जिसमे सभी को ग्यारह बजे का टाइम दिया जाता है जो पहले आ जाये वह पहले जाता है। "
"ऐसे में आप दस दस मिनिट बाद का टाइम दिया करिये जिससे किसी का टाइम ख़राब ना हो, कल मेरा एग्जाम है हमें भी जल्दी है।"बिटिया बोली। 
मेम उन्हें भी बाहर जाना है everybody has their reasons . 
ya exactly ,thats what i want to say ,everybody has their reasons thats why they are taking appointment .you are professionals so be professional. 
"मेम आप अंदर डॉक्टर से बात कर लीजिये। "
" जरूर "
क्लिनिक में रिसेप्शन पर एक लड़की और एक लड़का बैठे थे ,उसके पीछे एक काउंटर था जिस के पीछे मेडिकल स्टोर था जिस पर तीन लड़कियां बैठी थीं।  सारा काम कंप्यूटर पर इंटर कनेक्टेड था। डॉक्टर के केबिन के बगल में एक और केबिन था जिसमे उनकी श्रीमती जी जो स्त्री रोग विशेषज्ञ है बैठी थीं। 
दस मिनिट बाद हमारा नंबर आ गया। हमारे वहाँ जाकर बैठते ही इण्टरकॉम पर फोन आया और डॉक्टर को बाहर हुए वाकये की खबर दे दी गयी। 
खैर डॉक्टर ने बालों की जाँच की फिर बोले की कोई खास प्रॉब्लम नहीं है कुछ दवाइयां लिख देता हूँ बाकी बाहर काउंटर पर आपको समझ दिया जायेगा। उनका इतना कहते ही एक लड़की अंदर आ गयी और प्रिस्क्रिप्शन उठा कर हमें बाहर ले जाने के लिए खड़ी हो गयी। मैंने खाने पीने के बारे में एक दो बातें की और हम बाहर आ गए। 
हमारे पहुंचते ही लड़कियों ने फटाफट दवाईयाँ निकाल दी साथ ही एक शैम्पू शैम्पू के बाद लगाने के लिए एक फोम फिर एक लोशन। वहाँ कुछ स्लिप्स रखीं थीं जिन पर प्रिंट था एक गोली रात में, एक गोली दिन में,रात में सोते समय ,खाने के बाद ,लड़की ने प्रिस्क्रिप्शन के हिसाब से फटा फट स्लिप्स चिपकाईं दूसरी लड़की ने झट से कंप्यूटर से बिल निकाला २३०२ रुपये। मन तो हुआ जाकर डॉक्टर से पूछूं कि जब कोई खास प्रॉब्लम नहीं है तो फिर इतनी महंगी दवाइयां और  शैम्पू क्यों ?लेकिन बात बिटिया का मन रखने की थी इसलिए चुपचाप बाहर आ गए ,अरे हाँ एक बात बताना तो भूल ही गयी उसने २५०० में से २०० रुपये वापस कर दिए यानि पूरे दो रुपये का डिस्काउंट। 
बाहर निकलते ही सबकी हँसी छूट गयी मैंने कहा "बेटा तेरे बालों का इलाज़ करवाते तो पापा के सारे बाल उड़ जायेंगे। "
 इस तरह २६५० रुपये खर्च करके हम जब बाहर आये तो मुन्नाभाई एम बी बी एस के डॉक्टर रस्तोगी की तरह हंसते हुए घर आये। 
अब इन २६५० रुपयों के खर्च को जस्टिफाय करना था ,बिटिया के पिताजी ने कहा ठीक है चार लड़कियों एक लडके का खर्च निकलने के लिए इतना तो करेगा ही ना। 
मैंने कहा देख बेटा डॉक्टर ने तुम्हारे बाल खींच कर देखे जैसे ऐश्वर्या राय एक शैम्पू के एड में दिखती है तो ऐश्वर्या राय की बराबरी करने के लिए इतना खर्च जायज़ है। 
पता नहीं इतनी सीरियस बातों के बीच ऐसा क्या था की हम सब नमस्ते लंदन के ऋषि कपूर और अक्षय कुमार की तरह बस हँसते रहे। हाँ अभी दवाई और शैम्पू का उपयोग शुरू नहीं किया है उसके परिणामो के बारे में बताने एक महीने बाद जाना है। फिर मिलेंगे। 

Wednesday, December 11, 2013

हिन्दी विकास यात्रा के गड्ढे …।

गर्भनाल पत्रिका के ८५ वें अंक में मेरा आलेख। ।कोशिशो के बाद भी उसका लिंक नहीं लगा पा रही हूँ। लेख आप यहाँ पढ़ सकते 


कॉलेज में कोई फार्म भरे जा रहे थे  जिसमे सबको अपने  नाम हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखने थे। कई बच्चे अपना फार्म लगभग पूरा भर कर  भी जमा नहीं करवा रहे थे क्योंकि उन्होंने अपने नाम हिंदी में नहीं लिखे थे। कुणाल ने बहुत संकोच से कहा मुझे पता है मेरे नाम में वो अलग वाला 'न' आता है लेकिन उसे लिखते कैसे है मुझे याद नहीं आ रहा है।  यही हाल अथर्व ,प्रणव ,गार्गी ,कृति आदि का भी था , उन्हें ये तो पता था कि उनके नाम में र कि रफ़ार ,अलग वाला न ,या ऋ आता है लेकिन लिखना कैसे है ये याद नहीं।  ऐसा नहीं है उन्होंने अपना नाम हिंदी में लिखना सीखा नहीं था लेकिन कई सालों से हिंदी में नाम लिखा ही नहीं इसलिए भूल गए।  

ये हालत है हमारी आज की शहरी पीढ़ी की और ये कोई मनगढंत बात नहीं है बल्कि मेरी बेटी के कॉलेज़ में घटी सच्ची घटना है जिसने आने वाले समय में शहरी क्षेत्रों में हिंदी की क्या स्थिति होने वाली है उस के दर्शन करवा दिए। 

आज के समय के आधुनिक सी बी एस ई स्कूल में बच्चे दसवीं तक हिंदी पढते हैं उसके बाद भाषा के एक विषय के लिए 99 % बच्चे इंग्लिश ही लेते हैं इस तरह दसवीं के बाद उनका हिंदी से नाता लगभग टूट सा जाता है। इंग्लिश मीडियम के स्कूलों में ज्यादातर पत्र पत्रिकायें भी इंग्लिश की मंगवाई जाती हैं और बच्चों को वही पढने को प्रोत्साहित भी किया जाता है ,बचपन से घर में इंग्लिश सिखाने के लिए इंग्लिश अखबार ही मंगवाए जाते हैं और अगर मम्मी पापा थोड़े देसी हुए तो हिंदी अख़बार मँगवा लिए जाते हैं लेकिन बच्चे को उन्हें पढ़ने के लिए कितना प्रोत्साहित किया जाता है ये प्रश्न ही शायद अर्थ हीन है। 

बिटिया ने ही बताया कि एक लडके ने अतिरिक्त विषय के रूप में ग्यारहवीं में हिंदी विषय लिया उसके सभी विषयों में अच्छे नंबर थे लेकिन हिंदी में बहुत कम नंबर थे जिसके कारण उसका रिज़ल्ट खराब हो गया। अब या तो उसने हिंदी विषय ये सोच कर लिया होगा कि हिंदी पढ़ना सरल है ज्यादा मेहनत नहीं लगेगी ,या हो सकता है उसे सच में हिंदी अच्छी लगती हो लेकिन चूंकि बहुत कम बच्चे ग्यारहवीं बारहवीं में हिंदी लेते हैं इसलिए ठीक से पढ़ाने वाले टीचर्स ही ना हों।  कारण चाहे जो हो लेकिन उससे हिंदी कि स्थिति नहीं बदलती वो दिनों दिन शोचनीय होती जा रही है।  

ऐसा नहीं है ये बच्चे समाज में हो रही घटनाओं से वाकिफ नहीं हैं या उन पर चिंतन मनन नहीं करते जरूर करते है उन के बारे में जानते हैं जानकारी जुटाते हैं उन पर चर्चा करते हैं लेकिन उनकी जानकारियों का स्त्रोत क्या होता है ? सोशल मीडिया पर लोगों के स्टेटस ,उनके विचार, उनकी टिप्पणियाँ  या किसी अंग्रेजी अखबार की क्लिपिंग उसका लिंक। ऐसे में हिंदी से उनका संपर्क लगभग कट ही जाता है पेपर होर्डिंग्स भी अब युवाओं को लुभाने के लिए ज्यादा तर  इंग्लिश या हिंग्लिश में होते हैं ,ऐसे में अधिकतर उपयोग होने वाले शब्द तो आँखों के सामने आ जाते हैं लेकिन कम प्रयोग होने वाले अक्षर जैसे थ ,ध, ढ़ ,ण ,ऋ ड़ ,ष ,त्र ,ज्ञ धीरे धीरे बच्चों के दिमाग से ओझल होते जाते हैं और जब कभी किसी वाक्य में ऐसे अक्षर आते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे चीनी भाषा का कोई अक्षर उनके सामने रख दिया हो।  

उच्च शिक्षा हिंदी में एक हास्यास्पद विचार लगता है और अब जब हम  हिंदी को इतने पीछे छोड़ आये हैं तब उसका हाथ थाम विदेशों तक अपनी शिक्षा का परचम लहराना एक असम्भव सोच ही लगती है लेकिन इससे अलग भी क्या हिंदी को उसके अपने घर में अपने लोगों के बीच में इस तरह पराया किया जाना ठीक है ? 

हिंदी सिर्फ उच्च तकनीकी शिक्षा के क्लिष्ट शब्द नहीं है न ही हिंदी साहित्य की पुस्तकों में अमूर्त बिम्बों और उपमानों में अपने अर्थ को तलाशती बूझ अबूझ के बीच वाहवाही पाती देव भाषा है। हिंदी दिल से दिल को जोड़ने वाली अपने से अपनी पहचान करवाने वाला सेतु है इसे तोड़ने का अर्थ है गाँवों से शहरों का भाषाई संपर्क तोड़ देना ,इंग्लिश न जानने वाली एक पीढ़ी का अगली पीढ़ी से नाता तोड़  देना , एक संस्कृति का अपनी जमीन से टूट कर बिखर जाना।   

मैंने खुद देखा है बच्चे हिंदी शब्दों के अर्थ नहीं समझते क्योंकि उन्हें उसके अर्थ रटवाए जाते हैं उन शब्दों का वाक्यों में प्रयोग करके उसके अर्थ समझाए नहीं जाते।  इसलिए उनका ज्ञान सिर्फ परीक्षा देने तक ही सीमित होता है।  

एक और बात पर मेरा ध्यान गया है ,हिन्दी को यह धीमी मौत देने में इतनी चालाकी और शांति से काम किया जा रहा है जिसे हम  देख सुन कर भी समझ नहीं पा रहे हैं। हिंदी सीरियल और सिनेमा में चरित्रों के नामों के उच्चारण पर कभी ध्यान दिया है। राठौड़  राठौर होते हुए राथोर हो गया ,थोडा थोडा ,थोरा थोरा हो गया ,रावण रावना हुआ ,ऐसे ही हिंदी के कुछ अक्षर धीरे धीरे न सिर्फ लिखने में बल्कि बोल चाल से भी विलुप्त होते जा रहे हैं।  

बच्चे हिंदी नहीं जानते उसके अक्षर ,शब्द भूलते जा रहे हैं ,अपना नाम तक हिंदी में नहीं लिख पाते। हिंदी की विकास यात्रा में ये बहुत बड़े बड़े गड्ढे  है जिसे भरे बिना आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। 
कविता वर्मा 

अनजान हमसफर

 इंदौर से खरगोन अब तो आदत सी हो गई है आने जाने की। बस जो अच्छा नहीं लगता वह है जाने की तैयारी करना। सब्जी फल दूध खत्म करो या साथ लेकर जाओ। ग...