सुबह उठते ही याद आया आज तो मकर संक्रांति है .चलो अब से दिन थोड़े बड़े होंगे ओर इस हाड़ कपाऊ सर्दी से थोड़ी राहत मिलेगी.सबसे पहला ख्याल तो यही आया.सन्डे की छुट्टी ढेर सारा काम ओर त्यौहार ओर सबसे बड़ी बात काम वाली बाई की छुट्टी.सब काम से निबटते दोपहर हो गयी. वैसे तो आज भी ठण्ड काफी थी तो सोचा चलो थोड़ी देर छत पर धूप सेक ली जाये. रेडियो विविध भारती पर बड़े अच्छे पुराने गाने आ रहे थे उन्हें छोड़ कर छत पर जाने का मन नहीं हुआ ,तो झट मोबाइल में रेडियो लगाया ओर गुनगुनी धूप में ऊपर पहुँच गए. सच कहूँ तो छत पर जाते हुए इस नीरस सी निकलने वाली संक्रांति पर बड़ी निराशा हुई. कहाँ गए वो बचपन के तीज त्यौहार ,उन्हें मनाने के वो तौर तरीके. दादी सुबह से तिल पीस कर उबटन बनाती थी धूप में बैठ कर उबटन लगाते फिर नहा कर भगवान को तिल गुड का भोग लगाते तब कुछ खाने को मिलता था.लेकिन छोटी बिटिया जिसे त्यौहार मनाने का सबसे ज्यादा शौक है वो तो सुबह सुबह ही कोचिंग चली गयी. जब तक लौटी दोपहर हो चुकी थी.फिर काहे का उबटन |
छत पर हम तो बातों में मगन हो गए तभी एक कोने में पतंग नज़र आयी |शायद कहीं से कट कर आ गिरी थी| उसके साथ एक छोटी सी डोर भी थी. मन में कुछ खटक गया.डोर तो बहुत लम्बी रही होगी लेकिन मुसीबत में सिर्फ एक छोटी सी डोर ही साथ आयी.वैसे ही जैसे मुसीबत में कुछ ही लोग साथ निभाते है .शेष तो मुसीबत देखते ही दूर हो जाते है.
अब जब पतंग हाथ आ गयी तो उसे उड़ाने की कोशिश भी शुरू हो गयी.लेकिन कट के आयी पतंग शायद अपने ही ग़मों में इस कदर डूबी थी या दहशत में थी की फिर आसमान की उचाईयों को छूने की हिम्मत न जुटा सकी. थोड़ी देर कोशिश के बाद उसे छोड़ देने में ही भलाई समझी. एक नयी पतंग ओर डोर लाई गयी| आज हवा की तेज़ी ओर रुख अच्छा था.कल तक जो पुरवैया चल रही थी आज पिछुआ चलने लगी .धूप की तरफ पीठ होने से पतंग उड़ना आसान हो गया. पतंग आसमान की उचाईयों को छू रही थी.बहुत देर तक हम पतंग उड़ाते रहे .सब खुश थे पतंग की डोर इस हाथ से उस हाथ जाती रही.
ये क्या एक ओर पतंग हमारी पतंग के पास आ रही है शायद पेंच लड़ाने,पतंग उड़ रही है ये देख कर ख़ुशी हो रही है.किसी की पतंग काटने ओर पेंच लड़ाने की तो इच्छा ही नहीं है. वैसे भी हर जगह गला काट ही तो मची है.यहाँ तो कम से कम निर्मल आनंद मिले.
आसमान की उचाईयों में पतंग कभी कभी खो जाती .लेकिन थी वहीँ डोर से बंधी हमारे हाथ में. कभी कभी ये भ्रम भी होता की शायद पतंग है ही नहीं.
बचपन में दोनों भाई दोपहर में सरेस ओर कांच का चूरा ले कर धागे को माँझा करते थे जिससे डोर मजबूत हो ओर पेंच लड़ाने पर दूसरों की पतंग आसानी से काटी जा सके. कितनी लगन से ये काम होता था.शायद ये एक ट्रेनिंग थी जो उन्हें जिंदगी में हर काम को धीरज से करना सिखा गयी. आज कल के बच्चों में इतना धैर्य ओर लगन कम ही देखने को मिलती है. उन्हें तो हर चीज़ तैयार मिलती है. ओर एक दो बार करने पर जो काम नहीं होता उसे छोड़ दिया जाता है.
अरे ये क्या पतंग के पास से हो कर कई पक्षी ओर चीलें उड़ रही है.डर भी लगा कहीं डोर की चपेट में न आ जाएँ. कितने ही पक्षियों को डोर के बिलकुल करीब आ कर रास्ता बदलते देखा. पेड़ ओर जमीन तो हमने हड़प ही लिए है अब आसमान पर भी अतिक्रमण.
कहीं पढ़ा था अगर आप आसमान पर उड़ते पंछियों को देखें तो मन का अवसाद कम होता है.मुझे याद है पहले शाम छत पर अपने बसेरों को जाते पंछियों के झुण्ड को देखते बीतती थी.लगभग हर घर की छत पर लोग होते थे खास कर लड़कियों के लिए छत से बढ़ कर कोई अन्य सुरक्षित स्थान न था.फिर चाहे बतियाना हो या लंगड़ी,टप्पू या रस्सी कूद हो. आज आसमान पर उड़ती पतंगों को देखते पंछियों को उड़ते देखते मन भी हल्का हो कर आकाश के नीले विस्तार में खो सा गया. कुछ देर को लगा की मन की सारी चिंता ,परेशानी जैसे बहुत ऊंचाई पर उड़ती पतंग से गायब हो गए.
शाम हो चली थी त्योहार ख़त्म होने को था हमने भी पतंग ओर डोर समेटी .आज का पतंग उड़ाने का ये अनुभव हमेशा याद रहेगा.
आप सभी को मकरसंक्रांति की शुभकामनायें !!!
"मुसीबत में कुछ ही लोग साथ निभाते है. शेष तो मुसीबत देखते ही दूर हो जाते है."
ReplyDeleteयह सच है मगर सदा एसा ही नहीं होता।
आजकल त्यौहारों पर ज्यादा उत्साह नहीं दिखता।
आपने सक्रांति यादगार मनाई। बधाई।
आपको भी मकर सक्रांति की शुभकामनाएं।
बहुत अच्छी पोसट .. आपके इस पोस्ट से हमारी वार्ता समृद्ध हुई है .. आभार !!
ReplyDeleteजी, आपने त्यौहारों पर क्या क्या होता था, बखूबी बताया। सच तो ये है कि हम भूल गए हैं कि त्यौहारों पर होता क्या है।
ReplyDeleteबचपन से अब तक मैने बहुत कोशिश की पर पतंग उडाना नहीं आया। लेकिन हर छत पर लोगों को मैने बहुत मन से पतंग उडाते हुए जरूर देखा है।
मकर संक्रांति की ढेरी सारी शुभकामनाएं
जीवन की आपाधापी में त्यौहार अब सिर्फ औपचारिकता का निर्वहन रह गए हैं, उम्मीद है कि ये औपचारिकता भी खत्म न हो जाए.....
ReplyDeleteमकर संक्रांति की शुभकामनाएं.......
दादी माँ की यादे ..चुड़ा ..तिलवा और तिल के लड्डू..कराह के तिलवे , जो गुड से बनाते थे .. गजब के दिन और खान - पान ! आप सभी को संक्रांति और पोंगल की हार्दिक बधाई !
ReplyDeleteप्रस्तुति बहुत अच्छी लगी| धन्यवाद|
ReplyDeleteमकर संक्रांति की ढेरी सारी शुभकामनाएं|
सही कहा ...आज -कल त्योहारों में वो रौनक नहीं दिखती है जो पहले हर तरफ अनायास ही दिख जाती थी ,मकर संक्रांति की शुभकामनाएँ .
ReplyDeleteak achhi prastuti lagi ...badhai kavita ji .
ReplyDeleteआपको मकरसंक्रांति की शुभकामना.
ReplyDeleteसचमुच हथिया लिए हैं पेड़ पहाड़ आकाश सब कुछ.... मेरी एक कविता है...
ReplyDelete"चिडियों के लिए
महफूज़ नहीं रह गया है
आकाश
पहुच गए हैं
आदमी के हाथ "
बढ़िया आलेख.