Sunday, December 11, 2011

.दुखवा कासे कहूँ ???



वह  उचकती  जा  रही  थी
  अपने  पंजों  पर .
लहंगा  चोली  पर  फटी चुनरी
बमुश्किल  सर  ढँक  पा  रही  थी
हाथ    भी  तो  जल  रहे  होंगे .
माँ  की  छाया  में
छोटे  छोटे  डग  भरती ,
सूख  गए  होंठों  पर  जीभ  फेरती ,
माँ  मुझे  गोद  में  उठा  लो
की  इच्छा  को
सूखे  थूक  के  साथ
 हलक  में  उतारती .
देखा  उसने  तरसती  आँखों  से  मेरी  और ,
अपनी   बेबसी  पर  चीत्कार  कर  उठा .
चाहता  था  देना  उसे
टुकड़ा  भर  छाँव
पर  अपने  ठूंठ  बदन  पर
जीवित  रहने  मात्र
दो  टहनियों  को  हिलते  देख
चाहा  वही  उतार  कर  दे  दूँ  उसे
 न  दे  पाया .
जाता  देखता  रहा  विकास  की  राह  पर
एक  मासूम  सी  कली  को  मुरझाते  हुए . 

11 comments:

  1. जाता देखता रहा विकास की राह पर
    एक मासूम सी कली को मुरझाते हुए ...prakritik dard

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  2. बहुत ही भावमय करते शब्‍द ।

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  3. भावपूर्ण कविता के लिए आभार....

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  4. वाह, बहुत सुंदर। दो लाइनें याद आ रही है, शायर नवाज देवबंदी की..

    भूखे बच्चे को तसल्ली के लिए
    मां ने फिर पानी पकाया देर तक..

    वो रुला कर हंस ना पाया देर तक
    जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक ।

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  5. नमस्कार मित्र आईये बात करें कुछ बदलते रिश्तों की आज कीनई पुरानी हलचल पर इंतजार है आपके आने का
    सादर
    सुनीता शानू

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  6. जाता देखता रहा विकास की राह पर
    एक मासूम सी कली को मुरझाते हुए .

    यही तो कुछ लोगों तक सिमटे हुए विकास का सच है।

    बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है।

    सादर

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  7. यथार्थ की मार्मिक प्रस्तुति, नि:शब्द कर दिया, वाह !!!!!

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  8. बहुत ही भावपूर्ण है आपकी यह सुन्दर प्रस्तुति.
    सुनीता जी की हलचल का आभार,जिसने मुझे यहाँ पहुँचाया.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,कविता जी.

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  9. भावपूर्ण रचना...
    सादर....

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