वह उचकती जा रही थी
अपने पंजों पर .
लहंगा चोली पर फटी चुनरी
बमुश्किल सर ढँक पा रही थी
हाथ भी तो जल रहे होंगे .
माँ की छाया में
छोटे छोटे डग भरती ,
सूख गए होंठों पर जीभ फेरती ,
माँ मुझे गोद में उठा लो
की इच्छा को
सूखे थूक के साथ
हलक में उतारती .
देखा उसने तरसती आँखों से मेरी और ,
अपनी बेबसी पर चीत्कार कर उठा .
चाहता था देना उसे
टुकड़ा भर छाँव
पर अपने ठूंठ बदन पर
जीवित रहने मात्र
दो टहनियों को हिलते देख
चाहा वही उतार कर दे दूँ उसे
न दे पाया .
जाता देखता रहा विकास की राह पर
एक मासूम सी कली को मुरझाते हुए .
अपने पंजों पर .
लहंगा चोली पर फटी चुनरी
बमुश्किल सर ढँक पा रही थी
हाथ भी तो जल रहे होंगे .
माँ की छाया में
छोटे छोटे डग भरती ,
सूख गए होंठों पर जीभ फेरती ,
माँ मुझे गोद में उठा लो
की इच्छा को
सूखे थूक के साथ
हलक में उतारती .
देखा उसने तरसती आँखों से मेरी और ,
अपनी बेबसी पर चीत्कार कर उठा .
चाहता था देना उसे
टुकड़ा भर छाँव
पर अपने ठूंठ बदन पर
जीवित रहने मात्र
दो टहनियों को हिलते देख
चाहा वही उतार कर दे दूँ उसे
न दे पाया .
जाता देखता रहा विकास की राह पर
एक मासूम सी कली को मुरझाते हुए .
भावपूर्ण कविता
ReplyDeleteआभार
जाता देखता रहा विकास की राह पर
ReplyDeleteएक मासूम सी कली को मुरझाते हुए ...prakritik dard
बहुत ही भावमय करते शब्द ।
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता के लिए आभार....
ReplyDeleteवाह, बहुत सुंदर। दो लाइनें याद आ रही है, शायर नवाज देवबंदी की..
ReplyDeleteभूखे बच्चे को तसल्ली के लिए
मां ने फिर पानी पकाया देर तक..
वो रुला कर हंस ना पाया देर तक
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक ।
नमस्कार मित्र आईये बात करें कुछ बदलते रिश्तों की आज कीनई पुरानी हलचल पर इंतजार है आपके आने का
ReplyDeleteसादर
सुनीता शानू
जाता देखता रहा विकास की राह पर
ReplyDeleteएक मासूम सी कली को मुरझाते हुए .
यही तो कुछ लोगों तक सिमटे हुए विकास का सच है।
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है।
सादर
यथार्थ की मार्मिक प्रस्तुति, नि:शब्द कर दिया, वाह !!!!!
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण है आपकी यह सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसुनीता जी की हलचल का आभार,जिसने मुझे यहाँ पहुँचाया.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,कविता जी.
behad samvedansheel rachna
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteसादर....