Sunday, March 6, 2011

शोर

शोर -शोर- शोर आज की जीवन शैली में ये हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है...बहुत पहले मनोज कुमार की एक फिल्म आयी थी शोर जिसमे नायक को शोर से बहुत नफरत होती है इतनी की वह हमेशा शोर से परेशान रहता है ,उसके कान तरसते है तो अपने बेटे की आवाज़ सुनने को जो बोल नहीं सकता ,उसका ऑपरेशन होता है पर उसी दिन नायक का एक्सीडेंट होता है और वह सुनने की क्षमता खो देता है...

आज हम में से कितने ही इस शोर से परेशान रहते है और न जाने कितने ही इस शोर को सुनकर भी नज़र अंदाज कर देते है. अब तो लगता है शायद हम में से कितनो ने शांति या कहे निशब्दता की आवाज़ ही नहीं सुनी होगी ,उसे महसूस ही नहीं किया होगा . आज से करीब १० साल पहले जब हमने शहर से दूर मकान बनवाना शुरू किया तब यहाँ आ कर शोर से दूर इस निशब्द स्थान को महसूस करने का मौका मिला . लेकिन इसे निशब्द भी कहना उचित नहीं होगा इसे सन्नाटा भी नहीं कहा जा सकता ,क्योंकि आवाज़ तो यहाँ भी थी .हवा के चलने की आवाज़, पक्षियों के चहचहाने की आवाज़ ......जब भी मोबाइल फ़ोन पर बात करते सामने वाला जरूर पूछता कहाँ से बोल रहे हो बहुत तेज़ हवा चलने की आवाज़ आ रही है. पर वो आवाज़ शोर नहीं थी वह आवाज़ प्रकृति के सानिध्य का एहसास करवाती थी.

जब हम यहाँ रहने आये तब शायद शोर की आदत के कारण जो बहुतों के आसपास होने का एहसास भी करवाता है भले ही उसके बावजूद भी हम अकेले ही क्यों न हो पर ये शोर शायद हमारा संबल बन जाता है . तो जब यहाँ आये इस शांति से घबरा गए थोड़ी ही देर में इतने अकेले होने का भाव मन में घबराहट पैदा करने लगा और सामान में से रेडियो निकाल कर उसे ऑन किया तब थोडा ठीक लगा.

लेकिन धीरे धीरे इस शांति की ऐसी आदत पद गयी की अगर कोई गाड़ी भी घर के सामने से निकाल जाती तो लगता कितना शोर हो रहा है. लेकिन शहर में भरने वाला शोर जब शहर की हद में सामने से ज्यादा हो गया तो धीरे ध्रीरे हमारे शांत इलाके में भी फैलने लगा सामान्यत इसका एहसास नहीं होता था पर एक बार जब किसी कारण से भारत बंद हुआ उसदिन समझ में आया इस शहर का शोर किस कदर अतिक्रमण कर के हमारे शांत इलाके में ही नहीं हमारे जेहन में भी घुस आया है और हमारी जिंदगी का हिस्सा बनने लगा है .

जोधपुर का किला देखने गए किला शहर से दूर काफी ऊंचाई पर बना है .ऊपर से देखने पर सारा शहर खिलौने जैसा लगता है .नीली छत वाले बहुत सारे घर, मकान ,दुकान, बाज़ार और वहां से उठने वाला शोर, जो किसी समुद्र की लहरों से उठने वाले शोर की तरह ऊपर उठ कर शायद अंतरिक्ष तक जा रहा था . अगर हमारे ब्रह्माण्ड में कही और जीवन है तो वो पता नहीं कैसी जीवन शैली में जीते होंगे पर अगर हमारे यहाँ के शोर की तरंगे उन तक पहुँचती होंगी तो वो परेशान जरूर हो जाते होंगे .और क्या पता शायद इसीलिए उन लोगो ने कभी हम तक पहुँचने की कोशिश नहीं की .

वैसे शोर से हमें कितना प्यार है ये समझना बहुत मुश्किल तो नहीं है . हर नया ऑडियो equipment और ज्यादा तेज़ आवाज़ देने का दावा करता है.टीवी में स्पेशल आवाज़ इफेक्ट , होम थिएटर i pod मोबाइल में तेज़ आवाज़, होर्न में नित नए प्रयोग ...हम पता नहीं क्यों इस शोर में अपने को गुम करना चाहते है इस शोर की आवाज़ में हम किस आवाज़ को अनसुना करना चाहते है अपनी ,अपनों की या अपने अंतर्मन की ?

हमने तो अब भगवन को भी इस शोर का आदि बना दिया है किसी भी मंदिर में जाइये भगवन को अपनी बात सुनने के लिए बड़े लाउड स्पीकर पर गाने भजन सुनाये बिना हमें लगता ही नहीं उन तक हमारी आवाज़ पहुंची होगी. और क्या पता इतनी तेज़ आवाज़ से उनके कानों की क्या हालत है और वो किसी भक्त की सामान्य आवाज़ सुन भी पाते है या नहीं ?? पर हम भी कम नहीं है भगवन चाहे जितना ऊँचा सुने हम उतनी ही तेज़ आवाज़ में उन्हें अपनी बात सुनवा कर ही दम लेते है. बस डर इतना ही है कही भगवन इस तेज़ आवाज़ से डर के इस पृथ्वी तो क्या स्वर्गलोक को भी छोड़ कर कहीं और न चल पड़े . और ये मेरी कपोल कल्पना नहीं है हम जहाँ जहाँ तक पहुंचे है हमने अपने शोर प्रेम को कभी नहीं छोड़ा . एक बार टी वी पर मानसरोवर गए यात्रियों के दल को देखा वहां भी लोगो ने जोर जोर से भजन गा कर हर हर महादेव की आवाजें लगा कर ही कैलाशपति तक अपनी बात पहुंचाई. उस पूरे कार्यक्रम में में यही सोचती रही काश ये थोड़ी देर के लिए चुप हो कर ध्यान लगाये तो क्या पता शायद इन्हें भगवान शिव की आवाज़ ही सुनाई दे जाये . आवाज़ बंद कर के देखने की कोशिश की पर उन लोगो का शोर कुछ इस तरह घर में भर गया था की वहां की शांति महसूस ही नहीं कर पाई.

यदि ऐसा ही रहा तो शायद एक दिन हमारे बच्चे या बच्चों के बच्चे हमसे ये पूछेंगे ये शांति होती क्या है?


10 comments:

  1. सटीक और सार्थक लेख ...किसकी आवाज़ सुने ? अपनी , अपनों की या अंतर्मन की ....

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  2. पवन के शोर से प्रारंभ कहानी आडियो के शोर पर ठहर गयी।
    शोर अब जीवन में ऐसे समाहित हो गया है कि इसके बिना उत्सव संभव ही नहीं लगता। गाड़ी मोटर के शोर से लेकर रेलगाड़ी के शोर तक सिर्फ़ शोर ही शोर है।

    शांति मरघट में भी नहीं रही,अब कहावतें बदलनी पड़ेगीं। मरघट तक जाने के लिए भी बैंड के कानफ़ोड़ू शोर की दरकार होती है।

    सार्थक पोस्ट के लिए आभार

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  3. shor ki aadat ho jaye to sannate se hi darr lagne lagta hai...

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  4. बहुत ही सुन्‍दर एवं सटीक ।

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  5. is abhivyakti ka kya khna bahut khoob

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  6. बहुत सार्थक आँखें खोलने वाला आलेख .....

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  7. आज मंगलवार 8 मार्च 2011 के
    महत्वपूर्ण दिन अन्त रार्ष्ट्रीय महिला दिवस के मोके पर देश व दुनिया की समस्त महिला ब्लोगर्स को सुगना फाऊंडेशन जोधपुर की ओर हार्दिक शुभकामनाएँ..

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  8. पर्यावरण विनाश पर आँखें खुलेंगी तो सही पर शायद बहुत देर हो जायेगी ! मूर्खताओं से शायद अगली पीढ़ी सावधान रहे ! हम तो नहीं सुधरने वाले !
    शुभकामनायें !!

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  9. सारगर्भित लेख !!!!

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नर्मदे हर

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