




छुट्टियों में कही जाने का कार्यक्रम नहीं बन पाया तो सोचा चलो एक दो दिन के लिए महेश्वर ही हो आया जाये.वैसे मालवा की गर्मी छोड़ कर निमाड़ की गर्मी में जाना कोई बुध्धिमात्तापूर्ण फैसला तो नहीं कहा जायेगा,पर और कही जाने के लिए सफ़र के लिए ही कम-से-कम २४ घंटे चाहिए,फिर रुकने के लिए समय ही कहा बचा? हमारे पास कुल दो दिन का समय था जिसमे आना-जाना और घर ऑफिस की दिनचर्या से थोडा आराम हमारा लक्ष्य था.इसलिए महेश्वर को चुना.वैसे भी वहा ज्यादा घूमना नहीं था ले दे कर एक घाट ही तो है जहा जाया जा सकता है।
तो हम पहुँच गए महेश्वर। महेश्वर होलकर वंश की महारानी "अहिल्याबाई 'की कर्मस्थली रही है.उन्होंने इंदौर रियासत की बागडोर यही से संचालित की.नर्मदा नहीं के किनारे उनका बहुत साधारण सुविधायों वाला किला बना है.पर उन्होंने यहाँ नदी के किनारे भव्य घाट बनवाये।( हमारे जाने के दो दिन पहले ही किसी फिल्म की शूटिंग के लिए पूरा देओल परिवार यहाँ था)।
दिन तो होटल मे ऐ सी में गुजरा पर शाम को घूमने घाट पर चले गए।वहा शाम की आरती हो रही थी । पंडितजी के साथ कुछ श्रद्धालु आरती और भजन गा रहे थे.कुछ लोग नहा भी रहे थे.पर नहाने के बाद घाट पर दिया जला कर अपनी श्रध्दा समर्पित कर रहे थे। हम लोग भी आरती के ख़त्म होने तक वहा खड़े रहे ,फिर बैठने का स्थान तलाश करने लगे । पत्थर तो गर्म थे पर नदी में पाँव डाल कर बैठना बहुत सुकून दायक लग रहा था।हमारे सामने ही एक परिवार के बहुत सारे सदस्य खाना खा रहे थे,और हम बैठे हुए अनुमान लगाने लगे की गर्मियों की छुट्टियों में सब बहन-बेटियां अपने बच्चों के साथ मायके आयी है और आज यहाँ पिकनिक मनाई जा रही है । घर से लाया खाना ,पानी की बड़ी सी बोतल ,बिछाने के लिए चादर,बर्तन,और ढेर सारी बातें। खाना खा कर बच्चे खेलने लगे पानी में तैरती बड़ी बड़ी मछलियों को देखने लगे,बड़ी उम्र की महिलाये घाट पर घूमने निकल गयी,और बाकियों ने फटाफट सामान समेत लिया। अभी हम उस परिवार की चहल-पहल में ही खोये थे तभी आवाज़ आयी"जय श्री कृष्णा" और हमरी बगल में एक और परिवार आ कर अपनी चादर बिछाने लगा। थोड़ी ही देर में खाने का सामान सज गया । अपने आस-पास नज़र डाली तो पाया की यहाँ कई परिवार है जो अपना शाम का खाना यहाँ आ कर खा रहे है। मन विभोर हो गया इस सहज सरल जीवन शैली को देख कर। दिनभर की तीखी धुप में तो बाहर निकलना संभव नहीं है,शाम को इस छोटी सी जगह में जाये तो कहा जाए ? इसलिए शाम होते ही परिवार की महिलाये बच्चे खाना बना कर नदी किनारे आ कर गपशप करते हुए खाते है और अपनी दुकान या काम से फारिग हो कर घर के पुरुष सदस्य भी यही आ जाते है। एक दो घंटे का समय कट जाता है ,रूटीन से हट कर मन प्रसन्न हो जाता है।
दूसरे दिन शनि जयंती थी ,सोचा जब इतने पावन दिन इस पवित्र नगरी में जीवनदायनी नर्मदा के किनारे है तो क्यों न स्नान किया जाये। घाट पर कपडे बदलने की व्यवस्था संतोषप्रद थीं, सो दूसरे दिन सुबह पहुँच गए नदी किनारे.घाट खचाखच भरे थे,पर कोई चिकचिक नहीं थी ,सभी शांति से जगह मिलाने का इन्तेजार कर रहे थे।ऐसा लग रहा था आज तो सारा महेश्वर ही यहाँ उमड़ आया है। स्नान के साथ लोगो का मिलाना मिलाना ,हालचाल पूछना ,नहा कर साथ लाये लोटे से घाट पर बने शिवलिंग पर जल चढ़ाना ,दीपक लगाना ,सब इतना सुखद लग रहा था,की उसका वर्णन नहीं कर सकती । ऐसा लगा महानगरीय जीवन शैली में जाने कितनी छोटी-छोटी बातों को त्याग कर हम कितनी ही बड़ी-बड़ी खुशियों को अपने जीवन में आने से रोक रहे है । दिन के उजाले में इन भव्य घाटों को देख कर अचम्भित हो गए। उस ज़माने में जब मशीनी सुविधाए नहीं थी ,कैसे बने होंगे ये घाट,कैसे की गयी होगी इनकी परिकल्पना कितना समय लगा होगा इन्हें बनाने में,और कितना संयम रहा होगा उन लोगो में ,ये सोच में ही नहीं समां पाया।
स्नान के बाद घट पर स्थित सहस्त्रबाहु मंदिर दर्शन के लिए गए। यह एक अति प्राचीन मंदिर है जहा सालों से शुध्ध घी के ७ दीपक जल रहे है। यहाँ इन दीपक के लिए घी दान देने की परंपरा है,और यहाँ इतना घी चढ़ावे में आता है .की कई कमरे भरे हुए है।
महेश्वर यहाँ की हाथ की बनी महेश्वरी साड़ियों के लिए प्रसिध्ध है । इन सरियों को हाथ से बने लूम पर बनाया जाता है.जिनकी सुनहरी किनारी अपनी सुन्दरता में बेजोड़ अब घूमने आये और खरीदी न करे ये पत्नीव्रत धर्म के खिलाफ होता है। इसलिए दो साड़ियाँ खरीद कर पतिदेव को उनका धर्म निभाने का पुण्य प्राप्त करने का मौका भी दिया।
इस तरह महेश्वर यात्रा सानंद संपन्न हुई । साथ में कुछ फोटेस है आप अभी इन्ही का आनद लीजिये,और जब भी समय मिले घूम आइये।
तो हम पहुँच गए महेश्वर। महेश्वर होलकर वंश की महारानी "अहिल्याबाई 'की कर्मस्थली रही है.उन्होंने इंदौर रियासत की बागडोर यही से संचालित की.नर्मदा नहीं के किनारे उनका बहुत साधारण सुविधायों वाला किला बना है.पर उन्होंने यहाँ नदी के किनारे भव्य घाट बनवाये।( हमारे जाने के दो दिन पहले ही किसी फिल्म की शूटिंग के लिए पूरा देओल परिवार यहाँ था)।
दिन तो होटल मे ऐ सी में गुजरा पर शाम को घूमने घाट पर चले गए।वहा शाम की आरती हो रही थी । पंडितजी के साथ कुछ श्रद्धालु आरती और भजन गा रहे थे.कुछ लोग नहा भी रहे थे.पर नहाने के बाद घाट पर दिया जला कर अपनी श्रध्दा समर्पित कर रहे थे। हम लोग भी आरती के ख़त्म होने तक वहा खड़े रहे ,फिर बैठने का स्थान तलाश करने लगे । पत्थर तो गर्म थे पर नदी में पाँव डाल कर बैठना बहुत सुकून दायक लग रहा था।हमारे सामने ही एक परिवार के बहुत सारे सदस्य खाना खा रहे थे,और हम बैठे हुए अनुमान लगाने लगे की गर्मियों की छुट्टियों में सब बहन-बेटियां अपने बच्चों के साथ मायके आयी है और आज यहाँ पिकनिक मनाई जा रही है । घर से लाया खाना ,पानी की बड़ी सी बोतल ,बिछाने के लिए चादर,बर्तन,और ढेर सारी बातें। खाना खा कर बच्चे खेलने लगे पानी में तैरती बड़ी बड़ी मछलियों को देखने लगे,बड़ी उम्र की महिलाये घाट पर घूमने निकल गयी,और बाकियों ने फटाफट सामान समेत लिया। अभी हम उस परिवार की चहल-पहल में ही खोये थे तभी आवाज़ आयी"जय श्री कृष्णा" और हमरी बगल में एक और परिवार आ कर अपनी चादर बिछाने लगा। थोड़ी ही देर में खाने का सामान सज गया । अपने आस-पास नज़र डाली तो पाया की यहाँ कई परिवार है जो अपना शाम का खाना यहाँ आ कर खा रहे है। मन विभोर हो गया इस सहज सरल जीवन शैली को देख कर। दिनभर की तीखी धुप में तो बाहर निकलना संभव नहीं है,शाम को इस छोटी सी जगह में जाये तो कहा जाए ? इसलिए शाम होते ही परिवार की महिलाये बच्चे खाना बना कर नदी किनारे आ कर गपशप करते हुए खाते है और अपनी दुकान या काम से फारिग हो कर घर के पुरुष सदस्य भी यही आ जाते है। एक दो घंटे का समय कट जाता है ,रूटीन से हट कर मन प्रसन्न हो जाता है।
दूसरे दिन शनि जयंती थी ,सोचा जब इतने पावन दिन इस पवित्र नगरी में जीवनदायनी नर्मदा के किनारे है तो क्यों न स्नान किया जाये। घाट पर कपडे बदलने की व्यवस्था संतोषप्रद थीं, सो दूसरे दिन सुबह पहुँच गए नदी किनारे.घाट खचाखच भरे थे,पर कोई चिकचिक नहीं थी ,सभी शांति से जगह मिलाने का इन्तेजार कर रहे थे।ऐसा लग रहा था आज तो सारा महेश्वर ही यहाँ उमड़ आया है। स्नान के साथ लोगो का मिलाना मिलाना ,हालचाल पूछना ,नहा कर साथ लाये लोटे से घाट पर बने शिवलिंग पर जल चढ़ाना ,दीपक लगाना ,सब इतना सुखद लग रहा था,की उसका वर्णन नहीं कर सकती । ऐसा लगा महानगरीय जीवन शैली में जाने कितनी छोटी-छोटी बातों को त्याग कर हम कितनी ही बड़ी-बड़ी खुशियों को अपने जीवन में आने से रोक रहे है । दिन के उजाले में इन भव्य घाटों को देख कर अचम्भित हो गए। उस ज़माने में जब मशीनी सुविधाए नहीं थी ,कैसे बने होंगे ये घाट,कैसे की गयी होगी इनकी परिकल्पना कितना समय लगा होगा इन्हें बनाने में,और कितना संयम रहा होगा उन लोगो में ,ये सोच में ही नहीं समां पाया।
स्नान के बाद घट पर स्थित सहस्त्रबाहु मंदिर दर्शन के लिए गए। यह एक अति प्राचीन मंदिर है जहा सालों से शुध्ध घी के ७ दीपक जल रहे है। यहाँ इन दीपक के लिए घी दान देने की परंपरा है,और यहाँ इतना घी चढ़ावे में आता है .की कई कमरे भरे हुए है।
महेश्वर यहाँ की हाथ की बनी महेश्वरी साड़ियों के लिए प्रसिध्ध है । इन सरियों को हाथ से बने लूम पर बनाया जाता है.जिनकी सुनहरी किनारी अपनी सुन्दरता में बेजोड़ अब घूमने आये और खरीदी न करे ये पत्नीव्रत धर्म के खिलाफ होता है। इसलिए दो साड़ियाँ खरीद कर पतिदेव को उनका धर्म निभाने का पुण्य प्राप्त करने का मौका भी दिया।
इस तरह महेश्वर यात्रा सानंद संपन्न हुई । साथ में कुछ फोटेस है आप अभी इन्ही का आनद लीजिये,और जब भी समय मिले घूम आइये।