पानी हर जीव की आधारभूत आवश्यकता है और यही कारण रहा कि मानव सभ्यता नदियों के किनारे विकसित हुईं। नदियों ने मानव को सिर्फ पानी की जरूरत के लिये ही नहीं बल्कि अपने सौंदर्य से अपने कलछल बहते प्रवाह से अपने हरे भरे किनारों से और लहरों पर किलोल करते पक्षियों के गीतों से भी मनुष्य को आकर्षित किया।
नदियों के पथरीले तट हों या रेतीले अथाह पानी हो या आवेगपूर्ण जलधार हो या शांत स्थिर विस्तार इसकी शीतलता मन को सुकून देती है। यह इंसान को खुद को भुला कर इस असीम विस्तार सतत प्रवाह और लयबद्ध संगीत से बांध लेती है।
नदी के किनारे उगते सूर्य की लालिमा द्विगुणित होकर एक वितान रचती है जिसमें संपूर्ण प्रकृति अंगड़ाई लेकर जीवन के लिए तैयार हो जाती है तो दोपहर की चटकीली धूप इस जल की शीतलता चुरा कर खुद के ताप से मुक्ति पाने की राह ढूंढती है और इस क्रम में नदी के जल की शीतलता को और बढ़ा देती है। वहीं दिन भर की यात्रा के बाद थक कर विश्राम पाने के लिए सूर्यनारायण के लिए नदी की अतल गहराइयों से बेहतर स्थान भला कहाँ मिल सकता है? जाते-जाते सूर्य कृतज्ञता स्वरूप अपना सुनहरा रंग नदी को देकर उसके रूप को द्विगुणित कर देता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी अग्नि कालांतर में इस जल को अपने बुझे हुए स्वरूप से कालिमा से भर देगी। नदी कहाँ इस बात का बुरा मानती है वह तो इस कालिमा को अपने वक्ष पर फैला कर आसमान में अठखेलियाँ करते चाँद और तारों के लिए दर्पण बन जाती है। नदी की इस विशाल ह्दयता की अनगिन कहानियाँ इसके किनारे बैठ कर देख सुन सकते हैं। इसके सीने में छुपे अनगिनत सीप शंख जीव जंतु के साथ यह इंसानी गलतियों को भी अपने सीने में छुपा लेती है।
मनुष्य नदियों के इसी गुण से प्रभावित होकर उसे पूर्ण रूप से जानने के लिए उसके सीने पर चप्पू खेता उसके दूसरे किनारे तक पहुँचा होगा। नदी ने कुछ राज कुछ रहस्य बनाए रखने के लिए तेज धार से मनुष्य को रोका भी होगा लेकिन फिर बाल हठ समझकर हार गई और सुदूर किनारों को सहज बना दिया। इससे भी दिल नहीं भरा मनुष्य का और उसने दोनों किनारों को सेतु बनाकर जोड़ दिया सिर्फ जोड़ा ही नहीं दिन-रात उस पर इस पार से उस पार की दौड़ लगाते शायद खुद को उस विशाल अथाह विस्तार से बड़ा शक्तिशाली होने का भ्रम पाल बैठा।
शक्ति एक ऐसा आकर्षण है जो एक बार प्रदर्शित हो जाये फिर उससे बचना मुश्किल है। इस खेल में सामने वाला अगर अपनी शक्तियों को समेट लेना चाहे तो वह भी खुद की तौहीन ही लगती है और शायद इसीलिए इंसानी गलतियों का बोझ ढोती दुर्बल होती नदियों को बांध बनाकर शक्ति संपन्न करने की कवायद की इंसान ने। न न नदियों के बहाने खुद की शक्ति का प्रदर्शन किया कि देखो अब तुम्हें हम पोषित करेंगे तुम्हें दुर्बल न होने देंगे। तुम्हें हम साल भर के लिए पुष्ट करेंगे लेकिन तुमसे तुम्हारी स्वतंत्रता छीन लेंगे। तुम्हें बहने देंगे लेकिन कब कहाँ कितना बहोगी वह हम निश्चित करेंगे। न ही तुम्हें मरने देंगे और न खुद की तरह से जीने देंगे।
खलघाट में नर्मदा नदी मनुष्यों की इसी सोच के साथ अब एक विशाल वितान लेकर भी बेबस है। यहाँ सुबह का सूरज अपनी लालिमा फैलाते हुए अपनी कालिमा सौंपते विदा लेता है। नदी के फैलाव पर पंछी चहकते हैं शायद नदी अभी अपने दुखों को शब्द देना नहीं सीख पाई है या शायद स्वतंत्र उड़ान भरने वाले ये पखेरू अभी बंधन के दुखों की मूक भाषा को समझ पाने में असमर्थ हैं। वे नदी के तल से उठती ठंडी हवा में किलोल करते हुए अपने पंखों से उसे स्पर्श करते हैं उसमें से अपने लिये भोजन जुटाते हैं लेकिन उसके ह्रदय में छुपे हुए दुखों को न देख पाते हैं न सहला पाते हैं।
नदी के विशाल फैलाव पर डोंगी लेकर अपने भोजन का प्रबंध करते मछुआरे हाथ घुमा कर दूर तक जाल फैलाते हैं उसमें ढेर सारी मछलियाँ पकड़ते हैं लेकिन अंतस के उस तल तक नहीं पहुंच पाते जहाँ नदी ने अपने दुखो को सहेज रखा है। वे गहरे जाकर भी दुखों की थाह नहीं पाते। पाएंगे भी कैसे वे तो खुद जीवन के सबसे बड़े दुख भूख से लड़ने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
नदी के भी कोई एक दो दुख हों तो कोई पूछे जाने समझे सहलाए उसके दुख तो असीम हैं। गंदगी समाने का दुख सीने में कांक्रीट भर कर पुल बनने के बावजूद दो किनारों के बीच फासले बढ़ने का दुख, इठलाती बलखाती कूदती फांदती अल्हड़ता को सायास गंभीरता में बदलने का दुख, भोले मासूम तल को गहन गंभीर बना देने का दुख, अपने विस्तार को जंगलों खेतों तक फैलाने की स्वतंत्रता को पत्थरों की दीवारों से बांधे जाने का दुख लेकिन फिर भी नदी का काम है बहते रहना और वह बह रही है।
बहते बहते वह जीवन के अंतिम सत्य के दर्शन करवाने के लिये तत्पर होती है और शक्ति विहीन बेजान इंसानों को अपने किनारे से अंतिम यात्रा के प्रस्थान हेतु स्थान देकर भी शांत सौम्य बनी रहती है।
यह सौम्यता यह गर्व विहीन विनम्रता नदी को नदी बनाती है। खुद पर किये अपराधों के बावजूद वह बेजान शरीर को अंतिम विश्राम स्थली प्रदान करती है वह जानती है हर शक्ति प्रदर्शन के बावजूद इंसान एक दिन परम लीन हो जाता है और वह भी एक दिन सागर में विलीन हो जाएगी।
कविता वर्मा
बहुत सुंदर लेख। बाकी नदियों से ही हमारी सभ्यता और संस्कृति की पहचान जुड़ी है। ये है तो जल है जल है तो कल है तभी तो हम है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteकरवाचौथ की बधाई हो।
बहुत सुन्दर आलेख। बधाई।
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